देवीरहस्य पटल ४२
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ४२ में मृत्युञ्जयपञ्चाङ्ग निरूपण में मृत्युञ्जय पूजा पद्धति के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् द्वाचत्वारिंशः पटल: मृत्युञ्जयपूजापद्धतिः
Shri Devi Rahasya Patal 42
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य बयांलीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् द्वाचत्वारिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ४२ मृत्युञ्जय पूजा पद्धति
अथ द्वाचत्वारिंशः पटल:
मृत्युञ्जयपूजापद्धतिः
श्री भैरव उवाच
अधुना देवि वक्ष्यामि
पूजापद्धतिमुत्तमाम् ।
गद्यपद्यमयीं दिव्यां
कोटियज्ञफलप्रदाम् ॥ १ ॥
प्रातः कृत्यमकृत्वा तु यः शिवं
भक्तितोऽर्चयेत् ।
तस्य पूजा तु विफला शौचहीना यथा
क्रिया ॥ २ ॥
महामृत्युञ्जय पूजापद्धति —
श्रीभैरव ने कहा- हे देवि ! अब मैं उत्तम पूजा-पद्धति का वर्णन करता
हूँ। यह पद्धति गद्य-पद्यमयी है। दिव्य है करोड़ यज्ञों का फल देने वाली है।
प्रातःकृत्य किए बिना जो पूर्ण भक्ति से शिवपूजन करता है, उसकी पूजा उसी तरह विफल होती है, जिस तरह शौचरहित
क्रिया विफल होती है।। १-२।।
ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय बद्धपद्मासनः
स्वशिरः स्थसहस्त्राराधोमुखकमल- कर्णिकान्तर्गतं निजगुरुं ध्यायेत् ।
श्रीगुरुं परमानन्दं वन्दे
स्वानन्दविग्रहम् ।
यस्य सन्निधिमात्रेण चिदानन्दायते
वपुः ॥
इति नत्वा,
श्रीगुरुं द्विभुजं शान्तं
वराभयकराम्बुजम् ।
पूर्णेन्दुवदनाम्भोजं हसन्तं शक्तिसंयुतम्
॥
श्वेतवस्त्रपरीधानं
नानालङ्कारभूषितम् ।
आनन्दमुदितं देवं ध्यायेत्
पङ्कजविष्टरम् ॥
ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पद्मासन
में बैठे अपने शिर में स्थित अधोमुख सहस्रदल कमल की कर्णिका में अपने गुरु का
ध्यान करे, जैसे-
श्रीगुरु परमानन्दं वन्दे स्वानन्दविग्रहम्
।
यस्य सन्निधिमात्रेण चिदानन्दायते
वपुः । ।
तब प्रणाम करे। इसके बाद फिर ध्यान
करे। जैसे-
श्रीगुरुं द्विभुजं शान्तं
वराभयकराम्बुजम् ।
पूर्णेन्दुवदनाम्भोजं हसन्तं
शक्तिसंयुतम् ।।
श्वेतवस्त्रपरीधानं नानालङ्कारभूषितम्
।
आनन्दमुदितं देवं ध्यायेत्
पङ्कजविष्टरम् ।।
इन ध्यान श्लोकों का अर्थ है—
परमानन्दित श्रीगुरु को प्रणाम करता हूँ, जो
आत्मानन्दस्वरूप हैं। जिनकी निकटता से ही शरीर चिदानन्द से पूर्ण हो जाता है।
श्रीगुरु शान्तमूर्ति हैं। उनके एक हाथ में वरमुद्रा और दूसरे हाथ में अभयमुद्रा
है। मुखकमल पूर्णिमा के चाँद जैसा है। मुस्कुराती हुई अपनी शक्ति से संयुक्त हैं।
श्वेत वस्त्र का परीधान है विविध आभूषणों से सुशोभित हैं। चिदानन्द से प्रसन्न
हैं। कमल के आसन पर विराजित हैं। ऐसे गुरुदेव का ध्यान करते हैं।
इति ध्यात्वा दण्डवत् प्रणम्य,
हंसः इति षट्शताधिकमेकविंशति- साहस्रमजपाजपं मूलं च यथाशक्त्या
जप्त्वा जपं गुरवे समर्प्य तदाज्ञामादाय, बहिरागत्य मलादि
सन्त्यज्य वर्णोक्तं शौचमादाय नद्यादौ गत्वा 'ॐ क्लीं
कामदेवाय सर्वजनमनोहराय नमः' इति दन्तान् संशोध्य 'गं ग्लौं दन्तशोधनशक्त्यै नमः' इति गण्डूषत्रयं
विधाय मृदमानीय त्रिभागं कृत्वा, ॐ प्रीं मृत्तिकायै नमः'
इत्यभिषिच्य, मूलेनाभिमन्त्र्य मलापकर्षणं
स्नानं कृत्वा, ॐ गां गीं
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति
।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ॥
इति सूर्यमण्डलादङ्कुशमुद्रया
तीर्थान्यावाह्य, मृदं जले
क्षिप्त्वा पुनः
देवेश भक्तिसुलभ सपरिच्छद भैरव ।
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावदेव
इहावह ॥
इति जले त्रिकोणं विभाव्य,
तत्र मृदा देवमावाह्य मुद्रा: प्रदर्श्य, मूलेन
प्राणायामपूर्व पादादिशिरः पर्यन्तं त्रिरुन्मज्जेत् ।
इस प्रकार के ध्यान के बाद दण्डवत्
भूमि पर लेटकर प्रणाम करे। इक्कीस हजार छः सौ हंस जप को मूलमन्त्र का
यथाशक्ति जप करके गुरुदेव को समर्पित करे। गुरु से आज्ञा लेकर घर से बाहर जाकर
मलादि त्याग करे। वर्णोक्त शौच करे। नदी आदि जलाशय के किनारे जाकर दतुवन करे इसका
मन्त्र है –
ॐ क्लीं कामदेवाय सर्वजनमनोहराय नमः।
इसके बाद मन्त्र बोलकर तीन कुल्ला
करे;
जैसे-
गं ग्लौं दन्तशोधनशक्त्यै नमः ।
इसके बाद मिट्टी लेकर तीन भाग करे। ॐ
प्रीं मृत्तिकायै नमः'
से उसे पानी से भिगावे। मूल मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। देह में
लगाकर मलशोधन करे। स्नान करे। इसके बाद मन्त्र कहकर सूर्यमण्डल से अङ्कुश मुद्रा
के द्वारा तीर्थों का आवाहन करे-
ॐ गां गीं गङ्गे च यमुने चैव
गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिङ्कुरु ।।
शेष मिट्टी को जल में रखकर,
त्रिकोण की कल्पना करके उस मिट्टी में भैरव का आवाहन करे। मन्त्र
है-
देवेश भक्तिसुलभ सपरिच्छद भैरव ।
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावद् देव
इहावह।।
तब मुद्रा दिखावे। मूल मन्त्र से
प्राणायाम करे। इसके बाद नदी में तीन डुबकी लगाए।
ततः सूर्यायार्घ्यत्रयं दद्यात्। ॐ
ह्रांह्रींसः श्रीसूर्याय प्रकाशशक्तिसहिताय एष तेऽर्घो नमः'
इति अर्घ्यत्रयं दत्त्वा ततोऽन्यद्वासः परिधाप्य कराङ्गन्यासपूर्वं
प्राणायामत्रयं चरेत् । यथा-
इडया पिब षोडशभिः पवनं
चतुरुत्तरषष्टितमाभ्यधिकम् ।
त्यज पिङ्गलया शनकैः
शनकैर्दशभिर्दशभिर्दशभिर्ह्यधिकैः ॥
पूरक: १६,
कुम्भकः ६४, रेचक: ३२ इति त्रिः कृत्वा,
ॐ जुं सः आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐजुं सः
विद्यातत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐ जुं सः शिवतत्त्वं शोधयामि
स्वाहा इत्याचम्य, षडङ्गं विधाय वामहस्ते जलं धृत्वा
तत्त्वमुद्रयाच्छाद्य यं रं वं लं हं इति पञ्चभूतमन्त्रेण सप्तवार- मभिमन्त्र्य
दक्षहस्ते धृत्वा, वामानामिकाङ्गुष्ठयोगेन
तद्गलितोदकबिन्दुभिः स्वशिरो मूलमुच्चरन् दशधा प्रोक्ष्य पुनर्वामहस्ते विधाय,
इडयान्तत्वा देहान्तः पापं प्रक्षाल्य, पिङ्गलया
तज्जलं सकलुषं दक्षहस्ते धृत्वा स्व-
वामभागस्थकल्पितवज्रशिलायामास्फालयेदित्यघमर्षणं विधाय, पूर्व-
वत् षडङ्गं कृत्वा, ॐ जुं सः परमहंसाय विद्महे सोहंसः
मृत्युञ्जयाय धीमहि जुं ॐ तन्नोऽमृतेश्वरः प्रचोदयात् । इति दशधा प्रजप्य मूलं च
यथाशक्त्या जप्त्वा, गायत्र्या देवीदेवयोरर्घ्यत्रयं
दद्यात्। ॐ जुं सः साङ्गायामृतेश्वरीसहिताय मृत्युञ्जयाय एष ते अर्धो नमः । तथा
पूर्ववत् सूर्यायार्घ्यत्रयं दत्त्वा जले चतुरस्त्रं सत्र्यस्त्रं विभाव्य
मूलमुच्चरन् सप्तधा सदेवीकं देवं तर्पयेत् । मू० साङ्गः सवाहनः सायुधः सपरिच्छदः सदेवीको
मृत्युञ्जयो भगवांस्तृप्यतामिति सन्तर्प्य, परिवारानेकैकाञ्ज-
लिना सन्तर्प्य, ब्रह्मादिकीटपर्यन्तं सन्तर्प्य, पित्रादितर्पणं विधाय, पूर्ववद् देवं संहारमुद्रया
स्वहृदि समानीय शिवोऽहमिति भावयन् यागमण्डप- मागच्छेदिति संध्याविधिः ।
इसके बाद सूर्य को तीन अर्घ्य
प्रदान करे। अर्घ्यमन्त्र है-
ॐ ह्रां ह्रीं सः श्रीसूर्याय
प्रकाशशक्तिसहिताय एष ते अघों नमः ।
इसके बाद वस्त्र बदलकर करन्यास और
अङ्ग न्यास करके तीन प्राणायाम करे; जैसे—
इडया पिब षोडशभिः पवनं
चतुरुत्तरषष्टितमाभ्यधिकम्।
त्यज पिङ्गलया शनकैः शनकैः
दशभिर्दशभिर्ह्यधिकैः ।।
अर्थात् १६ मात्रा से पूरक,
६४ मात्रा से कुम्भक और ३२ मात्रा से रेचक करे। इसके बाद आचमन करें;
जैसे –
ॐ जूं सः आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः।
ॐ जूं सः विद्यातत्त्वं शोधयामि
नमः।
ॐ जूं सः शिवतत्त्वं शोधयामि नमः।
इसके बाद षडङ्गन्यास करे बाँयें हाथ
में जल लेकर दाँयें हाथ से तत्त्वमुद्रा से उसे आच्छादित करे। यं रं वं लं हं
पञ्चभूत मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित करे। तब जल दाहिने हाथ में लेकर वाम
अनामिका अंगूठा योग से उससे टपके जलबूँद से अपने शिर का प्रोक्षण मूल
मन्त्रोच्चारणपूर्वक दश बार करे। फिर बाँयें हाथ में जल लेकर इडा नाड़ी से देह में
लाकर पाप का प्रक्षालन करे। पिङ्गला नाड़ी से उस जलसहित पापपुरुष को दाहिनी हथेली
में रखे। अपने वाम भाग में कल्पित वज्रशिला पर पापपुरुष को पटक दे। यह अघमर्षण
हुआ। पूर्ववत् षडङ्गन्यास करे। मृत्युञ्जय गायत्री का जप दश बार करे। मन्त्र है –
ॐ जूं सः परमहंसाय विद्महे
मृत्युञ्जयाय धीमहि जुं ॐ तन्नो अमृतेश्वरः प्रचोदयात्।
इसके बाद मूल मन्त्र का जप यथाशक्ति
करे। गायत्री देवी और देव को तीन अर्घ्य प्रदान करे। मन्त्र है –
ॐ जूं सः साङ्गायामृतेश्वरिसहिताय
मृत्युञ्जयाय एष ते अघों नमः ।
तब पूर्ववत् सूर्य को तीन अर्घ्य
प्रदान करें। जल पर चतुष्कोण के अन्दर त्रिकोण कल्पित करे। मूल मन्त्र का उच्चारण
करते हुए देवी सहित देव का सत्रह बार तर्पण करे। मन्त्र है –
ॐ जूं सः सांगः सवाहनः सायुधः
सपरिच्छदः सदेवीको मृत्युञ्जयो भगवांस्तृप्यताम् ।
देव के तर्पण के बाद आवरण के
प्रत्येक देवता को एक-एक अञ्जलि जल से तर्पित करें। ब्रह्मादि कीटपर्यन्त का तर्पण
करे। पितरों का तर्पण करे। पूर्ववत् देव को संहार मुद्रा से अपने हृदय में लाकर
भावना करे कि 'शिवोऽहम्'।
तब यागमण्डप के पास आये। यह सन्ध्या विधि हुई।
ततो गृहमागत्य पादौ प्रक्षाल्य
द्वारदेवताः पूजयेत् । हूंफडिति द्वारं प्रक्षाल्य,
ऊर्ध्वं गां गणेशाय नमः, वामदक्षिणक्रमेण
महालक्ष्म्यै नमः, सरस्वत्यै नमः, गङ्गायै
नमः, यमुनायै नमः, धात्रे नमः, विधात्रे नमः, नन्दाय नमः, सुनन्दाय
नमः, प्रचण्डाय नमः, चण्डाय नमः,
क्षेत्रपालाय नमः, वेतालाय नमः, अग्निवेतालाय नमः इति संपूज्य, तत्रासने मन्त्रेण
पुष्पं दत्त्वा अनन्तासनाय नमः, विमलासनाय नमः, पद्मासनाय नमः ।
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां लोके पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
त्रिर्वामपार्ष्णिघातं दत्त्वा
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता
भूमिसंस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ॥
इति विघ्नानुत्सार्य,
हूं अघोराय फट् इति दश दिशो बद्ध्वा भूतशुद्धिं कुर्यात्।
नदी तट से घर पर आकर पैरों को धोकर
द्वारदेवों का पूजन करे। 'हूं फट्' से द्वार को पानी से साफ करे। द्वार के ऊपर गं गणेशाय नमः से गणेश का,
वाम भाग में महालक्ष्म्यै नमः से महालक्ष्मी का, दक्षभाग में सरस्वत्यै नमः से सरस्वती का पूजन करे। तब
गङ्गायै नमः,
यमुनायै नमः, धात्रे नमः, विधात्रे नमः, नन्दाय नमः, सुनन्दाय
नमः, प्रचण्डाय नमः, चण्डाय नमः,
क्षेत्रपालाय नमः, वेतालाय नमः, अग्निवेतालाय नमः
से इनका पूजन वाम दक्षक्रम से द्वार
में करे यागमण्डप में आसन के निकट जाकर आसन पर मन्त्र से फूल डाले। तब इनका पूजन
करे-
अनन्ताय नमः,
विमलासनाय नमः, पद्मासनाय नमः।
इसके बाद निम्न मन्त्र का उच्चारण
करे-
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां लोके पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
इसके बाद पृथ्वी पर बाँयी ऐड़ी से
तीन आघात करके यह मन्त्र पढ़े-
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिता ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवज्ञया ।।
इस प्रकार विघ्नोत्सारण करके 'हूं अघोराय फट्' से दशो दिशाओं को बाँधकर दिग्बन्ध
करे। तब भूतशुद्धि करे।
अद्याहं भूतशुद्धिं करिष्ये इति
सङ्कल्प्य वामे गुरुभ्यो नमः, दक्षिणे गणेशाय
नमः, अग्ने शिवाय नमः, पृष्ठे
क्षेत्रपालय नमः इति नमस्कृत्य, प्रणवेन प्राणायामत्रयं
कृत्वा हूमिति मूलाधारात् कुण्डलिनीमुत्थाप्य सुषुम्नावर्त्मना हृदयस्थजीवमादाय
ब्रह्मरन्ध्रगतां विभाव्य हंस इति ब्रह्मणि योजयेत्। ततः पादादिजानुपर्यन्तं
पृथिवीं जान्वादिनाभ्यन्तं जलं, नाभ्यादिहृदयान्तं वह्निं
हृदयादिभ्रूमध्यान्तं वायुं भ्रूमध्यादिद्वादशान्तमा- काशं प्रत्येकं प्रविलाप्य,
आकाशमहङ्कारेऽहङ्कारं महत्तत्त्वे तदहंप्रकृतौ तां सच्चिदानन्दरूपे
ब्रह्मणि विलाप्य, स्वात्मानं ब्रह्ममयं विभाव्य-
अहं देवो न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं
न शोकभाक् ।
सच्चिदानन्दरूपोऽहं नित्यमुक्तस्वभाववान्
।।
भूतशुद्धि-
'अद्याहं भूतशुद्धिं करिष्ये' से संकल्प करे। बाँयें-
गुरुभ्यो नमः, दाँयें- गणेशाय नमः, पीछे-
क्षेत्रपालाय नमः से नमस्कार करे। ॐ से तीन प्राणायाम करे 'हूँ'
का उच्चारण करके मूलाधार से कुण्डलिनी को उठाकर सुषुम्ना मार्ग से
हृदयस्थ जीव से मिलावे। जीवसहित कुण्डलिनी के ब्रह्मरन्ध्र में प्रविष्ट होने की
कल्पना करे। 'हंस' मन्त्र को बोलकर उसे
ब्रह्म के साथ मिला दे तब पाँव से जानुपर्यन्त पृथ्वीतत्त्व को जानु से नाभि तक
जलतत्त्व में नाभि से हृदय तक अग्नितत्त्व में, हृदय से
भ्रूमध्य तक वायुतत्त्व में, भ्रूमध्य से सहस्रार तक
आकाशतत्त्व में विलीन कर दे। आकाश को अहंकार में, अहंकार को
महत्तत्व में, तब अहं को प्रकृति में और प्रकृति को
सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म में विलीन करके अहं ब्रह्मास्मि की भावना करे और निम्न
श्लोक का पाठ करे-
अहं देवो न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं
न शोकभाक् ।
सच्चिदानन्दरूपोऽहं
नित्यमुक्तस्वभाववान्।।
एवं विभाव्य स्वशरीरदक्षकुक्षौ
पापपुरुषं ध्यायेत्-
ब्रह्महत्याशिरस्कं च
स्वर्णस्तेयभुजद्वयम् ।
सुरापानहृदा युक्तं
गुरुतल्पकटिद्वयम् ।।
तत्संसर्गिपदद्वन्द्वमङ्गप्रत्यङ्गपातकम्
।
उपपातकलोमानं रक्तश्मश्रुविलोचनम्
।।
खड्गचर्मधरं कृष्णं कुक्षौ पापं
विचिन्तयेत् ।
इति ध्यात्वा शरीरं सकलुषं मलिनं
विचिन्त्य प्राणायामपूर्वकं पञ्च- भूतमन्त्रैर्निष्पापं कुर्यात् ।
हृदादिभ्रूमध्यात् यंबीजेन षोडशधा जप्तेन वायुमापूर्य पापं संशोष्य,
नाभ्यादिहत्पर्यन्तान्तर्गतमग्निमग्निबीजेन चतुष्षष्टिवारजप्तेन
सन्दीप्य पापं निर्दह्य, जान्वादिनाभ्यन्तं जलं वमिति वरुण-
बीजेन द्वात्रिंशद्वारजप्तेनादाय पापमम्भसाप्लाव्य, लमिति
भूबीजेन षोडशधा जप्तेन पादादिजानुपर्यन्तं पृथिवीं विचिन्त्य पिण्डीभूतं स्वात्मकं
ध्यात्वा, हमित्याकाशबीजेन सकृज्जप्तेन चैतन्यं संभाव्य
चिदानन्दमयं स्वशरीरमुत्पाद्य प्राणान् धारयेदिति भूतशुद्धिः ।
इस प्रकार का चिन्तन करके अपने शरीर
की दाहिनी कुक्षि में पापपुरुष का ध्यान करे: जैसे—
ब्रह्महत्याशिरस्कं च
स्वर्णस्तेयभुजद्वयम् ।
सुरापानहृदायुक्तं गुरुतल्पकटिद्वयम्
।।
तत्संसर्गपदद्वन्द्वमङ्गप्रत्यङ्गपातकम्
।
उपपातकलोमान रक्तश्मश्रुविलोचनम् ।
खड्गचर्मधरं कृष्णं कुक्षौ पापं
विचिन्तयेत् ।।
इस प्रकार ध्यान करके अपने शरीर के
कलुषयुक्त मलिन होने का चिन्तन करे। प्राणायाम करके पञ्चभूत मन्त्रों से इसे
पापमुक्त करे। हृदय से भ्रूमध्य तक 'यं'
बीज के १६ जप से श्वास खींचकर पाप का शोषण करे। नाभि से हृदय तक
अग्निबीज 'रं' के ६४ जप से प्रज्ज्वलित
अग्नि में उसका दहन करे। जानु से नाभि तक जल के बीजमन्त्र 'वं'
के ३२ जप से उस भस्म को बहा दे। भूबीज 'लं'
के १६ जप से पैर से जानु तक पृथ्वीतत्त्व का चिन्तन करके अपने शरीर
के पिण्डीभूत होने की भावना करें। आकाशबीज 'हं' के जप से अपने को चैतन्य करके चिदानन्दमय अपने शरीर को उत्पन्न करके
प्राणप्रतिष्ठा करे। यह भूतशुद्धि हैं।
देवीरहस्य पटल ४२- प्राणप्रतिष्ठा
ॐ जुं सः शिवाय प्राणात्मने नमः इति
स्वहृदि पुष्पं दत्त्वा आंह्रींक्रोंयंरंवंलंहंशंषंसंहं हंसः सोऽहं जुं सः ओं मम
प्राणा इह प्राणाः, …मम जीव इह स्थितः,
… मम सर्वेन्द्रियाणि ... मम वाङ्मनश्चक्षुः- श्रोत्रजिह्वाघ्राप्राणा
इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा इति प्राणान् धृत्वा, मूलं
स्वहृदि विलिख्य सशिवं शिवं संपूज्य, शिवोऽहमिति विचिन्त्य
मन्त्रसङ्कल्पं कुर्यात्।
अस्य श्रीमहामृत्यञ्जयपूजामन्त्रस्य
महाचमसकहोल ऋषिः, देवीगायत्री छन्दः,
श्रीमृत्युञ्जयरुद्रो महादेवो देवता, ॐ बीजं,
जुं शक्तिः, सः कीलकम्, धर्मार्थकाममोक्षार्थे
पूजायां विनियोगः ।
ॐ जूं सः शिवाय प्राणात्मने नमः
मन्त्र से अपने शिर पर फूल रखकर यह मन्त्र पढ़े-
आं ह्रीं क्रों यं रं वं लं हं शं
षं सं हं हंसः सोऽहं जूं सः ॐ मम प्राणा इह प्राणाः ।
आं ह्रीं क्रों यं रं वं लं हं शं
षं सं हं हंसः सोऽहं जूं सः ॐ मम जीव इह स्थितः ।
आं ह्रीं क्रों यं रं वं लं हं शं
षं सं हं हंसः सोऽहं जूं सः ॐ मम सर्वेन्द्रियाणि ।
आं ह्रीं क्रों यं रं वं लं हं शं
षं सं हं हंसः सोहं जूं सः ॐ मम वाङ्मनः चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राणा
इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
इस प्रकार प्राणप्रतिष्ठा करके अपने
हृदय में मूल मन्त्र लिखकर शिवा सहित शिव की पूजा करके 'मैं शिव हूँ' यह भावना करके मन्त्र सङ्कल्प करे ।
विनियोग
—
अस्य श्रीमहामृत्युञ्जयपूजामन्त्रस्य महाचमसकहोल ऋषिः देवी गायत्री
छन्दः, श्रीमृत्युञ्जयरुद्रमहादेव देवता, ॐ बीजं, जुं शक्तिः, सः कीलकम्
धर्मार्थकाम- मोक्षार्थे पूजायां विनियोगः ।
देवीरहस्य पटल ४२- न्यासः
अथ न्यासः । महाचमसकहोलऋषये नम:
शिरसि, देवीगायत्रीच्छन्दसे नमो मुखे,
श्रीमृत्युञ्जयरुद्रमहादेवदेवतायै नमो हृदि, ॐ
बीजाय नमो नाभौ, जं शक्तये नमो गुह्ये, स: कीलकाय नमः पादयोः, जपे (पूजायां) विनियोगाय नमः
सर्वाङ्गेषु ।
अथ करन्यासः । ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः,
जुं तर्जनीभ्यां नमः, सः मध्यमाभ्यां नमः,
ॐ अनामिकाभ्यां नमः, जुं कनिष्ठिकाभ्यां नमः,
सः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः इति करन्यासः ।
अथ षडङ्गन्यासः । ॐ हृदयाय नमः,
जुं शिरसे स्वाहा, सः शिखायै वषट्, ॐ कवचाय हुं, जुं नेत्रेभ्यो वौषट्, सः अस्त्राय फट् ।
अथ मातृकान्यासः । अं नमः शिरसि । आं
नमो मुखवृत्ते । इं नमो दक्षनेत्रे । ईं वामनेत्रे उं दक्षकर्णे। ऊं वामकर्णे। ऋं दक्षनासापुटे। ॠं वामनासापुटे। लृं
दक्षगण्डे। लॄं वामगण्डे । एं ऊर्ध्वोष्ठे । ऐं अधरोष्ठे । ओं ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ ।
औं अधोदन्तपंक्ती। अं ललाटे । अः जिह्वायां। कं दक्षबाहुमूले। खं कूर्परे । गं
मणिबन्धे । घं अङ्गुलिमूले। ङं अङ्गुल्यग्रे । चं वामबाहुमूले। छं कूर्परे । जं
मणिबन्धे । झं अङ्गुलिमूले। ञं अङ्गुल्यो । टं दक्षपादमूले। ठं जानुनि । डं गुल्फे
। ढं अङ्गुलिमूले। णं अङ्गुल्यग्रे । तं वामपादमूले। थं जानुनि । दं गुल्फे। धं
अङ्गुलिमूले। नं अङ्गुल्यग्रे। पं दक्षपार्श्वे । फं वामपार्श्वे । बं पृष्ठे । भं
नाभौ । मं जठरे । यं हृदि। रं दक्षांसे । लं ककुदि । वं वामांसे । शं हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तं
। षं हृदादिवामहस्ताग्रान्तं । सं हृदादिदक्षपादाग्रान्तं। हं
हृदादिवामपादाग्रान्तं । ळं पादादिशिरः पर्यन्तं । क्षं नमः शिरसः पाद-पर्यन्तम् ।
इति त्रिर्व्यापयेदिति मातृकान्यासः ।
ऋष्यादि न्यास
—
महाचमसकहोल ऋषये नम: शिरसि, देवी गायत्री
छन्दसे नमः मुखे, श्रीमृत्युञ्जयरुद्रमहादेवदेवतायै नमः हृदि,
ॐ बीजायै नमः नाभौ, जुं शक्तये नमः गुह्ये,
सः कीलकाय नमः पादयोः जपे-पूजायां विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु ।
करन्यास —
ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः, जुं तर्जनीभ्यां नमः,
सः मध्यमाभ्यां नमः, ॐ अनामिकाभ्यां नमः,
जुं कनिष्ठाभ्यां नमः, सः करतलकरपृष्ठाभ्यां
नमः ।
षडङ्ग न्यास
—
ॐ हृदयाय नमः । जुं शिरसे स्वाहा। सः शिखायै वषट् । ॐ कवचाय हुं।
जुं नेत्राभ्यां वौषट् । सः अस्त्राय फट् ।
मातृका न्यास
- अं नमः शिरसि । आं नमः मुखवृत्ते । इं नमः दक्षनेत्रे । ईं नमः वामनेत्रे। उं
नमः दक्षकर्णे। ऊं नमः वामकर्णे । ऋं नमः दक्षनासापुटे । ॠं नमः वाम- नासापुटे। लृं
नमः दक्षगण्डे । लॄं नमः वामगण्डे । एं नमः ऊर्ध्वोष्ठे । ऐं नमः अधरोष्ठे । ओं
नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ । औं नमः अधोदन्तपंक्तौ । अं नमः ललाटे । अः नमः जिह्वायां ।
कं नमः दक्षबाहुमूले। खं नमः कूपर । गं नमः मणिबन्धे । घं नमः अंगुलिमूले। ङं नमः
अंगुल्यग्रे। चं नमः वामबाहुमूले । छं नमः कूर्परे। जं नमः मणिबन्धे । झं नमः
अंगुलिमूले। ञं नमः अंगुल्यग्रे। टं नमः दक्षपादमूले। ठं नमः जानुनि । डं नमः
गुल्फे । ढं नमः अंगुलिमूले। णं नमः अंगुल्यये । तं नमः वामपादमूले । थं नमः
जानुनि । दं नमः गुल्फे । धं नमः अंगुलिमूले। नं नमः अंगुल्यये। पं नमः
दक्षपार्श्वे। फं नमः वामपार्श्वे। बं नमः पृष्ठे। भं नमः नाभौ । मं नमः जठरे । यं
नमः हृदि । रं नमः दक्षांसे । लं नमः ककुदि। वं नमः वामांसे। शं नमः
हृदादिदक्षहस्तान्तं । षं नमः हृदादि वामहस्तान्तम् । सं नमः हृदादिदक्षपादान्तम्।
हं नमः हृदादिवामपादान्तम्। लं नमः पादादि शिरः पर्यन्तम्। क्षं नमः शिरसः
पादपर्यन्तम् । तीन व्यापक न्यास करे।
देवीरहस्य पटल ४२- मातृका
न्यास
ॐ ह्सौः अं श्रीकण्ठपूर्णोदरीभ्यां
नमः शिरसि । ॐ ह्सौः आं अनन्तेशविरजाभ्यां नमो मुखवृत्ते । ॐ ह्सौः इं
सूक्ष्मेशशाल्मलीभ्यां नमो दक्षनेत्रे । ॐ ह्सौः ईं त्रिमूर्तीशलोलाक्षीभ्यां नमो
वामनेत्रे । ॐ ह्सौः उं अमरेशवर्तुलाक्षीभ्यां नमो दक्षकर्णे । ॐ ह्सौः ॐ अर्धेशदीर्घघोणाभ्यां
नमो वामकर्णे । ॐ ह्सौः ऋं भावभूतीशदीर्घमुखीभ्यां नमो दक्षनासापुटे । ॐ ह्सौः ॠं
तिथीशगोमुखीभ्यां नमो वामनासापुटे । ॐ ह्सौः लृं स्थाणुकेशदीर्घजिह्वाभ्यां नमो
दक्षगण्डे । ॐ ह्सौः लॄं हरेशकुण्डोदरीभ्यां नमो वामगण्डे । ॐ ह्सौः एं
झिण्टीशोर्ध्वकेशीभ्यां नमः ऊर्ध्वोष्ठे । ॐ ह्सौः ऐं भौतिकेशविकृतमुखीभ्यां नमः
अधरोष्ठे । ॐ ह्सौः ओं सद्योजातेशज्वालामुखीभ्यां नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ । ॐ ह्सौः
औं अनुग्रहेशोल्कामुखीभ्यां नमः अधोदन्तपंक्तौ । ॐ ह्सौः अं अक्रूरेशश्रीमुखीभ्यां
नमो ललाटे । ॐ ह्सौः अ: महासेनेशविद्यामुखीभ्यां नमो जिह्वायां। ॐ ह्सौः कं
क्रोधीशमहाकालीभ्यां नमो दक्षबाहुमूले। ॐ ह्सौः खं चण्डीशसरस्वतीभ्यां नमः
कूर्परे। ॐ ह्सौः गं पञ्चाननेशसर्वसिद्धिभ्यां नमो मणिबन्धे। ॐ ह्सौः घं
शिवोत्तमेशत्रिलोकविद्याभ्यां नमः अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः ङं एकरुद्रेशमन्त्रशक्तिभ्यां
नमः अङ्गुल्यग्रे । ॐ ह्सौः चं कूर्मेशात्मशक्तिभ्यां नमो वामबाहुमूले। ॐ ह्सौः छं
एकनेत्रेशभूतमातृभ्यां नमः कूर्परे । ॐ ह्सौः जं चतुराननेशलम्बोदरीभ्यां नमो
मणिबन्थे । ॐ ह्सौः झं अजेशद्राविणीभ्यां नमः अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः ञं
शर्वेशनागरीभ्यां नमः अङ्गुल्यये । ॐ ह्सौः टं सोमेशखेचरीभ्यां नमो दक्षपादमूले। ॐ
ह्सौः ठं लाङ्गलीशमञ्जरीभ्यां नमो जानुनि । ॐ ह्सौः डं
दाहकेशरूपिणीभ्यां नमो गुल्फे । ॐ ह्सौः ढं अर्धनारीशवीरिणीभ्यां नमः
अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः णं उमाका- न्तेशकाकोदरीभ्यां नमः अङ्गुल्यये । ॐ ह्सौः तं
आषाढीशपूतनाभ्यां नमो वामपादमूले। ॐ ह्सौः थं दण्डीशभद्रकालीभ्यां नमो जानुनि । ॐ
ह्सौः दं अद्रीशयोगिनीभ्यां नमो गुल्फे। ॐ ह्सौः धं मीनेशशङ्खिनीभ्यां नमः
अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः नं मेषेशगर्जिनीभ्यां नमः अङ्गुल्यये । ॐ ह्सौः पं
लोहितेशकालरात्रिभ्यां नमो दक्षपार्श्वे । ॐ ह्सौः फं शिखीशकुर्दिनीभ्यां नमो
वामपार्श्वे । ॐ ह्सौःबं छगलण्डेशकपर्दिनीभ्यां नमः पृष्ठे । ॐ ह्सौः (भं
द्विरण्डेशवज्रिणीभ्यां नमो नाभौ । ॐ ह्सौः मं महाकालेशजयाभ्यां नमो जठरे । ॐ
ह्सौः यं त्वगात्मभ्यां कपालीश- सुमुखीभ्यां नमो हृदये)। ॐ ह्सौः रं असृगात्मभ्यां
भुजङ्गेशरेवतीभ्यां नमो दक्षांसे । ॐ ह्सौः लं मांसात्मभ्यां पिनाकीशमाधवीभ्यां
नमः ककुदि। ॐ ह्सौः वं मेदआत्मभ्यां खड्गीशवारुणीभ्यां नमो वामांसे । ॐ ह्सौः शं
अस्थ्यात्मभ्यां बकेशवायवीभ्यां नमो हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तं । ॐ ह्सौः षं मज्जात्मभ्यां
श्वेतेशरक्षोबन्धिनीभ्यां नमो हृदादिवामहस्ताग्रान्तं । ॐ ह्सौः सं शुक्रात्मभ्यां
भृग्वीशसहजाभ्यां नमो हृदादिदक्षपादाग्रान्तं । ॐ ह्सौः हं प्राणात्मभ्यां नकु-
लीशलक्ष्मीभ्यां नमो हृदादिवामपादाग्रान्तं । ॐ ह्सौः ळं शक्त्यात्मभ्यां
शिवेशव्यापिनीभ्यां नमः पादादिशिरः पर्यन्तम् । ॐ ह्सौः क्षः क्रोधात्मभ्यां
संवशमहामायाभ्यां नमः शिरसः पादपर्यन्तमिति श्रीकण्ठादिमातृकान्यासः ।
श्रीकण्ठादि मातृका न्यास-
ॐ ह्सौः अं श्रीकण्ठपूर्णोदरीभ्यां नमः शिरसि । ॐ ह्सौः आं अनन्तेशविरजाभ्यां नमो
मुखवृत्ते । ॐ ह्सौः इं सूक्ष्मेशशाल्मलीभ्यां नमो दक्षनेत्रे । ॐ ह्सौः ईं
त्रिमूर्तीशलोलाक्षीभ्यां नमो वामनेत्रे । ॐ ह्सौः उं अमरेशवर्तुलाक्षीभ्यां नमो
दक्षकर्णे । ॐ ह्सौः ॐ अर्धेशदीर्घघोणाभ्यां नमो वामकर्णे । ॐ ह्सौः ऋं
भावभूतीशदीर्घमुखीभ्यां नमो दक्षनासापुटे । ॐ ह्सौः ॠं तिथीशगोमुखीभ्यां नमो
वामनासापुटे । ॐ ह्सौः लृं स्थाणुकेशदीर्घजिह्वाभ्यां नमो दक्षगण्डे । ॐ ह्सौः लॄं
हरेशकुण्डोदरीभ्यां नमो वामगण्डे । ॐ ह्सौः एं झिण्टीशोर्ध्वकेशीभ्यां नमः
ऊर्ध्वोष्ठे । ॐ ह्सौः ऐं भौतिकेशविकृतमुखीभ्यां नमः अधरोष्ठे । ॐ ह्सौः ओं
सद्योजातेशज्वालामुखीभ्यां नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ । ॐ ह्सौः औं
अनुग्रहेशोल्कामुखीभ्यां नमः अधोदन्तपंक्तौ । ॐ ह्सौः अं अक्रूरेशश्रीमुखीभ्यां
नमो ललाटे । ॐ ह्सौः अ: महासेनेशविद्यामुखीभ्यां नमो जिह्वायां। ॐ ह्सौः कं
क्रोधीशमहाकालीभ्यां नमो दक्षबाहुमूले। ॐ ह्सौः खं चण्डीशसरस्वतीभ्यां नमः
कूर्परे। ॐ ह्सौः गं पञ्चाननेशसर्वसिद्धिभ्यां नमो मणिबन्धे। ॐ ह्सौः घं
शिवोत्तमेशत्रिलोकविद्याभ्यां नमः अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः ङं
एकरुद्रेशमन्त्रशक्तिभ्यां नमः अङ्गुल्यग्रे । ॐ ह्सौः चं कूर्मेशात्मशक्तिभ्यां
नमो वामबाहुमूले। ॐ ह्सौः छं एकनेत्रेशभूतमातृभ्यां नमः कूर्परे । ॐ ह्सौः जं
चतुराननेशलम्बोदरीभ्यां नमो मणिबन्थे । ॐ ह्सौः झं अजेशद्राविणीभ्यां नमः
अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः ञं शर्वेशनागरीभ्यां नमः अङ्गुल्यये । ॐ ह्सौः टं
सोमेशखेचरीभ्यां नमो दक्षपादमूले। ॐ ह्सौः ठं लाङ्गलीशमञ्जरीभ्यां नमो जानुनि । ॐ
ह्सौः डं दाहकेशरूपिणीभ्यां नमो गुल्फे । ॐ ह्सौः ढं अर्धनारीशवीरिणीभ्यां नमः
अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः णं उमाका- न्तेशकाकोदरीभ्यां नमः अङ्गुल्यये । ॐ ह्सौः तं
आषाढीशपूतनाभ्यां नमो वामपादमूले। ॐ ह्सौः थं दण्डीशभद्रकालीभ्यां नमो जानुनि । ॐ
ह्सौः दं अद्रीशयोगिनीभ्यां नमो गुल्फे। ॐ ह्सौः धं मीनेशशङ्खिनीभ्यां नमः
अङ्गुलिमूले। ॐ ह्सौः नं मेषेशगर्जिनीभ्यां नमः अङ्गुल्यग्रे । ॐ ह्सौः पं
लोहितेशकालरात्रिभ्यां नमो दक्षपार्श्वे । ॐ ह्सौः फं शिखीशकुर्दिनीभ्यां नमो
वामपार्श्वे । ॐ ह्सौःबं छगलण्डेशकपर्दिनीभ्यां नमः पृष्ठे । ॐ ह्सौः (भं
द्विरण्डेशवज्रिणीभ्यां नमो नाभौ । ॐ ह्सौः मं महाकालेशजयाभ्यां नमो जठरे । ॐ
ह्सौः यं त्वगात्मभ्यां कपालीश- सुमुखीभ्यां नमो हृदये)। ॐ ह्सौः रं असृगात्मभ्यां
भुजङ्गेशरेवतीभ्यां नमो दक्षांसे । ॐ ह्सौः लं मांसात्मभ्यां पिनाकीशमाधवीभ्यां
नमः ककुदि। ॐ ह्सौः वं मेदात्मभ्यां खड्गीशवारुणीभ्यां नमो वामांसे । ॐ ह्सौः शं
अस्थ्यात्मभ्यां बकेशवायवीभ्यां नमो हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तं । ॐ ह्सौः षं मज्जात्मभ्यां
श्वेतेशरक्षोबन्धिनीभ्यां नमो हृदादिवामहस्ताग्रान्तं । ॐ ह्सौः सं शुक्रात्मभ्यां
भृग्वीशसहजाभ्यां नमो हृदादिदक्षपादाग्रान्तं । ॐ ह्सौः हं प्राणात्मभ्यां नकु-
लीशलक्ष्मीभ्यां नमो हृदादिवामपादाग्रान्तं । ॐ ह्सौः ळं शक्त्यात्मभ्यां
शिवेशव्यापिनीभ्यां नमः पादादिशिरः पर्यन्तम् । ॐ ह्सौः क्षः क्रोधात्मभ्यां
संवशमहामायाभ्यां नमः शिरसः पादपर्यन्तम् ।
देवीरहस्य पटल ४२- कलान्यासः
अथ कलान्यासः । ॐ ह्रींह्सौः
सर्वज्ञाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रींह्सौः अमृतज्वालामालिने तर्जनीभ्यां नमः । ॐ
ह्रींह्सौः ज्वलितशिखिशिखाय मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रींह्सौः वज्रिणे वज्रहस्ताय
अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रींह्सौः अलुप्तशक्तये कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रींह्सौः पशुपतये
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । इति करन्यासः ।
ॐ ऐं ह्रींह्सौः सर्वज्ञाय हृदयाय
नमः । ॐ ऐं ह्रींह्सौः अमृतज्वालामालिने शिरसे स्वाहा । ॐ ऐं ह्रींह्सौः ज्वलितशिखिशिखाय शिखायै वषट् । ॐ ऐं ह्रींह्सौः वज्रिणे
वज्रहस्ताय कवचाय हुं । ॐ ऐं ह्रींह्सौः अलुप्तशक्तये नेत्राभ्यां वौषट् । ॐ ऐं
ह्रींह्सौः पशुपतये अस्त्राय फट् । इति हृदयादिन्यासः ।
ॐ जुं सः निवृत्त्यात्मने शिवाय
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ जुं सः प्रतिष्ठात्मने सदाशिवाय तर्जनीभ्यां नमः । ॐ जुं सः
विद्याकलात्मने ईश्वराय मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ जुं सः शान्तिकलात्मने महारुद्राय अनामिकाभ्यां नमः । ॐ जुं सः शान्त्यतीताकलात्मने विष्णवे कनिष्ठिकाभ्यां नमः
। ॐ जुं सः ज्योतिष्कलात्मने परब्रह्मणे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । इति करन्यासः ।
ॐ जुं सः निवृत्त्यात्मने शिवाय
हृदयाय नमः । ॐ जुं सः प्रतिष्ठात्मने सदाशिवाय शिरसे स्वाहा । ॐ जुं सः विद्याकलात्मने ईश्वराय शिखायै वषट् । ॐ जुं सः शान्तिकलात्मने
महारुद्राय कवचाय हूं। ॐ जुं सः शान्त्यतीताकलात्मने विष्णवे नेत्राभ्यां वौषट् । ॐ
जुं सः ज्योतिष्कलात्मने परब्रह्मणे अस्त्राय फट् । इति कलान्यासः ।
कला न्यास-
ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः सर्वज्ञाय अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः
अमृतज्वालामालिने तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः ज्वलितशिखिशिखाय मध्यमाभ्यां
नमः । ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः वज्रिणे वज्रहस्ताय अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः
अलुप्तशक्तये कनिष्ठाभ्यां नमः ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः पशुपतये करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि न्यास
- ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः सर्वज्ञाय हृदयाय नमः । ॐ ऐं ह्रीं हसौः अमृत ज्वालामालिने
शिरसे स्वाहा । ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः ज्वलितशिखिशिखायै वषट् । ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः
वज्रिणे वज्रहस्ताय कवचाय हुँ। ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः अलुप्तशक्तये नेत्राभ्यां वौषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं ह्सौः पशुपतये अस्त्राय फट् ।
करन्यास
—
ॐ जूं सः निवृत्त्यात्मने शिवाय अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ जूं सः
प्रतिष्ठात्मने सदाशिवाय तर्जनीभ्यां नमः । ॐ जूं सः विद्याकलात्मने ईश्वराय
मध्यमाभ्यां नमः । ॐ जूं सः शान्तिकलात्मने महारुद्राय अनामिकाभ्यां नमः । ॐ जूं
सः शान्त्यतीताकलात्मने विष्णवे कनिष्ठाभ्यां नमः । ॐ जूं सः ज्योतिष्कलात्मने
परब्रह्मणे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि न्यास
–
ॐ जूं सः निवृत्त्यात्मने शिवाय हृदयाय नमः । ॐ जूं सः
प्रतिष्ठात्मने सदाशिवाय शिरसे स्वाहा । ॐ जूं सः विद्याकलात्मने ईश्वराय शिखायै
वषट्। ॐ जूं सः शान्तिकलात्मने महारुद्राय कवचाय हुं । ॐ जूं सः शान्त्यतीता
कलात्मने विष्णवे नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ जूं सः ज्योतिकलात्मने परब्रह्मणे
अस्त्राय फट् ।
ॐ जुंसः नेत्रनाथाय अङ्गुष्ठाभ्यां
नमः । हंसः भववन्नेत्राय तर्जनीभ्यां नमः । मां पालयपालय सोमसूर्याग्निनेत्राय
मध्यमाभ्यां नमः । सोऽहंसः नेत्रनाथाय अनामिकाभ्यां नमः । जुं ॐ भगवन्नेत्राय
कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ जुंसः हंसः मां पालयपालय सोहंसः जुं ॐ
सोमसूर्याग्निनेत्राय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । एवं षडङ्गन्यासः । इति नेत्रन्यासः
।
ॐ नमः शिरसि । जुं भ्रूमध्ये । सः
मुखे । हं कण्ठे । सः हृदि। मां हस्तयोः । पां स्तनयोः । लं कुक्षौ । यं
पार्श्वयोः । पां पृष्ठे । लं नाभौ । यं मेढ़े । सों जान्वोः । हं जङ्घयोः । सः
पादयोः । जुं पादादिशिरः पर्यन्तं । ॐ शिरसः पादपर्यन्तमिति त्रिर्व्यापयेदिति
मूलमन्त्रन्यासः ।
ईशानतत्पुरुषयोरघोरकलितात्मनोः ।
सद्योजातेशवामेशयुतयोर्न्यासमाचरेत्
॥
इति शिवशासनम्।
नेत्रन्यास-करन्यास—
ॐ जूं सः नेत्रनाथाय अंगुष्ठाभ्यां नमः । हंसः भगवन्नेत्राय तर्जनीभ्यां
नमः । मां पालय पालय सोमसूर्याग्निनेत्राय मध्यमाभ्यां नमः । सो हंसः नेत्रनाथाय
अनामिकाभ्यां नमः । जुं ॐ भगवन्नेत्राय नमः कनिष्ठाभ्यां नमः । ॐ जूं सः हंसः मां
पालय पालय सोहं सः जुं ॐ सोमसूर्याग्निनेत्राय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
नेत्रन्यास षडङ्गन्यास-
ॐ जूं सः नेत्रनाथाय हृदयाय नमः । हंसः भगवन्नेत्राय शिरसे स्वाहा । मां पालय पालय
सोमसूर्याग्निनेत्राय शिखायै वषट् । सो हंसः नेत्रनाथाय कवचाय हुँ । जुं ॐ
भगवन्नेत्राय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ जूं सः हंसः मां पालय पालय सोहं सः जुं ॐ
सोमसूर्याग्निनेत्राय अस्त्राय फट् ।
मूलमन्त्र न्यास-
ॐ नमः शिरसि । जुं नमः भ्रूमध्ये । सः नमः मुखे। हं नमः कण्ठे। सः नमः हृदिः। मां
नमः हस्तयोः । पां नमः स्तनयोः । लं नमः कुक्षौ । यं नमः पार्श्वयोः। पां नमः
पृष्ठे । लं नमः नाभौ । यं नमः मेढ़े । सो नमः जान्वो । हं नमः जङ्घयोः । सः नमः
पादयोः। जुं पादादि- शिरः पर्यन्तम् । ॐ शिरसः पादपर्यन्तम्। तीन व्यापक न्यास
करे।
ईशानतत्पुरुषयोरघोरकलितात्मने ।
सद्योजातेशवामेशयुतयोर्न्यासमाचरेत्
॥
यह शिवशासन है।
ॐ मूलाधारे । जुं भ्रूमध्ये । सः
करन्ध्रे । इमं न्यासं यथाशक्त्या विधाय दिव्यदेहं ध्यात्वा,
हृदये ॐ जुंसः अमृतेश्वरपीठाय नमः । हृदि गन्धाक्षतपुष्पैः संपूज्य 'ॐ जुंसः हंसः श्रीकालाग्निरुद्रमूलप्रकृतिकूर्मान- न्तवराहपृथिवी
सुधार्णवरत्नद्वीपरत्नमण्ड परत्नसिंहासनस्थाग्निमण्ड- लार्कमण्डलामृतमरीचिमण्डलान्तर्गत-
सहस्रदलकमलकर्णिकाकेसरकणामृतधारामयाय योगपीठाय नमः' इति
स्वहृदये संपूज्य, अमृतीकरणमुद्रां बद्ध्वा
पद्ममुद्रान्तर्गतं पुष्पं सन्निधाय मूलाधारात् कुण्डलिनीं तडित्कोटिप्रद्योतनी
सूर्यकोटिप्रकाशां वह्निकोटिदुराधर्षां चन्द्रकोटि- सुशीतलां प्रदीपकलिकाकारामुत्थाप्य
सुषुम्नामार्गेण ब्रह्मपथान्तर- स्थामृतेश्वरेण सह संयोज्य, सोममण्डलप्रच्युतामृतधारया
संतर्प्य, पुनः स्वहृदि समानीय स्वस्थानं
प्रापयित्वामृतशरीरीभूय शिवोऽहमिति भावयन् देवं भावयेत्।
पीयूषांशुशिरोमणिः करतले
पीयूषकुम्भं वहन्
पीयूषद्युतिसम्पुटान्तरगतः
पीयूषधाराधरः ।
मां पीयूषमयूखसुन्दरवपुः
पीयूषलक्ष्मीसखः
पीयूषद्रववर्षणोऽप्यहरहः प्रीणातु मृत्युञ्जयः
॥
एवं देवं ध्यात्वा मानसैरुपचारै:
कलशस्थापनं कुर्यात्।
ॐ मूलाधारे। जुं भ्रूमध्ये । स:
करन्ध्रे । इस न्यास को यथाशक्ति करके अपने देह के दिव्य होने का चिन्तन करे। हृदय में ॐ जुंसः अमृतेश्वरपीठाय नमः से ध्यान
करके गन्धाक्षतपुष्प से पूजन करे तब योगपीठ की पूजा करे। जैसे—
ॐ जूं सः हंसः श्रीकालाग्निरुद्र
मूल प्रकृति कूर्म, अनन्त, वराह, पृथ्वी, सुधार्णव,
रत्नद्वीप, रत्नमण्डप, रत्नसिंहासनस्थ,
अग्निमण्डल, अर्कमण्डल, अमृतमरीचिमण्डल
अन्तर्गत सहस्रदल कमल कर्णिका केसर कणामृत धारामयाय योगपीठाय नमः।
अपने हृदय में यह पूजा करके
अमृतीकरण मुद्रा बाँधकर पद्ममुद्रा से फूल लेकर करोड़ विद्युत् प्रभावती,
करोड़ सूर्य-सी प्रकाशमान, करोड़ अग्नि-सी
दुराधर्ष, करोड़ चन्द्र-सी शीतल, प्रदीप
कलिकाकृति कुण्डलिनी को मूलाधार से उठाकर सुषुम्ना मार्ग से ब्रह्मपथान्तरस्थ
अमृतेश्वर के साथ संयुक्त करे। सोममण्डल से चूते हुए अमृतधारा से तर्पण करे। फिर
अपने हृदय में लाकर अपने स्थान में स्थापित करे। अपने शरीर को अमृतमय करके भावना
करे कि मैं ही देव शिव हूँ- 'शिवोऽहम्' इस प्रकार का ध्यान करे। ध्यान मन्त्र है—
पीयूषांशुशिरोमणिः करतले
पीयूषकुम्भं वहन्
पीयूषद्युतिसम्पुटान्तरगतः
पीयूषधाराधरः ।
मां पीयूषमयूखसुन्दरवपुः
पीयूषलक्ष्मीसखः
पीयूषद्रववर्षणोऽप्यहरहः प्रीणातु
मृत्युञ्जयः ।।
मृत्युञ्जय देव के शिरोमणि से
सुधा-किरणें छिटक रही हैं। हाथ पर अमृतकलश धारण किए हुए हैं। पीयूष धुति सम्पुट के
अन्तर्गत अमृत की धारा धारण किए हुए हैं। अमृत मयूख सुन्दर शरीर अमृत लक्ष्मी के
सखा अमृतरस की वर्षा से मुझे मृत्युञ्जय देव अमर करें। इस प्रकार देवता का ध्यान
करके मानसोपचारों से पूजन करे। तब कलशस्थापन करे।
देवीरहस्य पटल ४२- कलशस्थापन
स्ववामे त्रिकोणषट्कोणवृत्तचतुरश्रं
विलिख्य शङ्खमुद्रां प्रदर्श्य मूलेन संपूज्य रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः'
इति संपूज्याधारं संस्थाप्य तत्र पात्रमाधारे निधाय 'अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नम:' इति पात्रान्तः
संपूज्य, तत्र जलेन संपूर्य 'सौ:
सोममण्डलायषोडशकलात्मने नमः' इति संपूज्य तत्राङ्कुशमुद्रया
गां गीं गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि
सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
संनिधिं कुरु ॥
इत्यादिना तीर्थमावाह्य मूलेनाष्टाभिमन्त्रितं
कृत्वा धेनुयोनिकलशमुद्रा: प्रदर्श्य फडिति छोटिकाभिः संरक्ष्य,
हूमित्यवगुण्ठ्य शङ्खचक्रयोनिमुद्राः प्रदर्श्य प्रणमेत्।
दर्शनेनापि शङ्खस्य किं पुनः
स्पर्शनेन च ।
विलयं यान्ति पापानि हिमवद्भास्करोदये
॥
इति सामान्यार्घ्यविधिः।
कलश स्थापन-अपने
वाम भाग में त्रिकोण, षट्कोण, वृत्त, चतुरस्र बनाकर शङ्खमुद्रा दिखाये। मूल मन्त्र
से पूजन करे तब 'रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः' से पूजा करे। उस पर प्रक्षालित आधार स्थापित करे। आधार पर कलशस्थापन करे।
'अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः' से
पात्र के अन्दर पूजन करे। तब उसे जल से परिपूर्ण करे। 'सौः
सोममण्डलाय षोड़शकलात्मने नमः' से कलश जल की पूजा करे। अंकुश
मुद्रा से सूर्यमण्डल से तीर्थों का आवाहन करें, जैसे-
ॐ गां गीं गङ्गे च यमुने चैव
गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु।।
आवाहन के बाद मूल मन्त्र के आठ जप
से अभिमन्त्रित करे। धेनु-योनि और कलश मुद्रा दिखावे 'फट्' कहकर छोटिका से उसका संरक्षण करे। 'हुं' से अवगुंठन करे। शङ्ख-चक्र-योनि मुद्रा दिखाकर
प्रणाम करे। प्रणाममन्त्र हैं-
दर्शनेनापि शङ्खस्य कि पुनः
स्पर्शनेन च ।
विलयं यान्ति पापानि
हिमवद्भास्करोदये ।।
देवीरहस्य पटल ४२- शापविमोचन
सामान्यार्घ्यस्य दक्षे
बिन्दुत्रिकोणषट्कोणवृत्तचतुरश्रं मण्डलं निर्माय 'कामरूपोड्डीयानजालन्धरपूर्णगिरिपीठेभ्यो नमः' इति
चतुरश्रेषु सम्पूज्य, षडश्रेषु षडङ्गमन्त्रान् संपूज्य,
त्रिकोणे बीजत्रयं संपूज्य, बिन्दौ मूलेन
संपूज्य, ॐ रं अग्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः' इति प्रक्षालितमाधारं संस्थाप्य 'अं अर्कमण्डलाय
द्वादशकलात्मने नमः' इति कलशं कुम्भमुद्रया संस्थाप्य तत्र 'ॐ ज्वां ज्वीं ज्यूं ज्वैं ज्वौं ज्वः सः अमृतेश्वरभैरवाय मृत्युञ्जयाय
नमः' इति मूलेन वा मूलविद्यया तत्त्वमुद्रया धारापातेन
परमानन्दद्रव्यादिना कुम्भमापूर्य ॐ सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः' इति गन्धाक्षतपुष्पैरभ्यर्च्य हंसः इति मन्त्रेण दश दिशो बद्ध्वा
छोटिकाभिः संरक्ष्य हूमित्यवगुण्ठ्य, नमः इत्यभ्युक्ष्य,
मूलं दशधा जप्त्वामृतमुद्रां प्रदर्श्य 'ॐ अं
आं ईं ॐ जुं सः अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्त्रावय २ ॐ जुंसः
अमृतेश्वर्यै नमः' इति दशधा जप्त्वा
ॐ जुंसः सूर्यमण्डलसंभूते
वरुणालयसंभवे ।
अमाबीजमयि देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
ॐ जुंसः देवानां प्रणवो बीजं
ब्रह्मानन्दमयं यदि ।
तेन सत्येन देवेशि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ॥
ॐ जुंसः एकमेव परं ब्रह्म
स्थूलसूक्ष्ममयं ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम् ॥
ॐ जुंसः ब्रह्मशापाद्विनिर्मुक्ता
त्वं मुक्ता विष्णुशापतः ।
विमुक्ता रुद्रशापेन पवित्रा भव
सांप्रतम् ॥
ॐ जुंसः पवमानः परानन्दः पवमानः परो
रसः ।
पवमानं परं ज्ञानं तेन त्वां
पावयाम्यहम् ॥
इति त्रिर्जप्त्वा,
ॐ हसक्षमलवरयूँ आनन्देश्वर भैरवाय वौषट् इति दशधा जप्त्वा, सहक्षमलवरयूँ सुरादेव्यै वौषट् इति दशधा जप्त्वा मूलं त्रिर्जप्त्वा 'ॐ गङ्गे च यमुने चैव' इत्यादिना अङ्कुशमुद्रया
तीर्थान्यावाह्य, कुण्डलिनीं ज्योतीरूपामुत्थाप्य षट्चक्रं
भित्त्वा ब्रह्मरन्ध्रस्थ- परमशिवभट्टारकेण नियोज्य 'हंसः
सोहं स्वाहा' इति विचिन्त्य, तयोः
सामरस्योद्भवानन्दामृतवहमाननासापुटनिः सृतामृतधारया कलशमापूर्यामृतमयं ध्यात्वा
गन्धाक्षतपुष्पै- रभ्यर्च्य धेनुयोनिमत्स्यमुद्राः प्रदर्श्य प्रणमेदिति
द्रव्यशुद्धिः ।
सामान्यार्घ्य के दाहिने भाग में
बिन्दु,
त्रिकोण, षट्कोण, वृत्त,
चतुरस्र बनाकर चतुरस्त्र का पूजन इस मन्त्र से करे-
कामरूप उड्डीयान जालन्धर
पूर्णगिरिपीठेभ्यो नमः ।
षट्कोण में षडङ्ग मन्त्र से पूजन
करे। त्रिकोण बीजत्रय ॐ जूं सः का पूजन करे। बिन्दु में मूल मन्त्र से पूजन करे।
पूरे मण्डल का पूजन ॐ रं अग्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः से करे। उस पर आधार स्थापित
करे। आधार पर कुम्भमुद्रा से कलश स्थापित करे। कलश का पूजन अं अर्कमण्डलाय
द्वादशकलात्मने नमः से करे। तब ॐ ज्वां ज्वीं ज्वूं ज्वैं ज्वौ ज्वः सः
अमृतेश्वरभैरवाय मृत्युञ्जयाय नमः से या मूल मन्त्र तत्त्वमुद्रा परमानन्द द्रव्य
आदि की धारा से कुम्भ को पूर्ण करे। ॐ सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः से
गन्धाक्षतपुष्प से पूजा करे। 'हंस' से सभी दिशाओं का दिग्बन्ध करे। छोटिका से संरक्षण करे। हुं से अवगुण्ठन
करे। नमः से अभ्युक्षण करे। मूल मन्त्र का दश जप करके अमृत मुद्रा दिखावे। तब
मन्त्रपाठ करे; जैसे—
ॐ अं आं ईं ॐ जूं सः अमृते
अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय ॐ जूं सः अमृतेश्वर्यै नमः।
इसका जप दश बार करे। तब शापविमोचन
करे।
शापविमोचन
–
शापविमोचन के लिये निम्नलिखित मन्त्रों का पाठ करे; जैसे-
ॐ जुंसः सूर्यमण्डलसम्भूते
वरुणालयसम्भवे ।
अमाबीजमयी देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ।।
ॐ जूं सः देवानां प्रणवो बीजं
ब्रह्मानन्दमयं यदि ।
तेन सत्येन देवेशि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ।।
ॐ जूं सः एकमेव परं ब्रह्म
स्थूलसूक्ष्ममयं ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम् ।।
ॐ जूं सः ब्रह्मशापविनिर्मुक्ता
त्वं मुक्ता विष्णुशापतः ।
विमुक्ता रुद्रशापेन पवित्रा भव
साम्प्रतम् ।
ॐ जूं सः पवमानः परानन्दः पवमानः
परो रसः ।
पवमानं परं ज्ञानं तेन त्वां
पावयाम्यहम् ।।
इसका जप तीन बार करके ॐ
हसक्षमलवरयूं आनन्देश्वरभैरवाय वौषट् का जप दश बार करे। तब सहक्षमलवरयीं
सुरादेत्यै वौषट् का जप दश बार करे। मूल मन्त्र का जप तीन बार करे। ‘ॐ गङ्गे च यमुने चैव' से अङ्कुश मुद्रा द्वारा
तीर्थों का आवाहन करे । ज्योतिरूपा कुण्डलिनी को उठाकर षट्चक्रों का भेदन कराते
हुए ब्रह्मरन्ध्रस्थ परशिव- भट्टारक के साथ उसका नियोजन करे। हंसः सोहं स्वाहा का
चिन्तन करे। उनके सामरस्य होने की भावना करे। सामरस्य से उत्पन्न आनन्दामृत को
चखते हुए श्वास नली से धाररूप में बाहर लाकर कलश को पूर्ण करके उसे अमृतमय समझे।
गन्धाक्षत-पुष्प से अर्चन करे। प्रणाम करे। इस प्रकार यह द्रव्यशोधन हुआ।
ततः ‘ॐ जुंसः हंसः परमामृतेशश्री अमृतेश्वरीश्वरमहामृत्यञ्जयपूजा- द्रव्येभ्यो
वौषट्' इति कलशादमृतमादाय ॐ जुंसः हंसः सोहंसः जुं ॐ'
इति दशाक्षरमूलेन 'श्रीअमृतेश्वरीश्वरमहामृत्युञ्जयचन्द्रामृतमयेन
कलशामृतेन यागद्रव्याणि पवित्रीकुरु २ सुधादिना पूरय २ ॐ हौं स्वाहा' इति यागवस्तूनि संशोध्य सामान्यार्घ्यस्याधस्त्रिकोणं सहरं विभाव्य,
मूलबीजत्रयेण त्रिकोणं संपूज्य मूलविद्यया बिन्दुमभ्यर्च्य
तत्राग्निसूर्य सोममण्डलानि संपूज्य, दिव्यं पात्रं
संस्थाप्य कलशामृतेनापूर्य मूलविद्यया संपूज्य, पृथिव्यादिषट्त्रिंशत्तत्त्वानि
संपूज्य, महामुद्रां प्रदर्श्य अग्निपद्मामृतमुद्राः
प्रदर्श्य मातृकां देवीं संपूज्य, मूलवर्णांस्तत्रान्तः
संपूज्य, गङ्गादितीर्थान्यावाह्य, ईशानकलाः
संपूज्य तत्पुरुषाघोरसद्योजातवामदेवकलाः संपूज्य, शिवमयं
ध्यात्वा परमामृतबुद्ध्या विन्दुपानाच्चिद्दीपं प्रोज्ज्वाल्य शिवमयं
जगद्भावयेदिति परमार्घ्यपात्रम् ।
‘ॐ जूं सः हंसः परमामृतेशश्री
अमृतेश्वरीश्वरमहामृत्युञ्जयपूजाद्रव्येभ्यो वौषट्' से कलश
से अमृत निकाले। 'ॐ जूं सः हंसः सोहं सः जुं ॐ' इस दशाक्षर मन्त्र के साथ मूल मन्त्र जोड़कर 'श्री
अमृतेश्वरीश्वर महामृत्युञ्जय चन्द्रामृतमयेन कलाशामृतेन यागद्रव्याणि पवित्रीकुरु
कुरु सुधादिना पूरय पूरय ॐ हौं स्वाहा' से निकाले गये अमृत
से याग वस्तुओं का शोधन करे। सामान्यार्घ्य के नीचे त्रिकोण में बिन्दु कल्पित
करके मूल मन्त्र के तीन बीजों ॐ जूं सः से तीनों कोनों में पूजन करे मूल मन्त्र से
बिन्दु का अर्चन करे। वहीं पर अग्नि सूर्य सोम मण्डल का पूजन करे। उस पर दिव्य पात्र
स्थापित करके उसे कलशामृत से पूर्ण करे। पृथ्वी आदि ३६ तत्त्वों का पूजन करे।
महामुद्रा दिखावे। अग्नि-पद्म-अमृतमुद्रा प्रदर्शित करे। मातृका देवी का पूजन करे
मूलमन्त्र के सभी वर्णों का पूजन करे। गङ्गादि तीर्थों का आवाहन करें। ईशान कला का
पूजन करे। तब तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात
और वामदेव कलाओं का पूजन करे। अपने को शिवस्वरूप मानकर, परमामृत
बुद्धि से विन्दुपान से चित्तदीप को प्रज्ज्वल करके संसार को शिवमय माने।
सामान्यार्घ्यस्य वामे
गुरुशक्तियोगिनीवीरवटुक क्षेत्रपालपात्राणि संस्थाप्य,
तथोत्तरे पाद्याचमनीयमधुपर्का- चमनीयार्घ्यपात्राणि स्थापयेदिति
पात्रसंस्थापनम् । पाद्यादिपात्रेषु पानीयं गुरुपात्रादिषु दिव्यामृतं तत्रात्मानं
मूलविद्यया संपूज्य, स्वाधारात् कुण्डलिनीमुत्थाप्य परमशिवेन
संयोज्य चन्द्रमण्डल- स्थमहामृत्युञ्जय ललाटावतंस चन्द्रकलास्रुतामृतधारया
स्वात्मानं संप्लाव्य, शिवोऽहमिति स्मृत्वा, चिदानन्दमयो भूत्वा, विश्वं श्वेतमिव ध्यात्वा
सदेवीकं शिवं हृत्कमले ध्यात्वा यथोक्तं स्मृत्वा मानसैरुपचारैः संपूज्य, स्वात्मानं तन्मयं भावयित्वा श्रीचक्रं पुरोक्तं
चतुरश्रोद्भासितारणत्रयविराजितवसुदलखचित षडस्रमण्डितत्रिकोणोल्लसित बिन्दुमण्डलं
श्रीयन्त्र- राजं विलिख्य वा प्रक्षाल्य, श्रीरत्नपीठे
संस्थाप्य योगपीठपूजां कुर्यात् ।
सामान्यार्घ्य पात्र के वाम भाग में
गुरु,
शक्ति, योगिनी, वीर,
बटुक, क्षेत्रपाल के पात्रों को स्थापित करे।
उसके उत्तर भाग में पाद्य, आचमनीय, मधुपर्क,
आचमनीय अर्घ्यपात्रों को स्थापित करे।
पाद्यादि पात्रों में पानीय,
गुरुपात्रादि में दिव्यामृत डालकर मूल विद्या से पूजन करे। अपने
आधार से कुण्डलिनी को उठाकर परमशिव के साथ मिलावे चन्द्रमण्डलस्थ महामृत्युञ्जय
ललाटावतंस चन्द्र से श्रावित अमृतधारा से अपने को प्रोक्षित करे। प्लावित करे।
शिवोऽहम् की भावना करे। चिदानन्दमय होकर विश्व का ध्यान श्वेत रूप में करके देवी
सहित शिव का ध्यान हृदयकमल में करे। यथोक्त रूप से स्मरण करके मानसोपचारों से पूजन
करे। अपने को भी तन्मय समझे। तब श्रीचक्र को भूपुर, वृत्तत्रय,
अष्टदल, षट्कोण, त्रिकोण,
विन्दुमण्डल सहित अंकित करे या प्रक्षालित करके श्रीरत्नपीठ पर
स्थापित करे और योगपीठ की पूजा करें।
देवीरहस्य पटल ४२- योगपीठपूजा
ॐ जुंसः हंसः सोहंसः जुं ॐ अं आं इं
ईं उं ऊं ऋ ॠ ऌ लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं
णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं ॐ
शिवशक्तिसदाशिवेश्वरशुद्धविद्यामायाकलाविद्याराग- कालनियतिपुरुषप्रकृत्यहङ्कारबुद्धिमनस्त्वक्चक्षुः
श्रोत्रजिह्वाघ्राणवाक्पाणिपादपायूपस्थशब्दस्पर्शरू-
परसगन्धाकाशवायुवह्निसलिलपृथिव्यात्मने श्रीयोगपीठाय नमः इति श्रीचक्रे संपूज्य,
वसुपत्रेषु वामायै नमः । ज्येष्ठायै ०। रौद्रयै ० । काल्यै ० ।
कलविकरण्यै० बलविकरण्यै० । बलप्रमथन्यै ० । सर्वभूतदमन्यै नमः - इत्यभ्यर्च्य ॐ
जुंसः नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय परानन्ताय योगपीठात्मने नमः इति योगपीठं
संपूज्य, अमृतीकरणमुद्रां बद्ध्वा मूलमन्त्रेण
सङ्कल्प्यावाहयेत् । मूलेन सुषुम्नया हृत्कमलस्थं ज्योतिर्वामनासया निःसार्य
करस्थपुष्पेषु स्थितं ध्यात्वा देवमावाहयेत् —
स्वात्मसंस्थमजं शुद्धं त्वामहं परमेश्वर
।
आरण्यमिव हव्याशं
बिन्दावावाहयाम्यहम् ॥
देवेश भक्तिसुलभ परिवारसमन्वित ।
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावत् शिव
इहावह ॥ इति ।
योगपीठपूजा-
'ॐ जूं सः हंसः सोहंसः जुं ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋ ॠ ऌ लॄं एं ऐं ओं औं अं
अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं
यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं ॐ शिव शक्ति सदा शिवेश्वर शुद्ध विद्या माया कला
विद्या राग काल नियति पुरुष प्रकृति अहंकार बुद्धि मन त्वक् चक्षु श्रोत्र जिह्वा
प्राण वाक् पाणि पाद पायु उपस्थ शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध आकाश वायु वह्नि सलिल
पृथिव्यात्मने श्रीयोगपीठाय नमः' से योगपीठ की पूजा करें।
अष्टदल में वामायै नमः । ज्येष्ठायै नमः। रौद्रयै नमः। काल्यै नमः। कलविकरण्यै
नमः। बलविकरण्यै नमः । बलप्रमथन्यै नमः । सर्वभूतदमन्यै नमः से अर्चन करे। इसके
बाद ॐ जूं सः नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय परानन्ताय योगपीठात्मने नमः '
इस प्रकार योगपीठ का पूजन करे। अमृतीकरण मुद्रा बनाकर मूल मन्त्र से
संकल्प करके आवाहन करे। मूल मन्त्र से सुषुम्ना मार्ग से हृदयकमल में स्थित ज्योति
को वाम नासाछिद्र से निकालकर हाथ में स्थित फूल में स्थित होने का ध्यान करे। इस
प्रकार ध्यान करके आवाहन करे-
स्वात्मसंस्थमजं शुद्धं त्वामहं
परमेश्वर ।
आरण्यमिव हव्याशं
विन्दावावाहयाम्यहम् ।।
देवेश भक्तिसुलभ परिवारसमन्वित ।
यावत् त्वां पूजयिष्यामि तावत् शिव
इहावह ।।
देवीरहस्य पटल ४२- मुद्रा
मूलमुच्चार्य यन्त्रेषु पुष्पाणि
दत्त्वावाह्य संस्थाप्य संनिरुध्य मूलेन दश मुद्राः प्रदर्श्य,
ॐ जुंसः आं ह्रीं क्रीं यं रं लं वं शं षं सं हं ॐ जुंसः हंसः
अमृतेश्वरीसहितस्य मृत्युञ्जयदेवस्य प्राणाः इह प्राणाः। ... जीव इह स्थितः ।
..... सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनश्चक्षुः
श्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति
देवीदेवयोः प्राणान् दत्त्वा पञ्च मुद्राः प्रदर्श्य धेनुमुद्रयामृतीकृत्य
महामुद्रया परमीकृत्य, षडङ्गैः सकलीकृत्य शङ्खचक्रत्रिखण्डापाशकलश
मालामुद्राः प्रदर्श्य, भगवन् अमृतेश्वरी- सहित मृत्युञ्जय
इदमासनं गृह्यतां फट् भगवन् स्वागतमित्युदीर्य नमस्कृस्य मुद्रया प्रणम्य । मू०
भगवन् सदेवीक पाद्यं नमः। मू० भगवन् सदेवीकाचमनीयं स्वधा । मू० भगवन् सदेवीक
मधुपर्कः स्वधा । मू० भगवन् सदेवीक इदमाचमनीयं नमः । मूलं भगवन् सदेवीक इदम
स्वाहा। मूलं भगवन् सदेवीक एष गन्धो नमः । मू० भगवन् सदेवीकाक्षतपूर्वमेतानि
पुष्पाणि वौषट् । श्यामाकदूर्वाकसशिवाक्रान्ता- भिमिश्रितं गङ्गोदकं समादाय
मूलमन्त्रेण मन्त्रयेत्। मू० भगवन् सदेवीकं सर्वाङ्गे गङ्गोदकस्नानीयं नमः । मूलं
भगवन् सदेवीक महाश्वेतमहावस्त्रयुग्मं नमः । मू० भगवन् सदेवीक मुक्ताभरणानि
निवेदयामि नमः । मू० भगवन् सदेवीक रत्नसिंहासने उपविश्यताम् । मू० भगवन् सदेवीक
गन्धाक्षतपुष्पाणि गृहाण वौषट् । मू० भगवन् सदेवीक धूपं गृहाण नमः । मू० भगवन्
सदेवीक दीपं निवेदयामि नमः। धूपदीपौ दत्त्वा परमीकरणमुद्रां प्रदर्श्य
त्रिकोणवृत्तमण्डलं विभाव्य साधारं पात्रं संस्थाप्य, दिव्यौदनं
षड्रसोपेतं नानाव्यञ्जनान्वितं धेनुमुद्रयामृतीकृत्य, ॐ
अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा' इति निवेद्य मूलं दशधा जप्त्वा प्राणादिपञ्चग्रासमुद्राः
प्रदर्श्य ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा' इति भवगते शिवाय जलं
दत्त्वा मूलेन ताम्बूलं निवेद्य, दिव्यपात्रामृतेन दशधा
सन्तर्प्य प्रणम्य, परिवारदेवता देवाङ्गात् निस्सृता
ध्यात्वा यथोपचितस्थानेषु संस्थाप्य ध्यात्वा प्रणामपूर्वकं प्राणायामत्रयं विधाय
श्रीचक्रे परिवारदेवताः पूजयेत् ।
मूल मन्त्र का उच्चारण करके यन्त्र
में पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। आवाहन, स्थापन, सन्निरोधन करे। मूल मन्त्र बोलते हुए दश मुद्राओं को प्रदर्शित करें। तब
प्राणप्रतिष्ठा करे।
प्राणप्रतिष्ठामन्त्र
- ॐ जूं सः आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं ॐ जूं सः हंसः
अमृतेश्वरीसहितस्य मृत्युञ्जयदेवस्य प्राणा इह प्राणाः ।
ॐ जूं सः आं ह्रीं क्रों यं रं लं
वं शं षं सं हं ॐ जूं सः हंसः मृत्युञ्जयदेवस्य जीव इह स्थितः।
ॐ जूं सः आं ह्रीं क्रों यं रं लं
वं शं षं सं हं ॐ जूं सः सर्वेन्द्रियाणि वाङ् मनःचक्षुश्रोत्रजिह्राघ्राणप्राणा
इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
इस प्रकार देवी-देव की
प्राणप्रतिष्ठा करके पाँच मुद्राओं को दिखावे । धेनुमुद्रा से अमृतीकरण करे।
महामुद्रा से परमीकरण करे। षडङ्ग पूजन से सकलीकरण करे। शङ्ख,
चक्र, त्रिखण्डा, पाश,
कलश, माला, मुद्रा
दिखाये तब पूजन करे; जैसे—भगवन् अमृतेश्वरी
सहित मृत्युञ्जय आसनं गृह्यताम् । फट् भगवन् स्वागतम् — कहकर
नमस्कार मुद्रा से प्रणाम करे।
ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं पाद्यं नमः
। ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं आचमनीयं स्वधा। ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं मधुपर्कः स्वधा ।
ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं इदम् आचमनीयं नमः । ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं इदम् अर्घ्यं
स्वाहा । ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं एष गन्धो नमः। ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं
अक्षतपूर्वं एतानि पुष्पाणि वौषट् ।
गङ्गाजल में श्यामाक,
दूर्वा और शिवाक्रान्ता मिलाकर मूल मन्त्र से अभिमन्त्रित करें।
ॐ जूं सः भगवन् सवेदीकं सर्वांगे
गङ्गोदकस्नानीयं नमः । ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं महाश्वेतमहार्घ्यवस्त्रयुग्मं नमः ।
ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं मुक्ताभरणानि निवेदयामि नमः। ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं
रत्नसिंहासने उपविश्यताम् । ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं गन्धाक्षतपुष्पाणि गृहाण वौषट्
। ॐ जूं सः भगवन् सदेवीकं धूपं गृहाण नमः । ॐ जूं सः भगवन् दीपं निवेदयामि नमः।
धूप-दीप देकर परमीकरण मुद्रा दिखाये
। देव के सामने त्रिकोण वृत्त मण्डल बनाकर उस पर आधार रखे। आधार पर नैवेद्य पात्र
को स्थापित करे। नैवेद्य में दिव्य भात, षट्
रसयुक्त नाना व्यञ्जन रखकर उसे धेनु मुद्रा से अमृतीकृत करे। तब ॐ अमृतोपमस्तरणमसि
स्वाहा' कहकर नैवेद्य को निवेदित करे। मूल मन्त्र का दश बार
जप करके प्राणादि पञ्च ग्रास मुद्रा प्रदर्शित करे। तब 'ॐ
अमृतापिधानमसि स्वाहा' से जल देवे। मूल मन्त्र से ताम्बूल को
निवेदित करे। दिव्य पात्र के अमृत से दश बार तर्पण करे। प्रणाम करे। परिवारदेवताओं
को देव के शरीर से निस्सृत समझकर ध्यान करे। यथोचित स्थानों में उन्हें स्थापित
करे। ध्यान करे। प्रणाम करे। तीन प्राणायाम करे। श्रीचक्र में परिवारदेवताओं का
पूजन करे।
देवीरहस्य पटल ४२- आवरण पूजन
ॐ जुंसः कामेश्वरश्रीपादुकां
पूजयामि नमः तर्पयामि नमः इति वीर- पात्रामृतेनेशानाग्नेयात्रेषु पूजयेत् । ॐ
जुंसः महाकाल श्रीपादुकां पूजयामि नमस्तर्पयामि नमः। ॐ जुंसः स्वच्छन्दश्री० इति
संपूज्य, मूलेन मूलदेवं संपूज्य
सन्तर्प्य, इत्यये प्रथमावरणम् ।
ॐ जुंसः कालाग्निरुद्रश्री ० । ॐ
जुंसः नेत्रेश श्री० । ॐ जुंसः विश्वनाथश्री० । ॐ जुंसः महेश्वरश्री० । ॐ जुंसः सद्योजातश्री०। ॐ जुंसः वामदेवश्री ० इति
संपूज्य, मूलेन मूलदेवं सन्तर्प्य
षट्कोणेषु द्वितीयावरणम् ।
प्रथम आवरण
–
ॐ जूं सः कामेश्वरश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
वीरपात्र के अमृत से ईशान- आग्नेय
के आगे पूजन करे।
ॐ जूं सः महाकालश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः स्वच्छन्द श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
इसके मूल मन्त्र से मूल देवता का पूजन
और तर्पण करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
प्रथमावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि प्रदान
करे।
द्वितीय आवरण-
षट्कोण में
ॐ जूं सः कालाग्निरुद्र श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः नेत्रेशश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः विश्वनाथश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः महेश्वरश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ जूं सः सद्योजात श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः वामदेव- श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूल मन्त्र से मूल देव का तर्पण
करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
द्वितीयावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ जुंसः असिताङ्गभैरवश्री ० । ॐ
जुंसः रुरुभैरवश्री ० । ॐ जुंसः चण्डभैरवश्री ० । ॐ जुंसः क्रोधराज भैरवश्री ० । ॐ
जुंसः उन्मत्त भैरवश्री ० । ॐ जुंसः कपालीशभैरवश्री ० । ॐ जुंसः भीषणभैरवश्री ०। ॐ
जुंसः संहार भैरवश्री० । इति संपूज्य मूलेन मूलदेवं संतर्प्य स्ववामावर्तेनाष्टदले
तृतीयावरणम् ।
ॐ जुंसः ब्रह्माणी श्री ० । ॐ जुंसः
माहेश्वरीश्री ० । ॐ जुंसः वैष्णवीश्री ०। ॐ जुंसः वाराही श्री० । ॐ जुंसः नारसिंहीश्री० । ॐ जुंसः इन्द्राणीश्री ० । ॐ
जुंसः चामुण्डाश्री० । ॐ जुंसः महालक्ष्मी श्री० । इति योगिनीपात्रामृतेन
सन्तर्प्य, दिव्यामृतेन
मूलदेवं सदेवीकं सन्तर्प्य स्व वामावर्तेन वसुदले चतुर्थावरणम् ।
तृतीयवरण-
अष्टदल में वामावर्त क्रम से-
ॐ जूं सः असिताङ्ग भैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः चण्डभैरव श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जुं सः क्रोधराजभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः उन्मत्तभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः कपालीशभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः भीषणभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः संहारभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलमन्त्र से मूल देव का तर्पण करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं तृतीयावरणार्चनम्
।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
चतुर्थावरण
- अष्टदल में ही —
ॐ जूं सः ब्रह्माणी श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ जूं सः माहेश्वरी श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः वैष्णवी श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः वाराही श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः नारसिंहीश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः इन्द्राणी श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः चामुण्डाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जुं सः महालक्ष्मीश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
योगिनी पात्र से तर्पण करे। दिव्य
अमृत से देवी सहित मूल देव का तर्पण करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
चतुर्थावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ जुंसः स्वगुरुश्री ० । ॐ जुंसः परमगुरुश्री
० । ॐ जुंसः परापरगुरुश्री० । ॐ जुंसः परमेष्ठिगुरुश्री० इति गुरुपात्रामृतेन
सन्तर्प्य दिव्यामृतेन सदेवीकं देवं बिन्दौ सन्तर्प्य वृत्तत्रये पञ्चमावरणम् ।
ॐ लं इन्द्रश्री ० । ॐ रं
अग्निश्री० । ॐ टं यमश्री० । ॐ क्षं निर्ऋतिश्री० । ॐ वं वरुणश्री ०। ॐ यं
वायुश्री ० । ॐ सं सोमश्री ० । ॐ हं ईशानश्री० । ॐ ह्रीं अनन्तश्री० । ॐ
ब्रह्मश्री० इति वीरपात्रामृतेन संतर्प्य बिन्दौ देवं सन्तर्प्य चतुरश्रे
षष्ठावरणम् ।
पञ्चम आवरण–
वृत्तान्तरालों में-
ॐ जूं सः स्वगुरुश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः परमगुरु श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः परापरगुरुश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः परमेष्ठिगुरु श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
गुरुपात्र के अमृत से तर्पण करके
दिव्यामृत से देवी सहित देव का बिन्दु में तर्पण करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
पञ्चमावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
षष्ठ आवरण
—
भूपुर में पूर्वादि क्रम से –
ॐ लं इन्द्रश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
ॐ रं अग्निश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ टं यमश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ क्षं निर्ऋतिश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ वं वरुणश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ यं वायुश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ सं सोमश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ हं ईशानश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं अनन्तश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ब्रह्मश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
वीरपात्र के अमृत से इनका तर्पण
करे। बिन्दु में देव का तर्पण करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
षष्ठावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि प्रदान
करे।
ॐ वज्रश्री० । शक्तिश्री० ।
दण्डश्री० । खड्गश्री०। पाशश्री० । ध्वजश्री ०। गदाश्री० त्रिशूल श्री० ।
चक्रश्री० पद्मश्री० इति वीरपा त्रामृतेन संपूज्य संतर्प्य,
दिव्यामृतेन बिन्दौ देवे संतर्प्य सप्तमावरणम् ।
मू० श्रीअमृतेश्वरीशक्तिसहित
श्रीमृत्युञ्जय श्रीपादुकां पू० त० । मूलं श्री अमृतेश्वरश्रीपादुकां । मूलं ईशान
श्रीपा० मूलं भुवनेश्वरश्रीपा० । मूलं श्रीमदमृतेश्वरीसहितदीक्षानायक
श्रीमहामृत्युञ्जय श्रीपा० इति दशधा संपूज्य
सन्तर्प्य अष्टमावरणम् ।
सप्तम आवरण-
भूपुर में ही
ॐ वज्रश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
ॐ शक्तिश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ दण्डश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
ॐ खड्गश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
ॐ पाशश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः ।
ॐ ध्वजश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
ॐ गदाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः ।
ॐ त्रिशूल श्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ चक्रश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
ॐ पद्मश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
वीरपात्र के अमृत से तर्पण करे।
दिव्य अमृत से देव का तर्पण करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
सप्तमावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
अष्टम आवरण
—
बिन्दु में
ॐ जूं सः
अमृतेश्वरीशक्तिसहितश्रीमृत्युञ्जयश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः अमृतेश्वरीश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः ईशानश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः भुवनेश्वरश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः
अमृतेश्वरीसहितदीक्षानायकमहामृत्युञ्जय श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
दश बार पूजन तर्पण करे। तत्पश्चात्
निम्न मन्त्र से पुष्पाञ्जलि अर्पित करे-
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यमष्टमावरणार्चनम्
।।
मूलं त्रिखण्डाश्री० । मूलं पाशश्री
० मूलं सुधाकलशश्री० । मूलं मुक्ताक्षसूत्र श्री ० इति परामृतेन बिन्दौ सन्तर्प्य
सशक्तिं देवं बिन्दौ संपूज्य नवमावरणम् ।
मूलं मुष्टिमुद्राश्री ० मूलं
सारङ्गमुद्राश्री० । मूलं लिङ्गमुद्राश्री० । मूलं योनिमुद्राश्री ० मूलं
पञ्चमुखमुद्राश्री० इति बिन्दौ परमामृतेन सन्तर्प्य,
मूलविद्यामुच्चार्य श्रीमदमृतेश्वरीशक्तिसहित श्रीमहामृत्युञ्जय
श्रीपादुकां पू० इति बिन्दौ त्रिः संपूज्य दशमावरणम् ।
इति नत्वा पुनर्नैवेद्यं
ॐ रत्नपात्रस्थितं दिव्यं
नानाव्यञ्जनबृंहितम् ।
दिव्यौदनं निवेद्याशु
परमामृतसंप्लुतम् ॥
इति मृगमुद्रया निवेद्य प्रणम्य,
मूलान्ते आचमनीयताम्बूलारात्रिकाच्छत्र- चामरादर्शप्रभृतीनि
दिव्यानि वस्तूनि सदेवीकाय देवाय निवेद्य साष्टाङ्ग प्रणमेत् ।
नवम आवरण-
बिन्दु में
ॐ जूं सः त्रिखण्डाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ जूं सः पाशश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः सुधाकलशश्री- पादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः मुक्ताक्षसूत्र
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
परामृत से बिन्दु में तर्पण करके
सशक्ति देव का बिन्दु में पूजन करे। तदनन्तर निम्न मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे-
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
नवमावरणार्चनम् ।।
दशम आवरण-
बिन्दु में
ॐ जूं सः मुष्टिमुद्रा श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः सारङ्गमुद्रा श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः लिङ्ग- मुद्राश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ जूं सः योनिमुद्रा श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ जूं सः पञ्चमुखीमुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
बिन्दु में परमामृत से तर्पण करे।
मूल विद्या का उच्चारण करके
श्रीमदमृतेश्वरीशक्तिसहित
श्रीमहामृत्युञ्जय- श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
तीन बार पूजन तर्पण करे। तदनन्तर-
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
दशमावरणार्चनम् ।।
मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर प्रणाम
करे।
पुनः नैवेद्य अर्पण करे;
जैसे-
ॐ रत्नपात्रस्थितं दिव्यं
नानाव्यञ्जनबृंहितम् ।
दिव्यौदनं निवेद्याशु
परमामृत्तसम्प्लुतम्।।
ॐ जूं सः से आचमनीय,
ताम्बूल, आरात्रिक, छत्र,
चामर, दर्पण प्रभृति दिव्य वस्तुओं को
सदेवीकाय देवाय निवेद्य साष्टाङ्ग प्रणाम करे।
देवाग्रे मालामादाय मूलं यथाशक्ति
जप्त्वा 'गुह्यातीति' जपं निवेद्य देवाये कवचसहस्त्रनामस्तवराजपाठं कृत्वा तदपि देवीदेवयो:
समर्प्य, ॐ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्ष: क्षेत्रपालेभ्यो
वौषट् इति बलिं निवेद्य, ॐ यांयींयूंयैयौंयः ह्सौः सः जुॐ
सर्वयोगिनीभ्यो बलिर्नमः, ॐ ह्रीं सर्वविघ्नकृद्भ्यो
भूतेभ्यो बलिर्वषट् स्वाहा, इति बलिं दत्त्वा प्रणाममुद्रां
प्रदर्श्य दण्डवत् प्रणमेत् ।
ततो वीरेन्द्रैः सह वीरपानं विधाय
पूर्णपात्रं हुत्वा स्वशक्तिमानन्दनिर्भरा निर्माय रतेन संतर्प्य शिवोऽहं भावयन्
देवं सदेवीकं ज्योतीरूपं संहृतिमुद्रया श्रीचक्रादुत्थाप्य वामनासयान्तनत्वा
तत्तेजः परमचैतन्यज्योतिषि ब्रह्मणि निलीनं ध्यात्वा
अहमेव परो हंसः शिवः परमकारणम् ।
मत्प्राणे स तु पश्वात्मा लीनः
सामरसीगतः ।
इति ध्यात्वा परमशिवो भूत्वा
स्वशक्त्या सह सुखं विहरेत् । बाह्ये वैष्णवाचारपरायणः कालं नयेत् । ततः
श्रीचक्रमुत्थाप्य मूलेन प्रक्षाल्य निर्माल्यं ॐ जुंसः हूं ॐ स्वाहा'
इतीशानदिशि निर्माल्यं क्षिपेत्।
देव के सम्मुख माला लेकर यथाशक्ति
मन्त्रजप करे। 'गुह्यातिगुह्य' से जप को निवेदन करे। देवता के आगे कवच, सहस्रनाम
स्तोत्र का पाठ करके देवी-देव को समर्पित करे। तब बलि प्रदान करे, जैसे-
ॐ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौः सः
क्षेत्रपालेभ्यो वौषट् ।
ॐ यां यीं यूं यें यौं य: ह्सौः सः
जुं ॐ सर्वयोगिनीभ्यो बलिं नमः ।
ॐ ह्रीं सर्वविघ्नकृद्भ्यो भूतेभ्यो
वलिं वषट्
से वलि देकर प्रणाम मुद्रा दिखाकर
दण्डवत् प्रणाम करे।
तब वीरों के साथ वीरपान करके पूर्ण
पात्र का हवन करें। स्वशक्ति आनन्दनिर्भर का निर्माण करके उसे मैथुन से सन्तुष्ट
करे। तर्पण करे। शिवोऽहं की भावना करे। देवी- सहित देव को ज्योतिरूप में संहार
मुद्रा से श्रीचक्र से उठाकर वाम नासा से अन्दर लाकर उसके तेज़ से परमज्योति
चैतन्य ब्रह्म के तद्रूप होने का ध्यान करें। तदनन्तर इस श्लोक का पाठ करे-
अहमेव परो हंसः शिवः परमकारणाम् ।
मत्प्राणे स तु पश्वात्मा लीनः
सामरसीगतः ।।
ऐसा ध्यान करके परमशिव होकर अपनी
शक्ति के साथ विहार करे। बाहर वैष्णावाचार-परायण होकर कालयापन करे। तब श्रीचक्र को
उठाकर मूल मन्त्र से धोकर रखे। 'ॐ जूं सः हूं ॐ
स्वाहा' बोलकर निर्माल्य को ईशान दिशा में रख दे।
देवीरहस्य पटल ४२- पटलोपसंहारः
इतीदं देवदेवस्य महामृत्युञ्जयस्य
ते ।
नित्यपूजासृतिः सम्यङ्निर्णीता
कुलसुन्दरि ॥
गुह्यातिगुह्यगोत्री त्वं
पद्धतिर्नित्यकर्मणः ।
वर्णिता नेत्रनाथस्य नाख्येया
ब्रह्मवादिभिः ॥
सर्वतन्त्रकसर्वस्वं रहस्य
पारलौकिकम् ।
पूजातत्त्वं मयाख्यातं गोपनीयं
मुमुक्षुभिः ॥
पटलोपसंहार —
हे कुलसुन्दरि ! इस प्रकार देवदेव महामृत्युञ्जय की नित्य पूजा सृति
का सम्यक् निर्णय पूरा हुआ। तुम गुह्य से भी गुह्य को गोपित करने वाली हो।
नेत्रनाथ द्वारा वर्णित इस नित्य कर्मपद्धति को ब्रह्मवादियों को भी नहीं बतलाना
चाहिये। यह सभी तन्त्रों का सर्वस्व, परलोक का रहस्य
पूजातत्त्व है। मेरे द्वारा वर्णित यह गोपनीय है। मुमुक्षुओं से भी इसे गुप्त रखना
चाहिये।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये श्रीमहामृत्युञ्जयपूजापद्धति- निरूपणं नाम द्वाचत्वारिंशः पटलः ॥
४२ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में श्रीमहामृत्युञ्जयपूजापद्धति निरूपण नामक
द्वाचत्वारिंश पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 43
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