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अङ्गारकस्तोत्रम्

अङ्गारकस्तोत्रम्

अङ्गारकस्तोत्रम् - भारतीय ज्योतिष में मंगल इसी नाम के ग्रह के लिये प्रयोग किया जाता है। इस ग्रह को अंगारक (यानि अंगारे जैसा रक्त वर्ण), भौम (यानि भूमि पुत्र) भी कहा जाता है। मंगल युद्ध का देवता कहलाता है और कुंवारा है। यह ग्रह मेष एवं वृश्चिक राशियों का स्वामी कहलाता है। मंगल रुचक महापुरुष योग या मनोगत विज्ञान का प्रदाता माना जाता है। इसे रक्त या लाल वर्ण में दिखाया जाता है एवं यह त्रिशूल, गदा, पद्म और भाला या शूल धारण किये दर्शाया जाता है। इसका वाहन भेड़ होता है एवं सप्तवारों में यह मंगलवार का शासक कहलाता है।

एक समय जब कैलाश पर्वत पर भगवान शिव समाधि में ध्यान लगाये बैठे थे, उस समय उनके ललाट से तीन पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिरीं। इन बूंदों से पृथ्वी ने एक सुंदर और प्यारे बालक को जन्म दिया, जिसके चार भुजाएं थीं और वय रक्त वर्ण का था। इस पुत्र को पृथ्वी ने पालन पोषण करना शुरु किया। तभी भूमि का पुत्र होने के कारण यह भौम कहलाया।

कुछ बड़ा होने पर मंगल काशी पहुंचा और भगवान शिव की कड़ी तपस्या की। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे मंगल लोक प्रदान किया। मंगल लोक शुक्र लोक, शुक्र के निवास स्थान से भी ऊपर स्थित था। यही भौम सूर्य के परिक्रमा करते ग्रहों में मंगल ग्रह के स्थाण पर सुशोभित हुआ।

भारतीय ज्योतिष में मंगल ग्रह को प्रथम श्रेणी का हानिकारक माना जाता है। यह मेष राशि एवं वृश्चिक राशि का स्वामी होता है। इसके अलावा मंगल मकर राशि में उच्च भाव में तथा कर्क राशि में नीच भाव में कहलाता है। सूर्य, चंद्र एवं बृहस्पति इसके सखा या शुभकारक ग्रह कहलाते हैं एवं बुध इसका विरोधी ग्रह कहलाता है। शुक्र एवं शनि अप्रभावित या सामान्य रहते हैं।

मंगल ग्रह शारीरिक ऊर्जा, आत्मविश्वास और अहंकार, ताकत, क्रोध, आवेग, वीरता और साहसिक प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह रक्त, मांसपेशियों और अस्थि मज्जा पर शासन करता है। मंगल लड़ाई, युद्ध और सैनिकों के साथ भी जुड़ा हुआ है।

मंगल तीन चंद्र नक्षत्रों का भी स्वामी है: मृगशिरा, चित्रा एवं श्राविष्ठा या धनिष्ठा। मंगल से संबंधित वस्तुएं हैं: राक्त वर्ण, पीतल धातु, मूंगा, आदि। इसका तत्त्व अग्नि होता है एवं यह दक्षिण दिशा और ग्रीष्म काल से संबंधित है। 

अब यहाँ मंगल दोषों को मिटानेवाला अङ्गारकस्तोत्रम् श्रवण करेंगे।

अङ्गारकस्तोत्रम्

अङ्गारकस्तोत्रम्

अस्य श्री अङ्गारकस्तोत्रस्य । विरूपाङ्गिरस ऋषिः । अग्निर्देवता ।

गायत्री छन्दः । भौमप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।

अङ्गारकः शक्तिधरो लोहिताङ्गो धरासुतः ।

कुमारो मङ्गलो भौमो महाकायो धनप्रदः ॥ १॥

ऋणहर्ता दृष्टिकर्ता रोगकृद्रोगनाशनः ।

विद्युत्प्रभो व्रणकरः कामदो धनहृत् कुजः ॥ २॥

सामगानप्रियो रक्तवस्त्रो रक्तायतेक्षणः ।

लोहितो रक्तवर्णश्च सर्वकर्मावबोधकः ॥ ३॥

रक्तमाल्यधरो हेमकुण्डली ग्रहनायकः ।

नामान्येतानि भौमस्य यः पठेत्सततं नरः ॥ ४॥

ऋणं तस्य च दौर्भाग्यं दारिद्र्यं च विनश्यति ।

धनं प्राप्नोति विपुलं स्त्रियं चैव मनोरमाम् ॥ ५॥

वंशोद्द्योतकरं पुत्रं लभते नात्र संशयः ।

योऽर्चयेदह्नि भौमस्य मङ्गलं बहुपुष्पकैः ॥ ६॥

सर्वा नश्यति पीडा च तस्य ग्रहकृता ध्रुवम् ॥ ७॥

॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे अङ्गारकस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

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