लक्ष्मीनारायण वज्रपंजर कवच
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ३८ में लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत श्रीलक्ष्मीनारायण वज्रपंजर कवच
के विषय में बतलाया गया है।
श्रीलक्ष्मीनारायण वज्रपञ्जर कवच
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् अष्टत्रिंश
पटल:
Shri Devi Rahasya Patal 38
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य
अड़तीसवाँ पटल
देवीरहस्य पटल ३८ लक्ष्मीनारायण वज्रपंजर
कवच
अथाष्टत्रिंशः पटलः
श्रीलक्ष्मीनारायणकवचम्
श्रीभैरव उवाच ।
अधुना देवि वक्ष्यामि
लक्ष्मीनारायणस्य ते ।
कवचं मन्त्रगर्भं च
वज्रपञ्जरकाख्यया ॥ १॥
श्रीवज्रपञ्जरं नाम कवचं
परमाद्भुतम् ।
रहस्यं सर्वदेवानां साधकानां
विशेषतः ॥ २॥
श्रीभैरव ने कहा- हे देवि !
लक्ष्मीनारायण के मन्त्रगर्भ वज्रपञ्जर नामक कवच का वर्णन तुझसे करता हूँ। यह
वज्रपञ्जर नामक कवच परम अद्भुत है। यह समस्त देवों के लिये रहस्यपूर्ण है साधकों
के लिये विशेष महत्त्वपूर्ण है।
यं धृत्वा भगवान् देवः प्रसीदति परः
पुमान् ।
यस्य धारणमात्रेण ब्रह्मा
लोकपितामहः ॥ ३॥
ईश्वरोऽहं शिवो भीमो वासवोऽपि
दिवस्पतिः ।
सूर्यस्तेजोनिधिर्देवि
चन्द्रर्मास्तारकेश्वरः ॥ ४॥
इसको धारण करके भगवान् देव परम
पुमान् होकर प्रसन्न रहते हैं; जिसको धारण
करके ब्रह्मा लोकपितामह हुये हैं। इसी को धारण करके मैं शिव भीमेश्वर हूँ। इसी को
धारण करके इन्द्र स्वर्ग के स्वामी है। इसी को धारण करके सूर्य तेजोनिधि हैं।
चन्द्रमा तारकवृन्द के स्वामी हैं।
वायुश्च बलवांल्लोके वरुणो
यादसाम्पतिः ।
कुबेरोऽपि धनाध्यक्षो धर्मराजो यमः
स्मृतः ॥ ५॥
यं धृत्वा सहसा विष्णुः संहरिष्यति
दानवान् ।
जघान रावणादींश्च किं वक्ष्येऽहमतः
परम् ॥ ६॥
वायु संसार में बलवान है। वरुण
सागरों के स्वामी हैं। कुवेर धनाध्यक्ष हैं। यम धर्मराज हैं। इसे धारण करके विष्णु
दानवों का शीघ्र संहार करते हैं। रावण आदि दैत्यों का संहार किया है। इससे अधिक
माहात्म्य और क्या हो सकता है।।१-६।।
लक्ष्मीनारायण वज्रपंजर कवच विनियोगः
कवचस्यास्य सुभगे कथितोऽयं मुनिः
शिवः ।
त्रिष्टुप् छन्दो देवता च
लक्ष्मीनारायणो मतः ॥ ७॥
रमा बीजं परा शक्तिस्तारं
कीलकमीश्वरि ।
भोगापवर्गसिद्ध्यर्थं विनियोग इति
स्मृतः ॥ ८॥
ॐ अस्य
श्रीलक्ष्मीनारायणकवचस्य शिवः ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीलक्ष्मीनारायण देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ
कीलकं, भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः ।
कवच - विनियोग —
हे सुभगे ! इस वज्रपञ्जर नामककवच के ऋषि शिव कहे गये हैं। इसका छन्द
त्रिष्टुप् एवं देवता लक्ष्मीनारायण कहे गये हैं। रमा = श्रीं बीज, परा = ह्रीं शक्ति एवं तार = ॐ कीलक कहा गया हैं। हे ईश्वरि भोग अपवर्ग की
सिद्धि के लिये इसका विनियोग किया जाता है।। ७-८ ।।
अथ श्रीलक्ष्मीनारायण
ध्यानम् ।
पूर्णेन्दुवदनं पीतवसनं कमलासनम् ।
लक्ष्म्या श्रितं चतुर्बाहुं
लक्ष्मीनारायणं भजे ॥ ९॥
पूर्णिमा के चाँद जैसा मुखमण्डल है।
वस्त्र पीले रंग के हैं। कमल के आसन पर बैठे हैं। लक्ष्मी के आश्रित चतुर्भुज
लक्ष्मीनारायण का ध्यान करता हूँ ।। ९ ।।
श्रीलक्ष्मीनारायणवज्रपञ्जरकवचम्
अथ कवचम् ।
ॐ वासुदेवोऽवतु मे मस्तकं
सशिरोरुहम् ।
ह्रीं ललाटं सदा पातु
लक्ष्मीविष्णुः समन्ततः ॥ १०॥
ह्सौः नेत्रेऽवताल्लक्ष्मीगोविन्दो
जगतां पतिः ।
ह्रीं नासां सर्वदा पातु
लक्ष्मीदामोदरः प्रभुः ॥ ११॥
श्रीं मुखं सततं पातु देवो
लक्ष्मीत्रिविक्रमः ।
लक्ष्मी कण्ठं सदा पातु देवो
लक्ष्मीजनार्दनः ॥ १२॥
नारायणाय बाहू मे पातु
लक्ष्मीगदाग्रजः ।
नमः पार्श्वौ सदा पातु
लक्ष्मीनन्दैकनन्दनः ॥ १३॥
ॐ वासुदेव बालों के सहित मेरे मस्तक
कीं रक्षा करें। ह्रीं लक्ष्मीसहित विष्णु मेरे ललाट की रक्षा करें। ह्सौः लक्ष्मी
गोविन्द जगत्पति मेरे नेत्रों की रक्षा करें। ह्रीं लक्ष्मी दामोदर प्रभु मेरी
नासिका की रक्षा सदैव करें। लक्ष्मी जनार्दन सर्वदा मेरे कण्ठ की रक्षा करें।
नारायणाय लक्ष्मी कृष्ण मेरे बाहुओं की रक्षा करें। नमः लक्ष्मी नन्दनन्दन मेरे
पार्श्वों की रक्षा करें ।। १०-१३।।
अं आं इं ईं पातु वक्षो ॐ
लक्ष्मीत्रिपुरेश्वरः ।
उं ऊं ऋं ॠं पातु कुक्षिं ह्रीं
लक्ष्मीगरुडध्वजः ॥ १४॥
लृं लॄं एं ऐं पातु पृष्ठं ह्सौः
लक्ष्मीनृसिंहकः ।
ओं औं अं अः पातु नाभिं ह्रीं
लक्ष्मीविष्टरश्रवः ॥ १५॥
कं खं गं घं गुदं पातु श्रीं
लक्ष्मीकैटभान्तकः ।
चं छं जं झं पातु शिश्र्नं लक्ष्मी
लक्ष्मीश्वरः प्रभुः ॥ १६॥
टं ठं डं ढं कटिं पातु नारायणाय
नायकः ।
तं थं दं धं पातु चोरू नमो
लक्ष्मीजगत्पतिः ॥ १७॥
अं आं इं ईंॐ लक्ष्मी त्रिपुरेश्वर
वक्ष की रक्षा करें। उं ऊं ऋं ॠं ह्रीं लक्ष्मी गरुड़ध्वज मेरी कुक्षि की रक्षा
करें। लृं लॄं एं ऐं ह्सौः लक्ष्मी नृसिंह मेरी पीठ की रक्षा करें। ओं औं अं अः
ह्रीं लक्ष्मी विष्टरश्रव मेरी नाभि की रक्षा करें। कं खं गं घं श्री् लक्ष्मी
कैटभान्तक मेरे गुदा की रक्षा करें। चं छं जं झं लक्ष्मी लक्ष्मीश्वर मेरे शिश्न
की रक्षा करें। टं ठं डं ढं नारायणाय नायक मेरे कमर की रक्षा करें। तं थं दं धं
लक्ष्मी जगत्पति नमः मेरे उरुओं की रक्षा करें।। १४-१७।।
पं फं बं भं पातु जानू ॐ ह्रीं
लक्ष्मीचतुर्भुजः ।
यं रं लं वं पातु जङ्घे ह्सौः
लक्ष्मीगदाधरः ॥ १८॥
शं षं सं हं पातु गुल्फौ ह्रीं
श्रीं लक्ष्मीरथाङ्गभृत् ।
ळं क्षः पादौ सदा पातु मूलं
लक्ष्मीसहस्रपात् ॥ १९॥
ङं ञं णं नं मं मे पातु लक्ष्मीशः
सकलं वपुः ।
पं फं बं भं ॐ ह्रीं लक्ष्मी
चतुर्भज मेरे जानुओं की रक्षा करें। यं रं लं वं ह्सौः लक्ष्मी गदाधर मेरे जङ्घों
की रक्षा करें। शं षं सं हं ह्रीं श्रीं लक्ष्मी रथाङ्गभृत् मेरे गुल्फों की रक्षा
करें। ळं क्षं ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय नमः लक्ष्मी सहस्रपात्
मेरे पैरों की रक्षा करें। डं ञं णं नं मं लक्ष्मी मेरे पूरे शरीर की रक्षा करें
।। १८-१९ ।।
इन्द्रो मां पूर्वतः पातु
वह्निर्वह्नौ सदावतु ॥ २०॥
यमो मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां
निर्ऋतिश्च माम् ।
वरुणः पश्चिमेऽव्यान्मां
वायव्येऽवतु मां मरुत् ॥ २१॥
उत्तरे धनदः
पायादैशान्यामीश्वरोऽवतु ।
वज्रशक्तिदण्डखड्ग
पाशयष्टिध्वजाङ्किताः ॥ २२॥
सशूलाः सर्वदा पान्तु दिगीशाः
परमार्थदाः ।
अनन्तः पात्वधो नित्यमूर्ध्वे
ब्रह्मावताच्च माम् ॥ २३॥
दशदिक्षु सदा पातु लक्ष्मीनारायणः
प्रभुः ।
पूर्व में मेरी रक्षा इन्द्र करें।
आग्नेय दिशा में अग्नि सदा रक्षा करें। दक्षिण में मेरी रक्षा यम करें। निर्ऋति
नैर्ऋत्य दिशा में रक्षा करें। पश्चिम में मेरी रक्षा वरुण करें । वायव्य में
मरुत् रक्षा करें। उत्तर में कुवेर रक्षा करें। ईशान दिशा में ईश्वर रक्षा करें। वज्र,
शक्ति, दण्ड, खड्ग,
पाश, यष्टि, ध्वज और
त्रिशूल से दिक्पाल मेरी रक्षा सर्वदा करें। अनन्त मेरी रक्षा अधोदिशा में करें।
ऊर्ध्वदिशा में मेरी रक्षा ब्रह्मा करें। लक्ष्मी- नारायण प्रभु मेरी रक्षा दशो
दिशाओं में करें।। २०-२३ ।।
प्रभाते पातु मां विष्णुर्मध्याह्ने
वासुदेवकः ॥ २४॥
दामोदरोऽवतात् सायं निशादौ नरसिंहकः
।
सङ्कर्षणोऽर्धरात्रेऽव्यात्
प्रभातेऽव्यात् त्रिविक्रमः ॥ २५॥
अनिरुद्धः सर्वकालं विश्वक्सेनश्च
सर्वतः ।
रणे राजकुले द्युते विवादे
शत्रुसङ्कटे ।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं मूलं
लक्ष्मीनारायणोऽवतु ॥ २६॥
प्रभात में मेरी रक्षा विष्णु और
मध्याह्न में मेरी रक्षा वासुदेव करें। सायंकाल में मेरी रक्षा दामोदर करें।
रात्रि के प्रारम्भ में नृसिंह रक्षा करें। आधी रात में संकर्षण और प्रभात में
त्रिविक्रम रक्षा करें। सभी समय मेरी रक्षा अनिरुद्ध करें। विश्वक्सेन सभी स्थानों
में रक्षा करें। युद्ध में, राजदरबार में,
जुआ में, विवाद में, शत्रुसंकट
में मेरी रक्षा ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय नमः करें ।। २४-२६ ।।
ॐॐॐरणराजचौररिपुतः पायाच्च मां
केशवः
ह्रींह्रींह्रींहह्हाह्सौः ह्सह्सौः
वह्नेर्वतान्माधवः ।
ह्रींह्रींह्रींजलपर्वताग्निभयतः
पायादनन्तो विभुः
श्रींश्रींश्रींशशशाललं प्रतिदिनं
लक्ष्मीधवः पातु माम् ॥ २७॥
ॐ ॐ ॐ युद्ध,
राजदरबार, चोर, शत्रु से
मेरी रक्षा केशव करें। ह्रीं ह्रीं ह्रीं हहहा ह्सौः ह्सह्सौ माधव मेरी रक्षा
अग्नि से करें। ह्रीं ह्रीं ह्रीं जल, पर्वताग्र और भय से
मेरी रक्षा विभु अनन्त करें। श्रीं श्रीं श्रीं शशशा ललं प्रतिदिन मेरी रक्षा
लक्ष्मी माधव करें।
इतीदं कवचं दिव्यं वज्रपञ्जरकाभिधम्
।
लक्ष्मीनारायणस्येष्टं
चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ २८॥
यह दिव्य वज्रपञ्जर नामक कवच पूरा
हुआ। यह लक्ष्मीनारायण को अतिशय प्रिय है एवं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षरूप फल को देने वाला है ।। २७-२८
।।
लक्ष्मीनारायण वज्रपञ्जर कवच फलश्रुतिः
सर्वसौभाग्यनिलयं सर्वसारस्वतप्रदम्
।
लक्ष्मीसंवननं तत्वं परमार्थरसायनम्
॥ २९॥
यह कवच सभी सौभाग्य का आलय है। सभी
सारस्वत विद्या का दाता है। लक्ष्मी संवहन है। परमार्थ का रसायन तत्त्व है।
मन्त्रगर्भं जगत्सारं रहस्यं
त्रिदिवौकसाम् ।
दशवारं पठेद्रात्रौ रतान्ते
वैष्णवोत्तमः ॥ ३०॥
स्वप्ने वरप्रदं
पश्येल्लक्ष्मीनारायणं सुधीः ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं कवचं
मन्मुखोदितम् ॥ ३१॥
स याति परमं धाम वैष्णवं वैष्णवोत्तमः
।
यह मन्त्रगर्भ कवच जगत् का सार है।
देवताओं का रहस्य है। वैष्णवोत्तम इसका दश पाठ यदि रात में मैथुन के बाद करे तो
स्वप्न में वरप्रद लक्ष्मीनारायण का दर्शन प्राप्त होता है। मेरे द्वारा कथित इस कवच
का पाठ जो तीनों सन्ध्याओं में करता है, वह
विष्णु के उत्तम धाम में जाता है।
महाचीनपदस्थोऽपि यः पठेदात्मचिन्तकः
॥ ३२॥
आनन्दपूरितस्तूर्णं लभेद् मोक्षं स
साधकः ।
महाचीनाचारी आत्मचिन्तक यदि इसका
पाठ करता है तो वह भी आनन्द से परिपूर्ण मोक्ष को प्राप्त करता हैं ।। २९-३२।।
गन्धाष्टकेन विलिखेद्रवौ भूर्जे
जपन्मनुम् ॥ ३३॥
पीतसूत्रेण संवेष्ट्य सौवर्णेनाथ
वेष्टयेत् ।
धारयेद्गुटिकां मूर्ध्नि
लक्ष्मीनारायणं स्मरन् ॥ ३४॥
रणे रिपुन् विजित्याशु कल्याणी
गृहमाविशेत् ।
भोजपत्र पर गन्धाष्टक द्रव से लिखकर
मन्त्र जप करके पीले धागे से संवेष्टित करके या सोने से मढ़वाकर लक्ष्मीनारायण का
स्मरण करके मूर्धा में धारण करे तो युद्ध में शत्रु को जीतकर सकुशल घर में लौट आता
है।
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा
च याङ्गना ॥ ३५॥
सा बध्नीयात् कण्ठदेशे लभेत्
पुत्रांश्चिरायुषः ।
वन्ध्या मृतवत्सा या काकवन्ध्या
स्त्री इसे अपने कण्ठ में धारण करती है तो उसे चिरायु पुत्र प्राप्त होते हैं।
गुरुपदेशतो धृत्वा गुरुं ध्यात्वा
मनुं जपन् ॥ ३६॥
वर्णलक्षपुरश्चर्या फलमाप्नोति
साधकः ।
गुरु के उपदेश से धारण करके गुरु का
ध्यान करके जो मन्त्र जपता है, वह वर्णलक्ष पुरश्चरण
का फल प्राप्त करता है।। ३३-३६।।
बहुनोक्तेन किं देवि कवचस्यास्य
पार्वति ॥ ३७॥
विनानेन न सिद्धिः
स्यान्मन्त्रस्यास्य महेश्वरि ।
सर्वागमरहस्याढ्यं तत्वात् तत्वं
परात् परम् ॥ ३८॥
बहुत कहने से क्या लाभ?
हे पार्वति ! विना कवच के इस मन्त्र की सिद्धि नहीं होती है। यह सभी
आगम रहस्यों से पूर्ण है। यह श्रेष्ठ से श्रेष्ठ तत्त्वों का भी तत्त्व है।
अभक्ताय न दातव्यं कुचैलाय
दुरात्मने ।
दीक्षिताय कुलीनाय स्वशिष्याय
महात्मने ॥ ३९॥
महाचीनपदस्थाय दातव्यं कवचोत्तमम् ।
गुह्यं गोप्यं महादेवि
लक्ष्मीनारायणप्रियम् ।
वज्रपञ्जरकं वर्म गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥ ४०॥
यह अभक्तों को देय नहीं है। कुचैल,
दुष्टों को भी देय नहीं है। दीक्षित कुलीन महात्मा महाचीनाचारी अपने
शिष्य को यह उत्तम कवच देते हैं। यह कवच गुह्य, गोप्य,
लक्ष्मीनारायण को प्रिय हैं। इस वज्रपञ्जर कवच को अपनी योनि के समान
गुप्त रखना चाहिये ।। ३७-४०।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये लक्ष्मीनारायणकवच-निरूपणात्मकमष्टत्रिंशः पटलः ॥ ३८ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में लक्ष्मीनारायणकवच निरूपण नामक अष्टत्रिंश पटल
पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 39
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