ब्राह्मणगीता ६
आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ५ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ६ में पंच चातुहोम यज्ञ का वर्णन हैं ।
ब्राह्मणगीता ६
कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति
कर्तृकर्मादिप्रतिपादकब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।।
ब्राह्मण उवाच।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम्।
चातुर्होत्रविधानस्य विधानमिह
यादृशम्।। 1
तस्य सर्वस्य
विधिवद्विधानमुपदेक्ष्यते।
शृणु मे गदतो भद्रे
रहस्यमिदमुद्भुतम्।। 2
करणं कर्म कर्ता च मोक्ष इत्येव
भामिनि।
चत्वार एते होतारो यैरिदं
जगदावृतम्।। 3
होतॄणां साधनं चैव शृणु सर्वमशेषतः।
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्च
श्रोत्रं च पञ्चमम्।
मनो बुद्धिश्च सप्तैते ज्ञेयाः
कारणहेतवः।। 4
गन्धो रसश्च रूपं च शब्दः स्पर्शश्च
पञ्चमः।
मन्तव्यमवबोद्धव्यं सप्तैते
कर्महेतवः।। 5
घ्राता भक्षयिता द्रष्टा स्प्रष्टा
श्रोता च पञ्चमः।
मन्ता बोद्धा च सप्तैते विज्ञेयाः
कर्तृहेतवः।। 6
स्वगुणान्भक्षयन्त्येते गुणवन्तः
शुभाशुभान्।
असन्तो निर्गुणाश्चैते सप्तैते
मोक्षहेतवः।। 7
विदुषां बुध्यमानानां स्वंस्वं
स्थानं यथाविधि।
गुणास्ते देवता भूत्वा सततं भुञ्जते
हविः।। 8
`अदन्हवींषि चान्नानि ममत्वेन
विहन्यते।'
आत्मार्थे पाचयन्नन्नं
ममत्वेनोपहन्यते।। 9
अभक्ष्यभक्षणं चैव मद्यपानं च हन्ति
तम्।
स चान्नं हन्ति तं चान्नं स हत्वा
हन्यते पुनः।। 10
हन्ता ह्यन्नमिदं
विद्वान्पुनर्जनयतीश्वरः।
न चान्नाज्जायते तस्मिन्सूक्ष्मो
नाम व्यतिक्रमः।। 11
मनसा मन्यते यच्च यच्च वाचा
निगद्यते।
श्रोत्रेण श्रूयते यच्च चक्षुषा
यच्च दृश्यते।। 12
स्पर्शेन स्पृश्यते यच्च घ्राणेन
घ्रायते च यत्।
मनस्येतानि संयम्य हवींष्येतानि
सर्वशः।। 13
गुणवत्पावको मह्यं दीप्यतेऽन्तःशरीरगः।
योगयज्ञः प्रवृत्तो मे ज्ञानं
ब्रह्ममयो हविः। 14
प्राणस्तोत्रोऽपानशस्त्रः
सर्वत्यागसुदक्षिणः।।
कर्ताऽनुमन्ता ब्रह्मात्मा
होताऽध्वर्युः कृतस्तुतिः
ऋतं प्रशास्ता तच्छस्त्रमपवर्गोऽस्य
दक्षिणा।। 15
ऋचश्चाप्यत्र शंसन्ति नारायणविदो
जनाः।
नारायणाय देवाययदविन्दन्पशून्पुरा।।
16
तत्र सामानि गायन्ति तत्र
चाहुर्निदर्शनम्।
देवं नारायणं भीरु सर्वात्मानं
निबोध तम्।। 17
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता ६ षडिंशोऽध्यायः।। 26 ।।
ब्राह्मणगीता ६ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! इसी विषय
में चार होताओं से युक्त या का जैसा विधान है, उसको
बताने वाले इस प्राचीन इतिहासस का उदाहरण दिया करते हैं। भद्रे! उस सबके विधि
विधान का उपदेश किया जाता है। तुम मेरे मुख से इस अद्भुत रहस्य को सुनो। भाविनि!
करण, कर्म, कर्ता और मोक्ष- ये चार
होता हैं, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत् आवृत है। इनके जो
हेतु हैं, उन्हें युक्तियों द्वारा सिद्ध किया जाता है। वह
सब पूर्णरूप से सुनो। घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा, पाँचवाँ कान तथा
मन और बुद्धि- ये सात कारण रूप हेतु गुणमय जानने चाहिये । गन्ध, रस, रूप, शब्द, पाँचवां स्पर्श तथा मन्तव्य और बोद्धव्य- ये सात विषय कर्मरूप हेतु हैं।
सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला,
बोलने वाला, पाँचवाँ सुनने वाला तथा मनन करने
वाला और निश्चयात्मक बोध प्राप्त करने वाला- ये सात कर्तारूप हेतु हैं। ये प्राण
आदि इन्द्रियाँ गुणवान हैं, अत: अपने शुभाशुभ विषयों रूप
गुणों का उपभोग करती हैं। मैं निर्गुण और अनन्त हूँ, (इनसे
मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, यह समझ लेने पर) ये सातों- घ्राण
आदि मोक्ष के हेतु होते हैं। विभिन्न विषयों का अनुभव करने वाले विद्वानों के
घ्राण आदि अपने अपने स्थान को विधिपूर्वक जानते हैं और देवता रूप होकर सदा हविष्य
का भोग करते हैं। अज्ञानी पुरुष अन्न भोजन करते समय उसके प्रति ममत्व से युक्त हो
जाता है। इसी प्रकार जो अपने लिये भोजन पकाता है, वह भी
ममत्व दोष से मारा जाता हैं। वह अभक्ष्य भक्षण और मद्यपान जैसे दुर्व्यसनों को भी
अपना लेता है, जो उसके लिये घातक होते हैं। वह भक्षण के
द्वारा उस अन्न की हत्या करता है और उसकी हत्या करके वह स्वयं भी उसके द्वारा मारा
जाता है। जो विद्वान् इस अन्न को खाता है, अर्थात अन्न से
उपलक्षित समस्त प्रपंच को अपने आप में लीन कर देता है, वह
ईश्वर सर्व समर्थ होकर पुन: अन्न आदि का जनक होता है। उस अन्न से उस विद्वान्
पुरुष में कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष भी नहीं उत्पन्न होता। जो मन से अवगत होता
है, वाणी द्वारा जिसका कथन होता है, जिसे
कान से सुना और आँख से देखा जाता है, जिसको त्वाचा से छूआ और
नासिका से सूँघा जाता है। इन मन्तव्य आदि छहों विषय रूपी हविष्यों का मन आदि छहों
इन्द्रियों के संयमपूर्वक अपने आप में होम करना चाहिये। उस होम के अधिष्ठानभूत
गुणवान् पावकरूप परमात्मा का मेरे तन मन के भीतर प्रकाशित हो रहे हैं। मैंने योग
रूपी यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया है। इस यज्ञ का उद्भव ज्ञानरूपी अग्रि को
प्रकाशित करने वाला है। इसमें प्राण ही स्तोत्र है, अपान
शस्त्र है और सर्वस्व का त्याग ही उत्तम दक्षिणा है। कर्ता (अंहकार), अनुमन्ता (मन) और आत्मा (बुद्धि)- ये तीनों ब्रह्मरूप होकर क्रमश: होता,
अध्वर्यु और उद्गाता हैं। सत्यभाषण ही प्रशास्ता का शस्त्र है और
अपवर्ग (मोक्ष) ही उस यज्ञ की दक्षिणा है।
नारायण को जानने वाले पुरुष इस योग
यज्ञ के प्रमाण में ऋचाओं का भी उल्लेख करते हैं। पूर्वकाल में भगवान नारायण देव
की प्राप्ति के लिये भक्त पुरुषों ने इन्द्रियरूपी पशुओं को अपने अधीन किया था।
भगवत्प्राप्ति हो जाने पर परमानन्द से परिपूर्ण हुए सिद्ध पुरुष जो सामगान करते
हैं,
उसका दृष्टान्त तैत्तिरीय उपनिषद के विद्वान् ‘एतत् सामगायन्नास्ते’ इत्यादि मंत्रों के रूप में
उपस्थित करते हैं। भीरू! तुम उस सर्वात्मा भगवान नारायणदेव का ज्ञान प्राप्त करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत
आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता ६ विषयक २६वाँ अध्याय
पूरा हुआ।
शेष जारी.................ब्राह्मणगीता ७
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