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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शुक्रस्तोत्रम्
शुक्रस्तोत्रम् - शुक्र,
जिसका संस्कृत भाषा में एक अर्थ है शुद्ध, स्वच्छ,
भृगु ऋषि के पुत्र एवं दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का प्रतीक शुक्र ग्रह
है। भारतीय ज्योतिष में इसकी नवग्रह में भी गिनती होती है। यह सप्तवारों में
शुक्रवार का स्वामी होता है। यह श्वेत वर्णी, मध्यवयः,
सहमति वाली मुखाकृति के होते हैं। इनको ऊंट, घोड़े
या मगरमच्छ पर सवार दिखाया जाता है। ये हाथों में दण्ड, कमल,
माला और कभी-कभार धनुष-बाण भी लिये रहते हैं।
उषानस एक वैदिक ऋषि हुए हैं जिनका
पारिवारिक उपनाम था काव्य (कवि के वंशज, अथर्व
वेद अनुसार जिन्हें बाद में उषानस शुक्र कहा गया।
शुक्रस्तोत्रम् के पाठ से संतान,आयु,धन,
सुख लक्ष्मी,विद्या कि प्राप्ति होती है। शुक्र का मंत्र है-ॐ शुं शुक्राय नम:॥
शुक्रस्तोत्रम्
अथ शुक्रस्तोत्रप्रारम्भः ।
श्रृण्वन्तु मुनयः सर्वे
शुक्रस्तोत्रमिदं शुभम् ।
रहस्यं सर्वभूतानां शुक्रप्रीतिकरं
शुभम् ॥ १॥
येषां सङ्कीर्तनान्नित्यं सर्वान्
कामानवाप्नुयात् ।
तानि शुक्रस्य नामानि कथयामि शुभानि
च ॥ २॥
शुक्रः शुभग्रहः श्रीमान्
वर्षकृद्वर्षविघ्नकृत् ।
तेजोनिधिर्ज्ञानदाता योगी योगविदां
वरः ॥ ३॥
दैत्यसञ्जीवनो धीरो दैत्यनेतोशना कविः
।
नीतिकर्ता ग्रहाधीशो विश्वात्मा
लोकपूजितः ॥ ४॥
शुक्लमाल्याम्बरधरः
श्रीचन्दनसमप्रभः ।
अक्षमालाधरः काव्यः
तपोमूर्तिर्धनप्रदः ॥ ५॥
चतुर्विंशतिनामानि अष्टोत्तरशतं यथा
।
देवस्याग्रे विशेषेण पूजां कृत्वा
विधानतः ॥ ६॥
य इदं पठति स्तोत्रं भार्गवस्य
महात्मनः ।
विषमस्थोऽपि भगवान् तुष्टः
स्यान्नात्र संशयः ॥ ७॥
स्तोत्रं भृगोरिदमनन्तगुणप्रदं यो
भक्त्या पठेच्च मनुजो नियतः शुचिः सन् ।
प्राप्नोति नित्यमतुलां
श्रियमीप्सितार्थान्
राज्यं समस्तधनधान्ययुतां समृद्धिम् ॥ ८॥
इति शुक्रस्तोत्रं समाप्तम् ।
शुक्रस्तोत्रम् २
शुक्रः काव्यः शुक्ररेता
शुक्लाम्बरधरः सुधीः ।
हिमाभः कुन्तधवलः शुभ्रांशुः
शुक्लभूषणः ॥ १॥
नीतिज्ञो नीतिकृन्नीतिमार्गगामी
ग्रहाधिपः ।
उशना वेदवेदाङ्गपारगः कविरात्मवित्
॥ २॥
भार्गवः करुणाः सिन्धुर्ज्ञानगम्यः
सुतप्रदः ।
शुक्रस्यैतानि नामानि शुक्रं स्मृत्वा
तु यः पठेत् ॥ ३॥
आयुर्धनं सुखं पुत्रं
लक्ष्मींवसतिमुत्तमाम् ।
विद्यां चैव स्वयं तस्मै
शुक्रस्तुष्टोददाति च ॥ ४॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे शुक्रस्तोत्रं
सम्पूर्णम् ।
शुक्रस्तोत्रम् ३
नमस्ते भार्गव श्रेष्ठ देव दानव पूजित । वृष्टिरोधप्रकर्त्रे च वृष्टिकर्त्रे नमो नम: ।।१।।
देवयानीपितस्तुभ्यं वेदवेदांगपारग: । परेण तपसा शुद्ध शंकरो लोकशंकर: ।।२।।
प्राप्तो विद्यां जीवनाख्यां तस्मै शुक्रात्मने नम: । नमस्तस्मै भगवते भृगुपुत्राय वेधसे ।।३।।
तारामण्डलमध्यस्थ स्वभासा भसिताम्बर: । यस्योदये जगत्सर्वं मंगलार्हं भवेदिह ।।४।।
अस्तं याते ह्यरिष्टं स्यात्तस्मै मंगलरूपिणे । त्रिपुरावासिनो दैत्यान शिवबाणप्रपीडितान ।।५।।
विद्यया जीवयच्छुक्रो नमस्ते भृगुनन्दन । ययातिगुरवे तुभ्यं नमस्ते कविनन्दन ।६।।
बलिराज्यप्रदो जीवस्तस्मै जीवात्मने नम: ।भार्गवाय नमस्तुभ्यं पूर्वं गीर्वाणवन्दितम ।।७।।
जीवपुत्राय यो विद्यां प्रादात्तस्मै नमोनम: । नम: शुक्राय काव्याय भृगुपुत्राय धीमहि ।।८।।
नम: कारणरूपाय नमस्ते कारणात्मने ।स्तवराजमिदं पुण्य़ं भार्गवस्य महात्मन: ।।९।।
य: पठेच्छुणुयाद वापि लभते वांछित फलम । पुत्रकामो लभेत्पुत्रान श्रीकामो लभते श्रियम ।।१०।।
राज्यकामो लभेद्राज्यं स्त्रीकाम: स्त्रियमुत्तमाम । भृगुवारे प्रयत्नेन पठितव्यं सामहितै: ।।११।।
अन्यवारे तु होरायां पूजयेद भृगुनन्दनम ।रोगार्तो मुच्यते रोगाद भयार्तो मुच्यते भयात ।।१२।।
यद्यत्प्रार्थयते वस्तु तत्तत्प्राप्नोति सर्वदा ।प्रात: काले प्रकर्तव्या भृगुपूजा प्रयत्नत: ।।१३।।
सर्वपापविनिर्मुक्त: प्राप्नुयाच्छिवसन्निधि: ।।१४।।
(इति स्कन्दपुराणे शुक्रस्तोत्रम)
शुक्रस्तोत्रम् ४
ॐ कवीश्वर नमस्तुभ्यं हव्यकव्यविदां
वर ।
उपासक सरस्वत्या मृतसञ्जीवनप्रिय ॥
१॥
दैत्यपूज्य नमस्तुभ्यं
दैत्येन्द्रशासनाकर ।
नीतिशास्त्रकलाभिज्ञ बलिजीवप्रभावन
॥ २॥
प्रह्लादपरमाह्लाद विरोचनगुरो सित ।
आस्फूर्जज्जितशिष्यारे नमस्ते
भृगुनन्दन ॥ ३॥
सुराशन सुरारातिचित्तसंस्थितिभावन ।
उशना सकलप्राणिप्राणाश्रय नमोऽस्तु
ते ॥ ४॥
नमस्ते खेचराधीश शुक्र शुक्लयशस्कर
।
वारुण वारुणीनाथ मुक्तामणिसमप्रभ ॥
५॥
क्षीबचित्त कचोद्भूतिहेतो जीवरिपो
नमः ।
देवयानीययातीष्ट दुहितृस्थेयवत्सल ॥
६॥
वह्निकोणपते तुभ्यं नमस्ते खगनायक ।
त्रिलोचन तृतीयाक्षिसंस्थित शुकवाहन
॥ ७॥
इत्थं दैत्यगुरोः स्तोत्रं यः
स्मरेन्मानवः सदा ।
दशादौ गोचरे तस्य भवेद्विघ्नहरः
सितः ॥ ८॥
सोमतुल्या प्रभा यस्य चासुराणां
गुरुस्तथा ।
जेता यः सर्वशत्रूणां स काव्यः
प्रीयतां मम ॥ ९॥
इति शुक्रस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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