सूर्यस्तोत्रम्
सूर्यस्तोत्रम् - सूर्य अथवा सूरज
सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य
अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३
लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। ऊर्जा का यह
शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है।
परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य
से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत
अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३०
प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख
लेते हैं। इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी
और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है।
सूर्य को वेदों में जगत की आत्मा
कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन
है,
यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे
जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक । यह सर्व प्रकाशक,
सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं में
सूर्यदेव का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह
कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित
कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण
तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है।
सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एक मात्र कारण निरूपित
किया गया है और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है।
सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही
करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नहीं कि वैदिक
काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से
होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का निर्माण
हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर
निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने
सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। वैदिक साहित्य में ही नहीं
आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों
में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है। भगवान भुवनभास्कर कि प्रसन्नता के लिए
सूर्यस्तोत्रम् का पाठ करें।
सूर्यस्तोत्रम् १
आचम्य ॥
॥ सङ्कल्प ॥
श्रीसूर्यनारायणदेवतामुद्दिश्य,
प्रीत्यर्थम् ।
श्रीसूर्यस्तोत्रमहामन्त्रपठनं
करिष्ये ॥
अस्य
श्रीभगवदादित्यस्तोत्रमहामन्त्रस्य, अगस्त्यभगवान्
ऋषिः,
अनुष्टुप्छन्दः,
श्रीसूर्यनारायणो देवता ।
ह्रां बीजं,
ह्रीं शक्तिः, ह्रूं कीलकं,
श्रीसूर्यनारायणदेवताप्रसादसिद्ध्यर्थे
जपे विनियोगः ॥
अथ सूर्यस्तोत्रप्रारम्भः ।
अस्य
श्रीभगवत्सूर्यस्तोत्रमहामन्त्रस्य अगस्त्य ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः ।
श्रीसूर्यनारायणो देवता । सूं बीजम्
।
रिं शक्तिः । यं कीलकम् ।
सूर्यप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
आदित्याय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
अर्काय तर्जनीभ्यां नमः ।
दिवाकराय मध्यमाभ्यां नमः ।
प्रभाकराय अनामिकाभ्यां नमः ।
सहस्रकिरणाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
मार्ताण्डाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
आदित्याय हृदयाय नमः । अर्काय शिरसे
स्वाहा ।
दिवाकराय शिखायै वषट् । प्रभाकराय
कवचाय हुम् ।
सहस्रकिरणाय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
मार्ताण्डाय अस्त्राय फट् ।
भूर्भुवः सुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम् ।
ध्यायेत् सूर्यमनन्तशक्तिकिरणं
तेजोमयं भास्वरं
भक्तानामभयप्रदं दिनकरं ज्योतिर्मयं
शङ्करम् ।
आदित्यं जगदीशमच्युतमजं
त्रैलोक्यचूडामणिं
भक्ताभीष्टवरप्रदं दिनमणिं
मार्ताण्डमाद्यं शुभम् ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च
ईश्वरश्च सदाशिवः ।
पञ्चब्रह्ममयाकाराः येन जाता नमामि
तम् ॥ १॥
कालात्मा सर्वभूतात्मा वेदात्मा
विश्वतोमुखः ।
जन्ममृत्युजराव्याधिसंसारभयनाशनः ॥
२॥
ब्रह्मस्वरूप उदये मध्याह्ने तु
सदाशिवः ।
अस्तकाले स्वयं
विष्णुस्त्रयीमूर्तिर्दिवाकरः ॥ ३॥
एकचक्रो रथो यस्य दिव्यः कनकभूषितः
।
सोऽयं भवतु नः प्रीतः पद्महस्तो
दिवाकरः ॥ ४॥
पद्महस्तः परञ्ज्योतिः परेशाय नमो
नमः ।
अण्डयोने कर्मसाक्षिन्नादित्याय नमो
नमः ॥ ५॥
कमलासन देवेश कर्मसाक्षिन्नमो नमः ।
धर्ममूर्ते दयामूर्ते तत्त्वमूर्ते
नमो नमः ॥ ६॥
सकलेशाय सूर्याय सर्वज्ञाय नमो नमः
।
क्षयापस्मारगुल्मादिव्याधिहन्त्रे
नमो नमः ॥ ७॥
सर्वज्वरहरं चैव सर्वरोगनिवारणम् ।
स्तोत्रमेतच्छिवप्रोक्तं
सर्वसिद्धिकरं परम् ॥ ८॥
सर्वसम्पत्करं चैव
सर्वाभीष्टप्रदायकम् ॥
इति सूर्यस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।
सूर्यस्तोत्रम् २ श्रीयाज्ञवल्क्यकृतम्
ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतां
आत्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण
चतुर्विधभूत-निकायानां
ब्रह्मादिस्तम्भ-पर्यन्तानां
अन्तर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इव
उपाधिनाऽव्यवधीयमानो
भवानेक एव
क्षणलव-निमेषावयवोपचित-संवत्सरगणेन
अपा-मादान-विसर्गाभ्यां इमां
लोकयात्रां अनुवहति ॥ १॥
यदुह वाव विबुधर्षभ
सवितरदस्तपत्यनुसवनं अहरहः
आम्नायविधिना उपतिष्ठमानानां
अखिल-दुरित-वृजिनबीजावभर्जन
भगवतः समभिधीमहि तपनमण्डलम् ॥ २॥
य इह वाव स्थिरचरनिकराणां
निजनिकेतनानां मन-इन्द्रियासुगणान्
अनात्मनः स्वयमात्मा अन्तर्यामी
प्रचोदयति ॥ ३॥
य एवेमं लोकं
अतिकराल-वदनान्धकार-संज्ञा-जगरग्रह-गिलितं
मृतकमिव विचेतनं अवलोक्य अनुकम्पया
परमकारुणिकः ईक्षयैव
उत्थाप्य अहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने
प्रवर्तयति अवनिपतिरिव असाधूनां
भयमुदीरयन्नटति ॥ ४॥
परित आशापालैः तत्र तत्र
कमलकोशाञ्जलिभिः उपहृतार्हणः ॥ ५॥
अथह भगवन् तव चरणनलिनयुगलं
त्रिभुवनगुरुभिर्वन्दितं
अहं अयातयामयजुःकामः उपसरामीति ॥ ६॥
एवं स्तुतः स भगवान् वाजिरूपधरो
हरिः ।
यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्
प्रसादितः ॥ ७॥
॥ इति श्रीमद्भागवते द्वादशस्कन्धे श्रीयाज्ञवल्क्यकृतं श्रीसूर्यस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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