देवीरहस्य पटल ३६

देवीरहस्य पटल ३६  

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ३६ में लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्ग निरूपण के विषय में बतलाया गया है।

देवीरहस्य पटल ३६

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् षट्त्रिंशः पटलः लक्ष्मीनारायणपटलम्

Shri Devi Rahasya Patal 36   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य छत्तीसवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् षट्त्रिंश पटल

देवीरहस्य पटल ३६ लक्ष्मीनारायणपंचांग निरूपण

अथ लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्गम्

अथ षट्त्रिंशः पटलः

लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्गावतार:

श्रीभैरव उवाच

कैलासोत्तुङ्गशिखरे रत्नराजिविराजिते ।

कल्पद्रुमवनाकीर्णे स्वर्णपाषाणमण्डिते ॥ १ ॥

पद्मरागशिलामुक्तामणिमाणिक्यभूषिते ।

वसन्तकुसुमामोदगन्धवाहैक वाहिनि ॥ २ ॥

नवरत्नशिला भद्रपीठस्थं परमेश्वरम् ।

देवदेवं जगन्नाथं पार्वतीसहितं विभुम् ॥ ३ ॥

वसन्तं च जपन्तं च ध्यायन्तं ब्रह्म शाश्वतम् ।

पन्नगाभरणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥४॥

कपालखट्वाङ्गकरं वराभयधरं हरम् ।

देवदानवयक्षेन्द्रपिशाचोरगसेवितम् ॥५॥

गणगन्धर्वसिद्धौघनारदार्चितमव्ययम् ।

पञ्चाङ्गावतरण श्री भैरव ने कहा- कैलाश का उच्च शिखर रत्नराजि से सुशोभित है। यह कल्पवृक्षों से भरा हुआ एवं स्वर्ण पाषाणों से मण्डित है। पद्मराग, मोती, मणि- माणिक्य से भूषित है। वसन्त कुसुम के आमोद से युक्त है। सुगन्धित वायु से पूर्ण है। नव रत्नशिला बद्ध पीठ पर परमेश्वर देव-देव जगन्नाथ पार्वतीसहित विराजमान हैं। वे शाश्वत ब्रह्म के ध्यान में रमण करते हैं, उनका जप करते हैं और ध्यान करते हैं। पद्मराग आभरणोपेत जटा-मुकुट से युक्त हैं। हाथों में कपाल, खट्वाङ्ग, वर और अभयमुद्रा है। देव-दानव, यक्ष, इन्द्र, पिशाच, सर्पों से सेवित हैं। यह अव्यय ईश्वर, गन्धर्वगण, सिद्धौध, नारद आदि से अर्चित हैं ।। १-५ ।।

प्रसन्नवदनं देवं देवी दृष्ट्वा महेश्वरम् ॥६॥

प्रणम्योत्थाय सहसा बद्धाञ्जलिपुटं पुरः ।

उवाच पार्वती देवी शिवं त्रैलोक्यनायकम् ॥७॥

प्रसन्न मुख देव महेश्वर को अपनी ओर देखते हुए देखकर देवी ने सहसा उठकर उनके आगे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और त्रैलोक्यनायक शिव से कहा । ६-७।।

श्रीदेव्युवाच

भगवन् देवदेवेश देवासुरनमस्कृत ।

त्वं शिवः सर्वलोकेशः सत्यः सच्चित्स्वरूपकः ॥८॥

अनन्तः परमात्मेति त्रिजगत्कारणं प्रभुः ।

उद्भूतिस्थितिकृन्नित्यं लयकृद् भुवनेश्वरः ॥ ९ ॥

अनादिनिधनो देवस्त्रिगुणात्मापि निर्गुणः ।

किं तत् परं महत्तत्त्वं यज्जपस्यद्य सन्ततम् ।

तत्तत्त्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो भक्तास्मि किङ्करी ॥१०॥

देवी बोलीं- भगवन् देवदेवेश! देव-दानव से नमस्कृत आप शिव सभी लोकों के स्वामी, सत्य और सत् चित् स्वरूप हैं। आप अनन्त परमात्मा है। तीनों लोकों के कारण प्रभु हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलय करने वाले भुवनेश्वर हैं। आपका आदि अन्त नहीं है। त्रिगुणात्मक होकर भी आप निर्गुण हैं। जिसका जप आप निरन्तर करते रहते हैं, वह कौन-सा परम महत् तत्त्व है? उसी के बारे में सुनने की मेरी इच्छा है। मैं आपकी भक्ता और किंकरी हूँ।।८-१० ।।

श्री भैरव उवाच

लक्षवारसहस्राणि वारितासि पुनः पुनः ।

स्त्रीस्वभावान्महादेवि पुनम परिपृच्छसि ॥ ११ ॥

भक्त्यानया प्रसन्नोऽहं तव पार्वति तत्त्वतः ।

एतद्रहस्यं परमं वक्ष्ये गुह्यं दिवौकसाम् ॥१२॥

अवक्तव्यमिदं तत्त्वमदातव्यं महेश्वरि ।

तव स्नेहेन वक्ष्यामि न चाख्येयं महात्मभिः ॥ १३ ॥

श्री भैरव ने कहा- हे महादेवि! एक लाख हजार बार मेरे मना करने पर भी आप स्वीस्वभाववश बार-बार मुझसे पूछती रहती हैं। हे पार्वति! आपकी इस भक्ति से मैं आप पर प्रसन्न हूँ। देवदुर्लभ गुह्य रहस्य का वर्णन मैं करता हूँ। यह तत्त्व किसी को भी बताने के लायक नहीं है और न ही किसी को देय है तुम्हारे स्नेहवश मैं इसका वर्णन करता हूँ। इसे महात्माओं को भी नहीं बतलाना चाहिये। । ११-१३।।

यो देवदेवो वरदो लक्ष्मीनारायणो विभुः ।

सर्गस्थितिकरो लोके प्रलयान्तकरो लये ।। १४ ।।

स एव परमेशानो देवपन्नगरक्षसाम् ।

दैत्यकिन्नरयक्षेन्द्र मनुजानलपाथसाम् ।। १५ ।।

ब्रह्मादिकीटपर्यन्त जगत्त्रितयकारणम् ।

अध्यक्षः सात्त्विकः सर्वभूतात्मा परमेश्वरः ।। १६ ।।

जिनका मैं स्मरण करता हूँ, वे देवों के देव प्रभु लक्ष्मीनारायण हैं। वे ही संसार की सृष्टि, स्थिति और लय करने वाले हैं। वे देव, नाग और राक्षसों के परम ईशान हैं। वे दैत्य, किन्नर, यक्ष, इन्द्र, मनुष्य, अग्नि, आकाश के स्वामी हैं। वे ही तीनों लोकों में ब्रह्मा से कीटपर्यन्त सबों के कारणस्वरूप हैं। वे ही सबों के अध्यक्ष, सात्विक, सर्वभूतात्मा परमेश्वर है । । १४-१६ ।।

तस्य देवस्य पञ्चाङ्गं पटलं पद्धतिं शिवे ।

कवचं तत्त्वभूतं च मन्त्रनामसहस्रकम् ॥ १७ ॥

स्तोत्रं जपामि देवेशि स्मरामि मनसा सदा ।

पठाम्यहर्निशं शान्तः परमानन्दकारणम् ॥ १८ ॥

उन्हीं देव के पञ्चाङ्गों में पटल, पद्धति, कवच, तत्त्वभूत मन्त्रनामसहस्र एवं स्तोत्र का मानसिक जप और स्मरण मैं सदैव करता हूँ। अहर्निश मैं उन्हीं का पाठ करता रहता हूँ। इसी कारण मैं शान्त रहता हूँ और यही मेरे परमानन्द का कारण है ।। १५-१८ ।।

श्रीदेव्युवाच

पञ्चाङ्गं देवदेवस्य लक्ष्मीनारायणस्य वै ।

श्रोतुमिच्छाम्यहं नाथ वक्तुमर्हसि साम्प्रतम् ॥ १९ ॥

श्री देवी ने कहा कि हे नाथ! देवदेव लक्ष्मीनारायण के पञ्चाङ्ग को सुनने की मेरी इच्छा है। अतः इस समय आप इसका वर्णन कीजिये ।। १९ ।।

श्रीभैरव उवाच

परमार्थप्रदं देवि पञ्चाङ्गं सर्वसिद्धिदम् ।

वक्ष्यामि परमेशस्य लक्ष्मीनारायणस्य ते ॥२०॥

तत्रादौ पटलं वक्ष्ये मूलविद्यारहस्यकम् ।

श्री भैरव ने कहा कि हे देवि ! यह पञ्चाङ्ग परमार्थप्रद और सभी सिद्धियों को देने वाला है। परमेश्वर लक्ष्मीनारायण के पञ्चाङ्ग का वर्णन मैं करता हूँ उसमें भी सर्वप्रथम मैं लक्ष्मीनारायण के मूल विद्या के रहस्यभूत पटल का वर्णन करता हूँ ।। २० ।।

देवीरहस्य पटल ३६- नारायणमन्त्रसंस्कारादयः

मन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि लक्ष्मीनारायणस्य ते ॥ २१ ॥

अष्टसिद्धिप्रदं सद्यः साधकानां सुदुर्लभम् ।

तारं परा च हरितं परा लक्ष्मीस्ततोऽभिधम् ॥२२॥

लक्ष्मीनारायणायेति विश्वमन्ते मनुः स्मृतः ।

नास्य विघ्नो न वा दोषो न भीतिर्न विपर्ययः ॥ २३ ॥

नारायण मन्त्र संस्कार आदि- हे देवि! लक्ष्मीनारायण के आठों सिद्धियों को प्रदान करने वाले एवं साधकों के लिये अत्यन्त दुर्लभ मन्त्र का उद्धार तुम्हें बतलाता हूँ।

मन्त्रोद्धार-तार= ॐ परा= ह्रीं, हरित= ह्सौः परा= ह्रीं, लक्ष्मी= श्रीं के बाद लक्ष्मीनारायणाय तब नमः लगाने से यह मन्त्र बनता है। मन्त्र है - ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाय नमः ।

यह चौदह अक्षरों का मन्त्र है। इसकी साधना में कोई विघ्न नहीं होता। कोई दोष, भय या विपर्यय भी नहीं होता।। २१-२३ ।।

साक्षान्मोक्षप्रदो मन्त्रः सर्वार्थफलदायकः ।

वर्णलक्षपुरश्चर्यां विनायं चास्ति दोषभाक् ॥ २४ ॥

जीवहीनो यथा देहः सर्वकर्मसु न क्षमः ।

पुरश्चरणहीनोऽपि न मन्त्रः फलदायकः ॥ २५ ॥

यह मन्त्र साक्षात् मोक्ष प्रदायक एवं सर्वार्थ फलदायक है। वर्णलक्ष के अनुसार इसका पुरश्चरण चौदह लाख जप से होता है। बिना इसके मन्त्र दोषयुक्त होता है। जैसे जीवरहित शरीर समस्त लौकिक कार्यों में समर्थ नहीं होता है, वैसे ही पुरश्चरण के बिना मन्त्र भी फलदायक नहीं होते ।। २४-२५।।

वटेऽरण्ये श्मशाने च शून्यागारे चतुष्पथे ।

अर्धरात्रे च मध्याह्ने पुरश्चरणमाचरेत् ॥ २६ ॥

वर्णलक्षं पुरश्चर्या तदर्थं वा महेश्वरि ।

एकलक्षावधिं कुर्यान्नातो न्यूनं कदाचन ॥ २७॥

प्रथमं गुरुहस्तेन साधकस्य करेण वा ।

ततः स्वयं चरेद्बह्वीः पुरश्चर्या विधानतः ॥ २८ ॥

वटवृक्ष के नीचे, वन में, श्मशान में, सूने घर में, चौराहे पर, आधी रात में या मध्य दिवस में हे महेश्वरि ! पुरश्चरण करना चाहिये। पुरश्चरण में मन्त्र के प्रत्येक अक्षर पर एक लाख जप करे अथवा वर्णलक्ष का आधा करे; लेकिन एक लाख से कम जप न करे। पहले गुरु के हाथ से या साधक के हाथ के अग्निकर्म करवाने के बाद साधक विधिवत् पुरश्चरण कार्य करे ।। २६-२८ ।।

जपाद् दशांशतो होमस्तद्दशांशेन तर्पणम् ।

मार्जनं तद्दशांशेन तद्दशांशेन भोजनम् ॥ २९ ॥

विना दशांशहोमेन न तत्फलमवाप्नुयात् ।

पञ्चरत्नेश्वरी विद्यां लक्ष्मीनारायणस्य हि ॥ ३० ॥

जपेत् तां पञ्चभिः सार्धं पुरश्चर्याफलं लभेत् ।

जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मणभोजन कराये बिना दशांश हवन के मन्त्र का फल नहीं मिलता। लक्ष्मीनारायण की विद्या पञ्चरत्नेश्वरी है। इसलिये साढ़े पाँच लाख जप करने पर इसके पुरश्चरण का फल प्राप्त होता है। इसके बाद मन्त्र के संस्कार विधि के अनुसार कार्य करे ।। २९-३०।।

देवीरहस्य पटल ३६- मन्त्रसंस्कार

अथ मन्त्रस्य देवेशि संस्कारविधिमाचरेत् ॥ ३१ ॥

विधिना येन सद्यस्तु साधकः सिद्धिभाग्भवेत् ।

उत्कीलयेन्मनुं देवि ततः सञ्जीवयेत् पुनः ॥३२॥

विद्यां शापहरी देवि जपेत् सद्गुरुवक्त्रतः ।

सिद्धं मन्त्रं जपेदन्ते पुनः संपुटितं चरेत् ॥३३॥

एष योगवरो मन्त्रो योगिनां दुर्लभः कलौ ।

मन्त्रसंस्कार आदिहे देवि! पुरश्चरण करने के पश्चात् मन्त्र का संस्कार आदि करना चाहिये। अतः अब मैं मन्त्रसंस्कार की विधि का वर्णन करता हूँ, जिससे साधक को शीघ्र सिद्धि मिलती है। पहले मन्त्र का उत्कीलन करे। तब उसे संजीवित करे। सद्गुरु के मुख से प्राप्त शापहरी विद्या का जप करे। इसके बाद सिद्ध मन्त्र का जप करें। फिर मन्त्र को सम्पुटित करके जप करे। यह योगश्रेष्ठ मन्त्र कलियुग में योगियों को भी दुर्लभ है।। ३२-३३।।

देवीरहस्य पटल ३६- उत्कीलन

अथोत्कीलनमाचक्षे मन्त्रस्यास्य महेश्वरि ।। ३४ ।।

परार्णं हरितं भूतिं मां नाम सकलां पठेत् ।

विश्वान्ते प्रणवो देवि सकृदुच्चारयेत् सुधीः ॥ ३५ ॥

मन्त्रोत्कीलनमेतत् स्यात् सर्वतत्त्वमयं शिवे ।

उत्कीलन - अब मैं इस मन्त्र के उत्कीलन का वर्णन करता हूँ। परार्ण= ह्रीं, हरित्= ह्सौः, भूति = ह्रीं, मां= श्री, नाम= लक्ष्मी नारायण, विश्व= नमः एवं प्रणव =ॐ के योग से यह उत्कीलन मन्त्र बनता है। मन्त्र है- ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायण ह्रीं नमः ॐ । यह उत्कीलन मन्त्र सर्वतत्त्वमय है ।। ३४-३५ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- मन्त्रसञ्जीवनं

मन्त्रसञ्जीवनं वक्ष्ये शृणु पार्वति सादरम् ॥३६ ।।

परा विभूतिर्मा तारं नामान्ते विश्वमीरितम् ।

सञ्जीवनाख्यो गदितो मन्त्रराजो महेश्वरि ॥ ३७ ॥

सञ्जीवन- हे पार्वति ! अब मैं सञ्जीवन मन्त्र को कहता हूँ परा= ह्रीं, विभूति= ह्रीं, मा= श्री, तार = ॐ, नाम= लक्ष्मीनारायण, विश्व= नमः के योग के सञ्जीवन मन्त्र बनता है। मन्त्र है- ह्रीं ह्रीं श्रीं ॐ लक्ष्मीनारायणाय नमः। हे महेश्वरि! यह सञ्जीवन मन्त्र मन्त्रराज कहा गया है।। ३६-३७।।

देवीरहस्य पटल ३६- शापविमोचन मन्त्र

शिवेन वर्णितां विद्यां शिवे शापहरीं जपेत् ।

वक्ष्यामि तव भक्त्याहं गुह्यां सर्वार्थदायिनीम् ॥ ३८ ॥

तारं परा विर्देवेशि ब्रह्मशापं ततः पठेत् ।

मोचय- द्वयमुद्धृत्य परा मा ठद्वयं जपेत् ॥ ३९ ॥

शापविमोचन मन्त्र - हे शिवे ! शिव के द्वारा वर्णित शापहरी विद्या का जप करना चाहिये। तुम्हारी भक्तिवश मैं इस अत्यन्त गुह्य सर्वार्थदायिनी विद्या का वर्णन करता हूँ। तार= ॐ, परा= ह्रौं, विः = ह्सौः, ब्रह्मशापं मोचय मोचय, परा= ह्रीं, मा= श्री, ठद्वय= स्वाहा के योग से यह मन्त्र बनता है; जैसेॐ ह्रीं ह्सौः ब्रह्मशापं मोचय मोचय ह्रीं श्रीं स्वाहा ।। ३८-३९।।

विद्येयं दुर्लभा लोके लक्ष्मीनारायणप्रिया ।

सिद्धं मन्त्रं जपेन्मन्त्री पुनः संपुटितं चरेत् ॥४०॥

संपुटस्य मनुं वक्ष्ये सर्वागमसमुद्धृतम् ।

विश्वमादौ मनुं पश्चान्नाम चान्ते जपेत् प्रिये ॥ ४१ ॥

संपुटाख्यो मनुर्देवि वर्णितोऽयं फलाप्तये ।

लक्ष्मीनारायण को प्रिय यह विद्या संसार में दुर्लभ है। पहले सिद्ध मन्त्र का जप करे तब उसे सम्पुटित करके जप करे। सभी आगमों से समुद्धृत सम्पुट मन्त्र को अब मैं कहता हूँ । मन्त्र के प्रारम्भ और अन्त में 'नमः' लगाकर जप करने से जप सम्पुटित होता है। फलप्राप्ति के लिये इस सम्पुट मन्त्र का वर्णन किया गया ।। ४० ४१ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- नारायणमन्त्रर्थ्यादिनिरूपणम्

मन्त्रस्यास्य महादेवि वर्णितोऽत्र ऋषिः शिवः ॥ ४२ ॥

त्रिष्टुप् छन्दो मयाख्यातं देवतापि समीरिता ।

लक्ष्मीनारायणो देवि बीजं लक्ष्मीरुदाहृता ॥ ४३ ॥

शक्तिः परा तथा तारं कीलकं समुदाहृतम् ।

भोगापवर्गसिद्ध्यर्थं विनियोगः प्रकीर्तितः ॥४४॥

नारायण मन्त्र की ऋषि आदि का निरूपण - हे महादेवि! इस लक्ष्मीनारायण मन्त्र के ऋषि शिव कहे गये हैं। मेरे द्वारा इस मन्त्र का छन्द त्रिष्टुप् एवं देवता लक्ष्मीनारायण कहे गये हैं। हे देवि! इसका बीज 'श्री' शक्ति 'ह्रीं' एवं कीलक '' कहा गया है। भोग एवं अपवर्ग की सिद्धि हेतु इसका विनियोग किया जाता है।।४२-४४ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- लक्ष्मीनारायणध्यानम्

ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि लक्ष्मीनारायणस्य ते ।

येनैव ध्यानमात्रेण लक्ष्मीः सन्निधिमेष्यति ॥ ४५ ॥

पूर्णेन्दुवदनं पीतवसनं कमलासनम् ।

लक्ष्म्याश्रितं चतुर्बाहुं लक्ष्मीनारायणं भजे ॥४६॥

ध्यान- अब लक्ष्मीनारायण के ध्यान का वर्णन करता हूँ। जिस ध्यान के करने ही से लक्ष्मी की सन्निधि प्राप्त होती है। श्लोक ४६ ध्यान है; जिसका अर्थ यह है- पूर्णिमा के चाँद जैसा मुख है। वस्त्र पीले हैं। कमल का आसन है। लक्ष्मी के आश्रित चतुर्बाहु लक्ष्मीनारायण का मैं स्मरण करता हूँ ।।४५-४६ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- न्यास

तारमाभूतिबीजैस्तु दीर्घान्तैर्महेश्वरि ।

न्यासं कुर्यात् षडङ्गादि करशुद्ध्यादिपूर्वकम् ॥४७॥

न्यास - हे महोदेवि! ॐ श्रीं ह्रीं में षड् दीर्घस्वर लगाकर करशुद्धि आदि करके षडङ्गादि न्यास करना चाहिये ।।४७।।

देवीरहस्य पटल ३६- लक्ष्मीनारायणयन्त्रोद्धारः

यन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि सर्वाशासिद्धिदं परम् ।

सर्वसंमोहनं यन्त्रं वाञ्छितैकप्रदायकम् ॥ ४८ ॥

लक्ष्मीनारायणयन्त्रोद्धार- अब मैं लक्ष्मीनारायण के सर्वसिद्धिप्रद श्रेष्ठ यन्त्र के उद्धार का वर्णन करता हूँ। सबका सम्मोहन करने वाला एवं आकाङ्क्षित फल को प्रदान करने वाला है ।।४८ ।।

बिन्दुस्त्रिकोणं वस्वश्रं वृत्ताष्टदलमण्डितम् ।

षोडशारं रवृत्तं च भूगृहेणोपशोभितम् ॥४९ ॥

लक्ष्मीनारायाणस्यैतच्छ्रीचक्रं परमार्थदम् ।

लक्ष्मीनारायण पूजनयन्त्र- लक्ष्मीनारायण यन्त्र में बिन्दु, त्रिकोण, अष्टकोण, अष्टदल, षोडशदल, वृत्तत्रय और भूपुर अंकित होते हैं। लक्ष्मीनारायण का यह श्रीचक्र परमार्थ को प्रदान करने वाला है ।। ४९ ।।

देवीरहस्य पटल ३६ लक्ष्मीनारायण यन्त्र

देवीरहस्य पटल ३६- लक्ष्मीनारायणलयाङ्गम्

लयाङ्गं देवि वक्ष्यामि भोगमोक्षफलप्रदम् ॥५०॥

वेदागमरहस्याढ्यं पूजाकोटिफलप्रदम् ।

वज्रशक्तिदण्डखड्ग- पाशयष्टिध्वजास्ततः ।। ५१ ।।

शूलं पूज्याः शिवे चैते बाह्यद्वारेषु सर्वदा ।

इन्द्राग्नियममांसाद वरुणानिलवित्तदाः ॥५२॥

सेश्वराः साधकैः पूज्या ब्रह्मानन्तादयस्ततः ।

लक्ष्मीनारायण लयाङ्ग हे देवि ! भोग-मोक्ष फलप्रदायक लयाङ्ग का अब मैं वर्णन करता हूँ। वेद-आगम-रहस्य से परिपूर्ण यह करोड़ों पूजा के फल को देने वाला है। भूपुर के चारो द्वारों पर इन दो दो का पूजन करे-वज्र, शक्ति, दण्ड, खड्ग, पाश, यष्टि, ध्वजा, शूल।

इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ब्रह्मा, अनन्त- इन दश दिक्पालों का पूजन भूपुर में दशो दिशाओं में करे ।।५०-५२ ।।

केशवं माधवं कृष्णं गोविन्दं मधुसूदनम् ॥ ५३ ॥

गङ्गाधरं शङ्खधरं चक्रपाणिं चतुर्भुजम् ।

पद्मायुधं कैटभारिं घोरदंष्ट्रं जनार्दनम् ॥ ५४ ॥

वैकुण्ठं वामनं चैव पूजयेद् गरुडध्वजम् ।

षोडशारेषु देवेशि वामावर्तेन साधकः ॥५५॥

षोड़श दल में केशव, माधव, कृष्ण, गोविन्द, मधुसूदन, गङ्गाधर, शङ्खधर, चक्रपाणि, चतुर्भुज, पद्मायुध, कैटभारि, घोरदंष्ट्र, जनार्दन, वैकुण्ठ, वामन, गरुड़ध्वज-इन सोलह का पूजन करे। पूजन पूर्वादि वामावर्त क्रम से करे ।।५३-५५ ।।

तत्रार्चयेन्महादेवि मन्त्री गुरुचतुष्टयम् ।

असिताङ्ग हंसकेतुं वंशीपाणिं च पूजयेत् ॥ ५६ ॥

वृत्तत्रयेषु देवेशि साधको गन्धपुष्पकैः ।

संहारं रुरुकं चण्डं भूतेशं कालभैरवम् ॥५७॥

कपालं भीषणं चैव तथा श्मशान भैरवम् ।

पूजयेत् साधकः सिद्ध्यै वसुपत्रे महेश्वरि ॥ ५८ ॥

इसके बाद वृत्तत्रय में गुरुचतुष्टय में स्वगुरु, असिताङ्ग, हंसकेतु, वंशीपाणि का पूजन गन्धाक्षतपुष्प से करे। अष्टदल में संहार, रुरु, चण्ड, भूतेश, कालभैरव, कपाली, भीषण, श्मशानभैरव का पूजन करे। हे महेश्वरि। इससे साधक को सिद्धि मिलती है ।। ५६-५८।।

विष्णुं च वासुदेवं च देवं दामोदरं तथा ।

नृसिंहं च महादेवि देवं सङ्कर्षणं तथा ।। ५९ ।।

त्रिविक्रमं चानिरुद्धं विश्वक्सेनं च साधकः ।

लक्ष्मीशब्दाङ्कितं देवि वसुकोणेषु पूजयेत् ॥ ६० ॥

गङ्गां च यमुनां चैव त्र्यश्रे सरस्वतीं तथा ।

पूजयेदग्रवह्नीशक्रमयोगेन पार्वति ॥ ६१ ॥

अष्टकोण में लक्ष्मी-विष्णु, लक्ष्मी वासुदेव, लक्ष्मी दामोदर, लक्ष्मी नृसिंह, लक्ष्मी- संकर्षण, लक्ष्मी त्रिविक्रम, लक्ष्मी अनिरुद्ध, लक्ष्मी विश्वक्सेन का पूजन करे। त्रिकोण में गङ्गा, यमुना, सरस्वती का पूजन करे। त्रिकोण के अग्रभाग में अग्नि देवता का पूजन करे।। ५९-६१।।

लक्ष्मीनारायणं देवं पूजयेद् बिन्दुमण्डले ।

महालक्ष्मी राज्यलक्ष्मी सिद्धलक्ष्मीं च पूजयेत् ॥ ६२ ॥

शङ्खचक्रं गदां पद्मं पूजयेद् बिन्दुमण्डले ।

गन्धाक्षतप्रसूनादि – गुरुमाल्यविभूषणैः ॥६३॥

बिन्दुमण्डल में देवता लक्ष्मी-नारायण महालक्ष्मी राज्यलक्ष्मी, सिद्धलक्ष्मी, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म का पूजन गन्धाक्षतपुष्प माला- आभूषणों से करे।। ६२-६३।।

सम्पूज्यामृतकुम्भस्थैर्बिन्दुभिर्मन्त्रपूजितैः।

तर्पयेत् साधको देवं मकारैः पञ्चभिः परम् ।। ६४ ।।

तदनन्तर साधक कुम्भस्थ मन्त्रपूजित अमृतबिन्दु से तर्पण करे एवं पञ्च मकारों से देवता का पूजन करे ।। ६४ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- अष्टौ प्रयोगाः

लयाङ्गमेतदाख्यातं प्रयोगानष्ट पार्वति ।

वक्ष्ये येन भवेत् सिद्धिर्मन्त्रस्यास्य विशेषतः ॥६५ ॥

स्तम्भनं मोहनं चैव मारणाकर्षणौ ततः ।

वशीकारं तथोच्चाटं शान्तिकं पौष्टिकं ततः ॥ ६६ ॥

एतेषां साधनं वक्ष्ये प्रयोगाणां महेश्वरि ।

एषां साधनमात्रेण मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥ ६७ ॥

आठ प्रयोग- हे पार्वति । इस पूजन को लयाङ्ग कहते हैं। इसका वर्णन किया गया; क्योंकि इससे मन्त्र सिद्ध होता है। अब इस सिद्ध मन्त्र के आठ प्रयोगों का वर्णन करता हूँ। इनमें स्तम्भन, मोहन, मारण, आकर्षण, वशीकरण, उच्चाटन, शान्ति, पुष्टि आते हैं। इन प्रयोगों के साधन का वर्णन करता हूँ, जिसके साधनमात्र से ही कार्यसिद्धि होती है।। ६५ ६७।।

देवीरहस्य पटल ३६- स्तम्भनम्

रवौ स्नात्वा महादेवि गत्वाश्वत्थतरोस्तलम् ।

जपेदयुतमीशानि हुनेत् तत्र दशांशतः ॥ ६८ ॥

घृतमत्स्यण्डगुडजैः पुष्पैरानन्दमिश्रितैः ।

स्तम्भनं जायते सद्यो वादिवातार्कपाथसाम् ॥ ६९ ॥

स्तम्भन रविवार में स्नान करके पीपल के पेड़ के नीचे जाकर लक्ष्मीनारायण मन्त्र का जप दश हजार करे जप का दशांश एक हजार हवन घी, मत्स्यण्ड, गुड़, फूल आनन्दमिश्रित करके करे। इससे प्रतिवादी, अन्धड़, सूर्य, आकाश का स्तम्भन होता है ।। ६८-६९ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- मोहनम्

चन्द्रेऽर्धरात्रवेलायां गत्वा शृङ्गाटकं सुधीः ।

दिशो बद्ध्वासनं शोध्य प्राणायामं विधाय च ॥ ७० ॥

जपेन्मूलं हरिं ध्यात्वा हुत्वा देवि दशांशतः ।

घृतनागरपुन्नाग- करञ्जकुसुमानि च ॥ ७१ ॥

तर्पयित्वा दशांशेन मार्जयित्वा महेश्वरि ।

तद्भस्मना चरेद् भाले तिलकं साधकोत्तमः ॥७२॥

त्रैलोक्यं सहसा दृष्ट्वा मोहमेष्यति तन्मुखम् ।

मोहन-सोमवार की आधी रात के समय चौराहे पर जाकर दिग्बन्ध करे। आसन शोधन करके प्राणायाम करे। तब विष्णु का ध्यान करके मूल मन्त्र का जप दश हजार करें। एक हजार हवन घी, नागर, पुन्नाग, करञ्जफूल के मिश्रण से करे। एक सौ तर्पण और दश मार्जन करे। उसके भस्म का तिलक ललाट में लगावे। हे महेश्वरि ऐसे उत्तम साधक को देखकर तीनों लोक मोहित हो जाता है।। ७०-७२ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- मारणम्

भौमे गत्वा श्मशानं च जपेदयुतसंख्यया ॥ ७३ ॥

हुनेद् दशांशतो देवि सर्पिर्गोधूमपायसम् ।

दूर्वापत्रं सासवं च मृत्युश्च म्रियते क्षणात् ॥७४॥

मारण- मङ्गलवार में श्मशान में जाकर दश हजार मन्त्र जप करे दशांश एक हजार हवन गाय के घी, गेहूँ, पायस, दूब और आसव-मिश्रण से करे। इससे साक्षात् मृत्यु की भी क्षणमात्र में मृत्यु हो जाती है।।७३-७४ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- आकर्षणम्

बुधे गत्वाटवीं दूरं जपेज्-झंझातटे शिवे ।

अयुतं मूलमन्त्रं च हुनेत् सर्पिर्यवाकणान् ॥७५॥

दूर्वापूतासपद्माक्षपत्राणि कुसुमानि च ।

रम्भापि पुरतस्तस्य सद्यः प्रादुर्भविष्यति ।। ७६ ।।

आकर्षण - हे शिवे! बुधवार में दूर जङ्गल में झरना के किनारे जाकर मूल मन्त्र का जप दश हजार करे। गोघृत, यवचूर्ण, दूब, कुश, पद्मपत्र, पद्मबीज और फूल के मिश्रण से हवन करे तो उसके सामने रम्भा भी सद्यः उपस्थित हो जाती है।।७५-७६।।

देवीरहस्य पटल ३६- वशीकरणम्

गुरौ गत्वा नदीतीरं जपेत् तत्र दशांशत: ।

हुनेदाज्येन मधुना शटीचन्द्रकरीरकान् ॥७७॥

तद्भस्मना साधितेन त्रैलोक्यं वश्यमेष्यति ।

वशीकरण - गुरुवार में नदी तट पर जप करे दशांश हवन गोघृत, मधु, गन्धवाला, कपूर, करीर के मिश्रण से करे। उस हवन के भस्म का तिलक लगाये तो उसके वश में तीनों लोक हो जाता है।।७७।।

देवीरहस्य पटल ३६- उच्चाटनम्

शुक्रेऽशोकतरु गत्वा जपेदयुतसंख्यया ॥ ७८ ॥

हुनेत् सर्पिर्नागपटं शालिचूर्णं तुषाकुलम् ।

तर्पयेदासवाज्येक्षु-रसैर्भुक्त्वा दशांशतः ॥७९॥

शत्रोः शम्भुसमानस्य भवेदुच्चाटनं ध्रुवम् ।

उच्चाटन- शुक्रवार में अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर दश हजार मन्त्रजप करे। उसका दशांश गाय के घी, नागपट, शालिचूर्ण, तुषाकुल- मिश्रण से एक हजार हवन करे। आसव, ईख रस, गोघृत से दशांश तर्पण करे। इससे शिव के समान शक्तिशाली शत्रु का भी निश्चित रूप से उच्चाटन हो जाता है।। ७८-७९ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- शान्तिः

शनौ गत्वा नदीतीरं जपेदयुतसंख्यया ॥८०॥

होमो दशांशतः कार्यों घृतपायसकुङ्कुमैः ।

सारणालैर्जम्बुफलैः शान्तिकं जायते क्षणात् ॥८१॥

शान्ति- शनिवार में नदी किनारे जाकर दश हजार मन्त्र का जप करें। घी, पायस, कुङ्कुम, सारशाल एवं जामुनफल के मिश्रण से जप का दशांश हवन करे। इससे क्षण भर में शान्ति प्राप्त होती है।। ८०-८१ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- पुष्टि:

शुभर्क्षे शुभवारे वा गत्वोपवनमण्डलम् ।

 जपेदयुतमीशानि हुनेदाज्येन पङ्कजैः ॥८२॥

सोत्पलं सकणं साम्लं महापुष्टिः प्रजायते ।

पुष्टि- शुभ नक्षत्र, शुभ दिन में उपवन मण्डल में जाकर दश हजार मन्त्र का जप करे। गोघृत, कमल, उत्पल, सकण, साम्ल मिश्रण से जप का दशांश हवन करे तो महापुष्टि प्राप्त होती है ।। ८२ ।।

देवीरहस्य पटल ३६- पटलोपसंहारः

एतद्रहस्यं परमं तव भक्त्या मयोदितम् ॥८३॥

लक्ष्मीनारायणस्येदं सर्वस्वं परमार्थदम् ।

अदातव्यमभक्तेभ्यो दुष्टेभ्यो वीरवन्दिते ॥८४॥

महाचीनपदस्थेभ्यो भोगदं मोक्षदं कलौ ।

गोप्यं गुह्यतमं तत्त्वं गुह्याद्भुह्यतमं शिवे ।

आनन्दकारणं गोप्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ८५ ॥

उपसंहार- हे देवि ! इस परम रहस्य का वर्णन तेरी भक्ति के वश में होकर मैंने किया। यह लक्ष्मीनारायण का सर्वस्वभूत यह पटल परमार्थ प्रदायक है और अभक्तों को देय नहीं है। दुष्टों को भी देय नहीं है। कलियुग में महाचीन पदस्थ वीरों के लिये यह भोग- प्रदायक और मोक्षप्रद है। हे शिवे ! यह गोप्य गुह्यतम तत्त्व गुह्यातिगुह्यतम है। समस्त आनन्द का कारण है। अपनी योनि के समान ही यह गोपनीय है।।८३-८५।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये लक्ष्मीनारायणपटल-निरूपणं नाम षट्त्रिंशः पटलः ।। ३६ ।।

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में लक्ष्मीनारायणपटल निरूपण नामक षट्त्रिंश पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 37 

Post a Comment

0 Comments