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कर्मकाण्ड

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अनुगीता १

अनुगीता १

इससे पूर्व आपने पढ़ा कि- महाभारत युद्ध आरम्भ होने के ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवदगीता का उपदेश दिया। जो कि महाभारत के भीष्मपर्व में दिया गया है। इसके अतिरिक्त भी महाभारत में अन्य गीता दिया गया है। जिसे कि युद्ध समाप्त हो जाने के उपरांत अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण से पूछा तब भगवान ने ही पुनः उसका उपदेश अलग ढंग से किया ,का वर्णन है। जो कि महाभारत के आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)  में अनुगीता  नाम से क्रमशः अध्याय १६,१७,१८ व १९ में दिया गया है। षोडश (16) अध्याय अनुगीता १ में अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना और श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि एवं काश्यप का संवाद सुनाना,वर्णित है। यहाँ इसका श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है। 

अनुगीता १

अथ अनुगीता १ अध्यायः १६

        जनमेजय उवाच

सभायां वसतोस्तस्यां निहत्यारीन्महात्मनोः ।

केशवार्जुनयोः का नु कथा समभवद्द्विज ॥ १॥

        वैशम्पायन उवाच

कृष्णेन सहितः पार्थः स्वराज्यं प्राप्य केवलम् ।

तस्यां सभायां रम्यायां विजहार मुदा युतः ॥ २॥

ततः कं चित्सभोद्देशं स्वर्गोद्देश समं नृप ।

यदृच्छया तौ मुदितौ जग्मतुः स्वजनावृतौ ॥ ३॥

ततः प्रतीतः कृष्णेन सहितः पाण्डवोऽर्जुनः ।

निरीक्ष्य तां सभां रम्यामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४॥

विदितं ते महाबाहो सङ्ग्रामे समुपस्थिते ।

माहात्म्यं देवकी मातस्तच्च ते रूपमैश्वरम् ॥ ५॥

यत्तु तद्भवता प्रोक्तं तदा केशव सौहृदात् ।

तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं मे नष्टचेतसः ॥ ६॥

मम कौतूहलं त्वस्ति तेष्वर्थेषु पुनः प्रभो ।

भवांश्च द्वारकां गन्ता नचिरादिव माधव ॥ ७॥

        वैशन्पायन उवाच

एवमुक्तस्ततः कृष्णः फल्गुनं प्रत्यभाषत ।

परिष्वज्य महातेजा वचनं वदतां वरः ॥ ८॥

        वासुदेव उवाच

श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम् ।

धर्मं स्वरूपिणं पार्थ सर्वलोकांश्च शाश्वतान् ॥ ९॥

अबुद्ध्वा यन्न गृह्णीथास्तन्मे सुमहदप्रियम् ।

नूनमश्रद्दधानोऽसि दुर्मेधाश्चासि पाण्डव ॥ १०॥

स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने ।

न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः ॥ ११॥

परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया ।

इतिहासं तु वक्ष्यामि तस्मिन्नर्थे पुरातनम् ॥ १२॥

यथा तां बुद्धिमास्थाय गतिमग्र्यां गमिष्यसि ।

श्रृणु धर्मभृतां श्रेष्ठ गदतः सर्वमेव मे ॥ १३॥

आगच्छद्ब्राह्मणः कश्चित्स्वर्गलोकादरिन्दम ।

ब्रह्मलोकाच्च दुर्धर्षः सोऽस्माभिः पूजितोऽभवत् ॥ १४॥

अस्माभिः परिपृष्टश्च यदाह भरतर्षभ ।

दिव्येन विधिना पार्थ तच्छृणुष्वाविचारयन् ॥ १५॥

        ब्राह्मण उवाच

मोक्षधर्मं समाश्रित्य कृष्ण यन्मानुपृच्छसि ।

भूतानामनुकम्पार्थं यन्मोहच्छेदनं प्रभो ॥ १६॥

तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि यथावन्मधुसूदन ।

श्रृणुष्वावहितो भूत्वा गदतो मम माधव ॥ १७॥

कश्चिद्विप्रस्तपो युक्तः काश्यपो धर्मवित्तमः ।

आससाद द्विजं कं चिद्धर्माणामागतागमम् ॥ १८॥

गतागते सुबहुशो ज्ञानविज्ञानपारगम् ।

लोकतत्त्वार्थ कुशलं ज्ञातारं सुखदुःखयोः ॥ १९॥

जाती मरणतत्त्वज्ञं कोविदं पुण्यपापयोः ।

द्रष्टारमुच्चनीचानां कर्मभिर्देहिनां गतिम् ॥ २०॥

चरन्तं मुक्तवत्सिद्धं प्रशान्तं संयतेन्द्रियम् ।

दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या क्रममाणं च सर्वशः ॥ २१॥

अन्तर्धानगतिज्ञं च श्रुत्वा तत्त्वेन काश्यपः ।

तथैवान्तर्हितैः सिद्धैर्यान्तं चक्रधरैः सह ॥ २२॥

सम्भाषमाणमेकान्ते समासीनं च तैः सह ।

यदृच्छया च गच्छन्तमसक्तं पवनं यथा ॥ २३॥

तं समासाद्य मेधावी स तदा द्विजसत्तमः ।

चरणौ धर्मकामो वै तपस्वी सुसमाहितः ।

प्रतिपेदे यथान्यायं भक्त्या परमया युतः ॥ २४॥

विस्मितश्चाद्भुतं दृष्ट्वा काश्यपस्तं द्विजोत्तमम् ।

परिचारेण महता गुरुं वैद्यमतोषयत् ॥ २५॥

प्रीतात्मा चोपपन्नश्च श्रुतचारित्य संयुतः ।

भावेन तोषयच्चैनं गुरुवृत्त्या परन्तपः ॥ २६॥

तस्मै तुष्टः स शिष्याय प्रसन्नोऽथाब्रवीद्गुरुः ।

सिद्धिं परामभिप्रेक्ष्य श्रृणु तन्मे जनार्दन ॥ २७॥

        सिद्ध उवाच

विविधैः कर्मभिस्तात पुण्ययोगैश्च केवलैः ।

गच्छन्तीह गतिं मर्त्या देवलोकेऽपि च स्थितिम् ॥ २८॥

न क्व चित्सुखमत्यन्तं न क्व चिच्छाश्वती स्थितिः ।

स्थानाच्च महतो भ्रंशो दुःखलब्धात्पुनः पुनः ॥ २९॥

अशुभा गतयः प्राप्ताः कष्टा मे पापसेवनात् ।

काममन्युपरीतेन तृष्णया मोहितेन च ॥ ३०॥

पुनः पुनश्च मरणं जन्म चैव पुनः पुनः ।

आहारा विविधा भुक्ताः पीता नानाविधाः स्तनाः ॥ ३१॥

मातरो विविधा दृष्टाः पितरश्च पृथग्विधाः ।

सुखानि च विचित्राणि दुःखानि च मयानघ ॥ ३२॥

प्रियैर्विवासो बहुशः संवासश्चाप्रियैः सह ।

धननाशश्च सम्प्राप्तो लब्ध्वा दुःखेन तद्धनम् ॥ ३३॥

अवमानाः सुकष्टाश्च परतः स्वजनात्तथा ।

शारीरा मानसाश्चापि वेदना भृशदारुणाः ॥ ३४॥

प्राप्ता विमाननाश्चोग्रा वधबन्धाश्च दारुणाः ।

पतनं निरये चैव यातनाश्च यमक्षये ॥ ३५॥

जरा रोगाश्च सततं वासनानि च भूरिशः ।

लोकेऽस्मिन्ननुभूतानि द्वन्द्वजानि भृशं मया ॥ ३६॥

ततः कदा चिन्निर्वेदान्निकारान्निकृतेन च ।

लोकतन्त्रं परित्यक्तं दुःखार्तेन भृशं मया ।

ततः सिद्धिरियं प्राप्ता प्रसादादात्मनो मया ॥ ३७॥

नाहं पुनरिहागन्ता लोकानालोकयाम्यहम् ।

आ सिद्धेरा प्रजा सर्गादात्मनो मे गतिः शुभा ॥ ३८॥

उपलब्धा द्विजश्रेष्ठ तथेयं सिद्धिरुत्तमा ।

इतः परं गमिष्यामि ततः परतरं पुनः ।

ब्रह्मणः पदमव्यग्रं मा तेऽभूदत्र संशयः ॥ ३९॥

नाहं पुनरिहागन्ता मर्त्यलोके परन्तप ।

प्रीतोऽस्मि ते महाप्राज्ञ ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ ४०॥

यदीप्सुरुपपन्नस्त्वं तस्य कालोऽयमागतः ।

अभिजाने च तदहं यदर्थं मा त्वमागतः ।

अचिरात्तु गमिष्यामि येनाहं त्वामचूचुदम् ॥ ४१॥

भृशं प्रीतोऽस्मि भवतश्चारित्रेण विचक्षण ।

परिपृच्छ यावद्भवते भाषेयं यत्तवेप्सितम् ॥ ४२॥

बहु मन्ये च ते बुद्धिं भृशं सम्पूजयामि च ।

येनाहं भवता बुद्धो मेधावी ह्यसि काश्यप ॥ ४३॥

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्तदशोऽध्यायः ॥


अनुगीता १ हिन्दी अनुवाद

जनमेजय ने पूछा! ब्रह्मन! शत्रुओं का नाश करके जब महत्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन सभा भवन में रहने लगे, उन दिनों उन दोनों में क्या-क्या बातचीत हुई? वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन जब केवल अपने राज्य पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया, तब वे उस दिव्य सभाभावन में आनन्दपूर्वक रहने लगे। नरेश्वर! एक दिन वहाँ स्वजनों से घिरे हुए वे दोनों मित्र स्वेच्छा से घूमते-घामते सभामण्डल के एक ऐसे भाग में पहुँचे, जो स्वर्ग के समान सुन्दर था। पाण्डुनन्दन अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहकर बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस रमणीय सभा की ओर दृष्टि डाल भगवान श्रीकृष्ण से कहा- महाबाहो! देवकीनन्दन! जब संग्राम का समय उपस्थित था, उस समय मुझे आपके माहात्म्य का ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन हुआ था। किंतु केशव! आपने सौहार्दवश पहले मुझे जो ज्ञान का उपदेश दिया था, मेरा वह सब ज्ञान इस समय विचलित-चित्त हो जाने के कारण नष्ट हो गया (भूल गया) है। माधव! उन विषयों को सुनने के लिये मेरे मन में बारंबार उत्कष्ठा होती है। इधर आप जल्दी ही द्वारका जाने वाले है, अत: पुन: वह सब विषय मुझे सुना दीजिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! अर्जुन के ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गले से लगाकर इस प्रकार उत्तर दिया। श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! उस समय मैने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय ज्ञान का श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म-सनातन पुरुषोत्तम तत्त्व का परिचय दिया था और सम्पूर्ण नित्य लोकों का वर्णन किया था, किंतु तुमने जो अपनी नासमझी के कारण उस उपदेश को याद नहीं रखा, यह मुझे बहुत अप्रिय है। उन बातों का अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव नहीं जान पड़ता है। पाण्डुनन्दन! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द जान पड़ती है। धनंजय! अब मैं उस उपदेश को ज्यों-का त्यों नहीं कह सकता है। क्योंकि वह धर्म ब्रह्मपद की प्राप्ति कराने के लिये पर्याप्त था, वह सारा-का-सारा धर्म उसी रूप में फिर दुहरा देना अब मेरे वश की बात भी नहीं है। उस समय योगमुक्त होकर मैने परमात्मतत्त्व का वर्णन किया था। अब उस विषय का ज्ञान कराने के लिये मैं एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ। जिससे तुम उस समत्वबुद्धि का आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त कर लोगे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अर्जुन! अब तुम मेरी सारी बातें ध्यान देकर सुनो। शत्रुदमन! एक दिन की बात है, एक दुर्धर्ष ब्राह्मण ब्रह्मलोक से उतरकर स्वर्गलोक में होते हुए मेरे यहाँ आये। मैंने उनकी विधिवत पूजा की ओर मोक्ष धर्म के विषय में प्रश्न किया। भारत श्रेष्ठ है! मेरे प्रश्न का उन्होंने सुन्दर विधि से उत्तर दिया। पार्थ! वही मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। कोई अन्यथा विचार न करके इसे ध्यान देकर सुनो। ब्राह्मण ने कहा- श्रीकृष्ण! मधुसूदन! तुमने सब प्राणियों पर कृपा करके उनके मोह का नाश करने के लिये जो यह मोक्ष-धर्म से संबंध रखने वाला प्रश्न किया है, उसका मैं यथावत उत्तर दे रहा हूँ। प्रभो! माधव! सावधान होकर मेरी बात श्रवण करो।

प्राचीन समय में काश्यप नामक के एक धर्मज्ञ और तपस्वी ब्राह्मण किसी सिद्ध महर्षि के पास गये, जो धर्म के विषय में शासन के सम्पूर्ण रहस्यों को जानने वाले, भूत और भविष्य के ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण, लोक-तत्त्व के ज्ञान में कुशल, सुख:दुख के रहस्य को समझने वाले, जन्म-मृत्यु के तत्त्वज्ञ, पाप-पुण्य के ज्ञाता और ऊँच-नीच प्राणियों को कर्मानुसार प्राप्त होने वाली गति के प्रत्यक्ष दृष्टा थे। वे मुक्त की भाँति विचरने वाले, सिद्ध, शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, बह्मतेज से, देदीप्यमान, सर्वत्र घुमने वाले और अन्तर्धान विद्या के ज्ञाता थे। अदृश्य रहने वाले चक्रधारी सिद्धों के साथ वे विचरते, बातचीत करते और उन्हीं के साथ एकान्त में बैठते थे। जैसे वायु कहीं आसक्त न होकर सर्वत्र प्रवाहित होती है, उसी तरह वे सर्वत्र अनासक्त भाव से स्वच्छन्दतापूर्वक विचरा करते थे। महर्षि काश्यप उनकी उपर्युत महिमा सुनकर ही उनके पास गये थे। निकट जाकर उन मेधावी, तपस्वी, धर्माभिलाषी और एकाग्रचित्त महर्षि ने न्यायानुसार उन सिद्ध महात्मा के चरणों में प्रणाम किया। वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ और बड़े अद्भुत संत थे। उनमें सब प्रकार की योग्यता थी। वे शास्त्र के ज्ञाता और सच्चरित्र थे। उनका दर्शन करके काश्यप को बड़ा विस्मय हुआ। वे उन्हें गुरु मानकर उनकी सेवा में लग गये और शुश्रुणा, गुरुभक्ति तथा श्रद्धाभाव के द्वारा उन्होंने उन सिद्ध महात्मा को संतुष्ट कर लिया। जनार्दन! अपने शिष्य काश्यप के ऊपर प्रसन्न होकर उन सिद्ध महर्षि ने परासिद्धि के संबंध में विचार करके जो उपदेश किया, उसे बताता हूँ, सुनो। सिद्ध ने कहा- तात कश्यप! मनुष्य नाना प्रकार के शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके केवल पुष्य के संयोग से इस लोक में उत्तम फल और देवलोक में स्थान प्राप्त करते हैं। जीवन को कहीं भी अत्यन्त सुख नहीं मिलता। किसी भी लोक में वह सदा नहीं रहने पाता। तपस्या आदि के द्वारा कितने ही कष्ट सहकर बड़े-से-बड़े स्थान को क्यों न प्राप्त किया जाय, वहाँ से भी बार-बार नीचे आना ही पड़ता है। मैंने काम-क्रोध से युक्त और तृष्णा से मोहित होकर अनेक बार पाप किये हैं और उनके सेवन के फलस्वरूप घोर कष्ट देने वाली अशुभ गतियों का भोग है। बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का क्लेश उठाया है। तरह-तरह के आहार ग्रहण किये और अनेक स्तनों का दूध पीया है। अनध! बहुत-से पिता और भाँति-भाँति की माताएँ देखी है। विचित्र-विचित्र सुख-दु:खों का अनुभव किया है। कितनी ही बार मुझसे प्रियाजनों का वियोग और अप्रिय जनों का संयोग हुआ है। जिस धन को मैने बहुत कष्ट सहकर कमाया था, वह मेरे देखते-देखते नष्ट हो गया है। राजा और स्वजनों की ओर से मुझे कई बार बड़े-बड़े कष्ट और अपमान उठाने पड़े है। तन और मन की अत्यंत भंयकर वेदनाएँ सहनी पड़ी है। मैंने अनेक बार घोर अपमान, प्राणदण्ड और कड़ी कैद की सजाएँ भोगी है। मुझे नरक में गिरना और यमलोक में मिलने वाली यातानाओं को सहना पड़ा है। इस लोक में जन्म लेकर मैने बारंबार बुढ़ापा, रोग, व्यसन और राग-द्वेषादि द्वन्दों की प्रचुर दु:ख सदा ही भोगे हैं। इस प्रकार बारंबार क्लेश उठाने से एक दिन मेरे मन में बड़ा खेद हुआ और मैं दुखों से घबराकर निराकर परमात्मा की शरण ली तथा समस्त लोकव्यवहार का परित्याग कर दिया।

इस लोक में अनुभव के पश्चात मैंने इस मार्ग का अवलम्बन किया है और अब परमात्मा की कृपा से मुझे यह उत्तम सिद्धि प्राप्त हुई है। अब मैं पुन: इस संसार में नहीं जाऊँगा। जब तक यह सृष्टि कायम रहेगी और जब तक मेरी मुक्ति नहीं हो जाएगी, तब तक मैं अपनी और दूसरे प्राणियों की शुभ गति का अवलोकन करूँगा। द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मुझे यह उत्तम सिद्धी मिली है। इसके बाद मैं उत्तम लोक में जाऊँगा। फिर उससे भी परम उत्कृष्ट सत्यलोक में जा पहुँचूँगा और क्रमश: अव्यक्त ब्रह्मपद (मोक्ष) को प्राप्त कर लूँगा। इसमें तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये। काम-क्रोध आदि शत्रुओं को संताप देने वाला काश्यप! अब मैं पुन: इस मृत्युलोक में नहीं आऊँगा। महाप्राज्ञ! मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुम जिस वस्तु को पाने की इच्छा से मेरे पास आये हो, उसके प्राप्त होने का यह समय आ गया है। तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है, इसे मैं जानता हूँ और शीघ्र ही यहाँ से चला जाऊँगा। इसलिये मैने स्वयं तुम्हें प्रश्न करने के लिये प्रेरित किया है। विद्वन! तुम्हारे उत्तम आचरण से मुझे बड़ा संतोष है। तुम अपने कल्याण की बात पूछो। मैं तुम्हारे अभीष्ट प्रश्न का उत्तर दूँगा। काश्यप! मैं तुम्हारी बुद्धि की सराहना करता और उसे बहुत आदर देता हूँ। तुमने मुझे पहचान लिया है, इसी से कहता हूँ कि बड़े बुद्धिमान हो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

इसके हिन्दी अनुवाद के लिए साभार krishnakosh.org व्यक्त करते हुए, अनुगीता १ समाप्त।

शेष जारी......... अनुगीता २

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