वज्रपंजराख्य सूर्य कवच
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ३३ में सूर्यपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत वज्रपंजराख्य सूर्य कवच के
विषय में बतलाया गया है।
श्रीवज्रपञ्जराख्यसूर्यकवच
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् त्रयस्त्रिंशः
पटल:
Shri Devi Rahasya Patal 33
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य
तैतीसवाँ पटल
देवीरहस्य पटल ३३ वज्र पंजराख्य सूर्यकवच
अथ सूर्यकवचम्
कवचमाहात्म्यम्
सूर्यकवचम्
वज्रपञ्जराख्यसूर्यकवचम् ।
श्रीभैरव उवाच -
यो देवदेवो भगवान् भास्करो महसां
निधिः ।
गायत्रीनायको भास्वान् सवितेति
प्रगीयते ॥ १॥
श्री भैरव ने कहा कि जो देवदेव
भगवान् भास्कर प्रकाश के पुञ्ज हैं, गायत्री
- नायक हैं, भास्वान हैं, उन्हें सविता
कहा जाता है।
तस्याहं कवचं दिव्यं
वज्रपञ्जरकाभिधम् ।
सर्वमन्त्रमयं गुह्यं
मूलविद्यारहस्यकम् ॥ २॥
उन्हीं के वज्रपञ्जर नामक कवच का
मैं वर्णन करता हूँ। यह कवच दिव्य, सर्वमन्त्रमय
एवं मूल विद्या का रहस्य है।
सर्वपापापहं देवि
दुःखदारिद्र्यनाशनम् ।
महाकुष्ठहरं पुण्यं
सर्वरोगनिबर्हणम् ॥ ३॥
यह सभी पापों का विनाशक,
दुःख दरिद्रता का विनाशक महाकुष्ठहारी, पुनीत
और सभी रोगों का विनाशक है।
सर्वशत्रुसमूहघ्नं संग्रामे विजयप्रदम्
।
सर्वतेजोमयं सर्वदेवदानवपूजितम् ॥
४॥
यह सभी शत्रुओं का घातक युद्ध में
विजय- प्रदायक, सर्वतेजोमय, सभी देव-दानवों से पूजित है।। १-४ ।।
रणे राजभये घोरे सर्वोपद्रवनाशनम् ।
मातृकावेष्टितं वर्म भैरवानननिर्गतम्
॥ ५॥
युद्ध में,
राजभय में सभी घोर उपद्रवों का विनाशक है। यह मातृका वेष्टित कवच भैरव
के मुख से निर्गत है।
ग्रहपीडाहरं देवि सर्वसङ्कटनाशनम् ।
धारणादस्य देवेशि ब्रह्मा
लोकपितामहः ॥ ६॥
विष्णुर्नारायणो देवि रणे दैत्याञ्जयिष्यति
।
शङ्करः सर्वलोकेशो वासवोऽपि
दिवस्पतिः ॥ ७॥
यह ग्रहपीड़ा निवारक एवं सभी संकटों
का विनाशक है। इसे धारण करके लोकपितामह ब्रह्मा, विष्णु, नारायण युद्ध में दैत्यों को जीत लेते हैं।
इसे धारण करके ही शंकर सभी लोकों के स्वामी हैं।
ओषधीशः शशी देवि शिवोऽहं भैरवेश्वरः
।
मन्त्रात्मकं परं वर्म सवितुः
सारमुत्तमम् ॥ ८॥
इन्द्र स्वर्ग के स्वामी हैं।
चन्द्रमा औषधी का ईश्वर है। मैं शिव भैरवों का स्वामी हूँ। यह मन्त्रात्मक श्रेष्ठ
कवच सविता का उत्तम सार है ।।५-८।।
यो धारयेद् भुजे मूर्ध्नि रविवारे
महेश्वरि ।
स राजवल्लभो लोके तेजस्वी वैरिमर्दनः
॥ ९॥
रविवार को जो इसे अपनी भुजा में या
मूर्धा में धारण करता है, वह राजा का प्रिय,
संसार में तेजस्वी, शत्रुओं का विनाशक होता
है।
बहुनोक्तेन किं देवि कवचस्यास्य
धारणात् ।
इह लक्ष्मीधनारोग्यवृद्धिर्भवति
नान्यथा ॥ १०॥
बहुत कहने से क्या लाभ है;
इस कवच के धारण करने से संसार में लक्ष्मी धन-आरोग्य की वृद्धि होती
है; अन्यथा नहीं होती है।
परत्र परमा मुक्तिर्देवानामपि
दुर्लभा ।
कवचस्यास्य देवेशि मूलविद्यामयस्य च
॥ ११॥
परलोक में देवदुर्लभ परम मोक्ष
प्राप्त होता है। हे देवेशि ! यह कवच मूल मन्त्रमय है ।। ९-११ ।।
वज्रपंजराख्य सूर्य कवच विनियोगः
वज्रपञ्जरकाख्यस्य मुनिर्ब्रह्मा
समीरितः ।
गायत्र्यं छन्द इत्युक्तं देवता
सविता स्मृतः ॥ १२॥
माया बीजं शरत् शक्तिर्नमः
कीलकमीश्वरि ।
सर्वार्थसाधने देवि विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ १३॥
अस्य श्रीवज्रपञ्जरकवचस्य ब्रह्मा
ऋषिः,
गायत्र्यं छन्दः, श्रीसविता देवता, ह्रीं बीजं, सः शक्तिः, नमः
कीलकं, सर्वार्थसाधने वज्रपञ्जरकवचपाठे विनियोगः ।
कवच का विनियोग- हे देवि! इस वज्रपञ्जर नामक कवच के मुनि (ऋषि) ब्रह्मा कहे गये हैं,
गायत्री इसका छन्द कहा गया है और देवता सविता कहे गये है। माया =ह्रीं
इसका बीज, शरत्= सः शक्ति एवं नमः कीलक कहा गया है। हे
ईश्वरि समस्त प्रकार के अभीप्सित साधन करने के लिये इसका विनियोग कहा गया
है।।१२-१३।।
श्रीवज्रपञ्जराख्य सूर्य कवचम्
ॐ अं आं इं ईं शिरः पातु ओं सूर्यो
मन्त्रविग्रहः ।
उं ऊं ऋं ॠं ललाटं मे ह्रां रविः पातु
चिन्मयः ॥ १४॥
ऌं ॡं एं ऐं पातु नेत्रे ह्रीं
ममारुणसारथिः ।
ओं औं अं अः श्रुती पातु सः
सर्वजगदीश्वरः ॥ १५॥
कं खं गं घं पातु गण्डौ सूं सूरः
सुरपूजितः ।
चं छं जं झं च नासां मे पातु र्या अर्यमा
प्रभुः ॥ १६॥
कवच - ॐ अं आं इं ईंॐ सूर्यमन्त्रों
का स्वरूप मेरे शिर की रक्षा करे। उं ऊं ऋं ॠं मेरे ललाट की रक्षा चिन्मय रवि
ह्रां करें। लृं ॡं एं ऐं नेत्रों की रक्षा ही अरुणरूपी सारथी करें। ओं औं अं अः
कानों की रक्षा सः सभी जगत् का ईश्वर करें। कं खं गं घं गालों की रक्षा सूं
सुरपूजित सूर्य करें चं छं जं झं नासा की रक्षा र्यां अर्यमा करें।।१४-१६।।
टं ठं डं ढं मुखं पायाद् यं
योगीश्वरपूजितः ।
तं थं दं धं गलं पातु नं
नारायणवल्लभः ॥ १७॥
पं फं बं भं मम स्कन्धौ पातु मं
महसां निधिः ।
यं रं लं वं भुजौ पातु मूलं सकनायकः
॥ १८॥
शं षं सं हं पातु वक्षो
मूलमन्त्रमयो ध्रुवः ।
ळं क्षः कुक्षिं सदा पातु ग्रहनाथो
दिनेश्वरः ॥ १९॥
टं ठं डं ढं मुख की रक्षा यं
योगीश्वरपूजित करें। तं थं दं धं गला की रक्षा नारायणप्रिय नं करे। पं फं बं भं
मेरे कन्धे हैं, इसकी रक्षा प्रकाशपुञ्ज मं करे।
यं रं लं वंरूपी भुजा की रक्षा सर्वनायक मूल मन्त्र करे। शं षं सं हं वक्ष की
रक्षा मूल मन्त्रमय ॐ करे। कं क्षं कुक्षि की रक्षा ग्रहनाथ दिनेश्वर करें।।
१७-१९।।
ङं ञं णं नं मं मे पातु पृष्ठं
दिवसनायकः ।
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं नाभिं पातु
तमोपहः ॥ २०॥
ऌं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः लिङ्गं
मेऽव्याद् ग्रहेश्वरः ।
कं खं गं घं चं छं जं झं कटिं
भानुर्ममावतु ॥ २१॥
टं ठं डं ढं तं थं दं धं जानू
भास्वान् ममावतु ।
पं फं बं भं यं रं लं वं जङ्घे मेऽव्याद्
विभाकरः ॥ २२॥
डं अं णं नं मं पृष्ठ की रक्षा
दिवसनायक करें। अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं नाभि की रक्षा तमनाशक करें। ऌं ॡं एं ऐं
ओं औं अं अः लिङ्ग की रक्षा महेश्वर करें। कं खं गं घं चं छं जं झं मेरे कमर की
रक्षा भानु करें। टं ठं डं ढं तं थं दं धं
मेरे जानु की रक्षा भास्वान करें। पं फं बं भं यं रं लं वं मेरे जंघों की रक्षा
दिवाकर करें।। २०-२१।।
शं षं सं हं ळं क्षः पातु मूलं पादौ
त्रयीतनुः ।
ङं ञं णं नं मं मे पातु सविता सकलं
वपुः ॥ २३॥
सोमः पूर्वे च मां पातु भौमोऽग्नौ
मां सदावतु ।
बुधो मां दक्षिणे पातु नैऋत्यां गुरुरेव
माम् ॥ २४॥
पश्चिमे मां सितः पातु वायव्यां मां
शनैश्चरः ।
उत्तरे मां तमः पायादैशान्यां मां
शिखी तथा ॥ २५॥
शं षं सं हं ळं क्षं मूल मन्त्र
पैरों की रक्षा त्रयीतन करें। ङं ञं णं नं मं सारे शरीर की रक्षा सविता करें।
पूर्व में मेरी रक्षा चन्द्र करे, भौम मेरी
रक्षा आग्नेय में करे। दक्षिण में मेरी रक्षा बुध करे। नैर्ऋत्य में गुरु रक्षा
करे। पश्चिम में मेरी रक्षा शुक्र करे। शनि मेरी रक्षा वायव्य में करे। उत्तर में
मेरी रक्षा केतु करे और ईशान में राहु रक्षा करें।। २३-२५।।
ऊर्ध्वं मां पातु मिहिरो
मामधस्ताज्जगत्पतिः ।
प्रभाते भास्करः पातु मध्याह्ने मां
दिनेश्वरः ॥ २६ ॥
सायं वेदप्रियः पातु निशीथे
विस्फुरापतिः ।
सर्वत्र सर्वदा सूर्यः पातु मां
चक्रनायकः ॥ २७ ॥
रणे राजकुले द्यूते विवादे
शत्रुसङ्कटे ।
संग्रामे च ज्वरे रोगे पातु मां
सविता प्रभुः ॥ २८ ॥
ऊर्ध्व में मेरी रक्षा मिहिर करे और
जगत्पति अधोदिशा में रक्षा करे। प्रभात में भास्कर रक्षा करें। मध्याह्न में रक्षा
दिनेश्वर करें। वेदप्रिय शाम में रक्षा करें और निशीथ में विस्फुरापति रक्षा करें।
चक्रनायक सूर्य सर्वदा सर्वत्र मेरी रक्षा करें युद्ध में,
राजदरबार में, जुआ में,
विवाद में, शत्रुसंकट में, संग्राम में,
ज्वर में, रोग में मेरी रक्षा प्रभु सविता
करें ।। २६-२८।।
ॐ ॐ ॐ उत ॐ उऊहंसमयः
सूर्योऽवतान्मां भयाद्
ह्रां ह्रीं ह्रूं हहहा हसौः हसहसौः
हंसोऽवतात् सर्वतः ।
सः सः सः सससा
नृपाद्वनचराच्चौराद्रणात् सङ्कटात्
पायान्मां कुलनायकोऽपि सविता ॐ ह्रीं ह सौः
सर्वदा ॥ २९॥
द्रां द्रीं द्रूं दधनं तथा च
तरणिर्भांभैर्भयाद् भास्करो
रां रीं रूं रुरुरूं रविर्ज्वरभयात्
कुष्ठाच्च शूलामयात् ।
अं अं आं विविवीं महामयभयं मां पातु
मार्तण्डको
मूलव्याप्ततनुः सदावतु परं हंसः सहस्त्रांशुमान्
॥ ३०॥
ॐ ॐ ॐ अथवा ॐ उ ऊ हंसमय सूर्य भय से
मेरी रक्षा करें। ह्रां ह्रीं सः ह ह हा हसौः हसहसौः हंस मेरी रक्षा सर्वत्र करें।
सः स स स स सा नृप से, वनचरों से, चौरभय से, संकट से मेरी रक्षा कुलनायक सविता ॐ ह्रीं
हसौः सर्वदा करें। द्रां द्रीं द्रूं दं धं नं तरणि भां भैं भय से भास्कर रक्षा
करें। रां री रूं रुं रुंरूं ज्वरभय, कुष्ठ, शूल से मेरी रक्षा रवि करें। अं अं आं विविवीं महामय से मेरी रक्षा
मार्तण्ड करें। मूल मन्त्रस्वरूप परं हंस अंशुमान मेरी रक्षा सर्वदा करें।।
२९-३०।।
श्रीवज्रपञ्जराख्य सूर्यकवच
फलश्रुतिः
इति श्रीकवचं दिव्यं
वज्रपञ्जरकाभिधम् ।
सर्वदेवरहस्यं च
मातृकामन्त्रवेष्टितम् ॥ ३१॥
इस प्रकार दिव्य वज्रपञ्जर नामक कवच
का वर्णन समाप्त हुआ। यह दिव्य कवच सभी देवों का रहस्य,
मातृकामन्त्र से वेष्टित है।
महारोगभयघ्नं च पापघ्नं
मन्मुखोदितम् ।
गुह्यं यशस्करं पुण्यं
सर्वश्रेयस्करं शिवे ॥ ३२॥
यह वज्रपञ्जर नामक कवच महा रोगभय
विनाशक,
पापहारी, मेरे मुख से वर्णित गुह्य, यशप्रदायक, पुण्यप्रद एवं सभी प्रकार से श्रेयष्कर है।
लिखित्वा रविवारे तु तिष्ये वा
जन्मभे प्रिये ।
अष्टगन्धेन दिव्येन सुधाक्षीरेण
पार्वति ॥ ३३॥
अर्कक्षीरेण पुण्येन भूर्जत्वचि
महेश्वरि ।
कनकीकाष्ठलेखन्या कवचं भास्करोदये ॥
३४॥
श्वेतसूत्रेण रक्तेन
श्यामेनावेष्टयेद् गुटीम् ।
सौवर्णेनाथ संवेष्ठ्य
धारयेन्मूर्ध्नि वा भुजे ॥ ३५॥
रविवार को पुष्य नक्षत्र में या
जन्मनक्षत्र में इसे दिव्य अष्टगन्ध से या सुधाक्षीर से या अर्कक्षीर से पुनीत
भोजपत्र पर कनकी काष्ठलेखनी से सूर्योदय के समय लिखकर श्वेत,
लाल, काले धागों से वेष्टित करके गुटिका बनावे
या सोने के ताबीज में भरकर मूर्धा पर या भुजा में धारण करे ।। ३३-३५ ।।
रणे रिपूञ्जयेद् देवि वादे सदसि
जेष्यति ।
राजमान्यो भवेन्नित्यं सर्वतेजोमयो
भवेत् ॥ ३६॥
इससे साधक युद्ध में विजय प्राप्त
करता है। वाद-विवाद में उसकी जीत होती है। हमेशा राजमान्य होता है। सभी तेजों से
युक्त होता है।
कण्ठस्था पुत्रदा देवि कुक्षिस्था
रोगनाशिनी ।
शिरःस्था गुटिका दिव्या राजलोकवशङ्करी
॥ ३७॥
इसे कण्ठ में धारण करने से पुत्र
होते हैं। कुक्षि में धारण करने से रोगों का नाश होता है शिर पर धारण करने से
राजलोक वश में होता है।
भुजस्था धनदा नित्यं
तेजोबुद्धिविवर्धिनी ।
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा
च याङ्गना ॥ ३८॥
कण्ठे सा धारयेन्नित्यं बहुपुत्रा प्रजायते
।
भुजा में धारण करने से धन प्राप्त
होता है सदा तेज बुद्धि की वृद्धि होती हैं। वन्ध्या या काकवन्ध्या या मृतवत्सा
स्त्री इसे नित्य कण्ठ में धारण करे तो वह बहुत पुत्रों वाली होती है।। ३६-३८।।
यस्य देहे भवेन्नित्यं गुटिकैषा
महेश्वरि ॥ ३९ ॥
महास्त्राणीन्द्रमुक्तानि
ब्रह्मास्त्रादीनि पार्वति ।
तद्देहं प्राप्य व्यर्थानि
भविष्यन्ति न संशयः ॥४०॥
हे महेश्वरि! जिसके देह में यह
गुटिका नित्य रहती है, वह महाअस्वरूपी
इन्द्र का ब्रह्मास्त्र भी उसके देह से सटकर व्यर्थ हो जाते हैं। इसमें कोई संशय
नहीं है।
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं कवचं
वज्रपञ्जरम् ।
तस्य सद्यो महादेवि सविता वरदो
भवेत् ॥ ४१ ॥
जो सदैव तीनों सन्ध्याओं में इस
वज्रपञ्जर नामक कवच का पाठ करता है, उसे
सविता शीघ्र ही वर देते हैं।
अज्ञात्वा कवचं देवि पूजयेद्
यस्त्रयीतनुम् ।
तस्य पूजार्जितं पुण्यं जन्मकोटिषु
निष्फलम् ॥ ४२ ॥
जो कवच को जाने बिना त्रयीतनु का
पूजन करता है, उसके पूजनार्जित पुण्य करोड़ों
जन्मों तक निष्फल रहते हैं ।। ३९-४२।।
शतावर्त पठेद्वर्म सप्तम्यां
रविवासरे।
महाकुष्ठार्दितो देवि मुच्यते नात्र
संशयः ॥४३॥
रविवार की सप्तमी में इस कवच का सौ
पाठ करे तो महाकुष्ठ से दुःखी मनुष्य भी रोगमुक्त होता है;
इसमें संशय नहीं है।
नीरोगो यः पठेद्वर्म दरिद्रो
वज्रपञ्जरम् ।
लक्ष्मीवाञ्जायते देवि सद्यः
सूर्यप्रसादतः ॥४४॥
भक्त्या यः प्रपठेद् देवि कवचं
प्रत्यहं प्रिये ।
इह लोके श्रियं भुक्त्वा देहान्ते
मुक्तिमाप्नुयात् ॥ ४५ ॥
जो इस कवच का पाठ करता है,
वह नीरोग होता है। वज्रपञ्जर कवच के पाठ से दरिद्र भी सूर्य की कृपा
से थोड़े ही समय में लक्ष्मीवान हो जाता है। जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस कवच का
पाठ करता है, वह इस संसार में सुखों को भोग करके देहान्त
होने पर मोक्ष प्राप्त करता है ।।४३-४५ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये वज्रपञ्जराख्यसूर्यकवच- निरूपणं नाम त्रयस्त्रिंशः पटलः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में सूर्यकवच निरूपण नामक त्रयस्त्रिंश पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 34
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