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- रहस्यपञ्चदशिका
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सूर्य मूलमन्त्र स्तोत्र
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ३५ में सूर्यपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत सूर्य मूलमन्त्र स्तोत्र के विषय में
बतलाया गया है।
श्रीसूर्यमूलमन्त्रस्तोत्रम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् पञ्चत्रिंशः
पटल:
Shri Devi Rahasya Patal 35
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य पैंतीसवाँ
पटल
देवीरहस्य पटल ३५ सूर्य मूल मन्त्र स्तोत्र
अथ सूर्यमूलमन्त्रस्तोत्रम्
स्तोत्रमाहात्म्यम्
श्रीभैरव उवाच
अधुना देवि वक्ष्यामि स्तोत्रं
मन्त्रनिरूपणम् ।
पञ्चमाङ्गमयं तत्त्वं सर्वापत्तारणं
ध्रुवम् ॥ १ ॥
अष्टसिद्धिमयं साध्यं सिद्धिदं
बुद्धिवर्धनम् ।
सर्वामयप्रशमनं तेजोबलविवर्धनम् ॥ २
॥
महादारिद्र्यहरणं पुत्रपौत्रप्रदं शिवे
।
भोगापवर्गदं लोके रहस्यं मम पार्वति
॥३॥
स्तोत्र माहात्म्य –
श्रीभैरव ने कहा कि हे देवि! अब मैं सूर्यस्तोत्ररूप मन्त्र का निरूपण
करता हूँ। यह पञ्चाङ्गमय तत्त्व सभी आपदाओं से निश्चित रूप से रक्षा करता है। यह
स्तोत्र अष्ट सिद्धिमय, साध्य, सिद्धिदायक,
बुद्धिवर्धक, सर्वरोग-प्रशामक, तेज और बल का वर्धक है। हे शिवे ! यह इस संसार में महादारिद्र्यहारी,
पुत्र-पौत्रप्रदायक, भोग और चतुर्वर्ग को देने
वाला है ।। १-३ ।।
सूर्यमूलमन्त्रस्तोत्रम् विनियोगः
स्तोत्रस्यास्य महादेवि
ऋषिर्ब्रह्मा समीरितः ।
गायत्र्यं छन्द इत्युक्तं देवता
सविता स्मृतः ॥ ४ ॥
बीजं च व्योषमाख्यातं माया
शक्तिरितीरिता ।
प्रणवः कीलकं देवि विश्वं
दिग्बन्धनं ततः ।
भोगापवर्गसिद्ध्यर्थं विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ ५ ॥
अस्य श्रीसूर्यस्तोत्रमन्त्रस्य
श्रीब्रह्मा ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः,
सविता देवता, ह्रां बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं, नमो
दिग्बन्धनं, भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे
पाठे विनियोगः ।
विनियोग - हे महादेवि! इस
सूर्यस्तोत्र के ऋषि ब्रह्मा कहे गये हैं। गायत्री इसका छन्द कहा गया है एवं सविता
देवता कहे गये हैं। व्योष ह्रां बीज एवं माया = ह्रीं शक्ति कहा गया है। प्रणव ॐ
इसका कीलक एवं विश्व नमः दिग्बन्धन कहा गया है। भोग एवं अपवर्ग की सिद्धि हेतु
इसका विनियोग किया जाता है।।४-५ ।।
ध्यानम्
देदीप्यमानमुकुटं मणिकुण्डलमण्डितम्
।
विस्फुरालिङ्गितं ध्यात्वा
स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ॥६ ॥
कल्पान्तानलकोटिभास्वरमुखं
सिन्दूरधूलीजपा-
वर्ण रत्नकिरीटिनं द्विनयनं
श्वेताब्जमध्यासनम् ।
नानाभूषणभूषितं स्मितमुखं
रक्ताम्बरं चिन्मयं
सूर्य स्वर्णसरोजरत्नकलशौ दोर्भ्यां
दधानं भजे ॥ ७ ॥
ध्यान - सविता का मुकुट देदीप्यमान
है। मणि कुण्डलयुक्त कर्ण हैं। ये विस्फुरा से आलिङ्गित हैं। इस प्रकार का सूर्य
का ध्यान करके स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। इनका मुख मण्डल करोड़ों कल्पान्त पावक
ज्वाला के समान प्रकाशमान है। सिन्दूर और अड़हुल-फूल के समान इनका लाल वर्ण है।
रत्नजटित किरीट माथे पर है। दो नेत्र हैं। श्वेत कमल के मध्य में इनका आसन है।
विविध आभूषणों से ये सुशोभित है। मुख मुस्कानयुक्त है। चिन्मय लाल वस्त्र है। इनके
एक हाथ में स्वर्णकमल है और दूसरे हाथ में रत्नकलश है।। ६-७।।
सूर्यमूलमन्त्रस्तोत्रम्
वेदाद्यं
नादबिन्दुस्फुरितशशिकलालङ्कृतं मन्त्रमूलं
यो ध्यायेद्वेदविद्याध्ययनविरहितो
जाड्यपूर्णो दरिद्रः ।
सद्यः सः
क्षोणिपालोज्ज्वलमुकुटलसद्रननीराजिताङ्घ्रि-
र्वागीशं जेष्यते द्राक् सुरसदसि
सुधापूरिताभिश्च वाग्भिः ॥८ ॥
शिवाकारं वह्निं शशधरकलाबिन्दुललितं
विभो ध्यायेच्चित्ते मनुमुकुटरत्नं
जपति यः ।
स संग्रामे जित्वा
सकलरिपुसङ्घातमचिराद्
भवेत् सम्राड् भूमौ व्रजति हि
परासुस्तव पदम् ॥ ९ ॥
'ॐ ह्रां ह्रीं सः' से प्रारम्भ होने वाले मूल मन्त्र का ध्यान यदि वेदविद्या अध्ययनरहित
जड़तायुक्त दरिद्र भी करता है तो तुरन्त रत्नजटित मुकुटयुक्त भूपाल भी उसके चरण
में शीश झुकाते हैं। वह विद्वानों को जीत लेता है। वह देवताओं के समान अमृतपूर्ण
वाणी बोलने वाला हो जाता है। मन्त्रमुकुटरत्न 'ह्रां'
का जप जो विभु का ध्यानसहित करता है, वह थोड़े
ही दिनों में युद्ध में शत्रुसमूह को जीतकर सम्राट होकर पृथ्वी पर रहता है। एवं
श्रेष्ठ स्तुत्य पद को प्राप्त करता है।।८-९।।
व्योमानलारूढमिति स्मरेद्यो
वामाक्षिबिन्द्वीन्दुकलाभिरामम् ।
गद्यादिपद्यामृतवर्षिणी वाग्वक्त्रे
विभो तस्य करस्थिता श्रीः ॥ १० ॥
शक्तिं भक्तियुतो जपेद्यदि
मनोर्मध्ये स्मरन् भास्करं
रोगार्तो निजशक्तिकामरसिको
हालारसेनालसः ।
वीरो वीर्यमयो निरामयवपुर्भूत्वेह
भुक्त्वा श्रियं
स्वर्गस्त्रीजनवीजितः स भगवन्
धामाव्ययं यास्यति ॥ ११ ॥
जो 'ह्रीं' का जप ध्यानपूर्वक करता है, उसकी वाणी गद्य-पद्यमयी अमृतवर्षिणी होती है। उसके मुख में सरस्वती का और
हाथ में लक्ष्मी का वास होता है। सूर्य के ध्यानपूर्वक भक्तियुक्त होकर जो मन्त्र
के मध्य में स्थित 'सः' का जप करता है,
वह रोगार्त, अपनी शक्ति में काम रसिक, मद्यपान से आलसी कौलिक वीर नीरोग एवं बलवान होकर संसार में समस्त वैभव का
भोग करता है एवं स्वर्ग की स्त्रियों को जीत लेता है और अन्त में भगवान् के अव्यय
धाम में जाता है।।१०-११।
सूर्यायेत्यभिधाक्षराणि जपते यो देव
सूर्योदये
मूकः शोकयुतो महामयमयो
दारिद्र्यपीडाकुलः ।
सद्यो गद्यसुपद्यसारसरला निर्याति
वाणी मुखात्
तस्यारोग्यतनोर्भवन्ति भगवन् वश्याः
सदा सम्पदः ॥ १२॥
सूर्योदय के समय जो दो अक्षरों वाले
'सूर्य' मन्त्र का जप करता है, वह
गुङ्गा, शोकाकुल, महा भयातुर, दरिद्रता की पीड़ा से व्याकुल साधक भी अल्प काल में ही गद्य- पद्यसार-सरल
वाणी बोलने लगता है एवं उसका शरीर नीरोग हो जाता है। उसका भय समाप्त हो जाता है और
सभी सम्पदाएँ उसके वश में होती हैं ।। १२ ।।
विश्वं विश्वमनोर्विभोऽञ्चलगतं यो
मानसे सञ्जपेद्
रात्रौ कामकलासमाहिततनुः कामातुरः
कौतुकी ।
कामं हन्त तिलोत्तमोत्तमतमा
कामाभिरामाऽसमा
सद्यस्तस्य वशीभविष्यति
महातेजस्विनो मानिनः ॥१३॥
विश्वमनु 'विभो' के अञ्चलगत 'नमः'
का जप जो रात में मानसिक रूप से कामकला समाहित तन से करता है,
वह कामातुर कौतुकी उत्तम तिलोत्तमा के समान सुन्दर कामिनियों को भी
कामातुर बना देता है। अल्पावधि में ही उसके वश में महा तेजस्वी और मानी व्यक्ति हो
जाते हैं ।। १३ ।।
मणिमुकुटमरीचिस्फीत भास्वल्ललाटं
कनककलशदिव्याम्भोजहस्तारबिन्दम्
निखिलनिगभगम्यं विस्फुरालिङ्गिताङ्ग
मनसि सरसिजेष्टं सूर्यमीशं नमामि ।।
१४ ।।
मुकुट की मणियों से निःसृत रश्मियों
से जिनका ललाट प्रकाशमान हैं, हाथों में कनक
कलश और दिव्य कमल है, जो निखिल वेदगम्य हैं, विस्फुरा से आलिंगित हैं, जो कमलों के इष्ट हैं,
ऐसे सूर्य भगवान् को मैं मानसिक प्रणाम करता हूँ। । १४ ।।
भूगेहशोभितप (सु) रारणभूषिताष्ट-
पत्राञ्चितात्मवसुकोणसुराश्रबिन्दौ
देवं निषण्णममुदितांशुसहस्त्र
भास्वद्
देहं भजामि भगवन्तमनन्तमाद्यम् ॥१५॥
भूपुर,
वृत्तत्रय, अष्टदल, अष्टकोण,
त्रिकोण, बिन्दु-सुशोभित यन्त्र के मध्य में अवस्थित
प्रसन्नमुख, सहस्रांशु भासमान देह वाले अनन्त अनाद्य भगवान्
का मैं स्मरण करता हूँ ।। १५ ।।
सूर्यमूलमन्त्रस्तोत्रम् फलश्रुतिः
इति स्तोत्रं
मन्त्रात्मकमखिलतन्त्रोद्धृतमिदं
पठेत् प्रातः स्नातो मिहिरभुवनेशस्य
भवतः ।
भवेद् भोगी भूमौ विभवसहितः
कीर्तिसहितः
परत्रान्ते विष्णोर्व्रजति परमं धाम
सवितुः ॥ १६ ॥
फलश्रुति-सकल तन्त्रोद्धृत
मन्त्रात्मक स्तोत्र का वर्णन समाप्त हुआ। प्रातः काल स्नान के बाद भुवनेश मिहिर
के सम्मुख जो इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह
वैभव एवं कीर्ति से युक्त होकर भूमि का भोग करता है एवं देहान्त के बाद विष्णु
सविता के परम धाम में वास करता है ।। १६ ।।
इतीदं देवि पञ्चाङ्गं देवदेवस्य
भास्वतः ।
तव स्नेहान्मयाख्यातं नाख्येयं यस्य
कस्यचित् ॥ १७ ॥
यद्गृहे वर्तते पुण्यं पञ्चाङ्गं
परमात्मनः ।
सवितुः सर्वसर्वस्वं रहस्यं
गुह्यमुत्तमम् ॥ १८ ॥
तद्गृहे निश्चला लक्ष्मीर्दासीव
वसतिं चरेत् ।
नाग्निभीतिर्न दारिद्र्यं न रोगो
नाप्युपद्रवः ॥ १९ ॥
न राजभीतिनों शोकः सदा
सर्वार्थसम्पदः ।
इदं तत्त्वं हि तत्त्वानां रहस्यं
देवदुर्लभम् ॥२०॥
अदातव्यमभक्ताय दातव्यं च महात्मने
।
गुह्यातिगुह्यगुह्यं च
सूर्यपञ्चाङ्गमुत्तमम् ॥ २१ ॥
सर्वदा सर्वथा गोप्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ।
हे देवि! भासमान देवदेव का यह
पञ्चाङ्ग वर्णन पूरा हुआ। तुम्हारे स्नेहवश मैंने इसका वर्णन किया। जिस किसी को
इसे नहीं बतलाना चाहिये। जिसके घर में परमात्मा सविता का यह तत्त्वसर्वस्वभूत,
गुह्य एवं रहस्यस्वरूप पञ्चाङ्ग रहता है, उसके
घर में निश्चला लक्ष्मी दासी के समान निवास करती रहती है और विचरण करती है। उसे न
तो अग्नि का भय होता है, न दरिद्रता होती है, न रोग होते हैं और न ही उपद्रव होते हैं। उसे न तो राजभय होता है और न ही
शोक होता है। सदा सर्वार्थ सम्पदा से वह युक्त होता है। यह तत्त्वों के तत्त्वों
का रहस्य देवदुर्लभ है। अभक्तों को यह देय नहीं है। महात्माओं को दिया जा सकता है।
यह सूर्यपञ्चाङ्ग गुह्याति गुह्य और उत्तम है, सर्वदा सभी
प्रकार से अपनी योनि के समान गोपनीय है ।। १७-२१।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये सूर्यमूलमन्त्रस्तोत्रं नाम पञ्चत्रिंशः पटलः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में सूर्यमूलमन्त्रस्तोत्र नामक पञ्चत्रिंश पटल पूर्ण
हुआ।
समाप्तमिदं सूर्यपञ्चाङ्गम्
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 36
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