ब्राह्मणगीता ४
आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ३ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ४ में प्राण, अपान आदि का संवाद और ब्रह्माजी का सबकी श्रेष्ठता बतलाना का वर्णन कर रहे हैं ।
ब्राह्मणगीता ४
कृष्णेनार्जुनंप्रति
प्राणापानादीनां
स्वस्वश्रैष्ठ्यप्रकारकविवादादिप्रतिपादकब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।।
।।ब्राह्मण उवाच।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम्।
सुभगे पञ्चहोतॄणां विधानमिह
यादृशम्।। 1
प्राणापानवुदानश्च समानो व्यान एव
च।
पञ्चहोतॄंस्तथैतान्वै परं भावं
विदुर्बुधाः।। 2
ब्राह्मण्युवाच।
स्वभावात्सप्तहोतार इति मे पूर्विका
मतिः।
यथा वै पञ्च होतारः परो
भावस्तदुच्यताम्।। 3
ब्राह्मण उवाच।
प्राणेन सम्भृतो वायुरपानो जायते
ततः।
अपाने सम्भृतो वायुस्ततो व्यानः
प्रवर्तते।। 4
व्यानेन सम्भृतो वायुस्ततोदानः
प्रवर्तते।
उदाने सम्भृतो वायुः समानो नाम
जायते।। 5
तेऽपृच्छन्त पुरो गत्वा पूर्वजातं
पितामहम्।
यो नः श्रेष्ठस्तमाचक्ष्व स नः
श्रेष्ठो भविष्यति।। 6
ब्रह्मोवाच।
यस्मिन्प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
यस्मिन्प्रवृत्ते च पुनश्चरन्ति
स वै श्रेष्ठो गच्छत यत्र कामः।। 7
प्राण उवाच।
मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रवृत्ते च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां
प्रलीनम्।। 8
ब्राह्मण उवाच।
प्रामः प्रालीयत ततः पुनश्च प्रचचार
ह।
समानश्चाप्युदानश्च वचो ब्रूतां
पुनः शुभे।। 9
न त्वं सर्वमिदं व्याप्य तिष्ठसीह
यथा वयम्।
न त्वं श्रेष्ठो हि नः प्राण अपानो
हि वशे तव।
प्रचचार पुनः
प्राणस्ततोऽपानोऽभ्यभाषत।। 10
उपान उवाच।
मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे
मयि प्रवृत्ते च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां
प्रलीनम्।। 11
ब्राह्मण उवाच।
व्यानश्च तमुदानश्चि भाषमाणमथोचतुः।
अपान न त्वं श्रेष्ठोसि प्राणो हि
वशगस्तव।। 12
अपानः प्रचचाराथ व्यानस्तं
पुनरब्रवीत्।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां
येन हेतुना।। 13
मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रवृत्ते च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां
प्रलीनम्।। 14
ब्राह्मण उवाच।
प्रालीयत ततो व्यानः पुनश्च प्रचचार
ह।
प्राणापानावुदानस्च समानश्च
तमब्रुवन्।। 15
न त्वं श्रेष्ठोसि नो व्यान
समानस्तु वशे तव।
प्रचचार पुनर्व्यानः समानः
पुनरब्रवीत्।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां
येन हेतुना।। 16
मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रवृत्ते च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां
प्रलीनम्।। 17
`ततः समानः प्रालिल्ये पुनश्च
प्रचचार ह।
प्राणापानावुदानस्च व्यानश्चैव
तमब्रवीत्।
न त्वं समान श्रेष्ठोसि व्यान एव
वशे तव।।'
18
समानः प्रचचाराथ उदानस्तमुवाच ह।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां
येन हेतुना।। 19
मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रवृत्ते च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां
प्रलीनम्।। 20
ततः प्रालीयतोदानः पुनश्च प्रचचार
ह।
प्राणापानौ समानश्च व्यानश्चैव
तमब्रुवन्।
उदानि न त्वं श्रेष्ठोसि व्यानि एव
वशे तव।। 21
ब्राह्मण उवाच।
ततस्तानब्रवीत्सर्वान्स्मयमानः
प्रजापतिः।
सर्वे श्रेष्ठा न च श्रेष्ठाः सर्वे
चान्योन्यकाङ्क्षिणः।। 22
सर्वे स्वविषये श्रेष्ठाः सर्वे
चान्योन्यधर्मिणः।
इति
तानब्रवीत्सर्वान्समवेतान्प्रजापतिः।। 23
एकः स्थिरश्चराश्चान्ये
विशेषात्पञ्च वायवः।
एक एव च सर्वात्मा
बहुधाऽप्युपचीयते।। 24
परस्परस्य सुहृदो भावयन्तः
परस्परम्।
स्वस्ति व्रजत भद्रं वो धारयध्वं
परस्परम्।। 25
।। इति श्रीमन्महाभारते
आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि चतुर्विशोऽध्यायः।। 24 ।।
ब्राह्मणगीता ४ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने कहा-
प्रिये! अब पंचहोताओं के यज्ञ का जैसा विधान है,
उसके विषय में एक प्राचीन दृष्टान्त बतलाया जाता है। प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान- ये
पाँचों प्राण पाँच होता हैं। विद्वान् पुरुष इन्हें सबसे श्रेष्ठ मानते हैं।
ब्राह्मणी बोली- नाथ! पहले तो मैं समझती थी कि स्वाभावत: सात होता हैं, किंतु अब आपके मुँह से पाँच हाताओं की बात मालूम हुई। अत: ये पाँचों होता
किस प्रकार हैं? आप इनकी श्रेष्ठता का वर्णन कीजिये।
ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! वायु प्राण के द्वारा पुष्ट होकर अपान रूप, अपान के द्वारा पुष्ट होकर व्यान रूप, व्यान से
पुष्ट होकर उदान रूप, उदान से परिपुष्ट होकर समान रूप होता
है। एक बार इन पाँचों वायुओं ने सबके पूर्वज पितामह ब्रह्माजी से प्रश्न किया- ‘भगवन! हम में जो श्रेष्ठ हो उसका नाम बता दीजिये, वही
हम लोगों में प्रधान होगा’। ब्रह्माजी ने कहा- प्राणधारियों
के शरीर में स्थित हुए तुम लोगों में से जिसका लय हो जाने पर सभी प्राण लीन हो
जायँ और जिसके संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगें, वही
श्रेष्ठ है। अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ। यह सुनकर
प्राणवायु ने अपान आदि से कहा- मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी
प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं,
इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं
लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)। ब्राह्मण कहते हैं- शुभे! यों कहकर
प्राणवायु थोड़ी देर के लिये छिप गया और उसके बाद फिर चलने लगा। तब समान और
उदानवायु उससे पुन: बोले- ‘प्राण! जैसे हम लोग इस शरीर में
व्याप्त हैं, उस तरह तुम इस शरीर में व्याप्त होकर नहीं
रहते। इसलिये तु हम लोगों से श्रेष्ठ नहीं हो। केवल अपान तुम्हारे वश में है (अत:
तुम्हारे लय होने से हमारी कोई हानि नहीं हो सकती)।’ तब
प्राण पुन: पूर्ववत् चलने लगा। तदनन्तर अपान बोला। अपान ने कहा- मेरे लीन होने पर
प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर
सब के सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)। ब्राह्मण कहते हैं-
तब व्यान, और उदान ने पूर्वोक्त बात कहने वाले अपान से कहा- ‘अपान! केवल प्राण तुम्हारे अधीन है, इसलिये तुम हमसे
श्रेष्ठ नहीं हो सकते’। यह सुनकर अपान भी पूर्ववत् चलने लगा।
तब व्यान ने उससे फिर कहा- ‘मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। मेरी
श्रेष्ठता का कारण क्या है। वह सुनो। ‘मेरे लीन होने पर
प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर
सब के सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)’। ब्राह्मण कहते हैं- तब व्यान कुछ देर के लिये लीन हो गया, फिर चलने लगा। उस समय प्राण, अपान, उदान और समान ने उससे कहा- ‘व्यान! तुम हमसे श्रेष्ठ
नहीं हो, केवल समान वायु तुम्हारे वश में है’।
यह सुनकर व्यान
पूर्ववत् चलने लगा। तब समान ने पुन: कहा- ‘मैं जिस कारण से सब में श्रेष्ठ हूँ, वह बताता हूँ
सुनो। ‘मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी
प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं।
इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा
हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जाएगा)’। ब्राह्मण कहते हैं- यह
कहकर समान कुछ देर के लिये लीन हो गया और पुन: पूर्ववत् चलने लगा। उस समय प्राण,
अपान, व्यान और उदान ने उससे कहा- ‘समान! तुम हम लोगों से श्रेष्ठ नहीं हो, केवल व्यान
ही तुम्हारे वश में है’। यह सुनकर समान पूवर्वत् चलने लगा।
तब उदान ने उससे कहा- ‘मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसका क्या कारण है? यह सुनो। ‘मेरे
लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे
संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ।
देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जाएगा)’। यह सुनकर उदान कुछ देर के लिये लीन हो गया और पुन: चलने लगा। तब प्राण,
अपान, समान और व्यान ने उससे कहा- ‘उदान! तुम हम लोगों से श्रेष्ठ नहीं हो। केवल व्यान ही तुम्हारे वश में है’। ब्राह्मण कहते हैं- तदनन्तर वे सभी प्राण ब्रह्माजी के पास एकत्र हुए।
उस समय उन सबसे प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- ‘वायुगण! तुम सभी
श्रेष्ठ हो। अथवा तुम में से कोई भी श्रेष्ठ नहीं है। तुम सबका धारण रूप धर्म एक
दूसरे पर अवलम्बित है। ‘सभी अपने अपने स्थान पर श्रेष्ठ हो
और सबका धर्म एक दूसरे पर अवलम्बित है।’ इस प्रकार वहाँ
एकत्र हुए सब प्राणों से प्रजापति ने फिर कहा- ‘एक ही वायु
स्थिर और अस्थिर रूप से विराजमान है। उसी के विशेष भेद से पाँच वायु होते हैं। इस
तरह एक ही मेरा आत्मा अनेक रूपों में वृद्धि को प्राप्त होता है। ‘तुम्हारा कल्याण हो। तुम कुशलपूर्वक जाओ और एक दूसरे के हितैषी रहकर
परस्पर की उन्नती में सहायता पहुँचाते हुए एक दूसरे को धारण किये रहो’।
इस प्रकार
श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता ४ विषयक २४ वाँ
अध्याय पूरा हुआ।
शेष जारी......... ब्राह्मणगीता ५
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