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अथ एकोपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
मन्वादयो
भुक्तिमुक्तिधर्मांश्चीर्त्वाप्नुवन्ति यान् ।
प्रोचे परशुरामाय वरुणोक्तन्तु
पुष्करः ॥१॥
अग्निदेव कहते हैं—
मनु आदि राजर्षि जिन धर्मो का अनुष्ठान करके भोग और मोक्ष प्राप्त
कर चुके हैं, उनका वरुण देवता ने पुष्कर को उपदेश किया था और
पुष्कर ने श्रीपरशुरामजी से उनका वर्णन किया था ॥ १ ॥
पुष्कर उवाच
वर्णाश्रमेतराणान्ते
धर्मान्वक्ष्यामि सर्वदान् ।
मन्वादिभिर्निगदितान्
वासुदेवादितुष्टिदान् ॥२॥
अहिंसा सत्यवचनन्दया भूतेष्वनुग्रहः
।
तीर्थानुसरणं दानं
ब्रह्मचर्यम्मत्सरः ॥३॥
देवद्विजातिशुश्रूषा गुरूणाञ्च
भृगूत्तम ।
श्रवणं सर्वधर्माणां पितॄणां पूजनं
तथा ॥४॥
भक्तिश्च नृपतौ नित्यं तथा
सच्छास्त्रनेत्रता ।
आनृशंष्यन्तितिक्षा च तथा
चास्तिक्यमेव च ॥५॥
वर्णाश्रमाणां सामान्यं धर्माधर्मं
समीरितं ।
यजनं याजनं दानं
वेदाद्यध्यापनक्रिया ॥६॥
प्रतिग्रहञ्चाध्ययनं विप्रकर्माणि
निर्दिशेत् ।
दानमध्ययनञ्चैव यजनञ्च यथाविधिः ॥७॥
क्षत्रियस्य सवैश्यस्य कर्मेदं
परिकीर्तितं ।
क्षत्रियस्य विशेषेण पालनं
दुष्टनिग्रहः ॥८॥
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य
परिकीर्तितं ।
शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा
सर्वशिल्पानि वाप्यथ ॥९॥
पुष्कर ने कहा- परशुरामजी ! मैं
वर्ण,
आश्रम तथा इनसे भिन्न धर्मो का आपसे वर्णन करूंगा। वे धर्म सब
कामनाओं को देनेवाले हैं। मनु आदि धर्मात्माओं ने भी उनका उपदेश किया है तथा वे
भगवान् वासुदेव आदि को संतोष प्रदान करनेवाले हैं। भृगुश्रेष्ठ ! अहिंसा, सत्य भाषण, दया, सम्पूर्ण
प्राणियों पर अनुग्रह, तीर्थों का अनुसरण, दान, ब्रह्मचर्य, मत्सरता का
अभाव, देवता, गुरु और ब्राह्मणों की
सेवा, सब धर्मो का श्रवण, पितरों का
पूजन, मनुष्यों के स्वामी श्रीभगवान् में सदा भक्ति रखना,
उत्तम शास्त्रों का अवलोकन करना, क्रूरता का
अभाव, सहनशीलता तथा आस्तिकता (ईश्वर और परलोक पर विश्वास
रखना) – ये वर्ण और आश्रम दोनों के लिये 'सामान्य धर्म' बताये गये हैं। जो इसके विपरीत है,
वही 'अधर्म' है। यज्ञः
करना और कराना, दान देना, वेद पढ़ाने का
कार्य करना, उत्तम प्रतिग्रह लेना तथा स्वाध्याय करना-ये
ब्राह्मण के कर्म हैं। दान देना, वेदों का अध्ययन करना और
विधिपूर्वक यज्ञानुष्ठान करना-ये क्षत्रिय और वैश्य के सामान्य कर्म हैं। प्रजा का
पालन करना और दुष्टों को दण्ड देना- ये क्षत्रिय के विशेष धर्म हैं। खेती, गोरक्षा और व्यापार — ये वैश्य के विशेष कर्म बताये
गये हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन द्विजों की सेवा
तथा सब प्रकार की शिल्प-रचना-ये शूद्र के कर्म हैं ॥२-९॥
मौञ्जीबन्धनतो जन्म विप्रादेश्च
द्वितीयकं ।
आनुलोम्येन वर्णानां जातिर्मातृसमा
स्मृता ॥१०॥
मौजी-बन्धन (यज्ञोपवीत संस्कार)
होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य
बालक का द्वितीय जन्म होता है; इसलिये वे 'द्विज' कहलाते हैं। यदि अनुलोम-क्रम से वर्णों की
उत्पत्ति हो तो माता के समान बालक की जाति मानी गयी है ॥ १० ॥
चण्डालो ब्राह्मणीपुत्रः शूद्राच्च
प्रतिलोमतः ।
सूतस्तु क्षत्रियाज्जातो वैश्याद्वै
देवलस्तथा ॥११॥
पुक्कसः क्षत्रियापुत्रः
शूद्रात्स्यात्प्रतिलोमजः ।
मागधः स्यात्तथा
वैश्याच्छूद्रादयोगवो भवेत् ॥१२॥
वैश्यायां प्रतिलोमेभ्यः प्रतिलोमाः
सहस्रशः ।
विवाहः सदृशैस्तेषां
नोत्तमैर्नाधमैस्तथा ॥१३॥
विलोम क्रम से अर्थात् शूद्र के
वीर्य से उत्पन्न हुआ ब्राह्मणी का पुत्र 'चाण्डाल'
कहलाता है, क्षत्रिय के वीर्य से उत्पन्न
होनेवाला ब्राह्मणी का पुत्र 'सूत' कहा
गया है और वैश्य के वीर्य से उत्पन्न होने पर उसकी 'वैदेहक'
संज्ञा होती है। क्षत्रिय जाति की स्त्री के पेट से शूद्र के द्वारा
उत्पन्न हुआ विलोमज पुत्र 'पुक्कस' कहलाता
है। वैश्य और शूद्र के वीर्य से उत्पन्न होने पर क्षत्रिया के पुत्र की क्रमशः 'मागध' और 'अयोगव' संज्ञा होती है। वैश्य जाति की स्त्री के गर्भ से शूद्र एवं विलोमज
जातियों द्वारा उत्पन्न विलोमज संतानों के हजारों भेद हैं। इन सबका परस्पर वैवाहिक
सम्बन्ध समान जातिवालों के साथ ही होना चाहिये; अपने से ऊँची
और नीची जाति के लोगों के साथ नहीं ॥ ११-१३ ॥
चण्डालकर्म निर्दिष्टं बध्यानां
घातनं तथा ।
स्त्रीजीवन्तु तद्रक्षाप्रोक्तं
वैदेहकस्य च ॥१४॥
सूतानामश्वसारथ्यं पुक्कसानाञ्च
व्याधता ।
स्तुतिक्रिया माघ्धानां तथा
चायोगशस्य च ॥१५॥
रङ्गावतरणं प्रोक्तं तथा शिल्पैश्च
जीवनं ।
वहिर्ग्रामनिवासश्च मृतचेलस्य धारणं
॥१६॥
न संस्पर्शस्तथैवान्यैश्चण्डालस्य
विधीयते ।
ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा
देहत्यागोऽत्र यः कृतः ॥१७॥
स्त्रीबालाद्युपपतो वा वाह्याणां
सिद्धिकारणं ।
सङ्करे जातयो ज्ञेयाः पितुर्मातुश्च
कर्मतः ॥१८॥
वध के योग्य प्राणियों का वध करना –
यह चाण्डाल का कर्म बताया गया है। स्त्रियों के उपयोग में आनेवाली वस्तुओं के
निर्माण से जीविका चलाना तथा स्त्रियों की रक्षा करना-यह 'वैदेहक' का कार्य है। सूतों का कार्य है- घोड़ों का
सारथिपना, 'पुक्कस' व्याध वृत्ति से
रहते हैं तथा 'मागध' का कार्य
है-स्तुति करना, प्रशंसा के गीत गाना। 'अयोगव' का कर्म है- रङ्गभूमि में उतरना और शिल्प के
द्वारा जीविका चलाना। 'चाण्डाल को गाँव के बाहर रहना और
मुर्दे से उतारे हुए वस्त्र को धारण करना चाहिये। चाण्डाल को दूसरे वर्ण के लोगों का
स्पर्श नहीं करना चाहिये। ब्राह्मणों तथा गौओं की रक्षा के लिये प्राण त्यागना
अथवा स्त्रियों एवं बालकों की रक्षा के लिये देह त्याग करना वर्ण-बाह्य चाण्डाल
आदि जातियों की सिद्धि का (उनकी आध्यात्मिक उन्नति) का कारण माना गया है। वर्णसंकर
व्यक्तियों की जाति उनके पिता-माता तथा जातिसिद्ध कर्मों से जाननी चाहिये ॥ १४- १८
॥
इत्याग्नेये महापुराणे
वर्णान्तरधर्मा नामैकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'वर्णान्तर- धर्मो का वर्णन' नामक एक सौ इक्यावनवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥१५१॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 152
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