ब्राह्मणगीता ३
आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता के १ व २ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ३ में वह ब्राह्मण अपनी स्त्री को मन-बुद्धि और इन्द्रिय रूप सप्त होताओं का, यज्ञ तथा मन- इन्द्रिय संवाद का वर्णन कर रहे हैं ।
ब्राह्मणगीता ३
ब्राह्मण उवाच।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम्।
सुभगे सप्तहोतॄणां विधानमिह
यादृशम्।।
घ्राणश्चक्षुश्च जिह्वा च त्वक्
श्रोत्रं चैव पञ्चमम्।
मनो बुद्धिश्च सप्तैते होतारः
पृथगाश्रिताः।।
सूक्ष्माकाशे समं प्राप्ते न
पश्यन्तीतरेतरम्।
एतद्वै सप्तहोतृत्वं
स्वभावाद्विद्धि शोभने।।
ब्राह्मण्युवाच।
सूक्ष्मे तु काशे सम्प्राप्ते कथं
नान्योन्यदर्शिनः।
कथं स्वभावाद्भगवन्नेतदाचक्ष्व मे
प्रभो।।
ब्राह्मण उवाच।
गुणज्ञानेषु विज्ञानं
गुणज्ञानामभिज्ञता।
परस्परं गुणानेते नाभिजानन्ति
कर्हिचित्।।
जिह्वा चक्षुस्तथा श्रोत्रं
त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न गन्धानधिगच्छन्ति
घ्राणस्तानधिगच्छति।।
घ्राणं चक्षुस्तथा क्षोत्रं
त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न रसानधिगच्छन्ति जिह्वा
तानधिगच्छति।।
घ्राणं जिह्वा तथा श्रोत्रं
त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न रूपाण्यधिगच्छन्ति
चक्षुस्तान्यधिगच्छति।।
घ्राणं जिह्वा ततश्चक्षुः श्रोत्रं
बुद्धिर्मनस्तथा।
न स्पर्शानधिगच्छन्ति त्वक्च
तानधिगच्छति।।
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वङ्मनो
बुद्धिरेव च।
न शब्दानधिगच्छन्ति श्रोत्रं
तानधिगच्छति।।
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्
श्रोत्रं बुद्धिरेव च।
सङ्कल्पान्नाधिगच्छन्ति
मनस्तानधिगच्छति।।
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्
श्रोत्रं मन एव च।
न निष्ठामधिगच्छन्ति
बुद्धिस्तामधिगच्छति।।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम्।
इन्द्रियाणां च संवादं मनसश्चैव
भामिनि।।
मन उवाच।
नाघ्राति मामृते घ्राणं रसं जिह्वा
न वेत्ति च।
रूपं चक्षुर्न गृह्णाति त्वक्
स्पर्सं नावबुध्यते।।
न श्रोत्रं बुध्यते शब्दं मया हीनं
कथञ्चन।
प्रवरं सर्वबूतानामहमस्मि सनातनम्।।
अगाराणीव शून्यानि शान्तार्चिष
इवाग्नयः।
इन्द्रियाणि न भासन्ते मया हीनानि
नित्यशः।।
काष्ठानीवार्द्रशुष्काणि
यतमानैरपीन्द्रियैः।
गुणार्थान्नाधिगच्छन्ति मामृते
सर्वजन्तवः।।
इन्द्रियाण्यूचुः।
एवमेतद्भवेत्सत्यं यथैतन्मन्यते
भवान्।
ऋतेऽस्मानस्मदर्थांस्त्वं
भोगान्भुङ्क्ते भवान्यदि।।
यद्यस्मासु प्रलीनेषु तप्रणं
प्राणधारणम्।
भोगान्भुङ्क्ते भवान्सत्यं
यथैतन्मन्यते तथा।।
अथवाऽस्मासु लीनेषु तिष्ठत्सु
विषयेषु च।
यदि सङ्कल्पमात्रेण भुङ्क्ते
भोगान्यथार्थवत्।।
अथ चेन्मन्यसे सिद्धिमस्मदर्थेषु
नित्यदा।
घ्राणेन रूपमादत्स्व रसमादत्स्व
चक्षुषा।।
श्रोत्रेण गन्धानादत्स्व
स्पर्शानादत्स्व जिह्वया।
त्वचा च शब्दमादत्स्व बुद्ध्या
स्पर्शमथापि च।।
बलवन्तो ह्यनियमा नियमा
दुर्बलीयसाम्।
भोगानपूर्वानादत्स्व नोच्छिष्टं
भोक्तुमर्हति।।
यथा हि शिष्यः शास्तारं
श्रुत्यर्थमभिधावति।
ततः श्रुतमुपादाय
श्रुतार्थमुपतिष्ठति।।
विषयानेवमस्माभिर्दर्शितानभिमन्यसे।
अनुभूतानतीतांश्च स्वप्ने जागरणे
तथा।।
वैमनस्यं गतानां च
जन्तूनामल्पचेतसाम्।
अस्मदर्थे कृते दृश्यते
प्राणधारणम्।।
बहूनपि हि सङ्कल्पान्मत्वा
स्वप्नानुपास्य च।
बुभुक्षया पीड्यमानो विषयानेन
धावति।।
अगारमद्वारमिव प्रविश्य
सङ्कल्पभोगान्विषयानविन्दन्।
प्राणक्षये शान्तिमुपैति नित्यं
दारुक्षयेऽग्निर्ज्वलितो यथैव।।
कामं तु नष्टेषु गुणेषु सङ्गः
कामं च नान्योन्यगुणोपलब्धिः।
अस्मान्विना नास्ति तपोपलब्धि-
स्तामप्यृते त्वां न
भजेत्प्रहर्षः।।
।। इति श्रीमन्महाभारते
आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता ३ विषयक त्रयोविंशोऽध्यायः।। 23 ।।
ब्राह्मणगीता ३ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने कहा- सुभगे! इसी विषय
में इस पुरातन इतिहास का भी उदाहरण दिया जाता है। सात होताओं के यज्ञ का जैसा
विधान है,
उसे सुनो। नासिका, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और पाँचवाँ कान, मन और बुद्धि- ये सात होता अलग-अलग रहते हैं। यद्यपि ये सभी सूक्षम शरीर
में ही निवास करते हैं तो भी एक दूसरे को नहीं देखते हैं। शोभने! इन सात होताओं को
तुम स्वभाव से ही पहचानों। ब्राह्मणी ने पूछा- भगवन! जब सभी सूक्षम शरीर में ही
रहते हैं, तब एक दूसरे को देख क्यों नहीं पाते? प्रभो! उनके स्वभाव कैसे हैं? यह बताने की कृपा
करें। ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! (यहाँ देखने का अर्थ है, जानना)
गुणों को न जानना ही गणुवान को न जानना कहलाता है और गुणों को जानना ही गुणवान को
जानना है। ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं
(इसीलिये कहा गया है कि ये एक दूसरे को नहीं देखते हैं)। जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु
नासिका उसका अनुभव करती है। नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि-
ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है। नासिका,
जीभ, कान, त्वचा,
मन और बुद्धि- ये रूप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु नेत्र इनका अनुभव करते हैं। नासिका, जीभ,
आँख, कान, बुद्धि और मन-
ये स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते, किंतु त्वचा को उसका ज्ञान
होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, मन और बुद्धि- इन्हें शब्द का ज्ञान नहीं
होता है, किंतु कान को होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान और बुद्धि- ये संशय (संकल्प-विकल्प) नहीं कर सकते। यह काम मन का है।
इसी प्रकार नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान, और मन- वे किसी
बात का निश्चय नहीं कर सकते। निश्चयात्मक ज्ञान तो केवल बुद्धि को होता है।
भामिनि! इस विषय में इन्द्रियों और मन के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण
दिया जाता है। एक बार मन ने इन्द्रियों से कहा- मेरी सहायता के बिना नासिका सूँघ
नहीं सकती, जीभ रस का स्वाद नहीं ले सकती, आँख रूप नहीं देख सकती, त्वचा स्पर्श का अनुभव नहीं
कर सकती और कानों को शब्द नहीं सुनायी दे सकता। इसलिये मैं सब भूतों में श्रेष्ठ
और सनातन हूँ। ‘मेरे बिना समस्त इन्द्रियाँ बुझी लपटों वाली
आग और सूने घर की भाँति सदा श्रीहीन जान पड़ती हैं।
संसार के सभी जीव इन्द्रियों के
यत्न करते रहने पर भी मेरे बिना उसी प्रकार विषयों का अनुभव नहीं कर सकते,
जिस प्रकार कि सूखे गीले काष्ठ कोई अनुभव नहीं कर सकते। यह सुनकर
इन्द्रियों ने कहा- महोदय! यदि आप भी हमारी सहायता लिये बिना ही विषयों का अनुभव
कर सकते तो हम आपकी इस बात को सच मान लेतीं। हमारा लय हो जाने पर भी आप तृप्त रह
सकें, जीवन धारण कर सकें और सब प्रकार के भोग भोग सकें तो आप
जैसा कहते और मानते हैं, वह सब सत्य हो सकता है। अथवा हम सब
इन्द्रियाँ हो जायँ या विषयों में स्थित रहें, यदि आप अपने
संकल्प मात्र से विषयों का यथार्थ अनुभव करने की शक्ति रखते हैं और आपको ऐसा करने
में सदा ही सफलता प्राप्त होती है तो जरा नाक के द्वारा रूप का तो अनुभव कीजिये,
आँख से रस का तो स्वाद लीजिये और कान के द्वारा गन्धों को तो ग्रहण
कीजिये। इसी प्रकार अपनी शक्ति से जिह्वा के द्वारा स्पर्श का, त्वचा के द्वारा शब्द का और बुद्धि के द्वारा स्पर्श का तो अनुभव कीजिये।
आप जैसे बलवान लोग नियमों के बन्धन में नहीं रहते, नियम तो
दुर्बलों के लिये होते हैं। आप नये ढंग से नवीन भोगों का अनुभव कीजिये। हम लोगों
की जूठन खाना आपको शोभा नहीं देता। जैसे शिष्य श्रुति के अर्थ को जानने के लिये
उपदेश करने वाले गुरु के पास जाता है और उनसे श्रुति के अर्थ का ज्ञान प्राप्त
करके फिर स्वयं उसका विचार और अनुसरण करता है, वैसे ही आप
सोते और जागते समय हमारे ही दिखाये हुए भूत और भविष्य विषयों का उपभोग करते हैं।
जो मनरहित मन्दबुद्धि प्राणी हैं, उनमें भी हमारे लिये ही
कार्य किये जाने पर प्राण धारण देखा जाता है। बहुत से संकल्पों का मनन और स्वप्नों
का आश्रय लेकर भोग भोगने की इच्छा से पीड़ित हुआ प्राणी विषयों की ओर ही दौड़ता
है। विषय वासना से अनुविद्ध संकल्प जनित भोगों का उपभोग करके प्राणशक्ति के क्षीण
होने पर मनुष्य बिना दरवाजे के घर में घुसे हुए मनुष्य की भाँति उसी तरह शान्त हो
जाता है, जैसे समिधाओं के जल जाने पर प्रज्वलित अग्रि स्वयं
ही बुझ जाती है। भले ही हम लोगों की अपने-अपने गुणों के प्रति आसक्ति हो और भले ही
हम परस्पर एक दूसरे के गुणों को न जान सकें, किंतु यह बात
सत्य है कि आप हमारी सहायता के बिना किसी भी विषय का अनुभव नहीं कर सकते। आपके
बिना तो हमें केवल हर्ष से ही वंचित होना पड़ता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिपर्व
के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता ३ विषयक २३वां अध्याय पूरा हुआ।
शेष जारी......... ब्राह्मणगीता ४
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