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शुक्रमङ्गलस्तोत्रम्
शुक्रमङ्गलस्तोत्रम् - शुक्र
जीवनसंगी,
प्रेम, विवाह, विलासिता,
समृद्धि, सुख, सभी
वाहनों, कला, नृत्य, संगीत, अभिनय, जुनून और काम का
प्रतीक है। शुक्र के संयोग से ही लोगों को इंद्रियों पर संयम मिलता है और नाम व
ख्याति पाने के योग्य बनते हैं। शुक्र के दुष्प्रभाव से त्वचा पर नेत्र रोगों,
यौन समस्याएं, अपच, कील-मुहासे,
नपुंसकता, क्षुधा की हानि और त्वचा पर चकत्ते
हो सकते हैं।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार ग्रहीय
स्थिति दशा होती है, जिसे शुक्र दशा कहा
जाता है। यह जातक पर २० वर्षों के लिये सक्रिय होती है। यह किसी भी ग्रह दश से
लंबी होती है। इस दशा में जातक की जन्म-कुण्डली में शुक्र सही स्थाण पर होने से
उसे कहीं अधिक धन, सौभाग्य और विलासिता सुलभ हो जाती है।
इसके अलावा कुण्डली में शुक्र अधिकतर लाभदायी ग्रह माना जाता है। शुक्र हिन्दू
कैलेण्डर के माह ज्येष्ठ का स्वामी भी माना गया है। यह कुबेर के खजाने का रक्षक
माना गया है। शुक्र के प्रिय वस्तुओं में श्वेत वर्ण, धातुओं
में रजत एवं रत्नों में हीरा है। इसकी प्रिय दशा दक्षिण-पूर्व है, ऋतुओं में वसंत ऋतु तथा तत्त्व जल है।
चंद्र मंडल से २ लाख योजन ऊपर कुछ तारे हैं। इन तारों के ऊपर ही शुक्र मंडल स्थित है, जहां शुक्र का निवास है। इनका प्रभाव पूरे ब्रह्मांड के निवासियों के लिये शुभदायी होता है। तारों के समूह के १६ लाख मील ऊपर शुक्र रहते हैं। यहां शुक्र लगभग सूर्य के समान गति से ही चलते हैं। कभी शुक्र सूर्य के पीछे रहते हैं, कभी साथ में तो कभी सूर्य के आगे रहते हैं। शुक्र वर्षा-विरोधी ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करता है परिणामस्वरूप इसकी उपस्थिति वर्षाकारक होती है अतः ब्रह्माण्ड के सभी निवासियों के लिये शुभदायी कहलाता है। यह प्रकाण्ड विद्वानों द्वारा मान्य तथ्य है। शिशुमार के ऊपरी चिबुक पर अगस्ति और निचले चिबुक पर यमराज रहते हैं; मुख पर मंगल एवं जननांग पर शनि, गर्दन के पीछे बृहस्पति एवं छाती पर सूर्य तथा हृदय की पर्तों के भीतर स्वयं नारायण निवास करते हैं। इनके मस्तिष्क में चंद्रमा तथा नाभि में शुक्र तथा स्तनों पर अश्विनी कुमार रहते हैं। इनके जीवन में वायु जिसे प्राणपन कहते हैं बुध है, गले में राहु का निवास है। पूरे शरीर भर में पुच्छल तारे तथा रोमछिद्रों में अनेक तारों का निवास है।
शुक्र ग्रह का पूजन के लिए शुक्रमङ्गलस्तोत्रम्
का पाठ करें ।
शुक्रमङ्गलस्तोत्रम्
शुक्रो भार्गवगोत्रजः सितनिभः
प्राचीमुखः पूर्वदिक् ।
पञ्चाङ्गो
वृषभस्तुलाधिपमहाराष्ट्राधिपोदुम्बरः ॥ १॥
इन्द्राणी मघवानुभौ बुधशनी
मित्रार्कचन्द्रौ रिपू ।
षष्ठो द्विर्दशवर्जितो भृगुसुतः
कुर्यात्सदा मङ्गलम् ॥ २॥
प्रार्थना
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्
।
पूजां नैव हि जानामि क्षमस्व
परमेश्वर ॥ १॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं
सुरेश्वर ।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु
मे ॥ २॥
भार्गवो भर्गजननः शुचिः
श्रुतिविशारदः ।
हत्वा ग्रहकृतान्दोषानारोग्यं देहि
मे सदा ॥ ३॥
ॐ अनया पूजया शुक्रदेवः प्रीयताम् ।
ॐ शुक्राय नमः ॐ काव्याय नमः ॐ
भार्गवाय नमः ।
॥ ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः ॐ ॥
इति श्रीशुक्रमङ्गलस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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