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शनि कवच
ज्योतिष के अनुसार शनि की साढेसाती
की मान्यतायें तीन प्रकार से होती हैं, पहली
लग्न से, दूसरी चन्द्र लग्न या राशि से और तीसरी सूर्य लग्न से, उत्तर भारत में चन्द्र लग्न से शनि की साढे साती की गणना का विधान प्राचीन
काल से चला आ रहा है। इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि पर गोचर से अपना
भ्रमण करते हैं तो साढेसाती मानी जाती है, इसका प्रभाव राशि
में आने के तीस माह पहले से और तीस माह बाद तक अनुभव होता है। साढेसाती के दौरान
शनि जातक के पिछले किये गये कर्मों का हिसाब उसी प्रकार से लेता है, जैसे एक घर के नौकर को पूरी जिम्मेदारी देने के बाद मालिक कुछ समय बाद
हिसाब मांगता है, और हिसाब में भूल होने पर या गलती करने पर
जिस प्रकार से सजा नौकर को दी जाती है उसी प्रकार से सजा शनि देव भी हर प्राणी को
देते हैं और यही नही जिन लोगों ने अच्छे कर्म किये होते हैं तो उनको साढेशाती
पुरस्कार भी प्रदान करती है, जैसे नगर या ग्राम का या शहर का
मुखिया बना दिया जाना आदि। शनि की साढेसाती के आख्यान अनेक लोगों के प्राप्त होते
हैं, जैसे राजा विक्रमादित्य, राजा नल,
राजा हरिश्चन्द्र, शनि की साढेसाती संत
महात्माओं को भी प्रताडित करती है, जो जोग के साथ भोग को
अपनाने लगते हैं। हर मनुष्य को तीस साल मे एक बार साढेसाती अवश्य आती है, यदि यह साढे साती धनु, मीन, मकर,
कुम्भ राशि मे होती है, तो कम पीडाजनक होती है,
यदि यह साढेसाती चौथे, छठे, आठवें, और बारहवें भाव में होगी, तो जातक को अवश्य दुखी करेगी, और तीनो सुख शारीरिक,
मानसिक, और आर्थिक को हरण करेगी। इन
साढेसातियों में कभी भूलकर भी "नीलम" नही धारण करना चाहिये, यदि किया गया तो बजाय लाभ के हानि होने की पूरी सम्भावना होती है। कोई नया
काम, नया उद्योग, भूल कर भी साढेसाती
में नही करना चाहिये, किसी भी काम को करने से पहले किसी
जानकार ज्योतिषी से जानकारी अवश्य कर लेनी चाहिये। यहां तक कि वाहन को भी भूलकर इस
समय में नही खरीदना चाहिये, अन्यथा वह वाहन सुख का वाहन न
होकर दुखों का वाहन हो जायेगा। शनि देव के प्रकोप से बचने के लिए रावण ने उन्हें
अपनी कैद में पैरों से बांध कर सर नीचे की तरफ किये हुए रखा था ताकि शनि की वक्र
दृष्टि रावण पर न पड़े। शनि की ढैय्या या शनि की साढ़ेसाती के कारण बर्बादी से
बचने के लिए शनि कवच रक्षक का काम करता है। यह मन के अवसाद और अकर्मण्यता से
निपटने के लिए सहायक है। व्यापार में सफलता, पढ़ाई और जीवन
के अन्य क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए शनि कवच का पाठ श्रेष्ठ है। शनि
कवच शनि के अशुभ प्रभाव को दूर करने वाले गुणों के लिए जाना जाता है। शनि की दशा
हो, अन्तर्दशा हो, शनि की ढैय्या हो
अथवा शनि की साढ़ेसाती ही क्यों ना हो, कवच का पाठ करने पर
कष्ट, व्याधियाँ, विपत्ति, आपत्ति, पराजय, अपमान, आरोप-प्रत्यारोप तथा हर प्रकार के शारीरिक, मानसिक
तथा आर्थिक कष्टों से दूर रहता है। जो व्यक्ति इस कवच का पाठ निरंतर करता है। उसे
अकाल मृत्यु तथा हत्या का भय भी नहीं रहता है, क्योंकि ढाल
की तरह यह जातक की सुरक्षा करती है। ऎसे व्यक्ति को लकवे आदि का डर भी नहीं होता
है। यदि किसी कारणवश आघात हो भी जाए तब भी विकलांग नहीं होता है शीध्र ही ठीक हो
जाता है। चिकित्सा के बाद व्यक्ति फिर से चलने-फिरने के लायक हो जाता है। शनि कवच
के पाठ नियमित करने से जीवन की बड़ी से बड़ी बाधा दूर हो जाती है। शनि ग्रह की पीड़ा
से बचने के लिए अनेकानेक मंत्र जाप, पाठ आदि शास्त्रों में
दिए गए हैं। शनि देव के कई प्रकार के मंत्र, स्त्रोत,
या पाठ हैं उनमें से शनि कवच एक है। इस कवच को “ब्रह्माण्डपुराण” से लिया गया है, जिन व्यक्तियों पर शनि की ग्रह दशा का प्रभाव बना हुआ है। उन्हें इसका पाठ
अवश्य करना चाहिए। जो व्यक्ति इस कवच का पाठ कर शनिदेव को प्रसन्न करता है उसके
सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। जन्म कुंडली में शनि ग्रह के कारण अगर कोई दोष भी है तो
वह इस कवच के नियम से किए पाठ से दूर हो जाते हैं। यह कवच पाठ करने वाले की वज्र
की भांति रक्षा करता है अतः इसे शनिवज्रपंजरकवचम् के नाम से जाना जाता है।
श्रीशनि कवचम् अथवा श्रीशनिवज्रपंजरकवचम्
विनियोगः ।
ॐ अस्य श्रीशनैश्चरवज्रपञ्जर कवचस्य
कश्यप ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः,
श्री शनैश्चर देवता,
श्रीशनैश्चर प्रीत्यर्थे जपे
विनियोगः ॥
ऋष्यादि न्यासः ।
श्रीकश्यप ऋषयेनमः शिरसि ।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीशनैश्चर देवतायै नमः हृदि ।
श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे जपे
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥
अथ श्रीशनि कवचम्
ध्यानम् ।
नीलाम्बरो नीलवपुः किरीटी
गृध्रस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान् ।
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्नः सदा
मम स्याद् वरदः प्रशान्तः ॥ १॥
ब्रह्मा उवाच ॥
श्रृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीडाहरं
महत् ।
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम् ॥
२॥
कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम् ।
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम्
॥ ३॥
ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनन्दनः
।
नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कर्णौ
यमानुजः ॥ ४॥
नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे
भास्करः सदा ।
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु
महाभुजः ॥ ५॥
स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ
पातु-शुभप्रदः ।
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं
पात्वसितस्तथा ॥ ६॥
नाभिं ग्रहपतिः पातु मन्दः पातु
कटिं तथा ।
ऊरू ममान्तकः पातु यमो जानुयुगं तथा
॥ ७॥
पादौ मन्दगतिः पातु सर्वांगं पातु
पिप्पलः ।
अंगोपांगानि सर्वाणि रक्षेन् मे
सूर्यनन्दनः ॥ ८॥
इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत्
सूर्यसुतस्य यः ।
न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवति
सूर्यजः ॥ ९॥
व्यय-जन्म-द्वितीयस्थो
मृत्युस्थानगतोऽपि वा ।
कलत्रस्थो गतो वापि सुप्रीतस्तु सदा
शनिः ॥ १०॥
अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये
जन्मद्वितीयगे ।
कवचं पठते नित्यं न पीडा जायते
क्वचित् ॥ ११॥
इत्येतत्कवचं दिव्यं
सौरेर्यन्निर्मितं पुरा ।
द्वादशाष्टमजन्मस्थदोषान्नाशयते सदा
।
जन्मलग्नस्थितान् दोषान्
सर्वान्नाशयते प्रभुः ॥ १२॥
॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे
ब्रह्म-नारदसंवादे
शनिवज्रपंजरकवचं सम्पूर्णम् ॥
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