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कर्मकाण्ड

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सूर्यकवचम्

सूर्यकवचम्

सूर्यकवचम्- सूर्य एक G-टाइप मुख्य अनुक्रम तारा है जो सौरमंडल के कुल द्रव्यमान का लगभग 99.86% समाविष्ट करता है। करीब नब्बे लाखवें भाग के अनुमानित चपटेपन के साथ, यह करीब-करीब गोलाकार है, इसका मतलब है कि इसका ध्रुवीय व्यास इसके भूमध्यरेखीय व्यास से केवल 10 किमी से अलग है। जैसा कि सूर्य प्लाज्मा का बना हैं और ठोस नहीं है, यह अपने ध्रुवों पर की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर ज्यादा तेजी से घूमता है। यह व्यवहार अंतरीय घूर्णन के रूप में जाना जाता है और सूर्य के संवहन एवं कोर से बाहर की ओर अत्यधिक तापमान ढलान के कारण पदार्थ की आवाजाही की वजह से हुआ है। यह सूर्य के वामावर्त कोणीय संवेग के एक बड़े हिस्से का वहन करती है, जैसा क्रांतिवृत्त के उत्तरी ध्रुव से देखा गया और इस प्रकार कोणीय वेग पुनर्वितरित होता है। इस वास्तविक घूर्णन की अवधि भूमध्य रेखा पर लगभग 25.6 दिन और ध्रुवों में 33.5 दिन की होती है। हालांकि, सूर्य की परिक्रमा के साथ ही पृथ्वी के सापेक्ष हमारी लगातार बदलती स्थिति के कारण इस तारे का अपनी भूमध्य रेखा पर स्पष्ट घूर्णन करीबन 28 दिनों का है। इस धीमी गति के घूर्णन का केन्द्रापसारक प्रभाव सूर्य की भूमध्य रेखा पर के सतही गुरुत्वाकर्षण से 1.8 करोड़ गुना कमजोर है। ग्रहों के ज्वारीय प्रभाव भी कमजोर है और सूर्य के आकार को खास प्रभावित नहीं करते है।

सूर्य का अन्य ग्रहों से आपसी सम्बन्ध-

चन्द्र के साथ इसकी मित्रता है।अमावस्या के दिन यह अपने आगोश में ले लेता है।

मंगल भी सूर्य का मित्र है।

बुध भी सूर्य का मित्र है तथा हमेशा सूर्य के आसपास घूमा करता है।

गुरु बृहस्पति यह सूर्य का परम मित्र है, दोनो के संयोग से जीवात्मा का संयोग माना जाता है। गुरु जीव है तो सूर्य आत्मा ।

शनि सूर्य का पुत्र है लेकिन दोनो की आपसी दुश्मनी है, जहां से सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा चालू हो जाती है।"छाया मर्तण्ड सम्भूतं" के अनुसार सूर्य की पत्नी छाया से शनि की उत्पत्ति मानी जाती है। सूर्य और शनि के मिलन से जातक कार्यहीन हो जाता है, सूर्य आत्मा है तो शनि कार्य, आत्मा कोई काम नहीं करती है। इस युति से ही कर्म हीन विरोध देखने को मिलता है।

शुक्र रज है सूर्य गर्मी स्त्री जातक और पुरुष जातक के आमने सामने होने पर रज जल जाता है। सूर्य का शत्रु है।

राहु सूर्य का दुश्मन है। एक साथ होने पर जातक के पिता को विभिन्न समस्याओं से ग्रसित कर देता है।

केतु यह सूर्य से सम है।

सूर्य का अन्य ग्रहों के साथ होने पर ज्योतिष से किया जाने वाला फ़ल कथन

सूर्य और चन्द्र दोनो के एक साथ होने पर सूर्य को पिता और चन्द्र को यात्रा मानने पर पिता की यात्रा के प्रति कहा जा सकता है। सूर्य राज्य है तो चन्द्र यात्रा , राजकीय यात्रा भी कही जा सकती है। एक संतान की उन्नति जन्म स्थान से बाहर होती है।

सूर्य और मंगल के साथ होने पर मंगल शक्ति है अभिमान है, इस प्रकार से पिता शक्तिशाली और प्रभावी होता है।मंगल भाई है तो वह सहयोग करेगा,मंगल रक्त है तो पिता और पुत्र दोनो में रक्त सम्बन्धी बीमारी होती है, ह्रदय रोग भी हो सकता है। दोनो ग्रह १-१२ या १७ में हो तो यह जरूरी हो जाता है। स्त्री चक्र में पति प्रभावी होता है, गुस्सा अधिक होता है, परन्तु आपस में प्रेम भी अधिक होता है,मंगल पति का कारक बन जाता है।

सूर्य और बुध में बुध ज्ञानी है, बली होने पर राजदूत जैसे पद मिलते है, पिता पुत्र दोनो ही ज्ञानी होते हैं।समाज में प्रतिष्ठा मिलती है। जातक के अन्दर वासना का भंडार होता है, दोनो मिलकर नकली मंगल का रूप भी धारण करलेता है। पिता के बहन हो और पिता के पास भूमि भी हो, पिता का सम्बन्ध किसी महिला से भी हो।

सूर्य और गुरु के साथ होने पर सूर्य आत्मा है,गुरु जीव है। इस प्रकार से यह संयोग एक जीवात्मा संयोग का रूप ले लेता है।जातक का जन्म ईश्वर अंश से हो, मतलब परिवार के किसी पूर्वज ने आकर जन्म लिया हो,जातक में दूसरों की सहायता करने का हमेशा मानस बना रहे, और जातक का यश चारो तरफ़ फ़ैलता रहे, सरकारी क्षेत्रों में जातक को पदवी भी मिले। जातक का पुत्र भी उपरोक्त कार्यों में संलग्न रहे, पिता के पास मंत्री जैसे काम हों, स्त्री चक्र में उसको सभी प्रकार के सुख मिलते रहें, वह आभूषणों आदि से कभी दुखी न रहे, उसे अपने घर और ससुराल में सभी प्रकार के मान सम्मान मिलते रहें।

सूर्य और शुक्र के साथ होने पर सूर्य पिता है और शुक्र भवन, वित्त है, अत: पिता के पास वित्त और भवन के साथ सभी प्रकार के भौतिक सुख हों, पुत्र के बारे में भी यह कह सकते हैं।शुक्र रज है और सूर्य गर्मी अत: पत्नी को गर्भपात होते रहें, संतान कम हों,१२ वें या दूसरे भाव में होने पर आंखों की बीमारी हो, एक आंख का भी हो सकता है। ६ या ८ में होने पर जीवन साथी के साथ भी यह हो सकता है। स्त्री चक्र में पत्नी के एक बहिन हो जो जातिका से बडी हो, जातक को राज्य से धन मिलता रहे, सूर्य जातक शुक्र पत्नी की सुन्दरता बहुत हो। शुक्र वीर्य है और सूर्य गर्मी जातक के संतान पैदा नहीं हो। स्त्री की कुन्डली में जातिका को मूत्र सम्बन्धी बीमारी देता है। अस्त शुक्र स्वास्थ्य खराब करता है।

सूर्य और शनि के साथ होने पर शनि कर्म है और सूर्य राज्य, अत: जातक के पिता का कार्य सरकारी हो, सूर्य पिता और शनि जातक के जन्म के समय काफ़ी परेशानी हुई हो। पिता के सामने रहने तक पुत्र आलसी हो, पिता और पुत्र के साथ रहने पर उन्नति नहीं हो। वैदिक ज्योतिष में इसे पितृ दोष माना जाता है। अत: जातक को रोजाना गायत्री का जाप २४ या १०८ बार करना चाहिये।

सूर्य और राहु के एक साथ होने पर सूचना मिलती है कि जातक के पितामह प्रतिष्ठित व्यक्ति होने चाहिये, एक पुत्र सूर्य अनैतिक राहु हो, कानून विरुद्ध जातक कार्य करता हो, पिता की मौत दुर्घटना में हो, जातक के जन्म के समय में पिता को चोट लगे,जातक को संतान कठिनाई से हो, पिता के किसी भाई को अनिष्ठ हो। शादी में अनबन हो।

सूर्य और केतु साथ होने पर पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों, कार्यों में कठिनाई हो, पिता के पास भूमि हो लेकिन किसी काम की नहीं हो।

सूर्य के साथ अन्य ग्रहों के अटल नियम जो कभी असफ़ल नही हुये

सूर्य मंगल गुरु=सर्जन

सूर्य मंगल राहु=कुष्ठ रोग

सूर्य मंगल शनि केतु=पिता अन्धे हों

सूर्य के आगे शुक्र = धन हों।

सूर्य के आगे बुध = जमीन हो।

सूर्य केतु =पिता राजकीय सेवा में हों,साधु स्वभाव हो,अध्यापक का कार्य भी हो सकता है।

सूर्य बृहस्पति के आगे = जातक पिता वाले कार्य करे।

सूर्य शनि शुक्र बुध =पेट्रोल,डीजल वाले काम।

सूर्य राहु गुरु =मस्जिद या चर्च का अधिकारी।

सूर्य के आगे मंगल राहु हों तो पैतृक सम्पत्ति समाप्त।

बारह भावों में सूर्य की स्थिति

प्रथम भाव में सूर्य -स्वाभिमानी, शूरवीर, पर्यटन प्रिय, क्रोधी परिवार से व्यथित, धन में कमी ,वायु पित्त आदि से शरीर में कमजोरी।

दूसरे भाव में सूर्य - भाग्यशाली, पूर्ण सुख की प्राप्ति, धन अस्थिर लेकिन उत्तम कार्यों के अन्दर व्यय, स्त्री के कारण परिवार में कलह, मुख और नेत्र रोग, पत्नी को ह्रदय रोग. शादी के बाद जीवन साथी के पिता को हानि।

तीसरे भाव में सूर्य - प्रतापी, पराक्रमी, विद्वान, विचारवान, कवि, राज्यसुख, मुकद्दमे में विजय, भाइयों के अन्दर राजनीति होने से परेशानी।

चौथे भाव में सूर्य - ह्रदय में जलन, शरीर से सुन्दर, गुप्त विद्या प्रेमी, विदेश गमन, राजकीय चुनाव आदि में विजय, युद्ध वाले कारण, मुकद्दमे आदि में पराजित, व्यथित मन।

पंचम भाव में सूर्य - कुशाग्र बुद्धि, धीरे धीरे धन की प्राप्ति, पेट की बीमारियां, राजकीय शिक्षण संस्थानो से लगाव,मोतीझारा,मलेरिया बुखार।

छठवें भाव में सूर्य - निरोगी न्यायवान, शत्रु नाशक, मातृकुल से कष्ट।

सप्तम भाव में सूर्य - कठोर आत्म रत, राज्य वर्ग से पीडित,व्यापार में हानि, स्त्री कष्ट।

आठवें भाव में सूर्य - धनी, धैर्यवान, काम करने के अन्दर गुस्सा, चिन्ता से ह्रदय रोग, आलस्य से धन नाश, नशे आदि से स्वास्थ्य खराब।

नवें भाव में सूर्य - योगी, तपस्वी, ज्योतिषी,साधक,सुखी, लेकिन स्वभाव से क्रूर।

दसवें भाव में सूर्य - व्यवहार कुशल, राज्य से सम्मान, उदार, ऐश्वर्य, माता को नकारात्मक विचारों से कष्ट, अपने ही लोगों से बिछोह।

ग्यारहवें भाव में सूर्य - धनी, सुखी ,बलवान , स्वाभिमानी, सदाचारी, शत्रुनाशक, अनायास सम्पत्ति की प्राप्ति, पुत्र की पत्नी या पुत्री के पति (दामाद) से कष्ट।

बारहवें भाव में सूर्य - उदासीन, आलसी, नेत्र रोगी, मस्तिष्क रोगी, लडाई झगडे में विजय,बहस करने की आदत।

यहाँ सूर्य को अनुकूल बनाने व उनसे सबंधित लाभ के लिए याज्ञवल्क्य द्वारा रचित सूर्यकवचम् दिया जा रहा है।

सूर्यकवचम्

सूर्य कवचम्

ॐ अस्य श्रीमदादित्यकवचस्तोत्रमहामन्त्रस्य याज्ञवल्क्यो महर्षिः अनुष्टुप्-जगतीच्छन्दसी घृणिरिति बीजम्  सूर्य इति शक्तिः आदित्य इति कीलकम् श्रीसूर्यनारायणप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

आदित्यकवचम्

ध्यानं

उदयाचलमागत्य वेदरूपमनामयम् ।

तुष्टाव परया भक्त्या वालखिल्यादिभिर्वृतम् ॥ १॥

देवासुरैस्सदा वन्द्यं ग्रहैश्च परिवेष्टितम् ।

ध्यायन् स्तुवन् पठन् नाम यस्सूर्यकवचं सदा ॥ २॥

घृणिः पातु शिरोदेशं सूर्यः फालं च पातु मे ।

आदित्यो लोचने पातु श्रुती पातु प्रभाकरः ॥ ३॥

घ्राणं पातु सदा भानुः अर्कः पातु मुखं तथा ।

जिह्वां पातु जगन्नाथः कण्ठं पातु विभावसुः ॥ ४॥

स्कन्धौ ग्रहपतिः पातु भुजौ पातु प्रभाकरः ।

अहस्करः पातु हस्तौ हृदयं पातु भानुमान् ॥ ५॥

मध्यं च पातु सप्ताश्वो नाभिं पातु नभोमणिः ।

द्वादशात्मा कटिं पातु सविता पातु सृक्किणी ॥ ६॥

ऊरू पातु सुरश्रेष्ठो जानुनी पातु भास्करः ।

जङ्घे पातु च मार्ताण्डो गलं पातु त्विषाम्पतिः ॥ ७॥

पादौ ब्रध्नस्सदा पातु मित्रोऽपि सकलं वपुः ।

वेदत्रयात्मक स्वामिन् नारायण जगत्पते ।

अयातयामं तं कञ्चिद्वेदरूपः प्रभाकरः ॥ ८॥

स्तोत्रेणानेन सन्तुष्टो वालखिल्यादिभिर्वृतः ।

साक्षाद्वेदमयो देवो रथारूढस्समागतः ॥ ९॥

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय दण्डवत्प्रणमन् भुवि ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा सूर्यस्याग्रे स्थितस्तदा ॥ १०॥

वेदमूर्तिर्महाभागो ज्ञानदृष्टिर्विचार्य च ।

ब्रह्मणा स्थापितं पूर्वं यातयामविवर्जितम् ॥ ११॥

सत्त्वप्रधानं शुक्लाख्यं वेदरूपमनामयम् ।

शब्दब्रह्ममयं वेदं सत्कर्मब्रह्मवाचकम् ॥ १२॥

मुनिमध्यापयामास प्रथमं सविता स्वयम् ।

तेन प्रथमदत्तेन वेदेन परमेश्वरः ॥ १३॥

याज्ञवल्क्यो मुनिश्रेष्ठः कृतकृत्योऽभवत्तदा ।

ऋगादिसकलान् वेदान् ज्ञातवान् सूर्यसन्निधौ ॥ १४॥

इदं प्रोक्तं महापुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।

यः पठेच्छृणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते ।

वेदार्थज्ञानसम्पन्नस्सूर्यलोकमावप्नुयात् ॥ १५॥

इति स्कान्दपुराणे गौरीखण्डे आदित्यकवचं समाप्तम् ।

श्रीसूर्य कवच २ 

घृणिर्मे शीर्षकं पातु सूर्यः पातु ललाटकम् ।

आदित्यःपातु नेत्रे द्वे श्रोत्रे पातु दिवाकरः ॥ १॥

नासिकां च त्रयीपातु पातु गण्डस्थले रविः ।

पातूत्तरोष्ठमुष्णांशुरधरोष्ठमहर्पतिः ॥ २॥

दन्तान्पातु जगच्चक्षुः जिह्वां पातु विभावसुः ।

वक्त्रं पातु सहस्रांशुः चिबुकं पातु शङ्करः ॥ ३॥

पार्शे पातु पतङ्गश्च पृष्ठं पातु प्रभाकरः ।

कुक्षिं दिनमणिः पातु मध्यं पातु प्रजेश्वरः ॥ ४॥

पात्वंशुमाली नाभिं मे कटिं पात्वमराग्रणीः ।

ऊरू पातु ग्रहपतिः जानुनी पातु सर्वगः ॥ ५॥

जङ्घे धामनिधिः पातु गुल्फौ पातु प्रभाकरः ।

मार्ताण्डः पातु पादौ मे पातु मित्रोऽखिलं वपुः ॥ ६॥

 श्रीसूर्यकवचम् फलश्रुतिः ।          

इदमादित्यनामाख्यं कवचं धारयेत्सुधीः ।

सदीर्घायुस्सदा भोगी स्थिरसम्पद्विजायते ॥ ७॥

धर्मसञ्चारिणो लोके त्रयीश्री सूर्यवर्मणा ।

आवृतं पुरुषं द्रष्टुमशक्ता भयविह्वलाः ॥ ८॥

मित्रयन्तोद्भवन्तस्तं तिरस्कर्तुं तदक्षमम् ।

विरोधिनस्तु सर्वत्र तदाचरणतत्पराः ॥ ९॥

दारिद्र्यं चैव दौर्भाग्यं मारकस्त्विह दह्यते ।

सूर्येति सुरराजेति मित्रेति सुमनास्स्मरन् ॥ १०॥

पुमान्न प्राप्नुयाद्दुःखं शाश्वतं सुखमश्नुते ।

सर्वोन्नतगुणाधारं सूर्येणाशु प्रकल्पितम् ॥ ११॥

कवचं धारयेद्यस्तु तस्य स्यादखिलं वशम् ।

सदा गदाधरस्यापि छेत्तुं किं च तदक्षयम् ॥ १२॥

तस्य हस्ते च सर्वापि सिद्धीः प्रत्ययदायिनीः ।

सुखस्वपे यदा सूरः स्वस्य वर्मोपविष्टवान् ॥ १३॥

याज्ञवल्क्यो स्तवान् सप्त समक्षं हृदये मुदा ।

स घृणिस्सूर्य आदित्यस्तपनस्सविता रविः ॥ १४॥

कर्मसाक्षी दिनमणिर्मित्रो भानुर्विभुर्हरिः ।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ॥ १५॥

तस्य मृत्युभयं नास्ति सपुत्रो विजयी भवेत् ।

द्वाभ्यां त्रिभिस्त्रिभिर्व??सन्मन्त्रपद्धतिम् ॥ १६॥

विज्ञायाष्टाक्षरीमेतां ओङ्कारादि जपेत्कृती ।

मन्त्रात्मकमिदं वर्म मन्त्रवद्गोपयेत्तथा ॥ १७॥

अमन्दविदुषः पुंसो दातुं तद्दुर्लभं खलु ।

दुर्लभं भक्तिहीनानां सुलभं पुण्यजीविनाम् ॥ १८॥

य इदं पठते भक्त्या श्रृणुयाद्वा समाहितः ।

तस्य पुण्यफलं वक्तुमशक्यं वर्षकोटिभिः ॥ १९॥

इत्यादित्यपुराणे उत्तरखण्डे याज्ञवल्क्य विरचितं श्रीसूर्यकवचं सम्पूर्णम् ।

इति श्रीसूर्यकवचं सम्पूर्णम् ।

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