शनैश्चरमालामन्त्रः

श्रीशनैश्चरमालामन्त्रः

शनि सम्बंधित समस्त पीड़ा, कष्टों से छुटकारा पाने के लिए नित्य-प्रति श्रीशनैश्चरमालामन्त्रः का पाठ करें।

शनि संबंधी रोग निम्न है-

उन्माद नाम का रोग शनि की देन है, जब दिमाग में सोचने विचारने की शक्ति नष्ट हो जाती है, जो व्यक्ति करता जा रहा होता है, उसे ही करता चला जाता है, उसे यह पता नहीं है कि वह जो कर रहा है, उससे उसके साथ परिवार वालों के प्रति बुरा हो रहा है, या भला हो रहा है, संसार के लोगों के प्रति उसके क्या कर्तव्य हैं, उसे पता नही होता, सभी को एक लकड़ी से हांकने वाली बात उसके जीवन में मिलती है, वह क्या खा रहा है, उसका उसे पता नही है कि खाने के बाद क्या होगा, जानवरों को मारना, मानव वध करने में नही हिचकना, शराब और मांस का लगातार प्रयोग करना, जहां भी रहना आतंक मचाये रहना, जो भी सगे सम्बन्धी हैं, उनको चिन्ता देते रहना आदि उन्माद नाम के रोग के लक्षण है।

वात रोग का अर्थ है वायु वाले रोग, जो लोग बिना कुछ अच्छा खाये पिये फ़ूलते चले जाते है, शरीर में वायु कुपित हो जाती है, उठना बैठना दूभर हो जाता है, शनि यह रोग देकर जातक को एक जगह पटक देता है, यह रोग लगातार सट्टा, जुआ, लाटरी, घोड़ादौड़ और अन्य तुरंत पैसा बनाने वाले कामों को करने वाले लोगों मे अधिक देखा जाता है। किसी भी इस तरह के काम करते वक्त व्यक्ति लम्बी सांस खींचता है, उस लम्बी सांस के अन्दर जो हारने या जीतने की चाहत रखने पर ठंडी वायु होती है वह शरीर के अन्दर ही रुक जाती है, और अंगों के अन्दर भरती रहती है। अनितिक काम करने वालों और अनाचार काम करने वालों के प्रति भी इस तरह के लक्षण देखे गये है।

भगन्दर रोग गुदे में घाव या न जाने वाले फ़ोडे के रूप में होता है। अधिक चिन्ता करने से यह रोग अधिक मात्रा में होता देखा गया है। चिन्ता करने से जो भी खाया जाता है, वह आंतों में जमा होता रहता है, पचता नही है, और चिन्ता करने से उवासी लगातार छोडने से शरीर में पानी की मात्रा कम हो जाती है, मल गांठों के रूप मे आमाशय से बाहर कडा होकर गुदा मार्ग से जब बाहर निकलता है तो लौह पिण्ड की भांति गुदा के छेद की मुलायम दीवाल को फ़ाडता हुआ निकलता है, लगातार मल का इसी तरह से निकलने पर पहले से पैदा हुए घाव ठीक नही हो पाते हैं, और इतना अधिक संक्रमण हो जाता है, कि किसी प्रकार की एन्टीबायटिक काम नही कर पाती है।

गठिया रोग शनि की ही देन है। शीलन भरे स्थानों का निवास, चोरी और डकैती आदि करने वाले लोग अधिकतर इसी तरह का स्थान चुनते है, चिन्ताओं के कारण एकान्त बन्द जगह पर पडे रहना, अनैतिक रूप से संभोग करना, कृत्रिम रूप से हवा में अपने वीर्य को स्खलित करना, हस्त मैथुन, गुदा मैथुन, कृत्रिम साधनो से उंगली और लकडी, प्लास्टिक, आदि से यौनि को लगातार खुजलाते रहना, शरीर में जितने भी जोड हैं, रज या वीर्य स्खलित होने के समय वे भयंकर रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। और हवा को अपने अन्दर सोख कर जोडों के अन्दर मैद नामक तत्व को खत्म कर देते हैं, हड्डी के अन्दर जो सबल तत्व होता है, जिसे शरीर का तेज भी कहते हैं, धीरे धीरे खत्म हो जाता है, और जातक के जोडों के अन्दर सूजन पैदा होने के बाद जातक को उठने बैठने और रोज के कामों को करने में भयंकर परेशानी उठानी पडती है, इस रोग को देकर शनि जातक को अपने द्वारा किये गये अधिक वासना के दुष्परिणामों की सजा को भुगतवाता है।

स्नायु रोग के कारण शरीर की नशें पूरी तरह से अपना काम नही कर पाती हैं, गले के पीछे से दाहिनी तरफ़ से दिमाग को लगातार धोने के लिये शरीर पानी भेजता है, और बायीं तरफ़ से वह गन्दा पानी शरीर के अन्दर साफ़ होने के लिये जाता है, इस दिमागी सफ़ाई वाले पानी के अन्दर अवरोध होने के कारण दिमाग की गन्दगी साफ़ नही हो पाती है, और व्यक्ति जैसा दिमागी पानी है, उसी तरह से अपने मन को सोचने मे लगा लेता है, इस कारण से जातक में दिमागी दुर्बलता आ जाती है, वह आंखों के अन्दर कमजोरी महसूस करता है, सिर की पीडा, किसी भी बात का विचार करते ही मूर्छा आजाना मिर्गी, हिस्टीरिया, उत्तेजना, भूत का खेलने लग जाना आदि इसी कारण से ही पैदा होता है। इस रोग का कारक भी शनि है, अगर लगातार शनि के बीज मंत्र का जाप जातक से करवाया जाय, और उडद जो शनि का अनाज है, की दाल का प्रयोग करवाया जाय, रोटी मे चने का प्रयोग किया जाय, लोहे के बर्तन में खाना खाया जाये, तो इस रोग से मुक्ति मिल जाती है।

इन रोगों के अलावा पेट के रोग, जंघाओं के रोग, टीबी, कैंसर आदि रोग भी शनि की देन है।

शनि की साढ़ेसाती में शरीर से पसीने की बदबू आने लगती है। इस वजह से लोग दूर भागते है।

श्रीशनैश्चरमालामन्त्रः

अथ श्रीशनैश्चरमालामन्त्रः                 

अस्य श्रीशनैश्चरमालामन्त्रस्य काश्यप ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,

शनैश्चरो देवता, शं बीजं, निं शक्तिः, मं कीलकं,

समस्तपीडा परिहारार्थे शनैश्चरप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

शनैश्चराय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, कृष्णवर्णाय तर्जनीभ्यां

नमः, सूर्यपुत्राय मध्यमाभ्यां नमः, मन्दगतये अनामिकाभ्यां

नमः, गृध्रवाहनाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः, पङ्गुपादाय करतल-

करपृष्ठाभ्यां नमः, एवं हृदयादि न्यासः ॥

अथ करन्यासः ।

शनैश्चराय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।

कृष्णवर्णाय तर्जनीभ्यां नमः ।

सूर्यपुत्राय मध्यमाभ्यां नमः ।

मन्दगतये अनामिकाभ्यां नमः ।

गृध्रवाहनाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

पङ्गुपादाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥

इति करन्यासः ।

अथ हृदयादिषडङ्गन्यासः ।

शनैश्चराय हृदयाय नमः ।

कृष्णवर्णाय शिरसे स्वाहा ।

सूर्यपुत्राय शिखायै वषट् ।

मन्दगतये कवचाय हुम् ।

गृध्रवाहनाय नेत्रत्रयाय वौषट् ।

पङ्गुपादाय अस्त्राय फट् ।

इति हृदयादिषडङ्गन्यासः ॥

ध्यानम् ।

दोर्भिर्धनुर्द्विशिखचर्मधरं त्रिशूलं

     भास्वत्किरीटमुकुटोज्ज्वलितेन्द्रनीलम् ।

नीलातपत्रकुसुमादिसुगन्धभूषं देवं

     भजे रविसुतं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥

ॐ नमो भगवते शनैश्चराय मन्दगतये सूर्यपुत्राय महाकालाग्नि-

सदृशाय क्रूर (कृश) देहाय गृध्रासनाय नीलरूपाय चतुर्भुजाय

त्रिनेत्राय नीलाम्बरधराय नीलमालाविभूषिताय धनुराकारमण्डले

प्रतिष्ठिताय काश्यपगोत्रात्मजाय माणिक्यमुक्ताभरणाय छायापुत्राय

सकलमहारौद्राय सकलजगत्भयङ्कराय पङ्कुपादाय क्रूररूपाय

देवासुरभयङ्कराय सौरये कृष्णवर्णाय स्थूलरोमाय अधोमुखाय

नीलभद्रासनाय नीलवर्णरथारूडाय त्रिशूलधराय सर्वजनभयङ्कराय

मन्दाय दं, शं, नं, मं, हुं, रक्ष रक्ष, मम शत्रून्नाशय,

सर्वपीडा नाशय नाशय, विषमस्थशनैश्चरान् सुप्रीणय सुप्रीणय,

सर्वज्वरान् शमय शमय, समस्तव्याधीनामोचय मोचय विमोचय,

मां रक्ष रक्ष, समस्त दुष्टग्रहान् भक्षय भक्ष्य, भ्रामय भ्रामय,

त्रासय त्र्रासय, बन्धय बन्धय, उन्मादयोन्मादय, दीपय दीपय,

तापय तापय, सर्वविघ्नान् छिन्धि छिन्धि,

डाकिनीशाकिनीभूतवेतालयक्षरक्षोगन्धर्वग्रहान् ग्रासय ग्रासय,

भक्षय भक्षय, दह दह, पच पच, हन हन, विदारय विदारय,

शत्रून् नाशय नाशय, सर्वपीडा नाशय नाशय,

विषमस्थशनैश्चरान् सुप्रीईणय सुप्रीणय, सर्वज्वरान् शमय शमय,

समस्तव्याधीन् विमोचय विमोचय, ॐ शं नं मं ह्रां फं हुं,

शनैश्चराय नीलाभ्रवर्णाय नीलमेखलय सौरये नमः ॥

इति: श्रीशनैश्चरमालामन्त्रः॥ 

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