मृत्युञ्जयस्तोत्र

मृत्युञ्जयस्तोत्र

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ४५ में मृत्युञ्जयपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत् मृत्युञ्जयस्तोत्र के विषय में बतलाया गया है।

मृत्युञ्जयस्तोत्र

मृत्युञ्जयस्तोत्रम्

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् पञ्चचत्वारिंशः पटलः

Shri Devi Rahasya Patal 45     

देवीरहस्य पटल ४५ मृत्युञ्जय स्तोत्र

अथ पञ्चचत्वारिंशः पटलः

मृत्युञ्जय स्तोत्रम्

श्रीभैरव उवाच

देवि वक्ष्यामि ते स्तोत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।

मूलमन्त्रक सर्वस्वं रक्षणीयं प्रयत्नतः ॥ १ ॥

दीक्षाकालं च पूजायां जपान्ते च पठेच्छिवे ।

विसर्जने तथाह्वाने स दीक्षाफलमप्नुयात् ॥ २ ॥

मृत्युञ्जय स्तोत्र और माहात्म्य- श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! अब मैं मूल मन्त्र के सर्वस्वभूत सर्वसिद्धिप्रदायक, यत्नपूर्वक रक्षणीय स्तोत्र का वर्णन करता हूँ। दीक्षाकाल में, पूजा में, जप के अन्त में, विजर्सन में, आवाहन में इसका पाठ करने से साधक को दीक्षा का फल प्राप्त होता है।। १-२ ।।

मृत्युञ्जय स्तोत्र विनियोगः

अस्य वै स्तोत्रराजस्य ऋषिभैरव ईश्वरि ।

गायत्र्यं छन्द इत्युक्तं महामृत्युञ्जयः शिवे ॥३॥

देवता प्रणवो बीजं शक्तिः शक्तिः स्मृता शिवे।

हृज्जं कीलकमित्युक्तं सूर्यो दिग्बन्धनं तथा ।

भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ४ ॥

विनियोग- हे ईश्वरि ! इस स्तोत्रराज के ऋषि भैरव एवं छन्द गायत्री कहे गये हैं। हे शिवे ! इसके देवता महामृत्युञ्जय हैं। बीज प्रणव (ॐ), शक्ति सः एवं जुं कीलक कहा गया है। सूर्य से इसका दिग्बन्धन किया जाता है। भोग एवं अपवर्ग भी सिद्धि के लिये पाठ में इसका विनियोग किया जाता है।। ३-४ ।।

मृत्युञ्जय ध्यानम्

चन्द्रार्काग्निविलोचनं स्मितमुखं पद्मद्वयान्तः स्थितं

मुद्रापाशसुधाक्षसूत्रविलसत्पाणिं हिमांशुप्रभम् ।

कोटीरेन्दुगलत्सुधाप्लुततनुं हारादिभूषोज्ज्वलं

कान्त्या विश्वविमोहनं पशुपतिं मृत्युञ्जयं भावये ॥५॥

पीयूषांशुसुधामणिः करतले पीयूषकुम्भं वहन्

पीयूषद्युतिसंपुटान्तरगतः पीयूषधाराधरः ।

मां पीयूषमयूखसुन्दरवपुः पीयूषलक्ष्मीसखः

पीयूषद्रववर्षणोऽप्यहरहः प्रीणातु मृत्युञ्जयः ॥ ६ ॥

देवं दिनेशाग्निशशाङ्कनेत्रं पीयूषपात्रं कलशं दधानम् ।

दोर्भ्यां सुधांशुद्युतिमिन्दुचूडं नमामि मृत्युञ्जयमादिदेवम् ॥७॥

ध्यान - विश्वमोहन पशुपति मृत्युञ्जय के चेहरे पर मुस्कान है। चन्द्र-सूर्य-अग्नि उनके तीन नेत्र हैं। दो हाथों में कमल और दूसरे हाथों में मुद्रा, पाश, सुधाकलश और अक्षसूत्र है। चन्द्रमा के समान उनकी प्रभा है। करोड़ चन्द्रों से गिरते हुए अमृत से उनका शरीर तर है। हार आदि भूषण उज्ज्वल हैं। मोहनी कान्ति है। अमृत प्रभायुक्त सुधामणि करतल में है। अमृत कलश लिये हुए हैं। पीयूष द्युति-सम्पुटित करतल में अमृत- धाराधारी हैं। पीयूषमयूख सुन्दर शरीर, पीयूषलक्ष्मीसखा निरन्तर पीयूषवर्षी मृत्युञ्जय मुझ पर प्रसन्न हों। देव के नेत्र सूर्य-चन्द्र-अग्नि हैं। हाथ में अमृतकलश है। भुजाओं पर स्थित चन्द्रचूड़ा से सुधाकिरणें छिटक रही हैं। इस प्रकार के आदिदेव मृत्युञ्जय को मैं प्रणाम करता हूँ ।।५-७।।

मृत्युञ्जय स्तोत्र

चन्द्रमण्डलमध्यस्थं रुद्रं बालेन्दुशेखरम् ।

भद्रासनं स्मरेद्रात्रौ मृत्युं प्राप्तोऽपि जीवति ॥ ८ ॥

चन्द्रमण्डलमध्यस्थं रुद्रं भालेऽतिविस्तृते ।

तत्रस्थं चिन्तयेत् साध्यं मृत्युं प्राप्तोऽपि जीवति ॥९॥

मात्राद्यं मातृकामौलिवेदकल्पतरोः फलम् ।

यो जपेत् स भवेद्विश्ववैभवास्पदमीश्वरि ॥१० ॥

हृज्जबीजं कुलाचारविचारकुशलः शिवः ।

यो जपेत् तस्य वक्त्राब्जे नरीनर्त्ति हि भारती ॥११॥

स्तोत्र - रात में चन्द्रमण्डल के मध्य में वालेन्दुशेखर रुद्र का भद्रासन में विराजमान रूप का ध्यान करने से मृतक भी जीवित हो उठता है। वेद कल्पवृक्ष का फल, मातृका मौलि आद्यबीज ॐ का जो जप करता है, वह विश्व के समस्त वैभव का अधिपति हो जाता है। कुलाचार विचारनिपुण जो साधक 'जुं' का जप करता है। उसके मुखकमल में सरस्वती नर्तनरत रहती हैं ।। ८-११।।

सविसर्ग शक्तिबीजं यो जपेत् साधकः शिव ।

स भवेदचिरादेव विश्वैश्वर्यस्य भाजनम् ॥१२॥

देवेशाकाशबीजं ते बिन्दुबिम्बेन्दुमण्डितम् ।

चिन्तयन् यो भवेच्चित्ते स शिवाद्वयतां लभेत् ॥ १३ ॥

सविसर्गं भृगुं भर्ग सर्गप्रलयकारणम् ।

निसर्गतो भजेद्योऽन्तर्लीयते स परे पदे ।। १४ ।।

जो साधक शक्तिबीज 'सः' का जप करता है, वह अल्पकाल में विश्व के समस्त ऐश्वर्य का स्वामी हो जाता है। जो साधक देवेश के 'हौं' बीज का जप करता है और हृदय में शिव का चिन्तन करता है, वह शिवस्वरूप हो जाता है। सृष्टि-प्रलयकारक भर्ग 'सः' का जो जप करता है, वह परम पद में लीन हो जाता है।। १२-१४ ।।

लक्ष्मीशब्दाक्षरं बिन्दुभूषणं यो जपेत् तव ।

करे लक्ष्मीर्मुखे वाणी तस्य शम्भो रणे जयः ॥ १५ ॥

पालयेति युगं देव यो जपेद्वीरसन्निधौ ।

स सार्वभौमसाम्राज्यं भजेदन्ते सलोकताम् ॥ १६ ॥

शरदं वरदां वीरसाधनीं सविसर्गकाम् ।

जपेद्यः शरदम्भोदधवलं तद्यशो भ्रमेत् ॥१७॥

आकाशबीजं साकाशं जपेद्यः कुशसंस्तरे ।

स कौलिकशिरोरत्नरञ्जिताङ्घ्रियुगो भवेत् ॥ १८ ॥

'सं' का जप जो साधक करता है, उसके हाथ में लक्ष्मी एवं मुख में सरस्वती का वास होता है, युद्ध में उसकी विजय होती है। जो वीर साधक देव की सन्निधि में 'पालय- पालय' का जप करता है, उसे सार्वभौम साम्राज्य प्राप्त होता है और अन्त में वह शिव- लोक प्राप्त करता है। वरदा वीरसाधनी 'सः' का जो जप करता है, उसकी कीर्ति शरत्कालीन श्वेत मेघ के समान भ्रमण करती है। कुशासन पर बैठकर जो 'हौं' का जप करता है, वह कौलिकों का शिरमौर होता है और सबका प्रणम्य हो जाता है ।। १५-१८ ।।

शङ्काबीजं सरेफं ते शम्भो पद्मासने जपेत् ।

कङ्कालमालाभरणो भविता भैरवोपमः ।। १९ ।।

हृज्जबीजं जगद्वीजं तेजोरूपं च यो जपेत् ।

तस्मै दास्यसि भो: शम्भो निजं धाम सनातनम् ॥ २० ॥

ॐ कार साकारं गिरिश तव मन्त्राञ्चलगतं

जपेद् यो हृत्पद्मे निरुपमपरानन्दमुदितः ।

स साम्राज्यं भूमौ भजति रजनीनायककला-

लसन्मौलिः प्रान्ते व्रजति शिवसायुज्यपदवीम् ॥ २१ ॥

कङ्कालमालाधारी पद्मासनस्थ शिव का ध्यान करते हुये जो 'सः' का जप करता है, वह भैरवतुल्य हो जाता है। ज्योतिर्मय जगद्वीज 'जुं' का जो जप करता है, उसे शिवजी अपने सनातन धाम में वास देते हैं। अपने हृदयकमल में निरुपम परानन्द में आनन्दित मन्त्राञ्चलगत 'हौं' का जप जो साधक करता है और चन्द्रशेखर का ध्यान करता है, वह पृथ्वी पर साम्राज्य प्राप्त करता है और अन्त में शिवसायुज्य प्राप्त करता है ।। १९-२१।।

बिन्दुभूषणरकोणरसारसारणस्फुरदजारणवृत्ते ।

भूगृहाढ्य इति चक्रमण्डले त्वां निषण्णमुषसि स्मराम्यहम् ॥ २२ ॥

नानाविधानार्घ्यविभूषणाढ्यं निःशेषपीयूषमयूखबिम्बे ।

निषण्णमीशानमशेषशेषवाणीतनुं मृत्युहरं नमामि ॥ २३ ॥

हे देवि! बिन्दु, त्रिकोण, षट्कोण, अष्टदल, तीन वृत्त, भूपुर से युक्त श्रीचक्र में उषाकाल में जो तुम्हारा ध्यान करता है, उसे मैं स्मरण करता हूँ। नानाविध विभूषणों से समन्वित, निःशेष पियूष मुखबिम्ब में अवस्थित ईशान के अशेष-शेष वाणी के शरीरधारी मृत्यु का हरण करने वाले मृत्युञ्जय को मैं प्रणाम करता हूँ ।। २२-२३ ।।

इति स्तोत्रं दिव्यं सकलमनुराजैकनिकषं

पठेद्यः पूजान्ते शिव शिवगृहे वार्चनविधौ ।

रणे जित्वा वैरीन् भजति नृपलक्ष्मीं स्वमहसा

भवेदन्ते वीरः सकलसुरसेव्यः शिवसमः ॥ २४ ॥

सभी मन्त्रराजों के कसौटी स्वरूप इस दिव्य स्तोत्र का पाठ जो पूजा के अन्त में शिवमन्दिर में अर्चनविधि से करता है, वह युद्ध में वैरियों को जीतकर राज्यलक्ष्मी से युक्त होता है। वह वीर साधक अन्त में सभी देवताओं के सेव्य शिवतुल्य होता है।

मृत्युञ्जयस्तोत्रम् फलश्रुतिः

इतीदं परमं स्तोत्रं महामृत्युञ्जयप्रियम् ।

पठेद्वा पाठयेन्नित्यं सर्वस्वं देवदुर्लभम् ॥ २५ ॥

अदेयं परमं तत्त्वं महापातकनाशनम् ।

महामन्त्रमयं दिव्यं साधनैर्धनसाधनम् ॥ २६ ॥

त्रैलोक्यसारभूतं च त्रैलोक्याभयदायकम् ।

पठेन्निशीथे मन्त्री तु सद्यः सिद्धिर्भवेत् कलौ ॥ २७॥

फलश्रुति - यह स्तोत्र महामृत्युञ्जय को परम प्रिय है जो इसका नित्य पाठ करता है या पाठ करवाता है, वह देवदुर्लभ सभी वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है। यह परम तत्त्व अदेय है। महापापों का विनाशक है। महा मन्त्रमय है, दिव्य है। धन प्राप्ति का साधन है। यह तीनों लोकों का सार है। तीनों लोकों में अभयदायक है। साधक यदि निशीथ में इसका पाठ करे तो कलियुग में उसे शीघ्र सिद्धि मिलती है।। २५-२७।।

चतुष्पथेऽर्धरात्रे तु ब्राह्मये वापि मुहूर्तके ।

पठित्वा कौलिको देवि भवेद् भैरवसन्निभः ॥ २८ ॥

इतीदं मम सर्वस्वं रहस्यं परमाद्भुतम् ।

यस्य कस्य न वक्तव्यमित्याज्ञा पारमेश्वरी ॥ २९ ॥

आधी रात में चौराहे पर या ब्राह्म मुहूर्त में जो कौलिक इसका पाठ करता है, वह भैरवतुल्य हो जाता है। यह परम अद्भुत रहस्य मेरा सर्वस्व है। हे परमेश्वरि! मेरा आदेश है कि इसे जिस किसी को नहीं बतलाना चाहिये ।। २२-२९ ।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये मृत्युञ्जयस्तोत्रनिरूपणं नाम पञ्चचत्वारिंशः पटलः ।। ४५ ।।

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में मृत्युञ्जयस्तोत्र निरूपणं नामक पञ्चचत्वारिंश पटल पूर्ण हुआ।

समाप्तमिदं मृत्युञ्जयपञ्चाङ्गम्

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 46

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