Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2021
(800)
-
▼
May
(109)
- शनिरक्षास्तवः
- शनैश्चरस्तवराजः
- शनैश्चरस्तोत्रम्
- शनिस्तोत्रम्
- शनि स्तोत्र
- महाकाल शनि मृत्युंजय स्तोत्र
- शनैश्चरमालामन्त्रः
- शनिमङ्गलस्तोत्रम्
- शनि कवच
- शनि चालीसा
- शनिस्तुति
- शुक्रमङ्गलस्तोत्रम्
- शुक्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- शुक्रकवचम्
- शुक्रस्तवराज
- शुक्रस्तोत्रम्
- श्रीगुर्वाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- बृहस्पतिमङ्गलस्तोत्रम्
- बृहस्पतिस्तोत्रम्
- बृहस्पतिकवचम्
- बुधमङ्गलस्तोत्रम्
- बुधाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- बुधकवचम्
- बुधपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम्
- बुधस्तोत्रम्
- ऋणमोचन स्तोत्र
- श्रीअङ्गारकाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- मङ्गलकवचम्
- अङ्गारकस्तोत्रम्
- मंगल स्तोत्रम्
- भौममङ्गलस्तोत्रम्
- चन्द्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- चन्द्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- चन्द्राष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्
- सोमोत्पत्तिस्तोत्रम्
- चन्द्रमङ्गलस्तोत्रम्
- चन्द्रकवचम्
- चन्द्रस्तोत्रम्
- सूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
- सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
- सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
- आदित्यस्तोत्रम्
- सूर्यमण्डलस्तोत्रम्
- आदित्य हृदय स्तोत्र
- सूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- सूर्याष्टक
- सूर्याष्टकम्
- सूर्यकवच
- सूर्यकवचम्
- सूर्यस्तोत्र
- सूर्यस्तोत्रम्
- सूर्योपनिषद्
- सूर्यस्तुती
- हंसगीता २
- हंसगीता १
- ब्राह्मणगीता १५
- ब्राह्मणगीता १४
- ब्राह्मणगीता १३
- ब्राह्मणगीता १२
- ब्राह्मणगीता ११
- ब्राह्मणगीता १०
- ब्राह्मणगीता ९
- ब्राह्मणगीता ८
- ब्राह्मणगीता ७
- ब्राह्मणगीता ६
- ब्राह्मणगीता ५
- ब्राह्मणगीता ४
- ब्राह्मणगीता ३
- ब्राह्मणगीता २
- ब्राह्मणगीता १
- अनुगीता ४
- अनुगीता ३
- अनुगीता २
- अनुगीता १
- नारदगीता
- लक्ष्मणगीता
- अपामार्जन स्तोत्र
- गर्भ गीता
- गीता माहात्म्य अध्याय १८
- गीता माहात्म्य अध्याय १७
- गीता माहात्म्य अध्याय १६
- गीता माहात्म्य अध्याय १५
- गीता माहात्म्य अध्याय १४
- गीता माहात्म्य अध्याय १३
- गीता माहात्म्य अध्याय १२
- गीता माहात्म्य अध्याय ११
- गीता माहात्म्य अध्याय १०
- गीता माहात्म्य अध्याय ९
- गीता माहात्म्य अध्याय ८
- गीता माहात्म्य अध्याय ७
- गीता माहात्म्य अध्याय ६
- गीता माहात्म्य अध्याय ५
- गीता माहात्म्य अध्याय ४
- गीता माहात्म्य अध्याय ३
- गीता माहात्म्य अध्याय २
- गीता माहात्म्य अध्याय १
- गीता माहात्म्य
- श्रीमद्भगवद्गीता
- गरुडोपनिषत्
-
▼
May
(109)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सूर्यकवच
सूर्यकवच-सूर्य एक पॉपुलेशन I या भारी तत्व युक्त सितारा है। सूर्य
का यह गठन एक या एक से अधिक नजदीकी सुपरनोवाओं से निकली धनुषाकार तरंगों द्वारा
शुरू किया गया हो सकता है। ऐसा तथाकथित पॉपुलेशन II (भारी
तत्व-अभाव) सितारों में इन तत्वों की बहुतायत की अपेक्षा, सौरमंडल
में भारी तत्वों की उच्च बहुतायत ने सुझाया है, जैसे कि सोना
और यूरेनियम। ये तत्व, किसी सुपरनोवा के दौरान ऊष्माशोषी
नाभकीय अभिक्रियाओं द्वारा अथवा किसी दूसरी-पीढ़ी के विराट तारे के भीतर न्यूट्रॉन
अवशोषण के माध्यम से रूपांतरण द्वारा, उत्पादित किए गए हो
सकने की सर्वाधिक संभावना है।
सूर्य की चट्टानी ग्रहों के माफिक
कोई निश्चित सीमा नहीं है। सूर्य के बाहरी हिस्सों में गैसों का घनत्व उसके केंद्र
से बढ़ती दूरी के साथ तेजी से गिरता है। बहरहाल,
इसकी एक सुपारिभाषित आंतरिक संरचना है जो नीचे वर्णित है। सूर्य की
त्रिज्या को इसके केंद्र से लेकर प्रभामंडल के किनारे तक मापा गया है। सूर्य का
बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने
लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। एक
पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान, तथापि, जब
प्रभामंडल को चंद्रमा द्वारा छिपा लिया गया, इसके चारों ओर
सूर्य के कोरोना का आसानी से देखना हो सकता है।
हस्त रेखा में सूर्य
जीवन में पडने वाले प्रभाव को हथेली
में अनामिका उंगली की जड में सूर्य पर्वत और उस पर बनी रेखाओं को देख कर सूर्य की
स्थिति का पता लगाया जा सकता है। सूर्य पर्वत पर बनी रेखायें ही सूर्य रेखा या
सूर्य रेखायें कहलाती है।अनामिका उंगली के तर्जनी से लम्बी होने की स्थिति में ही
व्यक्ति के राजकीय जीवन का फ़ल कथन किया जाता है। उन्नत पर्वत होने पर और पर्वत के
मध्य सूक्ष्म गोल बिन्दु होने पर पर्वत के गुलाबी रंग का होने पर प्रतिष्ठ्त पद का
कथन किया जाता है। इसी पर्वत के नीचे विवाह रेखा के उदय होने पर विवाह में राजनीति
के चलते विवाह टूटने और अनैतिक सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।
अंकशास्त्र में सूर्य
ज्योतिष विद्याओं में अंक विद्या भी
एक महत्वपूर्ण विद्या है। जिसके द्वारा हम थोडे समय में ही प्रश्न कर्ता के उत्तर
दे सकते है। अंक विद्या में "१" का अंक सूर्य को प्राप्त हुआ है। जिस
तारीख को आपका जन्म हुआ है, उन तारीखों में अगर
आपकी जन्म तारीख १,१०,१९,२८, है तो आपका भाग्यांक सूर्य का नम्बर
"१" ही माना जायेगा.इसके अलावा जो आपका कार्मिक नम्बर होगा वह जन्म
तारीख,महिना, और पूरा सन जोड़ने के बाद
जो प्राप्त होगा, साथ ही कुल मिलाकर अकेले नम्बर को जब सामने
लायेंगे, और वह नम्बर एक आता है तो कार्मिक नम्बर ही माना
जायेगा। जिन लोगों के जन्म तारीख के हिसाब से "१" नम्बर ही आता है उनके
नाम अधिकतर ब, म, ट, और द से ही चालू होते देखे गये हैं। अम्क १ शुरुआती नम्बर है, इसके बिना कोई भी अंक चालू नहीं हो सकता है। इस अंक वाला जातक स्वाभिमानी
होता है, उसके अन्दर केवल अपने ही अपने लिये सुनने की आदत
होती है। जातक के अन्दर ईमानदारी भी होती है, और वह किसी के
सामने झुकने के लिये कभी राजी नहीं होता है। वह किसी के अधीन नहीं रहना चाहता है
और सभी को अपने अधीन रखना चाहता है। अगर अंक १ वाला जातक अपने ही अंक के अधीन होकर
यानी अपने ही अंक की तारीखों में काम करता है तो उसको सफ़लता मिलती चली जाती है।
सूर्य प्रधान जातक बहुत तेजस्वी सदगुणी विद्वान उदार स्वभाव दयालु, और मनोबल में आत्मबल से पूर्ण होता है। वह अपने कार्य स्वत: ही करता है
किसी के भरोसे रह कर काम करना उसे नहीं आता है। वह सरकारी नौकरी और सरकारी कामकाज
के प्रति समर्पित होता है। वह अपने को अल्प समय में ही कुशल प्रसाशक बनालेता है।
सूर्य प्रधान जातक में कुछ बुराइयां भी होतीं हैं। जैसे अभिमान,लोभ,अविनय,आलस्य,बाह्य दिखावा,जल्दबाजी,अहंकार,
आदि दुर्गुण उसके जीवन में भरे होते हैं। इन दुर्गुणों के कारण उसका
विकाश सही तरीके से नहीं हो पाता है। साथ ही अपने दुश्मनो को नहीं पहिचान पाने के
कारण उनसे परेशानी ही उठाता रहता है। हर काम में दखल देने की आदत भी जातक में होती
है। और सब लोगों के काम के अन्दर टांग अडाने के कारण वह अधिक से अधिक दुश्मनी भी
पैदा कर लेता है।
इससे पूर्व सूर्य सम्बन्धी समस्त
अड़चनों को दूर करने के लिए सूर्यकवचम् पढ़ा अब यहाँ इसी कवच को आगे बढ़ाते हुए
पाठकों के लाभार्थ अन्य सूर्यकवच दिया जा रहा है ।
श्रीसूर्यदिव्यकवचस्तोत्रम् १
ॐ अस्य
श्रीसूर्यनारायणदिव्यकवचस्तोत्रमहामन्त्रस्य हिरण्यगर्भ ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः श्रीसूर्यनारायणो
देवता ।
सूं बीजं,
र्यां शक्तिः, यां कीलकम् । श्रीसूर्यनारायणप्रसादसिद्ध्यर्थे
जपे विनियोगः ।
करन्यासः ।
ॐ श्रीसूर्यनारायणाय अङ्गुष्ठाभ्यां
नमः
पद्मिनीवल्लभाय तर्जनीभ्यां नमः
दिवाकराय मध्यमाभ्यां नमः ॥
भास्कराय अनामिकाभ्यां नमः ॥
मार्ताण्डाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥
आदित्याय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥
एवं हृदन्यासः
लोकत्रयेति दिग्बन्धः ।
ध्यानं
त्रिमूर्तिरूपं विश्वेशं
शूलमुद्गरधारिणम् ।
हिरण्यवर्णं सुमुखं छायायुक्तं रविं
भजे ॥
अथ स्तोत्रम् ।
भास्करो मे शिरः पातु ललाटं
लोकबान्धवः ।
कपोलौ त्रयीमयः पातु नासिकां
विश्वरूपभृत् ॥ १॥
नेत्रे चाधोक्षजः पातु कण्ठं
सप्ताश्ववाहनः ।
मार्ताण्डो मे भुजौ पातु कक्षौ पातु
दिवाकरः ॥ २॥
पातु मे हृदयं पूषा वक्षः पातु
तमोहरः ।
कुक्षिं मे पातु मिहिरो नाभिं
वेदान्तगोचरः ॥ ३॥
द्युमणिर्मे कटिं पातु गुह्यं मे
अब्जबान्धवः ।
पातु मे जानुनी सूर्यो ऊरू
पात्वुरुविक्रमः ॥ ४॥
चित्रभानुस्सदा पातु जानुनी
पद्मिनीप्रियः ।
जङ्घे पातु सहस्रांशुः पादौ
सर्वसुरार्चितः ॥ ५॥
सर्वाङ्गं पातु लोकेशो
बुद्धिसिद्धिगुणप्रदः ।
सहस्रभानुर्मे विद्यां पातु तेजः
प्रभाकरः ॥ ६॥
अहोरात्रौ सदा पातु कर्मसाक्षी
परन्तपः ।
आदित्यकवचं पुण्यं यः पठेत्सततं
शुचिः ॥ ७॥
सर्वरोगविनिर्मुक्तो
सर्वोपद्रववर्जितः ।
तापत्रयविहीनस्सन्
सर्वसिद्धिमवाप्नुयात् ॥ ८॥
संवत्सरेण कालेन सुवर्णतनुतां
व्रजेत् ।
क्षयापस्मारकुष्ठादि
गुल्मव्याधिविवर्जितः ॥ ९॥
सूर्यप्रसादसिद्धात्मा सर्वाभीष्टफलं
लभेत् ।
आदित्यवासरे स्नात्वा कृत्वा
पायसमुत्तमम् ॥ १०॥
अर्कपत्रे तु निक्षिप्य दानं
कुर्याद्विचक्षणः ।
एकभुक्तं व्रतं
सम्यक्संवत्सरमथाचरेत् ।
पुत्रपौत्रान् लभेल्लोके चिरञ्जीवी
भविष्यति ॥ ११॥
स्वर्भुवर्भूरोमिति दिग्विमोकः ।
इति श्रीहिरण्यगर्भसंहितायां श्रीसूर्यनारायणदिव्यकवचस्तोत्रं
सम्पूर्णम् ।
वज्रपञ्जराख्यसूर्यकवचम् २
श्रीभैरव उवाच
यो देवदेवो भगवान् भास्करो महसां
निधिः।
गयत्रीनायको भास्वान् सवितेति
प्रगीयते ॥ १॥
तस्याहं कवचं दिव्यं
वज्रपञ्जरकाभिधम्।
सर्वमन्त्रमयं गुह्यं मूलविद्यारहस्यकम्
॥ २॥
सर्वपापापहं देवि
दुःखदारिद्र्यनाशनम्।
महाकुष्ठहरं पुण्यं
सर्वरोगनिवर्हणम् ॥ ३॥
सर्वशत्रुसमूहघ्नं सम्ग्रामे
विजयप्रदम्।
सर्वतेजोमयं सर्वदेवदानवपूजितम् ॥
४॥
रणे राजभये घोरे सर्वोपद्रवनाशनम्।
मातृकावेष्टितं वर्म
भैरवानननिर्गतम् ॥ ५॥
ग्रहपीडाहरं देवि सर्वसङ्कटनाशनम्।
धारणादस्य देवेशि ब्रह्मा
लोकपितामहः ॥ ६॥
विष्णुर्नारायणो देवि रणे
दैत्याञ्जिओष्यति।
शङ्करः सर्वलोकेशो वासवोऽपि
दिवस्पतिः ॥ ७॥
ओषधीशः शशी देवि शिवोऽहं
भैरवेश्वरः।
मन्त्रात्मकं परं वर्म सवितुः
सारमुत्तमम् ॥ ८॥
यो धारयेद् भुजे मूर्ध्नि रविवारे
महेश्वरि।
स राजवल्लभो लोके तेजस्वी
वैरिमर्दनः ॥ ९॥
बहुनोक्तेन किं देवि कवचस्यास्य
धारणात्।
इह लक्ष्मीधनारोग्य-वृद्धिर्भवति
नान्यथा ॥ १०॥
परत्र परमा मुक्तिर्देवानामपि
दुर्लभा।
कवचस्यास्य देवेशि मूलविद्यामयस्य च
॥ ११॥
वज्रपञ्जरकाख्यस्य मुनिर्ब्रह्मा
समीरितः।
गायत्र्यं छन्द इत्युक्तं देवता
सविता स्मृतः ॥ १२॥
माया बीजं शरत् शक्तिर्नमः
कीलकमीश्वरि।
सर्वार्थसाधने देवि विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ १३॥
ओं अं आं इं ईं शिरः पातु ओं सूर्यो
मन्त्रविग्रहः।
उं ऊं ऋं ॠं ललाटं मे ह्रां रविः
पातु चिन्मयः ॥ १४॥
ऌं ॡं एं ऐं पातु नेत्रे ह्रीं
ममारुणसारथिः।
ओं औं अं अः श्रुती पातु सः
सर्वजगदीश्वरः ॥ १५॥
कं खं गं घं पातु गण्डौ सूं सूरः
सुरपूजितः।
चं छं जं झं च नासां मे पातु या^र्ं अर्यमा प्रभुः ॥ १६॥
टं ठं डं ढं मुखं पायाद् यं
योगीश्वरपूजितः।
तं थं दं धं गलं पातु नं
नारायणवल्लभः ॥ १७॥
पं फं बं भं मम स्कन्धौ पातु मं
महसां निधिः।
यं रं लं वं भुजौ पातु मूलं सकनायकः
॥ १८॥
शं षं सं हं पातु वक्षो
मूलमन्त्रमयोइ ध्रुवः।
ळं क्षः कुक्ष्सिं सदा पातु ग्रहाथो
दिनेश्वरः ॥ १९॥
ङं ञं णं नं मं मे पातु पृष्ठं
दिवसनायकः।
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं नाभिं पातु
तमोपहः ॥ २०॥
ऌं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः लिङ्गं
मेऽव्याद् ग्रहेश्वरः।
कं खं गं घं चं छं जं झं कटिं
भानुर्ममावतु ॥ २१॥
टं ठं डं ढं तं थं दं धं जानू
भास्वान् ममावतु।
पं फं बं भं यं रं लं वं जङ्घे मे आव्याद्
विभाकरः ॥ २२॥
शं षं सं हं ळं क्षः पातु मूलं पादौ
त्रयितनुः।
ङं ञं णं नं मं मे पातु सविता सकलं
वपुः ॥ २३॥
सोमः पूर्वे च मां पातु भौमोऽग्नौ
मां सदावतु।
बुधो मां दक्षिणे पातु नैऋत्या
गुररेव माम् ॥ २४॥
पश्चिमे मां सितः पातु वायव्यां मां
शनैश्चरः।
उत्तरे मां तमः पायादैशान्यां मां
शिखी तथा ॥ २५॥
ऊर्ध्वं मां पातु मिहिरो
मामधस्ताञ्जगत्पतिः।
प्रभाते भास्करः पातु मध्याह्ने मां
दिनेश्वरः ॥ २६॥
सायं वेदप्रियः पातु निशीथे
विस्फुरापतिः।
सर्वत्र सर्वदा सूर्यः पातु मां
चक्रनायकः ॥ २७॥
रणे राजकुले द्यूते विदादे
शत्रुसङ्कटे।
सङ्गामे च ज्वरे रोगे पातु मां
सविता प्रभुः ॥ २८॥
ओं ओं ओं उत ओंउॐ ह स म यः
सूरोऽवतान्मां भयाद्।
ह्रां ह्रीं ह्रुं हहहा हसौः हसहसौः
हंसोऽवतात् सर्वतः।
सः सः सः सससा
नृपाद्वनचराच्चौराद्रणात् संकटात्।
पायान्मां कुलनायकोऽपि सविता ओं
ह्रीं ह सौः सर्वदा ॥ २९॥
द्रां द्रीं द्रूं दधनं तथा च
तरणिर्भांभैर्भयाद् भास्करो
रां रीं रूं रुरुरूं रविर्ज्वरभयात्
कुष्ठाच्च शूलामयात्।
अं अं आं विविवीं महामयभयं मां पातु
मार्तण्डको
मूलव्याप्ततनुः सदावतु परं हंसः
सहस्रांशुमान् ॥ ३०॥
इति श्रीकवच्चं दिव्यं
वज्रपञ्जरकाभिधम्।
सर्वदेवरहस्यं च
मातृकामन्त्रवेष्टितम् ॥ ३१॥
महारोगभयघ्नं च पापघ्नं
मन्मुखोदितम्।
गुह्यं यशस्करं पुण्यं
सर्वश्रेयस्करं शिवे ॥ ३२॥
लिखित्वा रविवारे तु तिष्ये वा
जन्मभे प्रिये।
अष्टगन्धेन दिव्येन सुधाक्षीरेण
पार्वति ॥ ३३॥
अर्कक्षीरेण पुण्येन भूर्जत्वचि
महेश्वरि।
कनकीकाष्ठलेखन्या कवचं भास्करोदये ॥
३४॥
श्वेतसूत्रेण रक्तेन
श्यामेनावेष्टयेद् गुटीम्।
सौवर्णेनाथ संवेष्ठ्य
धारयेन्मूर्ध्नि वा भुजे ॥ ३५॥
रणे रिपूञ्जयेद् देवि वादे सदसि
जेष्यति।
राजमान्यो भवेन्नित्यं सर्वतेजोमयो
भवेत् ॥ ३६॥
कण्ठस्था पुत्रदा देवि कुक्षिस्था
रोगनाशिनी।
शिरःस्था गुटिका दिव्या
राकलोकवशङ्करी ॥ ३७॥
भुजस्था धनदा नित्यं
तेजोबुद्धिविवर्धिनी।
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा
च याङ्गना ॥ ३८॥
कण्ठे सा धारयेन्नित्यं बहुपुत्रा
प्रजायये।
यस्य देहे भवेन्नित्यं गुटिकैषा
महेश्वरि ॥ ३९॥
महास्त्राणीन्द्रमुक्तानि
ब्रह्मास्त्रादीनि पार्वति।
तद्देहं प्राप्य व्यर्थानि
भविष्यन्ति न संशयः ॥ ४०॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं कवचं
वज्रपञ्जरम्।
तस्य सद्यो महादेवि सविता वरदो
भवेत् ॥ ४१॥
अज्ञात्वा कवचं देवि पूजयेद्
यस्त्रयीतनुम्।
तस्य पूजार्जितं पुण्यं जन्मकोटिषु
निष्फलम् ॥ ४२॥
शतावर्तं पठेद्वर्म सप्तम्यां
रविवासरे।
महाकुष्ठार्दितो देवि मुच्यते नात्र
संशयः ॥ ४३॥
निरोगो यः पठेद्वर्म दरिद्रो
वज्रपञ्जरम् ।
लक्ष्मीवाञ्जायते देवि सद्यः
सूर्यप्रसादतः ॥ ४४॥
भक्त्या यः प्रपठेद् देवि कवचं
प्रत्यहं प्रिये।
इह लोके श्रियं भुक्त्वा देहान्ते
मुक्तिमाप्नुयात् ॥ ४५॥
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेविरहस्ये
वज्रपञ्जराख्यसूर्यकवचनिरूपणं त्रयस्त्रिंशः पटलः ॥ ३३ ॥
त्रैलोक्यमङ्गलं नाम सूर्यकवचं ३
श्रीसूर्य उवाच ।
साम्ब साम्ब महाबाहो श्रृणु मे कवचं
शुभम् ।
त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं
परमाद्भुतम् ॥ १॥
यज्ज्ञात्वा मन्त्रवित्सम्यक् फलं
प्राप्नोति निश्चितम् ।
यद्धृत्वा च महादेवो गणानामधिपोभवत्
॥ २॥
पठनाद्धारणाद्विष्णुः सर्वेषां
पालकः सदा ।
एवमिन्द्रादयः सर्वे
सर्वैश्चर्यमवाप्मुयुः ॥ ३॥
कवचस्य ऋषिर्ब्रह्मा
छन्दोनुष्टुबुदाहृतः ।
श्रीसूर्यो देवता चात्र सर्वदेवनमस्कृतः
॥ ४॥
यश आरोग्यमोक्षेषु विनियोगः
प्रकीर्तितः ।
प्रणवो मे शिरः पातु घृणिर्मे पातु
भालकम् ॥ ५॥
सूर्योऽव्यान्नयनद्वन्द्वमादित्यः
कर्णयुग्मकम् ।
अष्टाक्षरो महामन्त्रः
सर्वाभीष्टफलप्रदः ॥ ६॥
ह्रीं बीजं मे मुखं पातु हृदयं
भुवनेश्वरी ।
चन्द्रबिम्बं विंशदाद्यं पातु मे
गुह्यदेशकम् ॥ ७॥
अक्षरोऽसौ महामन्त्रः सर्वतन्त्रेषु
गोपितः ।
शिवो वह्निसमायुक्तो
वामाक्षीबिन्दुभूषीतः ॥ ८॥
एकाक्षरो महामन्त्रः श्रीसूर्यस्य
प्रकीर्तितः ।
गुह्याद्गुह्यतरो मन्त्रो
वाञ्छाचिन्तामणिः स्मृतः ॥ ९॥
शीर्षादिपादपर्यन्तं सदा पातु मनूत्तमः
।
इति ते कथितं दिव्यं त्रिषु लोकेषु
दुर्लभम् ॥ १०॥
श्रीप्रदं कान्तिदं नित्यं
धनारोग्यविवर्धनम् ।
कुष्ठादिरोगशमन महाव्याधिविनाशनम् ॥
११॥
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यमरोगी
बलवान्भवेत् ।
बहुना किमिहोक्तेन यद्यन्मनसि
वर्तते ॥ १२॥
ततत्सर्वं भवेत्तस्य कवचस्य च
धारणात् ।
भूतप्रेतपिशाचाश्र्च
यक्षगन्धर्वराक्षसाः ॥ १३॥
ब्रह्मराक्षसवेताला न् द्रष्टुमपि
तं क्षमाः ।
दूरादेव पलायन्ते तस्य
सङ्कीर्तणादपि ॥ १४॥
भूर्जपत्रे समालिख्य
रोचनागुरुकुङ्कुमैः ।
रविवारे च सङ्क्रान्त्यां सप्तम्यां
च विशेषतः ।
धारयेत्साधकश्रेष्ठः श्रीसूर्यस्य
प्रियोभवेत् ॥ १५॥
त्रिलोहमध्यगं कृत्वा
धारयेद्दक्षिणे करे ।
शिखायामथवा कण्ठे सोपि सूर्यो न
संशयः ॥ १६॥
इति ते कथितं साम्ब
त्रैलोक्यमङ्गलाभिधम् ।
कवचं दुर्लभं लोके तव
स्नेहात्प्रकाशितम् ॥ १७॥
अज्ञात्वा कवचं दिव्यं यो
जपेत्सूर्यमुत्तमम् ।
सिद्धिर्न जायते तस्य
कल्पकोटिशतैरपि ॥ १८॥
इति श्रीब्रह्मयामले त्रैलोक्यमङ्गलं नाम सूर्यकवचं सम्पूर्णम् ॥
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: