सूर्यस्तोत्र

सूर्यस्तोत्र

सूर्यस्तोत्र - सूर्य प्रत्यक्ष देवता है, सम्पूर्ण जगत के नेत्र हैं। इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन होता है। इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने वाला और कोई देवता नहीं है। इन्ही के उदय होने पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है, और इन्ही के अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है। इन्ही के उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने वाले का स्वागत करते हैं, और अस्त होने पर अपने घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं। सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है। सूर्य से ही दिन, रात, पल, मास, पक्ष तथा संवत आदि का विभाजन होता है। सूर्य सम्पूर्ण संसार के प्रकाशक हैं। इनके बिना अन्धकार के अलावा और कुछ नहीं है। सूर्य आत्माकारक ग्रह है, यह राज्य, सुख, सत्ता, ऐश्वर्य, वैभव, अधिकार आदि प्रदान करता है। यह सौरमंडल का प्रथम ग्रह है, कारण इसके बिना उसी प्रकार से हम सौरजगत को नहीं जान सकते थे, जिस प्रकार से माता के द्वारा पैदा नहीं करने पर हम संसार को नहीं जान सकते थे। सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत का आधार स्तम्भ है। अर्थात सारा सौर मंडल, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र आदि सभी सूर्य से ही शक्ति पाकर इसके इर्द-गिर्द घूमा करते है, यह सिंह राशि का स्वामी है,परमात्मा ने सूर्य को जगत में प्रकाश करने, संचालन करने, अपने तेज से शरीर में ज्योति प्रदान करने, तथा जठराग्नि के रूप में आमाशय में अन्न को पचाने का कार्य सौंपा है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को मस्तिष्क का अधिपति बताया गया है, ब्रह्माण्ड में विद्यमान प्रज्ञा शक्ति और चेतना तरंगों के द्वारा मस्तिष्क की गतिशीलता उर्वरता और सूक्षमता के विकाश और विनाश का कार्य भी सूर्य के द्वारा ही होता है। यह संसार के सभी जीवों द्वारा किये गये सभी कार्यों का साक्षी है। और न्यायाधीश के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने जैसा काम करता है। यह जातक के ह्रदय के अन्दर उचित और अनुचित को बताने का काम करता है, किसी भी अनुचित कार्य को करने के पहले यह जातक को मना करता है, और अंदर की आत्मा से आवाज देता है। साथ ही जान बूझ कर गलत काम करने पर यह ह्रदय और हड्डियों में कम्पन भी प्रदान करता है। गलत काम को रोकने के लिये यह ह्रदय में साहस का संचार भी करता है।

जो जातक अपनी शक्ति और अंहकार से चूर होकर जानते हुए भी निन्दनीय कार्य करते हैं, दूसरों का शोषण करते हैं, और माता पिता की सेवा न करके उनको नाना प्रकार के कष्ट देते हैं, सूर्य उनके इस कार्य का भुगतान उसकी विद्या,यश, और धन पर पूर्णत: रोक लगाकर उसे बुद्धि से दीन हीन करके पग-पग पर अपमानित करके उसके द्वारा किये गये कर्मों का भोग करवाता है। आंखों की रोशनी का अपने प्रकार से हरण करने के बाद भक्ष्य और अभक्ष्य का भोजन करवाता है, ऊंचे और नीचे स्थानों पर गिराता है, चोट देता है।

श्रेष्ठ कार्य करने वालों को सदबुद्धि, विद्या, धन और यश देकर जगत में नाम देता है, लोगों के अन्दर इज्जत और मान सम्मान देता है। उन्हें उत्तम यश का भागी बना कर भोग करवाता है। जो लोग आध्यात्म में अपना मन लगाते हैं, उनके अन्दर भगवान की छवि का रसस्वादन करवाता है। सूर्य से लाल स्वर्ण रंग की किरणें न मिलें तो कोई भी वनस्पति उत्पन्न नहीं हो सकती है। इन्ही से यह जगत स्थिर रहता है, चेष्टाशील रहता है, और सामने दिखाई देता है।

जातक अपना हाथ देख कर अपने बारे में स्वयं निर्णय कर सकता है, यदि सूर्य रेखा हाथ में बिलकुल नहीं है, या मामूली सी है, तो उसके फ़लस्वरूप उसकी विद्या कम होगी, वह जो भी पढेगा वह कुछ कल बाद भूल जायेगा,धनवान धन को नहीं रोक पायेंगे, पिता पुत्र में विवाद होगा, और अगर इस रेखा में द्वीप आदि है तो निश्चित रूप से गलत इल्जाम लगेंगे, अपराध और कोई करेगा और सजा जातक को भुगतनी पडेगी। सूर्य जीव मात्र को प्रकाश देता है। जिन जातकों को सूर्य आत्मप्रकाश नहीं देता है, वे गलत से गलत और निंदनीय कार्य कर बैठते है और यह भी याद रखना चाहिये कि जो कर्म कर दिया गया है, उसका भुगतान तो करना ही पडेगा। जिन जातकों के हाथ में सूर्य रेखा प्रबल और साफ़ होती है, उन्हे समझना चाहिये कि सूर्य उन्हें पूरा बल दे रहा है। इस प्रकार के जातक कभी गलत और निन्दनीय कार्य नहीं कर सकते हैं। उनका ओज और तेज सराहनीय होता है।

सूर्य क्रूर ग्रह भी है, और जातक के स्वभाव में तीव्रता देता है। यदि ग्रह तुला राशि में नीच का है तो वह तीव्रता जातक के लिये घातक होगी, दुनियां की कोई औषिधि, यंत्र, जडी- बूटी नहीं है जो इस तीव्रता को कम कर सके। केवल सूर्य मंत्र में ही इतनी शक्ति है, कि जो इस तीव्रता को कम कर सकता है। सूर्य की तीव्रता कम करने और अपने अनुकूल करने के लिए सूर्यस्तोत्रम् का पाठ करें। इससे पूर्व भी आपने सूर्यस्तोत्रम् पढ़ा । अब द्वितीय भाग के रूप में पुनः अन्य सूर्यस्तोत्र पढेंगे।

सूर्यस्तोत्र

सूर्यस्तोत्रम् १

ॐ सप्ताश्वं समारुह्यारुणसारथिमुत्तमम् ।

श्वेतपद्मधरं देवं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ १॥

बन्धूकपुष्पसङ्काशं हारकुण्डलभूषणम् ।

एकचक्रधरं देवं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ २॥

लोहितस्वर्णसङ्काशं सर्वलोकपितामहम् ।

सर्वव्याधिहरं देवं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ३॥

त्वं देव ईश्वरः शक्रब्रह्मविष्णुमहेशराट् ।

परं धर्मं परं ज्ञानं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ४॥

त्वं देवलोककर्ता च कीर्त्यात्मा करणांशकम् ।

तेजो रुद्रधरं दैवं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ५॥

पृथिव्यप्तेजो वायुश्चात्माप्याकाशमेव च ।

सर्वज्ञं श्रीजगन्नाथं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ६॥

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।

गगनालिङ्गमाराध्यं त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ७॥

निर्मलं निर्विकल्पं च निर्विकारं निरामयम् ॥

जगत्कर्ता जगद्धर्तास्त्वां सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ८॥

सूर्यस्तोत्रं जपेन्नित्यं ग्रहपीडाविनाशनम् ।

धनं धान्यं मनोवाञ्छा श्रियः प्राप्नोति नित्यशः ॥ ९॥

शिवरात्रिसहस्रेषु कृत्वा जागरणं भवेत् ।

यत्फलं लभते सर्वं तद्वै सूर्यस्य दर्शनात् ॥ १०॥

एकादशीसहस्राणि सङ्क्रान्त्ययुतमेव च ।

सप्तकोडिसु दर्शेषु तत्फलं सूर्यदर्शनात् ॥ ११॥

अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।

कोटिकन्याप्रदानानि तत्फलं सूर्यदर्शनात् ॥ १२॥

गयापिण्डः परं दाने पितृणां च समुद्धरम् ।

दृष्ट्वा ह्यग्र्येश्वरं देवं तत्फलं समवाप्नुयात् ॥ १३॥

अग्र्येश्वरसमोपेतो सोमनाथस्तथैव च ।

कैदारमुदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १४॥

सूर्यस्तोत्रं पठेन्नित्यमेकचित्तः समाहितः ।

दुःखदारिद्र्यनिर्मुक्तः सूर्यलोकं स गच्छति ॥ १५॥

इति सूर्यस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

 

सूर्यस्तोत्रम् २

त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम् ।

त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम् ॥ १॥

त्वं गतिः सर्वसाङ्ख्यानां योगिनां त्वं परायणम् ।

अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ॥ २॥

त्वया सन्धार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते ।

त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया ॥ ३॥

त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः ।

स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चत्यृषिगणार्चित ॥ ४॥

तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः ।

सिद्धचारणगधर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः ॥ ५॥

त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः ।

सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः ॥ ६॥

उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः ।

दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः ॥ ७॥

गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः ।

ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम् ॥ ८॥

वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः ।

वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः ॥ ९॥

सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च ।

न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते ॥ १०॥

सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च ।

न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभवो वा यथा तव ॥ ११॥

ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः ।

त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः ॥ १२॥

त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा ।

देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना ॥ १३॥

त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम् ।

सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि ॥ १४॥

तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये यथा घनाः ।

विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः ॥ १५॥

न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः ।

शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः ॥ १६॥

त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम् ।

त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे ॥ १७॥

तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत् ।

न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः ॥ १८॥

आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपक्रियाः ।

त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः ॥ १९॥

यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम् ।

तस्य त्वनादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः ॥ २०॥

मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च ।

मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः ॥ २१॥

संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः ।

संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते ॥ २२॥

त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाधनाः ।

सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम् ॥ २३॥

कृत्वा द्वादशधात्मानं द्वादशादित्यतां गतः ।

संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः ॥ २४॥

त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः ।

त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ २५॥

त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः ।

विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च ॥ २६॥

सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवां पतिः ।

मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा ॥ २७॥

दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः ।

आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे ॥ २८॥

सप्तम्यामथवा षष्ट्यां भक्त्या पूजां करोति यः ।

अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम् ॥ २९॥

न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा ।

ये तवानन्यमनसा कुर्वत्यर्चनवन्दनम् ॥ ३०॥

सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः ।

त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः ॥ ३१॥

त्वं ममापन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः ।

अन्नमन्नपते दातुममितः श्रद्धयार्हसि ॥ ३२॥

ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः ।

माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान् ॥ ३३॥

क्षुभया सहितो मैत्री याश्चान्या भूतमातरः ।

ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम् ॥ ३४॥

एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः ।

ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम् ॥ ३५॥

दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः ।

विवस्वानुवाच ॥

यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि ॥ ३६॥

अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः ।

गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्तं नराधिप ॥ ३७॥

यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत ।

फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे ॥ ३८॥

चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति ।

इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि ॥ ३९॥

वैशम्पायन उवाच ॥

एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।

इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन् ॥ ४०॥

तत्तस्य दद्याच्च रबिर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम् ।

यश्चेदं धारयेन्नित्यं श‍ृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः ॥ ४१॥

पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम् ।

विद्यार्थी लभते ब्रिद्या पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः ॥ ४२॥

उभे सन्ध्ये जपेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि ।

आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ ४३॥

इति श्रीमहाभारतोक्तं युधिष्ठिरविरचितं सूर्यस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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