देवीरहस्य पटल ३७
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ३७ में लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत श्रीलक्ष्मीनारायण पूजा पद्धति के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् सप्तत्रिंशः पटलः लक्ष्मीनारायणपूजापद्धतिः
Shri Devi Rahasya Patal 37
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य सैंतीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् सप्तत्रिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ३७ लक्ष्मीनारायण पूजा पद्धति
अथ सप्तत्रिंशः पटलः
लक्ष्मीनारायणपूजापद्धतिः
श्रीभैरव उवाच
अधुना देवि वक्ष्येऽहं
गद्यपद्यैकरूपिणीम् ।
पद्धतिं नित्यपूजाया
लक्ष्मीनारायणस्य ते ॥ १ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि ! अब
मैं गद्य-पद्यरूप में लक्ष्मीनारायण की नित्य पूजा पद्धति का वर्णन करता हूँ ।। १
।।
ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय
बद्धपद्मासनः स्वशिरः स्थसहस्त्राराधोमुखकमलकर्णिकान्तर्गतं निजगुरुं
श्वेतालङ्कारालंकृतं ध्यात्वा, मानसैरुपचारैरभ्यर्च्य
तदग्रे मूलं स्वशक्त्या जप्त्वा, तज्जपं गुरवे समर्प्य,
तदाज्ञामादाय बहिरागत्य दूरं मलादि संत्यज्य वर्णोक्तं शौचमादाय,
नद्यादौ गत्वा, 'ॐ क्लीं सर्व- जनप्रियाय
कामदेवाय नमः' इति दन्तान् विशोध्य आत्मशुद्धिं कृत्वा
मृत्त्रयं मूलेन संशोध्य मलापकर्षणं स्नानं कृत्वा मन्त्रस्नानं चरेत्। तत्र मृदा-
ॐ गांगूं गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि
सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ॥
इत्यङ्कुशमुद्रयावाह्य,
मृदा मूलं
देवेश भक्तिसुलभ परिवारसमन्वित ।
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावद् देव
इहावह ॥
साधक ब्राह्ममुहूर्त में उठकर
पद्मासन में बैठे। अपने शिर में स्थित अधोमुख सहस्रदल कमलकर्णिका में अपने गुरु का
ध्यान करें। गुरु श्वेत वस्त्रालंकार से युक्त है ऐसा ध्यान करते हुये मानसिक
उपचारों से उनका पूजन करे। उनके आगे मूल मन्त्र का जप यथाशक्ति करे। जप गुरु को
समर्पित करे। गुरु की आज्ञा लेकर घर से बाहर जाये। दूर जाकर मलादि का त्याग करके
स्ववर्णोक्त शौच करे तब नदी किनारे जाकर 'ॐ
क्लीं सर्वजनप्रियाय कामदेवाय नमः' से
दाँतों को साफ करे। आत्मशुद्धि करे। मिट्टी के तीन ढेलों को लेकर मूल मन्त्र से
शोधन करे उस मिट्टी को देह में लगाकर मलापकर्षण स्नान करे। मन्त्रस्नान करे।
मिट्टी में अंकुशमुद्रा से सूर्यमण्डल से तीर्थों का आवाहन करे-
ॐ गां गूं गङ्गे च यमुने चैव
गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु।।
फिर मिट्टी की मूल मन्त्र के साथ इस
मन्त्र से प्रार्थना करे-
देवेश भक्तिसुलभ परिवारसमन्वित ।
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावद् देव
इहावह ॥
इत्यावाहनादिमुद्राः प्रदर्श्य
धेनुयोनिमत्स्यमुद्राः प्रदर्श्य मृदमङ्गे विलिप्य,
जले त्र्यश्रं विभाव्य, त्र्यश्रे मूलं
विलिख्य, तत्र मूलमुच्चरंस्त्रिरुन्मज्जेत्। ततः
सूर्यायार्घ्यत्रयं दद्यात्, ॐ ह्रींहंसः श्रीसूर्याय एष
तेऽर्घो नमः' इत्यर्घ्यत्रयं दत्त्वा जलादारुह्य, वासांसि परिधाप्य, देहशुद्धिं विधाय मूलर्षिन्यासादि
विधाय मूलं यथाशक्त्या जप्त्वाऽघमर्षणं कुर्यात्। वामहस्ते जलं धृत्वा, दक्षहस्तेनाच्छाद्य, यंरंवंलंहं इति
सप्तधाभिमन्त्र्य, तद्द्वलितोदकबिन्दुभिर्मूल-
मुच्चरंश्चतुर्दशधा शिरः प्रोक्ष्यावशिष्टजलं दक्षहस्ते धृत्वेडयान्तर्नीत्वा पापं
प्रक्षाल्य, तज्जलं कलुषं वामनासापुटेन बही रेचयित्वा वाममार्गस्थ
- शिलायामास्फालयेदित्यघमर्षणम् ।
इसके बाद आवाहनादि मुद्रा दिखाकर
धेनु,
योनि, मत्यमुद्रा दिखावे। तब शरीर में मिट्टी
को लगाकर जल में त्रिकोण की कल्पना करके उसमें मूल मन्त्र लिखे। तब मूल
मन्त्रोच्चारणपूर्वक तीन डुबकी लगाये। इसके बाद तीन अर्घ्य सूर्य को प्रदान करे।
अर्घ्यमन्त्र है - ॐ ह्रीं हंसः श्रीसूर्याय एष तेऽघों नमः । तीन अर्घ्य
देकर जल के बाहर आये। वस्त्र बदले और देहशुद्धि करे। मूल मन्त्र से न्यास करे ।
यथाशक्ति मूल मन्त्र का जप करके अघमर्षण करे। बाँयें हाथ में जल लेकर दायें हाथ से
ढके। यं रं लं वं हं के सात जप से उसे अभिमन्त्रित करे। उससे टपके हुए
बिन्दुओं से मूलमन्त्रोच्चारणपूर्वक शिर का प्रोक्षण चौदह बार करे अवशिष्ट जल
दाहिनी हथेली में लेकर इडा से अन्दर खींचे और पाप का प्रक्षालन करे। उस जल को वाम
नासापुट से बाहर रेचित कर दे। अपने वाम भाग में स्थित काल्पनिक शिला पर पाप पुरुष
को पटक दें।
ततः पूर्ववन्न्यासं विधाय गायत्री
जपेत् 'ॐ ह्रीं लक्ष्मीनारायणाय विद्महे
ह्सौः परब्रह्मणे धीमहि ह्रीं श्रीं तन्नः परमात्मा प्रचोदयात् ३ । इति यथाशक्त्या
जप्त्वा, अनया श्रीगायत्र्या साङ्गाय सवाहनाय सपरिच्छदाय सशक्तिकाय
श्रीलक्ष्मीनारायणाय एष तेऽर्घो नमः, इत्यर्घ्यत्रयं दत्त्वा
प्राणायामत्रयं कृत्वा,
इडया पिब षोडशभिः पवनं कुरु
षष्टिचतुष्टयमन्तरगम् ।
त्यज पिङ्गलया शनकैः
शनकैर्दशभिर्दशभिर्दशभिर्यधिकैः ॥
इत्थं प्राणायामत्रयं विधाय ॐ ह्रीं
आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐ
ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं
शोधयामि स्वाहा, इत्याचम्य, पूर्ववत्
सूर्यायार्घ्यत्रयं दत्त्वा जले यन्त्रं ध्यात्वा तत्र यथाशक्त्या तर्पणं
कुर्यात्। मूलमुच्चार्य श्रीसाङ्गः सवाहनः सपरिवारः सदेवीकः लक्ष्मीनारायणः
तृप्यतामिति त्रिः सन्तर्प्य, मूलविद्याक्षरमुच्चार्य
एकैकाञ्जलिना परिवारान् सन्तर्प्य,
देवर्षिपितॄन् सन्तर्प्य, पूर्ववत्
सूर्यायार्घ्यत्रयं दत्त्वा (संहारमुद्रया देवतां प्रणम्य ) यागमण्डपं प्रविशेदिति
सन्ध्याविधिः ।
इसके बाद पूर्ववत् न्यास करके
गायत्री का जप करें। लक्ष्मीनारायण का गायत्री मन्त्र है –
ॐ ह्रीं लक्ष्मीनारायणाय विद्महे
ह्सौः परब्रह्मणे धीमहि ह्रीं श्रीं तन्नः प्रचोदयात् ।
इसे यथाशक्ति जप कर इसी गायत्री के
साथ 'साङ्गाय सवाहनाय सपरिच्छदाय सशक्तिकाय श्रीलक्ष्मीनारायणाय एष तेऽर्घो नमः'
जोड़कर तीन अर्घ्य प्रदान करें। तब तीन
प्राणायाम करे। प्राणायाम में १६ मात्रा से इड़ा नाड़ी से पूरक करे,
६४ मात्रा से कुम्भक करे और पिङ्गला से ३२ मात्रा में रेचक करे। इस
प्रकार के तीन प्राणायाम करके तब शोधन करे; जैसे-
ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि
स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि
स्वाहा।
ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि स्वाहा
।
इन तीन मन्त्रों से तीन आचमन करके
पूर्ववत् सूर्य को तीन अर्घ्य प्रदान करे। जल में यन्त्र का ध्यान करके यथाशक्ति
तर्पण करे। तर्पण मन्त्र है - ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय नमः
श्रीसाङ्गः सवाहनः सपरिवारः सदेवीकः लक्ष्मीनारायणः तृप्यताम् । तीन बार तर्पण
करे। मूल विद्या का उच्चारण करके परिवार के प्रत्येक सदस्य को एक-एक अञ्जलि जल से
तर्पण करे। देवता, पितर का तर्पण करके
पूर्ववत् सूर्य को तीन अर्घ्य प्रदान करे। संहारमुद्रा से देवता को प्रणाम करके
यागमण्डप में प्रवेश करे।
तत्र गृहमागत्य पादौ प्रक्षाल्य
द्वारमभ्युक्ष्य, देहल्यप्रतश्चतुरश्रवृत्तमण्डलं
विलिख्य, तत्र क्षालिताधारं संस्थाप्य अस्त्राय फडिति साधारं
पात्रं संस्थाप्य ॐ हृदयाय नमः इति हृन्मन्त्रेणापूर्य, ॐ
लक्ष्मीनारायणसामान्यार्घ्याय नमः इत्यभ्यर्च्य 'गङ्गे इति'
तीर्थमावाह्य धेनुमुद्रां प्रदर्श्य, द्वारमभिषेचयेदिति
सामान्यार्ध्यविधिः ।
सामान्यार्घ्य —
घर पर आकर पैरों को धोकर द्वार का अभ्युक्षण करे। दरवाजे के आगे
चतुरस्र वृत्तमण्डल बनाकर उस पर आधार को धोकर स्थापित करे । 'अस्त्राय फट्' बोलकर आधार पर पात्र स्थापित करे।
'ॐ हृदयाय नमः' से उसमें जल
भरे। 'ॐ लक्ष्मीनारायणसामान्यार्घ्याय नमः' से अर्चन करे। 'गङ्गे च यमुने' मन्त्र से तीर्थो का आवाहन करे। धेनुमुद्रा दिखाये। द्वार का अभिसेचन करे।
यह सामान्यार्घ्यं विधि का वर्णन हुआ।
पूर्वे गं गणपतये नमः,
दक्षिणे वां वटुकाय नमः, पश्चिमे क्षां
क्षेत्रपालाय नमः, उत्तरे यां योगिनीभ्यो नमः, दक्षे गां गङ्गायै नमः, वामे यं यमुनायै नमः,
ऊर्ध्वे सं सरस्वत्यै नमः, अधो देहल्यां
अस्त्राय फट् इति द्वारदेवी: संपूज्य, द्वारान्तः प्रविश्य विहितासने उपविश्य मूलेन निरीक्ष्य कवचेनाभ्युक्ष्य,
अस्त्राय फडिति सन्ताड्य, पूजामण्डपं सधूपितं
कृत्वा विष्टरशुद्धिं कुर्यात् । ॐ आं आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं
छन्दः कूर्मो देवता आसनशोधने विनियोगः । प्रीं पृथिव्यै नमः,
ॐ महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां लोके पवित्रं कुरु
चासनम् ॥
ॐ क्रां आधारशक्तिकमलासनाय नमः,
अनन्ताय नमः, पद्माय नमः, पद्मनालाय नमः, तत्रोपविश्य, तालत्रयं
दत्त्वा, अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ॥
द्वारपूजन- पूर्व में गङ्गणपतये नमः
। दक्षिण में वां वटुकाय नमः। पश्चिम में क्षां क्षेत्रपालाय नमः । उत्तर में यां
योगिनीभ्यो नमः । दाहिनी तरफ गां गङ्गायै नमः। बाँयी तरफ यं यमुनायै नमः। ऊपर में
सं सरस्वत्यै नमः दरवाजे के नीचे देहल्यां अस्त्राय फट् से द्वारदेवी का पूजन करे।
इसके बाद यागमण्डप में प्रवेश करे।
यागमण्डप में प्रवेश करके विहित आसन
पर बैठे मूल मन्त्रोच्चारणपूर्वक निरीक्षण करे। कवच से अभ्युक्षण करे। 'अस्त्राय फट्' से ताड़न करे। पूजामण्डप को धूपित
करें। तब आसन शुद्धि करे। आसनशुद्धि-
ॐ आं आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः,
सुतलं छन्दः, कूर्मो देवता, आसनशोधने विनियोगः ।
प्री पृथिव्यै नमः ।
ॐ महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
ॐ क्रां आधारशक्तिकमलासनाय नमः।
अनन्ताय नमः पद्माय नमः।
पद्मनालाय नमः।
इन मन्त्रों से आसनशुद्धि करके उस
पर बैठे। तब भूतोत्सारण करे-
भूतोत्सारण- तीन ताली बजाकर इस
मन्त्र का पाठ करे; जैसे—
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिता ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ।।
इति वामपर्ष्णिघातत्रयेण
विघ्नानुत्सार्य, नाराचमुद्रां
प्रदर्शयेत् इति आसनं संशोध्य गुरुं प्रणमेत्।
अखडमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्
।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे
नमः ॥
गुरुभ्यो नमः,
परमगुरुभ्यो नमः, परापरगुरुभ्यो नमः, परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः इति शिरसि संपूज्य, देवं
प्रणम्य, ॐ ह्रींमित्याकुञ्चनेन सुषुम्नावर्त्मना प्रदीपकलिकाकारां
ब्रह्मपथान्तर्नीत्वा परमशिवेन संयोज्य तयोरैक्यं विभाव्य, तदुद्भूतामृतधारया
कुलगुरून् संतर्प्य, पुनस्तेनैव मार्गेण डाकिन्यादिशक्ती:
प्रीणयन्ती कुण्डलिनीं स्वं पदं प्रापय्य वामकुक्षौ पापपुरुषमङ्गुष्ठमात्राकारं
धूम्रवर्णं ध्यात्वा, यंरंवंलं इति
शोषणदाहनाप्लावनोत्पाटनादि कुर्यात् । यं वायुबीजेन षोडशधा जप्तेन शोषयेत्। रं
वह्निबीजेन चतुःषष्ट्या जप्तेन दाहयेत्। वं वरुणबीजेन द्वात्रिंशद्वार-जप्तेनाप्लावयेत्।
लमिति भूबीजेन दशधा जप्तेन शरीरं पिण्डीभूतं विधाय प्राणप्रतिष्ठां कुर्यादिति
भूतशुद्धिः ।
तब बाँयी एंडी को पृथ्वी पर तीन बार
पटके। नाराच मुद्रा दिखाये। इस प्रकार शुद्धि करके गुरु को प्रणाम करे। जैसे—
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन
चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे
नमः ।।
गुरुभ्यो नमः । परमगुरुभ्यो नमः ।
परापरगुरुभ्यो नमः । परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः ।
इनका पूजन शिर पर करके देवता को
प्रणाम करे। ॐ ह्रीं से मूलाधार का आकुञ्चन करके सुषुम्ना मार्ग से प्रदीपकलिका
आकार की कुण्डलिनी को ब्रह्मरन्ध्र में लाकर परमशिव के साथ संयुक्त करें। उनके
ऐक्य की भावना करके ऐक्य से उद्भूत अमृतधारा से कुलगुरुओं का तर्पण करे। फिर उसी
मार्ग से डाकिनी आदि शक्तियों को प्रसन्न करते हुये कुण्डलिनी को मूलाधार में
स्थापित करे। अपनी बाँयीं कुक्षि में अंगुष्ठ बराबर धूम्रवर्ण के पापपुरुष का
ध्यान करके 'यं रं लं' से
उसका शोषण, दाहन, प्लावनादि करे।
वायुबीज 'यं' के सोलह जप से शोषण करे।
वह्निबीज 'रं' के चौंसठ जप से दाहन
करे। 'वं' वरुणबीज के बत्तीस जप से
प्लावन करे। भूबीज 'लं' के दश जप से
शरीर को पिण्डीभूत करे। प्राणप्रतिष्ठा करे। यही भूतशुद्धि है।
देवीरहस्य पटल ३७ - प्राणप्रतिष्ठा
ॐ ह्रींक्रों यंरंलंवं शंषंसंहं
सोहंस हंसः मम प्राणा इह प्राणाः, ॐ
.. मम जीव इह स्थितः ॐ .. सर्वेन्द्रियाणि,
ॐ .. वाङ्मनश्चक्षुः
श्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति प्राणप्रतिष्ठाक्रमः।
प्राणान् समर्प्य प्राणायामत्रयं
कृत्वा, पूर्ववदाचम्य सङ्कल्पपूर्व
न्यासं कुर्यात् । अस्य लक्ष्मीनारायणपूजामन्त्रस्य श्रीशिव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, लक्ष्मीनारायणो देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ
कीलकं, भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे लक्ष्मीनारायणपूजायां विनियोगः
।
प्राणप्रतिष्ठा- ॐ ह्रीं क्रों यं
रं लं वं शं षं सं हं सोहंस हंसः मम प्राणा इह प्राणाः।
ॐ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हं सोहंस हंसः मम जीव इह स्थितः।
ॐ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हं सोहंस हंसः सर्वेन्द्रयाणि ।
ॐ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हं सोहंस हंसः वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं
तिष्ठन्तु स्वाहा।
यह प्राणप्रतिष्ठा का क्रम है।
प्राणप्रतिष्ठा करके प्राणायामत्रय करे। पूर्ववत् आचमन करके संकल्पपूर्वक न्यास
करे।
देवीरहस्य पटल ३७ – न्यास
न्यास —
अस्य लक्ष्मीनारायणपूजामन्त्रस्य श्रीशिव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, लक्ष्मीनारायणो देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ
कीलकं, भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे लक्ष्मीनारायणपूजायां विनियोगः
।
शिवऋषये नम: शिरसि,
त्रिष्टुप्छन्दसे नमो मुखे, लक्ष्मीनारायणदेवताय
नमो हृदि, श्रीं बीजाय नमो गुह्ये, ह्रीं
शक्तये नमः पादयोः, ॐ कीलकाय नमः सर्वाङ्गेषु इति विन्यस्य
षडङ्गादि कुर्यात् ।
ॐ ह्रांश्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं श्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं श्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं श्रैं अनामिकाभ्यां
नमः । ॐ ह्रौं श्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः श्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
एवं षडङ्गन्यासः ।
ऋष्यादि न्यास - शिवऋषये नम: शिरसि ।
त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे। लक्ष्मीनारायण- देवतायै नमः हृदि । श्री बीजाय नमः
गुह्ये । ह्रीं शक्तये नमः पादयोः । ॐ कीलकाय नमः सर्वांगेषु।
इसके बाद षडाङ्गादि न्यास करे।
करन्यास —
ॐ ह्रां श्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं श्रीं तर्जनीभ्यां नमः
। ॐ ह्रूं श्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं श्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ
ह्रौं श्रौं कनिष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रः श्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
षडङ्गन्यास —
ॐ ह्रां श्रां हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं श्रीं शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं श्रूं
शिखायै वषट् । ॐ ह्रैं श्रैं कवचाय हुं। ॐ ह्रौं श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः
श्रः अस्त्राय फट्।
अथ (पुनः) करशुद्धिः - ॐ
कामरूपपीठाय नमः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ह्रीं जालन्धरपीठाय नमः तर्जनीभ्यां नमः ।
ह्सौः पूर्णगिरिपीठाय नमः मध्यमाभ्यां नमः । ह्रीं अवन्तीपीठाय नमः । अनामिकाभ्यां
नमः। श्रीं सप्तपुरीपीठाय नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
वाराणसी- पीठाय नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । इति करशुद्धिः। एवं षडङ्गन्यासः - अंआंइंईंउंऊंऋंऋॄं
वामपादादिगुल्फान्तम् । लृंलॄंएंऐं ओंअं अः दक्ष- पादादिगुल्फान्तम् । कंखंगंघंङं
गुल्फादिवामपादमूलान्तम्। चंछंजंझंञं गुल्फादिदक्षपादमूलान्तम्। टंठंडंढंणं
नाभ्यादिवामबाहुमूलान्तम्। तंथंदंधंनं नाभ्यादिदक्षबाहुमूलान्तम् । पंफंबंभंमं
कट्यादिककुबन्तम् । यंरंलंवं वामस्कन्धादिवामकर्णान्तम् । शंषंसंहं
दक्षस्कन्धादिदक्षकर्णान्तम् । ळंक्षः शिरसः पादपर्यन्तमिति निर्व्यापयेत्।
अं कंखंगंघंङं आं अङ्गुष्ठाभ्यां
नमः, इं चंछंजंझंञं ईं तर्जनीभ्यां
नमः, उं टंठंडंढंणं ऊं मध्यमाभ्यां नमः, एं तंथंदंधंनं ऐं अनामिकाभ्यां नमः, ओं पंफंबंभंमं औं
कनिष्ठिकाभ्यां नमः, अं यंरंलंवंशंषंसंहंळंक्षः अः
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः, इति करन्यासः । एवं
हृदयादिषडङ्गन्यासः ।
करशुद्धि-
ॐ कामरूपपीठाय नमः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ह्रीं जालन्धरपीठाय नमः तर्जनीभ्यां नमः ।
ह्सौः पूर्णगिरिपीठाय नमः मध्यमाध्यां नमः । ह्रीं अवन्तीपीठाय नमः अनामिकाभ्यां
नमः। श्रीं सप्तपुरीपीठाय नमः कनिष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
वाराणसीपीठाय नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
षडङ्ग न्यास-
ॐ कामरूपपीठाय नमः हृदयाय नमः। ह्रीं जालन्धरपीठाय नमः शिरसे स्वाहा । ह्सौः पूर्णगिरिपीठाय
नमः शिखायै वषट्। ह्रीं अवन्तीपीठाय नमः कवचाय हुँ । श्रीं सप्तपुरीपीठाय नमः
नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं वाराणसीपीठाय नमः अस्त्राय फट् ।
मातृका न्यास-
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं वामपादादिगुल्फान्तम्। लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः दक्षपादादिगुल्फान्तम्।
कं खं गं घं ङं वामगुल्फादिपादमूलान्तम्।
चं छं जं झं जंञं दक्षगुल्फादिपादमूलान्तम्। टं ठं डं ढं णं
नाभ्यादिवामबाहुमूलान्तम्। तं थं दं धं नं नाभ्यादिदक्षबाहुमूलान्तम्। पं फं बं भं
मं कट्यादिककुदन्तम्। यं रं लं वं वामस्कन्धादिवामकर्णान्तम्। शं षं सं हं
दक्षस्कन्धादिदक्षकर्णान्तम्। ळं क्षं शिरसः पादपर्यन्तम्।
तीन बार व्यापक न्यास करे।
करन्यास
- अं कं खं गं घं ङं आं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। इं चं छं जं झं जं ञं ईं तर्जनीभ्यां
नमः । उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाभ्यां नमः। एं तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः। ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठाभ्यां नमः। अं यं
रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं अः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
षडङ्ग
न्यास-अं कं खं गं घं ङं आं हृदयाय नमः। ई चं छं जं झं जं ञं ईं शिरसे
स्वाहा। उं टं ठं डं ढं णं ॐ शिखायै वषट्। एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुं। ओं पं
फं बं भं मं औँ नेत्रत्रयाय वौषट्। अं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं अः
अस्त्राय फट् ।
अथ मातृकान्यासः - अं नमः शिरसि, आं मुखवृत्ते, इं दक्षनेत्रे, ईं वामनेत्रे, उं दक्षकर्णे, ऊं
वामकर्णे, ऋं दक्षनासापुटे, ऋॄं वामनासापुटे,
लृं दक्षगण्डे, लॄं वामगण्डे, एं ऊध्वोंष्ठे, ऐं अधरोष्ठे, ओं
ऊर्ध्वदन्तपङ्क्ति, औं अधोदन्तपंक्ती, अं
शिरसि, अः मुखे, कंखंगंघंङं
दक्षबाहुसन्धिषु, चंछंजंझंञं वामबाहु सन्धिषु, टंठंडंढंणं दक्षपादसन्धिषु, तंथंदंधनं वामपादसन्धिषु,
पं दक्षपार्श्वे, फं वामपार्श्वे, वं पृष्ठे, भं नाभौ, मं जठरे,
यं हृदि, रं दक्षांसे, लं
ककुदि, वं वामांसे, शं
हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तं, षं हृदादिवामहस्ताग्रान्तं, सं हृदादिदक्षपादाग्रान्तं, हं
हृदादिवामपादाग्रान्तं, ळं पादादिशिरः पर्यन्तं, क्षः शिरसः पादपर्यन्तमिति त्रिर्व्यापयेत् । ततः अंॐ अं इति क्षान्तं
न्यसेत् । अंह्रींअमिति क्षान्तं मातृकास्थानेषु न्यसेत्। अंह्सौः अमिति क्षान्तं
न्यसेत् । अंह्रींअं इति क्षान्तं न्यसेत् । अंश्रींअं इति क्षान्तं न्यसेत्।
केवलं मातृकास्थानेषु मूलं न्यसेदिति षोढा न्यासं विधाय मूलमुच्चरन् देहशुद्धिं
कृत्वा घटपूजां कुर्यात् ।
मातृका न्यास
- अं नमः शिरसि। आं नमः मुखवृत्ते। इं नमः दक्षनेत्रे । ईं नमः वामनेत्रे। उं नमः
दक्षकर्णे। ऊं नमः वामकर्णे। ऋं नमः दक्षनासापुटे। ॠं नमः वामनासापुटे। लृं नमः दक्षगण्डे। लॄं नमः
वामगण्डे । एं नमः ऊर्ध्वोष्ठे । ऐं नमः अधरोष्ठे । ॐ नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्त। औं नमः अधोदन्तपंक्तौ। अं नमः शिरसि। अः नमः मुखे। कं खं गं घं ङं दक्षबाहुसन्धिषु।
चं छं जं झं ञं वामबाहुसन्धिषु। टं ठं डं ढं णं दक्षपाद सन्धिषु। तं थं दं धं नं
वामपादसन्धिषु । पं नमः दक्षपार्श्वे। फं नमः वामपार्श्वे। बं नमः पृष्ठे । भं नमः
नाभौ। मं नमः जठरे। यं नमः हृदि । रं नमः
दक्षांसे। लं नमः ककुदि। वं नमः वामांसे ।
शं नमः हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तम्। षं नमः हृदादिवामहस्ताग्रान्तम्। सं नमः
हृदादिदक्षपादाग्रान्तम्। हं नमः हृदादि वामपादात्रान्तम्। लं नमः पादादिशिरः
पर्यन्तम्। क्षं नमः शिरसः पादपर्यन्तम्।
तीन व्यापक न्यास करे।
सम्पुट न्यास
- इसके बाद अं ॐ अं से क्षं ॐ क्षं तक सम्पुटित न्यास करे। अं ह्रीं अं से क्षं
ह्रीं क्षं तक न्यास करे। अं ह्सौः अं से क्षं ह्सौः क्षं तक न्यास करे। अं ह्रीं
अं से क्षं ह्रीं क्षं तक न्यास करे। अं श्रीं अं से क्षं श्रीं क्षं तक न्यास
करे। केवल मातृकास्थानों में मूल मन्त्र का न्यास करे। इस प्रकार षोढ़ा न्यास के
बाद मूल मन्त्र का उच्चारण करके देहशुद्धि करे। तब घटपूजन करे।
तत्र सामान्यार्घ्यस्य वामे बिन्दुषट्कोणवृत्तचतुरश्रं
विलिख्य, तंत्र 'ॐ
पीठेभ्यो नमः' इत्यभ्यर्च्य तत्र क्षालिताधारं संस्थाप्य रं
वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः इत्यक्षतैः संपूज्य, तत्र
श्रीघटं संस्थाप्य,
ब्रह्मणा च यथापूर्व विष्णुना च यथा
पुरा ।
शम्भुना च यथा देवि तथा त्वां
स्थापयाम्यहम् ।।
इति संस्थाप्य,
अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः, इति
गन्धपुष्पैरभ्यर्च्य, मूलं विलोममातृकया परमामृतेनापूर्य,
सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः इति संपूज्य, अस्त्राय फडिति कुम्भे द्रव्यं संताड्य मूलमुच्चरन् नासया त्रिर्गन्धं
गृह्णीयात् । तत्र त्रिकोणं विलिख्य, मूलं त्रिरिष्ट्वा
मूलेन प्रपूज्य, 'ॐह्रांह्रींह्रंह्रैंह्रौंह्र: सुधे शुक्रशापं मोचय मोचय अमृतं स्त्रावय
स्त्रावय स्वाहा' इति द्रव्योपरि दशधा संजप्य,
ॐ सूर्यमण्डलसंभूते वरुणालयसंभवे ।
अमाबीजमये देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ॥
पवमानः परानन्दः पवमानः परो रसः ।
पवमानं परं ज्ञानं तेन त्वां
पावयाम्यहम् ॥
इति त्रिर्जप्त्वा ॐ अंआंइं अमृते
अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्त्रावय स्त्रावय अंह्रीं अमृतेश्वर्यै नमः इति
द्रव्योपरि दशधा जप्त्वा, आनन्द-
भैरवभैरव्यौ ध्यात्वा हसक्षमलवरयऊं आनन्दभैरवाय वषट् इति दशधा जपेत् । ॐ
सुधादेव्यै वौषट् इति द्रव्योपरि दशधा जप्त्वा तत्र त्रिकोणं विलिख्य 'गङ्गे च यमुने चैव' इत्यादिना तीर्थमावाह्य, अकारादिषोडश ककारादिषोडश थकारादिषोडश पूर्वादित्रिकोणे न्यसेत्। मध्ये
हळंक्षं विलिख्य, मूलं दशधा जप्त्वा गन्धपुष्पदूर्वाक्षतैः
संपूज्य, मत्स्यमुद्रादीन् शोधयेदिति द्रव्यशुद्धिः ।
घट पूजन द्रव्यशोधन-सामान्य
अर्घ्यपात्र के वाम भाग में बिन्दु, षट्कोण
वृत्त, चतुरस्र बनाकर उसका अर्चन 'ॐ
पीठेभ्यो नमः' से करे। उस पर आधार को धोकर स्थापित करे। रं
वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः से अक्षत चढ़ावे आधार पर घट स्थापित करे। घटस्थापन का
मन्त्र है-
ब्रह्मणा च यथापूर्व विष्णुना च यथा
पुरा ।
शम्भुना च यथा देवि तथा त्वं
स्थापयाम्यहम्।।
इसके बाद अं अर्कमण्डलाय
द्वादशकलात्मने नमः से गन्धाक्षतपुष्प से घट का पूजन करे। तब मूल मन्त्र के साथ
क्षं से अं तक विलोमात्मक मातृका पाठ करके परमामृत से कलश को भर दें। सौः
सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः से कलशस्थ अमृत का पूजन करे। अस्त्राय फट् कहकर
कलशस्थ द्रव्य का ताड़न करे। मूल मन्त्र बोलकर नाक से त्रिगन्ध ग्रहण करे। त्रिकोण
बनाये 'त्रिरिष्ट्वा' को मूल मन्त्र से सम्पुटित करके पूजन
करे। 'ॐह्रांह्रींह्रंह्रैंह्रौंह्र: सुधे शुक्रशापं मोचय मोचय अमृतं स्त्रावय
स्त्रावय स्वाहा' का जप द्रव्य पर दश बार करे।
ॐ सूर्यमण्डलसंभूते वरुणालयसंभवे ।
अमाबीजमये देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ॥
पवमानः परानन्दः पवमानः परो रसः ।
पवमानं परं ज्ञानं तेन त्वां
पावयाम्यहम् ॥
इन तीनों श्लोकों को जप तीन बार
करे।
ॐ अं आं इं अमृते अमृतोद्भवे
अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय अं ह्रीं अमृतेश्वर्यै नमः। अमृत पर इसका जप दश
बार करे। आनन्दभैरव और भैरवी का ध्यान करें। ह स क्ष म ल व र य ऊं आनन्दभैरवाय
वौषट् का जप दश बार करे। ह स क्ष म ल व र य ऊं सुधादेव्यै वौषट् का जप द्रव्य पर
दश बार करे। द्रव्य पर त्रिकोण की कल्पना करके 'गङ्गे च यमुने' इत्यादि मन्त्र से तीर्थों का आवाहन
करे। त्रिकोण के तीनों कोनों में पूर्वादि क्रम से अकारादि षोडश स्वर क से त तक के
सोलह वर्ण, थ से स तक के सोलह वर्णों का न्यास करे। त्रिकोण
के मध्य में हं ळं क्षं लिखे मूल मन्त्र का दश बार जप करे। गन्धाक्षतपुष्प दूब से
पूजा करे मत्स्यादि मुद्राओं से शोधन करे। यह द्रव्यशुद्धिकरण हुआ।
मीनोपरि धेनुयोनिमत्स्यमुद्राः
प्रदर्श्य-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय
मामृतात् ॥
इति मूलं त्रिर्जप्त्वा मीनं
शोधयेदिति मीनशुद्धिः ।
मांसोपरि मुद्रात्रयं प्रदर्श्य-
ॐ प्रतद्विष्णुः स्तवते वीर्येण
मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः ।
यस्योरुषु त्रिषु
विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥
इति मूलं त्रिर्जप्त्वा मांसं
शोधयेदिति मांसशुद्धिः ।
मुद्रोपरि मुद्रात्रयं प्रदर्श्य-
ॐ तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति
सूरयः दिवीव चक्षुराततम् ।
तद्विप्रासो विषण्यवो जागृवांसः
समिन्धते विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥
इति मूलं त्रिर्जप्त्वा मुद्रां
शोधयेदिति ।
मत्स्यशुद्धि –
मत्स्य पात्र में धेनु योनि मुद्रा दिखाये तब इस मन्त्र का जप तीन
बार करे-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव
बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
मांसशोधन –
मांसपात्र को मत्स्य, धेनु और योनि मुद्रा
दिखाकर इस मन्त्र का जप करे-
ॐ प्रतद् विष्णुः स्तवते वीर्येण
मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः ।
यस्योरुषु त्रिषु
विक्रमणेष्वधिक्षिपन्ति भुवनानि विश्वा।।
इस प्रकार मांसशोधन होता है।
मुद्राशोधन –
मुद्रापात्र में मत्स्य, योनि और धेनुमुद्रा
दिखाकर निम्न मन्त्र का पाठ करके तीन बार मूल मन्त्र का जप करे-
ॐ तद् विष्णोः परमं पदं सदा
पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततं तद् विप्रासो
विपण्यवो
जागृवांसः समिन्धसे विष्णोर्यत्परमं
पदं ।।
यह मुद्राशोधन हुआ।
ततो मुद्राखण्डमीनखण्डमांसखण्डादीन्
घटे निःक्षिप्य, चतुरस्रं विलिख्य,
स्ववामे साधारं पात्रं गुरोः संस्थाप्य, कुलामृतेनापूर्य
मूलेन पूजयेत्। ततः स्वभोगपात्रं शक्तिपात्रं योगिनीवीरपात्रमधुपर्कपात्राणि
संस्थाप्य कलशा- मृतेनापूर्य घृतमधुशर्कराभिर्मधुपर्कपात्रं प्रपूर्य योगपीठपूजां
कुर्यात्। बिन्दुविभूषणत्रिकोणविराजमानवसुकोण- मण्डितवृत्ताञ्चितवसुदलविराजितषोडशदलखचितवृत्तत्रयसंभूषितचतुरश्रं
श्रीयन्त्रराजं विलिख्य, श्रीस्वर्णपीठादौ निवेश्य, हृदि सदेवीकं देवं मानसोपचारैरभ्यर्च्य बाह्यपूजां कुर्यात् । तत्र ॐ
ह्रीं मण्डूकाय नमः, ॐ कालाग्निरुद्राय नमः, ॐ मूलप्रकृत्ये नमः, ॐ आधारशक्त्यै नमः, कूर्माय नमः, ॐ अनन्ताय नमः, ॐ
वराहाय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः, ॐ
सुधार्णवाय नमः, ॐ मणिमयद्वीपाय नमः । अष्टदिक्षु ॐ नवरत्नखण्डेभ्यो
नमः, ॐ सुवर्णपर्वताय नमः, ॐ
नन्दनोद्यानाय नमः, ॐ कल्पवनाय नमः, ॐ
पद्मवनाय नमः, ॐ विचित्ररत्नखचित भूमिकायै नमः, ॐ चिन्तामणिमण्डपाय नमः, ॐ नवरत्नवेदिकायै नमः, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः, ॐ उच्चैः श्वेतच्छत्राय नमः,
पूर्वादिदिक्षु ॐ धर्मज्ञानवैराग्यैश्वयेभ्यो नमः, ॐ विदिक्षु अधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्येभ्यो नमः,
ॐ सं सत्त्वाय नमः, ॐ रं रजसे नमः, ॐ तं तमसे नमः, ॐ तत्त्वेभ्यो नमः, ॐ ह्रींह्सौः मन्त्रवर्णभूषितकर्णिकायै
नमः, ॐ प्रकृतिमयपत्रेभ्यो
नमः, ॐ विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः, ॐ गरुडाय
नमः, पञ्चाशद्वर्णविभूषितपद्मासनाय नमः, मूलं सर्वतत्त्वात्मकाय श्रीयोगपीठाय नमः, इति
संपूज्य देवं ध्यात्वा, त्रिखण्डां पुष्पगर्भितां निबद्ध्य
देवेश भक्तिसुलभ परिवारसमन्वित ।
यावत् त्वां पूजयिष्यामि तावद् देव
इहावह ॥
इसके बाद मुद्रा खण्ड,
मीन खण्ड, मांस खण्ड घट में डाले। अपने बाँये
भाग में चतुरस्र बनाकर उस पर आधार रखे आधार पर गुरुपात्र को रखे। पात्र को कुलामृत
से पूर्ण करे। मूल मन्त्र से पूजा करे।
पात्रस्थापन
—
अपने आगे भोगपात्र, शक्तिपात्र, योगिनीपात्र, वीरपात्र और मधुपर्कपात्र का स्थापन
करे। कलश के अमृत से इन्हें पूर्ण करे। मधुपर्कपात्र को घी, मधु,
शक्कर से पूर्ण करे। तब योगपीठ की पूजा करे।
योगपीठ-पूजन
- बिन्दु,
त्रिकोण, अष्टकोण, अष्टदल,
षोड़शदल, वृत्तत्रय और भूपुरयुक्त श्रीयन्त्र
अंकित करके या स्वर्णपत्र पर अंकित यन्त्र को स्थापित करे। हृदय में देवी-सहित देव
का मानसोपचार से पूजन करें। तब बाह्य पूजन करे।
बाह्य पूजन
–
योगपीठ का पूजन- ॐ ह्रीं मण्डूकाय नमः । ॐ ह्रीं कालाग्निरुद्राय
नमः । ॐ ह्रीं मूलप्रकृत्यै नमः । ॐ ह्रीं आधारशक्त्यै नमः । ॐ ह्रीं कुर्माय नमः
। ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः। ॐ ह्रीं वराहाय नमः। ॐ ह्रीं पृथिव्यै नमः । ॐ ह्रीं
सुधार्णवाय नमः । ॐ ह्रीं मणिमयद्वीपाय नमः ।
पीठ की आठो दिशाओं में- ॐ ह्रीं
नवरत्नखण्डेभ्यो नमः । ॐ ह्रीं सुवर्णपर्वताय नमः । ॐ ह्रीं नन्दनोद्यानाय नमः । ॐ
ह्रीं कल्पवनाय नमः । ॐ ह्रीं पद्मवनाय नमः । ॐ ह्रीं विचित्ररत्नखचितभूमिकायै नमः
। ॐ ह्रीं चिन्तामणिमण्डपाय नमः । ॐ ह्रीं नवरत्नवेदिकायै नमः । ॐ ह्रीं
रत्नसिंहासनायै नमः । ॐ ह्रीं उच्चैः श्वेतच्छत्राय नमः ।
पूर्वादि दिशाओं में- ॐ ह्रीं
धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्येभ्यो नमः ।
विदिशाओं में- ॐ ह्रीं
अधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्येभ्यो नमः । ॐ ह्रीं सं सत्वाय नमः । ॐ ह्रीं रं रजसे
नमः । ॐ ह्रीं तं तमसे नमः । ॐ ह्रीं तत्त्वेभ्यो नमः । ॐ ह्रीं ह्सौः
मन्त्रवर्णभूषितकर्णिकायै नमः। प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः । विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः ।
गरुडाय नमः। पञ्चाशद्वर्णविभूषितपद्मासनाय नमः । ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः । सर्वतत्त्वात्मकं श्रीयोगपीठाय नमः ।
इस प्रकार पूजन के बाद देव का ध्यान
करे। पुष्पगर्भित त्रिखण्डा मुद्रा बनाकर आवाहन करे, जैसे—
देवेश भक्तसुलभ परिवारसमन्वित।
यावत् त्वं पूजयिष्यामि तावद् देव
इहावह।।
इति पुष्पाञ्जलिं क्षिप्त्वा
आवाहनादिका मुद्राः प्रदर्श्य, मूलं
साङ्गः सदेवीक: श्रीलक्ष्मीनारायणदेव इहागच्छ २ इह संतिष्ठ २ इह संनिधत्स्व २ मूलं
ॐ ह्रींह्सौः आंह्रींक्रों हंसः लक्ष्मीनारायणप्राणा इह प्राणा ॐ लक्ष्मी-
नारायणजीव इह स्थितः ॐ लक्ष्मीनारायणसर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनश्चक्षुः-
श्रोत्रघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति
लेलिहानमुद्रया प्राणान् दत्त्वा मूलं सदेवीकलक्ष्मीनारायण इदमासनमास्यतां,
मूलविद्यान्ते
पाद्याचमनीयमधुपर्काचमनीयार्घ्यगन्धपुष्पाक्षतस्नानालङ्काररत्नपीठगन्धपुष्पाक्षतधूपदीपनैवेद्याचमनीयताम्बूल-च्छत्रचामरारात्रिकादीन्निवेद्य
प्रणम्य, मूलेन कलशामृतेन तत्त्वमुद्रया साङ्गं सवाहनं
सायुधं सदेवीकं सपरिच्छदं लक्ष्मीनारायणं पूजयामि नमः, तर्पयामि
नमः, इति त्रिः सन्तर्प्य, देवाज्ञामादाय
परिवारदेवताः पूजयेत्।
पुष्पाञ्जलि देकर आवाहनादि मुद्रा
प्रदर्शित करे। ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय नमः साङ्गः सदेवीकः
श्रीलक्ष्मीनारायणदेव इहागच्छ इहागच्छ इह संतिष्ठ इह संतिष्ठ,
इह सन्निधत्स्व इह सन्निधत्स्व ।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः ॐ ह्रीं ह्सौः आं ह्रीं क्रों हंसः लक्ष्मीनारायण प्राणा इह
प्राणा
ॐ ह्रीं ह्सौः आं ह्रीं क्रों हंसः
लक्ष्मीनारायण जीव इह स्थितः
ॐ ह्रीं ह्सौः आं ह्रीं क्रो हंसः
लक्ष्मी- नारायण सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनःचक्षुः श्रोत्रघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं
चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
लेलिहान मुद्रा से प्राणप्रतिष्ठा
करे।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय
नमः संदेवीक इदमासनमास्यताम्।
मूल विद्योच्चारणपूर्वक पूजन करे;
जैसे—
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः पाद्यं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्री
लक्ष्मीनारायणाय नमः आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः मधुपर्कं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः गंधाक्षतपुष्पं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः स्नानालङ्काररत्नपीठगन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः धूपं आघ्रापयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः दीपं दर्शयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः नैवेद्यं निवेदयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्री
लक्ष्मीनारायणाय नमः आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः ताम्बूलं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः छत्रचामरं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः आरार्तिकादि समर्पयामि ।
इसके बाद प्रणाम करे।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय
नमः मन्त्र से कलशामृत से तत्त्वमुद्रा से साङ्ग, सवाहनं, सायुधं, सदेवीकं
सपरिच्छदं लक्ष्मीनारायणं पूजयामि नमः तर्पयामि नमः से पूजन करे। तीन बार तर्पण
करे। देवता से आज्ञा लेकर परिवारदेवता का पूजन करे।
देवीरहस्य पटल ३७ – आवरणपूजन
पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा मूलं
महालक्ष्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, मूलं राज्यलक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, मूलं सिद्धलक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति बिन्दौ
प्रथमावरणम् ।
ॐ ह्रींह्सौः गं गङ्गा श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः, ॐ ह्रींह्सौः
यं यमुना श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ॐ ह्रींह्सौः सं
सरस्वती श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, इति त्र्यश्रे
द्वितीयावरणम् ।
ॐ ह्रींह्सौः शंख श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः, ॐ ह्रींह्सौः
चक्र श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ॐ ह्रींह्सौः गदा
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ॐ ह्रींह्सौः पद्म
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, इति बिन्दौ तृतीयावरणम्।
प्रथम आवरण-
बिन्दुमण्डल में पुष्पाञ्जलि देकर पूजन करे-
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः महालक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि ।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः राज्यलक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि ।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः सिद्धलक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि ।
अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सल ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
प्रथमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि प्रदान
करे।
द्वितीय आवरण-
त्रिकोण में—
ॐ ह्रीं ह्सौः गं गङ्गाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः यं यमुनाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः सं
सरस्वतीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सल ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
द्वितीयावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
तृतीय आवरण-
बिन्दु में-
ॐ ह्रीं ह्सौः शङ्खश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः चक्रश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः गदाश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः पद्मश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्तया समर्पये तुभ्यं
तृतीयावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
मूलं लक्ष्मीविष्णुश्रीपा०,
ॐ ह्रींह्सौः लक्ष्मीवासुदेवश्री० ॐ ह्रींह्सौः लक्ष्मीदामोदरश्री०,
ॐह्रींह्सौः लक्ष्मीनृसिंहश्री०, ॐ ह्रींह्सौः
लक्ष्मी- सङ्कर्षणश्री० ॐ ह्रींह्सौः लक्ष्मीत्रिविक्रमश्रीपादु०, ॐ ह्रींह्सौः लक्ष्मी- अनिरुद्ध श्री ० ॐ ह्रींह्सौः
लक्ष्मीविश्वक्सेनश्री ० इति वसुकोणे चतुर्थावरणम्।
ॐ ह्रींह्सौः महाभैरवश्रीपा०,
ॐ ह्रींह्सौः रुरुभैरवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः चण्ड
भैरवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः भूतेश भैरवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः कालभैरवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः कपालिभैरवश्री०
ॐ ह्रींह्सौः भीषण- भैरवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः श्मशान भैरवश्री
० इत्यष्टदलेषु पञ्चमावरणम् ।
चतुर्थ आवरण-
अष्टकोण में पूर्वादि क्रम में-
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः
लक्ष्मीविष्णुश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः
लक्ष्मीवासुदेवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः
लक्ष्मीदामोदरश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः लक्ष्मीनृसिंह
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः
लक्ष्मीसंकर्षणश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः
लक्ष्मीत्रिविक्रमश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः लक्ष्मी
अनिरुद्ध श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
मूलं ॐ ह्रीं ह्सौः
लक्ष्मीविश्वक्सेनश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
चतुर्थावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
पञ्चम आवरण-
अष्टदल में पूर्वादि क्रम से-
ॐ ह्रीं ह्सौः महाभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः रुरुभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः चण्डभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः भूतेशभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः कालभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः कपालिभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ ह्रीं ह्सौः भीषणभैरवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः
श्मशानभैरवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं पञ्चमावरणार्चनम्
।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ ह्रींह्सौः असिताङ्ग भैरवश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः हंसकेतुभैरवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः वंशीपाणिश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः स्वगुरुश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः परमगुरुश्री०, ॐ ह्रींह्सौः परापरगुरुश्री०
ॐ ह्रींह्सौः परमेष्ठि- गुरुश्री०, इति वायव्यादीशान्तं
अन्तर्वृत्तत्रये षष्ठावरणम् ।
ॐ ह्रींह्सौः केशवश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः माधवश्री०, ॐ ह्रींह्सौः कृष्णश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः गोविन्दश्री०, ॐ मधुसूदनश्री०, ॐ ह्रींह्सौः गदाधरश्री०, ॐ ह्रींह्सौः शंखपाणिश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः चक्रपाणिश्री०, ॐ ह्रींह्सौः चतुर्भुजश्री०, ॐ ह्रींह्सौः पद्मायुधश्री०, ॐ ह्रींह्सौः कैटभारिश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः घोरदंष्ट्रश्री०, ॐ ह्रींह्सौः जनार्दनश्री०, ॐ ह्रींह्सौः वैकुण्ठश्री०, ॐ ह्रींह्सौः वामनश्री०, ॐ ह्रींह्सौः गरुडध्वजश्री०, इति षोडशदलेषु
सप्तमावरणम्।
षष्ठ आवरण-
वृत्तत्रय के अन्तराल में वायव्य से ईशान तक —
ॐ ह्रीं ह्सौः
असिताङ्गभैरवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः हंसकेतुभैरव
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः
वंशीपाणिभैरवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः स्वगुरुश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः परमगुरु श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः परापरगुरु
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः परमेष्ठिगुरु
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सल ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
षष्ठावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
सप्तम आवरण
- षोडशदल में पूर्वादि क्रम से-
ॐ ह्रीं ह्सौः केशवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः माधवश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः कृष्णश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः गोविन्दश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः मधुसूदनश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः गदाधरश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः शङ्खपाणिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः चक्रपाणिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः चतुर्भुजश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः पद्मायुधश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः कैटभारिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः घोरदंष्ट्र
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः जनार्दन श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः वैकुण्ठ श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः वामनश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः गरुड़ध्वजश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
सप्तमावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ ह्रींह्सौः लं इन्द्रश्री०, ॐ ह्रींह्सौः रं वह्निश्री०, ॐ ह्रींह्सौः टं
यमश्री०, ॐ ह्रींह्सौः क्षं निर्ऋतिश्री०, ॐ ह्रींह्सौः वं वरुणश्री०, ॐ ह्रींह्सौः यं
वायुश्री०, ॐ ह्रींह्सौः सं सोमश्री०, ॐ
ह्रींह्सौः हं ईशान श्री०, ॐ ह्रींह्सौः ह्रीं अनन्तश्री०, ॐ ह्रींह्सौः ह्रीं ब्रह्मश्रीं० इति चतुरश्रेऽष्टमावरणम्।
ॐ ह्रींह्सौः वज्रश्री०, ॐ ह्रींह्सौः शक्तिश्री०, ॐ ह्रींह्सौः दण्डश्री०,
ॐ ह्रींह्सौः खड्गश्री०, ॐ ह्रींह्सौः पाशश्री०, ॐ ह्रींह्सौः ध्वजश्री०, ॐ ह्रींह्सौः यष्टिश्री०, ॐ ह्रींह्सौः शूलश्री०
इति बाह्यद्वारचक्रेषु नवमावरणम्।
मूलं त्रिरुच्चार्य साङ्गं सवाहनं
सायुधं सपरिच्छदं सलक्ष्मीकं लक्ष्मीनारायणं देवं पूजयामि नमः तर्पयामि नमः,
इति संपूज्य, त्रिः संतर्प्य योनिमुद्रया
प्रणमेदिति दशमावरणम् ।
अष्टम आवरण
- भूपुर में पूर्वादि क्रम से-
ॐ ह्रीं ह्सौः लं इन्द्रश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः रं वह्निश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः टं यमश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः क्षं
निर्ऋतिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः वं वरुणश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः यं वायुश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः सं सोमश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः हं ईशान श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं
अनन्तश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं
ब्रह्माश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
अष्टमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
नवम आवरण-
भूपुर में पूर्वादि क्रम से-
ॐ ह्रीं ह्सौः वज्रश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः शक्तिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः दण्डश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः खड्गश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः पाशश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः ध्वजश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः यष्टिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं ह्सौः शूलश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
नवमावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
दशमावरण
में मूल मन्त्र —
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं
लक्ष्मीनारायणाय नमः को तीन बार बोलकर साङ्ग, सवाहनं,
सायुधं सपरिच्छदं, सलक्ष्मीकं लक्ष्मीनारायणं
देवं पूजयामि नमः तर्पयामि नमः कहकर पूजन करे। तीन बार तर्पण करे योनिमुद्रा से
प्रणाम करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
दशमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ततः
पुनर्नैवेद्याचमनीयताम्बूलच्छत्रादीन् निवेद्य,
देवाग्रे मालां मूलेन संपूज्य, यथाशक्त्या
मूलं जप्त्वा 'गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं' इत्यादिना देवाय जपं समर्प्य, तदग्रे
कवचसहस्रनामस्तवपाठान् कृत्वा तदपि देवीदेवयो: समर्प्य, साधकैः
सह साधकः पात्रवन्दनं कुर्यात् ।
यावन्न चलते दृष्टिर्यावन्न चलते
मनः ।
तावत् पानं प्रकर्तव्यं पशुपानमतः
परम् ।
इति पूर्णपात्रं हुत्वा
शान्तिस्तोत्रं पठित्वा, पुष्पाञ्जलिं
दत्त्वा नासया पुष्पमाघ्राय, करन्ध्रे सदेवीकं देवं प्रापय्य,
पुनर्हत्कमलमानीय स्वयमपि लक्ष्मीनारायण- विहितविग्रहो भूत्वा
बाह्यतो वैष्णवाचारपरायणः सुखं विहरेत् । संहारमुद्रया च प्रणमेत्।
पुनः नैवेद्य,
आचमनीय, ताम्बूल, छत्रादि
अर्पण करके देव के आगे मूल मन्त्र से माला का पूजन करे। यथाशक्ति मूल मन्त्र का जप
करके गुह्यातिगुह्य गोप्ता त्वं से जप देवता को समर्पित करे। तब देवता के
अग्रभाग में कवच, सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करे। पाठ को
समर्पित करे। साधकों के साथ साधक पात्रवन्दना करे, जैसे-
यावन्न चलते दृष्टिः यावन्न चलते
मनः ।
तावत्पानं प्रकर्त्तव्यं पशुपानमतः
परम्।।
पूर्णपात्र का हवन करके स्तोत्रपाठ
करके पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। पुष्पाञ्जलि में से एक फूल लेकर नाक से सूंघे।
ब्रह्मरन्ध्र में देवी सहित देव को ले आये तब हृदय- कमल में ले आये। स्वयं भी
लक्ष्मीनारायण का विहित विग्रह होकर बाहर से वैष्णावाचार- परायण होकर सुख से विहार
करे। संहारमुद्रा से प्रणाम करे।
देवीरहस्य पटल ३७ – पटलोपसंहारः
इति श्रीदेवदेवस्य लक्ष्मीनारायणस्य
ते ।
पद्धतिर्नित्यपूजाया वर्णिता
गोपितां कुरु ॥
गुह्यं गोप्यमिदं तत्त्वं पूजासारं
महेश्वरि ।
गोपयेद् वैष्णवः सत्यमित्याज्ञा
पारमेश्वरी ॥
पटलोपसंहार —
देवदेव श्री लक्ष्मीनारायण की नित्य पूजा पद्धति का वर्णन पूरा हुआ।
इसे गोपित करे। यह तत्त्व गुह्य गोप्य है। यह पूजा का सार है। वैष्णव इसे गुप्त
रखे। हे पारमेश्वरि! यह आज्ञा सत्य है।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये लक्ष्मीनारायणपूजापद्धति- निरूपणं नाम सप्तत्रिंशः पटलः ॥३७॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में लक्ष्मीनारायणपूजापद्धति निरूपण नामक सप्तत्रिंश
पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 38
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