अग्निपुराण अध्याय १४६

अग्निपुराण अध्याय १४६         

अग्निपुराण अध्याय १४६ में त्रिखण्डी – मन्त्र का वर्णन, पीठस्थान पर पूजनीय शक्तियों तथा आठ अष्टक देवियों का कथन का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १४६

अग्निपुराणम् षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 146            

अग्निपुराण एक सौ छियालीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १४६   

अग्निपुराणम् अध्यायः १४६ – अष्टाष्टकदेव्यः

अथ षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

त्रिखण्डीं सम्प्रवक्षामि ब्रह्मविष्णुमहेश्वरीं ।

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द ! अब मैं ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर से सम्बन्ध रखनेवाली त्रिखण्डी का वर्णन करूँगा ।

ओं नमो भगवते रुद्राय नमः । नमश्चामुण्डे नमश्चाकाशमातॄणां सर्वकामार्थसाधनीनामजरामरीणां सर्वत्राप्रतिहतगतीनां स्वरूपरूपपरिवर्तिनीनां सर्वसत्त्ववशीकरणोत्सादनीन्मूलनसमस्तकर्मप्रवृत्तानां सर्वमातृगुह्यं हृदयं परमसिद्धं परकर्मच्छेदनं परमसिद्धिकरम्मातॄणां वचनं शुभं ॥

ब्रह्मखण्डपदे रुद्रैरेकविंशाधिकं शतं ॥१॥

ॐ नमो भगवते रुद्राय नमः । नमश्चामुण्डे नमश्चाकाशमातॄणां सर्वकामार्थसाधनीनाम- जरामरीणां सर्वत्राप्रतिहतगतीनां स्वरूपपरिवर्तिनीनां सर्वसत्त्ववशीकरणोत्सादनोन्मूलनसमस्तकर्म- प्रवृत्तानां सर्वमातृगुह्यं हृदयं परमसिद्धं परकर्मच्छेदनं परमसिद्धिकरं मातृणां वचनं शुभम्।' इस ब्रह्मखण्डपद में रुद्रमन्त्र सम्बन्धी एक सौ इक्कीस अक्षर हैं ॥ १ ॥

तद्यथा, ओं नमश्चामुण्डे ब्रह्माणि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमःचामुण्डे माहेश्वरि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमश्चामुण्डे कौमारि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमश्चामुण्डे वैष्णवि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमश्चामुण्डे वाराहि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमश्चामुण्डे इन्द्राणि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमश्चामुण्डे चण्डि अगोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ओं नमश्चामुण्डे ईशानि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा ॥

यथाक्षरपदानां हि विष्णुखण्डन्द्वितीयकं ॥२॥

(अब विष्णुखण्डपद बताया जाता है) -'ॐ नमश्चामुण्डे ब्रह्माणि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे माहेश्वरि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे कौमारि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे वैष्णवि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे वाराहि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे इन्द्राणि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे चण्डि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा । ॐ नमश्चामुण्डे ईशानि अघोरे अमोघे वरदे विच्चे स्वाहा।' यह यथोचित अक्षरवाले पदों का दूसरा मन्त्रखण्ड है, जो 'विष्णुखण्डपद' कहा गया है ॥ २ ॥

ओं नमश्चामुण्डे ऊर्ध्वकेशि ज्वलितशिखरे विद्युज्जिह्वे तारकाक्षि पिण्गलभ्रुवे विकृतदंष्ट्रे क्रुद्धे ओं मांसशोणितसुरासवप्रिये हस २ ओं नृत्य २ ओं विजृम्भय २ ओं मायत्रैलोक्यरूपसहस्रपरिवर्तिनीनां ओं बन्ध २ ओं कुट्ट २ चिरि २ हिरि २ भिरि २ त्रासनि २ भ्रामणि २ ओं द्राविणि २ क्षोभणि २॥

एकत्रिंशत्पदं शम्भोः शतमन्त्रैकसप्ततिः ॥३॥

(अब महेश्वरखण्डपद बताया जाता है-) 'ॐ नमश्चामुण्डे ऊर्ध्वकेशि ज्वलितशिखरे विद्युज्जिह्वे तारकाक्षि पिङ्गलभ्रुवे विकृतदंष्ट्रे क्रुद्धे, ॐ मांसशोणितसुरासवप्रिये हस हस ॐ नृत्य नृत्य ॐ विजृम्भय विजृम्भय ॐ मायान्त्रैलोक्यरूपसहस्त्रपरिवर्तिनीनामों बन्ध बन्ध, ॐ कुट्ट कुट्ट चिरि चिरि हिरि हिरि भिरि भिरि त्रासनि त्रासनि भ्रामणि भ्रामणि, ॐ द्रावणि द्रावणि क्षोभणि क्षोभणि मारणि मारणि संजीवनि संजीवनि हेरि हेरि गेरि गेरि घेरि घेरि, ॐ सुरि सुरि ॐ नमो मातृगणाय नमो नमो विच्चे' ॥ ३ ॥

हे घौं पञ्चप्रणवाद्यन्तां त्रिखण्डीञ्च जपेद्यजेत् ।

हे घौं श्रीकुब्जिकाहृदयं पदसन्धौ तु योजयेत् ॥४॥

अकुन्तादित्रिमध्यस्थं कुलादेश्च त्रिमध्यगं ।

मध्यमादि त्रिमध्यस्थं पिण्डं पादे त्रिमध्यगं ॥५॥

त्रयार्धमात्रासंयुक्तं प्रणवाद्यं शिखाशिवां ।

ओं क्ष्रौं शिखाभैरवाय नमः ॥६॥

यह माहेश्वरखण्ड एकतीस पदों का है। इसमें एक सौ एकहत्तर अक्षर हैं। इन तीनों खण्डों को 'त्रिखण्डी' कहते हैं। इस त्रिखण्डी – मन्त्र के आदि और अन्त में 'हें घों' तथा पाँव प्रणव जोड़कर उसका जप एवं पूजन करना चाहिये। 'हें घों श्रीकुब्जिकायै नमः।' - इस मन्त्र को त्रिखण्डी के पदों की संधियों में जोड़ना चाहिये। अकुलादि त्रिमध्यग, कुलादि त्रिमध्यग, मध्यमादि त्रिमध्यग तथा पाद- त्रिमध्यग ये चार प्रकार के मन्त्र- पिण्ड हैं। साढ़े तीन मात्राओं से युक्त प्रणव को आदि में लगाकर इनका जप अथवा इनके द्वारा यजन करना चाहिये। तदनन्तर भैरव के शिखा – मन्त्र का जप एवं पूजन करे-ॐ क्षौं शिखाभैरवाय नमः ॥ ४-६ ॥

स्खीं स्खौं स्खें सवीजत्र्यक्षरः।

ह्रां ह्रीं ह्रैं निर्वीजन्त्र्यर्णं द्वात्रिंशद्वर्णकम्परं ॥७॥

क्षादयश्च ककारान्ता अकुला च कुलक्रमात् ।

शशिनी भानुनी चैव पावनी शिव इत्यतः ॥८॥

गान्धरी णश्च पिण्डाक्षी चपला गजजिह्विका ।

म मृषा भयसारा स्यान्मध्यमा फोऽजराय च ॥९॥

कुमारो कालरात्री न सङ्कटा द ध कालिका ।

फ शिवा भवघोरा ण ट वीभत्सा त विद्युता ॥१०॥

ठ विश्वम्भरा शंशिन्या ढ ज्वालामालया तथा ।

कराली दुर्जया रङ्गी वामा ज्येष्ठा च रौद्र्यपि ॥११॥

ख काली क कुलालम्वी अनुलोमा द पिण्डिनी ।

आ वेदिनी इ रूपी वै शान्तिर्मूर्तिः कलाकुला ॥१२॥

ऋ खड्गिनी उ बलिता ळ कुला ॡ तथा यदि ।

सुभगा वेदनादिन्या कराली अं च मध्यमा ॥१३॥

अः अपेतरया पीठे पूज्याश्च कक्तयः क्रमात् ।

'स्खां स्खीं स्खें' ये तीन सबीज त्र्यक्षर हैं। 'ह्रां ह्रीं ह्रें'- ये निर्बीज त्र्यक्षर हैं। विलोम- क्रम से 'क्ष' से लेकर '' तक के बत्तीस अक्षरों की वर्णमाला 'अकुला' कही गयी है। अनुलोम- क्रम से गणना होने पर वह 'सकुला' कही जाती है। शशिनी, भानुनी, पावनी, शिव, गन्धारी, '' पिण्डाक्षी, चपला, गजजिह्निका, '' मृषा, भयसारा, मध्यमा, '' अजरा, '' कुमारी, '' कालरात्री, '' संकटा, '' कालिका, '' शिवा, '' भवघोरा, '' बीभत्सा, '' विद्युता, '' विश्वम्भरा और शंसिनी अथवा '' विश्वम्भरा, '' शंसिनी, '' ज्वालामालिनी, कराली, दुर्जया, रङ्गी, वामा, ज्येष्ठा तथा रौद्री '' काली, '' कुलालम्बी, अनुलोमा, '' पिण्डिनी, '' वेदिनी, '' रूपी, 'वै' शान्तिमूर्ति एवं कलाकुला, '' खङ्गिनी, '' वलिता, 'लू' कुला, 'लू' सुभगा, वेदनादिनी और कराली, 'अं' मध्यमा तथा '' अपेतरया-इन शक्तियों का योगपीठ पर क्रमशः पूजन करना चाहिये ॥ ७- १३अ ॥

स्खां स्खीं स्खौं महाभैरवाय नमः ।

अक्षोद्या ह्यृक्षकर्णी च राक्षसी क्षपणक्षया ॥१४॥

पिङ्गाक्षी चाक्षया क्षेमा ब्रह्माण्यष्टकसंस्थिताः ।

इला लीलावती नीला लङ्गा लङ्केश्वरी तथा ॥१५॥

लालसा विमला माला माहेश्वर्य.अष्टके स्थिताः ।

हुताशना विशालाक्षी ह्रूङ्कारी वडवामुखी ॥१६॥

हाहारवा तथा क्रूरा क्रोधा बाला खरानना ।

कौमार्या देहसम्भूताः पूजिताः सर्वसिद्धिदाः ॥१७॥

स्सर्वज्ञा तरला तारा ऋग्वेदा च हयानना ।

सारासारस्वयङ्ग्राहा शाश्वती वैष्णवीकुले ॥१८॥

''स्खां स्खीं स्खौं महाभैरवाय नमः ।' यह महाभैरव के पूजन का मन्त्र है। (ब्रह्माणी आदि आठ शक्तियों के साथ पृथक् आठ-आठ शक्तियाँ और हैं, जिन्हें 'अष्टक' कहा गया है। उनका क्रमशः वर्णन किया जाता है।) अक्षोद्या, ऋक्षकर्णी, राक्षसी, क्षपणा, क्षया, पिङ्गाक्षी, अक्षया और क्षेमा- ये ब्रह्माणी के अष्टक दल में स्थित होती हैं। इला, लीलावती, नीला, लङ्का, लङ्केश्वरी, लालसा, विमला और माला- ये माहेश्वरी- अष्टक में स्थित हैं। हुताशना, विशालाक्षी, हूंकारी, वडवामुखी, हाहारवा, क्रूरा, क्रोधा तथा खरानना बाला - ये आठ कौमारी के शरीर से प्रकट हुई हैं। इनका पूजन करने पर ये सम्पूर्ण सिद्धियों को देनवाली होती हैं। सर्वज्ञा, तरला, तारा, ऋग्वेदा, हयानना, सारासारा, स्वयंग्राहा तथा शाश्वती- ये आठ शक्तियाँ वैष्णवी के कुल में प्रकट हुई हैं ॥ १४-१८ ॥

तालुजिह्वा च रक्ताक्षी विद्युज्जिह्वा करङ्किणी ।

मेघनादा प्रचण्डोग्रा कालकर्णी कलिप्रिया ॥१९॥

वाराहीकुलसम्भूताः पूजनीया जयार्थिना ।

चम्पा चम्पावती चैव प्रचम्पा ज्वलितानना ॥२०॥

पिशाची पिचुवक्त्रा च लोलुपा ऐन्द्रीसम्भवाः ।

पावनी याचनी चैव वामनी दमनी तथा ॥२१॥

बिन्दुवेला वृहत्कुक्षी विद्युता विश्वरूपिणी ।

चामुण्डाकुलसम्भूता मण्डले पूजिता जये ॥२२॥

तालुजिह्वा, रक्ताक्षी, विद्युज्जिह्वा, करङ्किणी, मेघनादा, प्रचण्डोग्रा, कालकर्णी तथा कलिप्रिया- ये वाराही के कुल में उत्पन्न हुई हैं। विजय की इच्छावाले पुरुष को इनकी पूजा करनी चाहिये। चम्पा, चम्पावती, प्रचम्पा, ज्वलितानना, पिशाची, पिचुवक्त्रा तथा लोलुपा ये इन्द्राणी शक्ति के कुल में उत्पन्न हुई हैं। पावनी, याचनी, वामनी, दमनी, विन्दुवेला, बृहत्कुक्षी, विद्युता तथा विश्वरूपिणी - ये चामुण्डा के कुल में प्रकट हुई हैं और मण्डल में पूजित होने पर विजयदायिनी होती हैं ॥ १९-२२ ॥

यमजिह्वा जयन्ती च दुर्जया च यमान्तिका ।

विडाली रेवती चैव जया च विजया तथा ॥२३॥

महालक्ष्मीकुले जाता अष्टाष्टकमुदाहृतम् ॥२४॥

यमजिह्वा, जयन्ती, दुर्जया, यमान्तिका, विडाली, रेवती, जया और विजया -ये महालक्ष्मी के कुल में उत्पन्न हुई हैं। इस प्रकार आठ अष्टकों का वर्णन किया गया ॥ २७-२८ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे अष्टाष्टकादिर्नाम षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'आठ अष्टक देवियों का वर्णन' नामक एक सौ छियालीसवां अध्याय पूरा हुआ॥१४६॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 147 

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