Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2021
(800)
-
▼
May
(109)
- शनिरक्षास्तवः
- शनैश्चरस्तवराजः
- शनैश्चरस्तोत्रम्
- शनिस्तोत्रम्
- शनि स्तोत्र
- महाकाल शनि मृत्युंजय स्तोत्र
- शनैश्चरमालामन्त्रः
- शनिमङ्गलस्तोत्रम्
- शनि कवच
- शनि चालीसा
- शनिस्तुति
- शुक्रमङ्गलस्तोत्रम्
- शुक्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- शुक्रकवचम्
- शुक्रस्तवराज
- शुक्रस्तोत्रम्
- श्रीगुर्वाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- बृहस्पतिमङ्गलस्तोत्रम्
- बृहस्पतिस्तोत्रम्
- बृहस्पतिकवचम्
- बुधमङ्गलस्तोत्रम्
- बुधाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- बुधकवचम्
- बुधपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम्
- बुधस्तोत्रम्
- ऋणमोचन स्तोत्र
- श्रीअङ्गारकाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- मङ्गलकवचम्
- अङ्गारकस्तोत्रम्
- मंगल स्तोत्रम्
- भौममङ्गलस्तोत्रम्
- चन्द्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- चन्द्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
- चन्द्राष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्
- सोमोत्पत्तिस्तोत्रम्
- चन्द्रमङ्गलस्तोत्रम्
- चन्द्रकवचम्
- चन्द्रस्तोत्रम्
- सूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
- सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
- सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
- आदित्यस्तोत्रम्
- सूर्यमण्डलस्तोत्रम्
- आदित्य हृदय स्तोत्र
- सूर्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- सूर्याष्टक
- सूर्याष्टकम्
- सूर्यकवच
- सूर्यकवचम्
- सूर्यस्तोत्र
- सूर्यस्तोत्रम्
- सूर्योपनिषद्
- सूर्यस्तुती
- हंसगीता २
- हंसगीता १
- ब्राह्मणगीता १५
- ब्राह्मणगीता १४
- ब्राह्मणगीता १३
- ब्राह्मणगीता १२
- ब्राह्मणगीता ११
- ब्राह्मणगीता १०
- ब्राह्मणगीता ९
- ब्राह्मणगीता ८
- ब्राह्मणगीता ७
- ब्राह्मणगीता ६
- ब्राह्मणगीता ५
- ब्राह्मणगीता ४
- ब्राह्मणगीता ३
- ब्राह्मणगीता २
- ब्राह्मणगीता १
- अनुगीता ४
- अनुगीता ३
- अनुगीता २
- अनुगीता १
- नारदगीता
- लक्ष्मणगीता
- अपामार्जन स्तोत्र
- गर्भ गीता
- गीता माहात्म्य अध्याय १८
- गीता माहात्म्य अध्याय १७
- गीता माहात्म्य अध्याय १६
- गीता माहात्म्य अध्याय १५
- गीता माहात्म्य अध्याय १४
- गीता माहात्म्य अध्याय १३
- गीता माहात्म्य अध्याय १२
- गीता माहात्म्य अध्याय ११
- गीता माहात्म्य अध्याय १०
- गीता माहात्म्य अध्याय ९
- गीता माहात्म्य अध्याय ८
- गीता माहात्म्य अध्याय ७
- गीता माहात्म्य अध्याय ६
- गीता माहात्म्य अध्याय ५
- गीता माहात्म्य अध्याय ४
- गीता माहात्म्य अध्याय ३
- गीता माहात्म्य अध्याय २
- गीता माहात्म्य अध्याय १
- गीता माहात्म्य
- श्रीमद्भगवद्गीता
- गरुडोपनिषत्
-
▼
May
(109)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवता
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अनुगीता ३
आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - महाभारत के आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) में अनुगीता नाम से क्रमशः अध्याय १६,१७,१८ व १९ में दिया गया है। अब आगे अष्टादश (18) अध्याय अनुगीता ३ में जीवन के गर्भ-प्रवेश, आचार-धर्म, कर्म-फल की अनिवार्यता तथा संसार से तरने के उपाय का वर्णन है। यहाँ इसका श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है।
अनुगीता ३ अध्यायः १८
सिद्ध ब्राह्मण उवाच
शुभानामशुभानां च नेह नाशोऽस्ति
कर्मणाम् ।
प्राप्य प्राप्य तु पच्यन्ते
क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा ॥ १॥
यथा प्रसूयमानस्तु फली दद्यात्फलं
बहु ।
तथा स्याद्विपुलं पुण्यं शुद्धेन
मनसा कृतम् ॥ २॥
पापं चापि तथैव स्यात्पापेन मनसा
कृतम् ।
पुरोधाय मनो हीह कर्मण्यात्मा
प्रवर्तते ॥ ३॥
यथा कत्म समादिष्टं काममन्युसमावृतः
।
नरो गर्भं प्रविशति तच्चापि श्रृणु
चोत्तरम् ॥ ४॥
शुक्रं शोणितसंसृष्टं स्त्रिया
गर्भाशयं गतम् ।
क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि
वाशुभम् ॥ ५॥
सौक्ष्म्यादव्यक्तभावाच्च न स क्व
चन सज्जते ।
सम्प्राप्य ब्रह्मणः कायं
तस्मात्तद्ब्रह्म शाश्वतम् ।
तद्बीजं सर्वभूतानां तेन जीवन्ति
जन्तवः ॥ ६॥
स जीवः सर्वगात्राणि गर्भस्याविश्य
भागशः ।
दधाति चेतसा सद्यः
प्राणस्थानेष्ववस्थितः ।
ततः स्पन्दयतेऽङ्गानि स
गर्भश्चेतनान्वितः ॥ ७॥
यथा हि लोहनिष्यन्दो निषिक्तो
बिम्बविग्रहम् ।
उपैति तद्वज्जानीहि गर्भे जीव
प्रवेशनम् ॥ ८॥
लोहपिण्डं यथा वह्निः
प्रविशत्यभितापयन् ।
तथा त्वमपि जानीहि गर्भे
जीवोपपादनम् ॥ ९॥
यथा च दीपः शरणं दीप्यमानः
प्रकाशयेत् ।
एवमेव शरीराणि प्रकाशयति चेतना ॥
१०॥
यद्यच्च कुरुते कर्म शुभं वा यदि
वाशुभम् ।
पूर्वदेहकृतं सर्वमवश्यमुपभुज्यते ॥
११॥
ततस्तत्क्षीयते चैव
पुनश्चान्यत्प्रचीयते ।
यावत्तन्मोक्षयोगस्थं धर्मं
नैवावबुध्यते ॥ १२॥
तत्र धर्मं प्रवक्ष्यामि सुखी भवति
येन वै ।
आवर्तमानो जातीषु तथान्योन्यासु
सत्तम ॥ १३॥
दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं
यथोक्तव्रतधारणम् ।
दमः प्रशान्तता चैव भूतानां
चानुकम्पनम् ॥ १४॥
संयमश्चानृशंस्यं च परस्वादान
वर्जनम् ।
व्यलीकानामकरणं भूतानां यत्र सा
भुवि ॥ १५॥
मातापित्रोश्च शुश्रूषा
देवतातिथिपूजनम् ।
गुरु पूजा घृणा शौचं
नित्यमिन्द्रियसंयमः ॥ १६॥
प्रवर्तनं शुभानां च तत्सतां
वृत्तमुच्यते ।
ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति
शाश्वतीः ॥ १७॥
एवं सत्सु सदा पश्येत्तत्र ह्येषा
ध्रुवा स्थितिः ।
आचारो धर्ममाचष्टे यस्मिन्सन्तो
व्यवस्थिताः ॥ १८॥
तेषु तद्धर्मनिक्षिप्तं यः स धर्मः
सनातनः ।
यस्तं समभिपद्येत न स
दुर्गतिमाप्नुयात् ॥ १९॥
अतो नियम्यते लोकः प्रमुह्य
धर्मवर्त्मसु ।
यस्तु योगी च मुक्तश्च स एतेभ्यो
विशिष्यते ॥ २०॥
वर्तमानस्य धर्मेण पुरुषस्य यथातथा
।
संसारतारणं ह्यस्य कालेन महता भवेत्
॥ २१॥
एवं पूर्वकृतं कर्म सर्वो
जन्तुर्निषेवते ।
सर्वं तत्कारणं येन निकृतोऽयमिहागतः
॥ २२॥
शरीरग्रहणं चास्य केन पूर्वं
प्रकल्पितम् ।
इत्येवं संशयो लोके तच्च
वक्ष्याम्यतः परम् ॥ २३॥
शरीरमात्मनः कृत्वा सर्वभूतपितामहः
।
त्रैलोक्यमसृजद्ब्रह्मा कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम्
॥ २४॥
ततः प्रधानमसृजच्चेतना सा शरीरिणाम्
।
यया सर्वमिदं व्याप्तं यां लोके
परमां विदुः ॥ २५॥
इह तत्क्षरमित्युक्तं परं
त्वमृतमक्षरम् ।
त्रयाणां मिथुनं सर्वमेकैकस्य
पृथक्पृथक् ॥ २६॥
असृजत्सर्वभूतानि पूर्वसृष्टः
प्रजापतिः ।
स्थावराणि च भूतानि इत्येषा
पौर्विकी श्रुतिः ॥ २७॥
तस्य कालपरीमाणमकरोत्स पितामहः ।
भूतेषु परिवृत्तिं च पुनरावृत्तिमेव
च ॥ २८॥
यथात्र कश्चिन्मेधावी दृष्टात्मा
पूर्वजन्मनि ।
यत्प्रवक्ष्यामि तत्सर्वं
यथावदुपपद्यते ॥ २९॥
सुखदुःखे सदा सम्यगनित्ये यः
प्रपश्यति ।
कायं चामेध्य सङ्घातं विनाशं कर्म
संहितम् ॥ ३०॥
यच्च किं चित्सुखं तच्च सर्वं
दुःखमिति स्मरन् ।
संसारसागरं घोरं तरिष्यति
सुदुस्तरम् ॥ ३१॥
जाती मरणरोगैश्च समाविष्टः
प्रधानवित् ।
चेतनावत्सु चैतन्यं समं भूतेषु
पश्यति ॥ ३२॥
निर्विद्यते ततः कृत्स्नं मार्गमाणः
परं पदम् ।
तस्योपदेशं वक्ष्यामि याथातथ्येन
सत्तम ॥ ३३॥
शाश्वतस्याव्ययस्याथ पदस्य
ज्ञानमुत्तमम् ।
प्रोच्यमानं मया विप्र
निबोधेदमशेषतः ॥ ३४॥
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि
अनुगीतापर्वणि षोडषोऽश्द्यायः ॥
अनुगीता ३ हिन्दी अनुवाद
सिद्ध ब्राह्मण बोले- काश्यप! इस
लोक में किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगे बिना नाश नहीं होता। वे कर्म
वैसा-वैसा कर्मानुसार एक के बाद एक शरीर धारण कराकर अपना फल देते रहते हैं। जैसे
फल देने वाला वृक्ष फलने का समय आने पर बहुत से फल प्रदान करता है,
उसी प्रकार शुद्ध हृदय से किये हुए पुण्य का फल अधिक होता है। इसी
तरह कलुषित चित्त से किये हुए पाप के फल में भी वृद्धि होती है, क्योंकि जीवात्मा मन को आगे करके ही प्रत्येक कार्य में प्रवृत होता है।
काम क्रोध से घिरा हुआ मनुष्य जिस प्रकार कर्मजाल में आबद्ध गर्भ में प्रवेश करता
है, उसका भी उत्तर सुनो। जीव पहले पुरुष के वीर्य में
प्रविष्ट होता है, फिर स्त्री के गर्भाशय में जाकर उसके रज
में मिल जाता है। तत्पश्चात उसे कर्मानुसार शुभ या अशुभ शरीर की प्राप्ति होती है।
जीव अपनी इच्छा के अनुसार उस शरीर में प्रवेश करके सूक्ष्म और अव्यक्त होने के
कारण कहीं आसक्त नहीं होता है, क्योंकि वास्वत में वह सनातन
परब्रह्म स्वरूप है। वह जीवात्मा सम्पूर्ण भूतों की स्थिति का हेतु है, क्योंकि उसी के द्वारा सब प्राणी जीवित रहते हैं। वह जीव गर्भ के समस्त
अंग में प्रविष्ट हो उसके प्रत्येक स्थान वक्ष:स्थल में स्थित हो समस्त अंगों का
संचालन करता है। तभी वह गर्भ चेतना से सम्पन्न होता है। जैसे तपाये हुए लोहे का
द्रव जैसे साँचे में ढाला जाता है उसी का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है, ऐसा
समझो। (अर्थात जीव जिस प्रकार की योनि में प्रविष्ट होता है, उसी रूप में उसका शरीर बन जाता है)। जैसे आग लोहपिण्ड में प्रविष्ट होकर
उसे बहुत तपा देती है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश
होता है और वह उसमें चेतनता ला देता है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। जिस
प्रकार जलता हुआ दीपक समूचे घर में प्रकाश फैलाता है, उसी
प्रकार जीव की चैतन्य शक्ति शरीर के सब अवयवों को प्रकाशित करती है। मनुष्य शुभ
अथवा जो-जो कर्म करता है, पूर्व जन्म के शरीर से किये गये उन
सब कर्मों का फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। उपभोग से प्राचीन कर्म का तो क्षय होता
है और फिर दूसरे नये-नये कर्मों का संचय बढ़ जाता है। जब तक मोक्ष की प्राप्ति में
सहायक धर्म का उसे ज्ञान नहीं होता, तब तक यह कर्मों की
परम्परा नहीं टूटती है। साधुशिरोमणे! इस प्रकार भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण
करने वाला जीव जिन के अनुष्ठान से सुखी होता है, उन कर्मों
का वर्णन सुनो। दान, व्रत, ब्रह्मचर्य,
शास्त्रोक्त रीति से वेदाध्ययन, इन्द्रियग्रह,
शान्ति, समस्त प्राणियों पर दया, चित्त का संयम, कोमलता, दूसरों
के धन लेने की इच्छा का त्याग, संसार के प्राणियों का मन से
भी अहित न करना, माता-पिता की सेवा, देवता,
अतिथि और गुरुओं की पूजा, दया, पवित्रता, इन्द्रियों को सदा काबू में रखना तथा शुभ
कर्मों का प्रचार करना- यह सब श्रेष्ठ पुरुषों का बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठान
से धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्ग की रक्षा करता है।
सत्पुरुषों में सदा ही इस प्रकार का
धार्मिक आचरण देखा जाता है। उन्हीं में धर्म की अटल स्थिति होती है। सदाचार ही
धर्म का परिचय देता है। शान्तचित्त महात्मा पुरुष सदाचार में ही स्थित रहते हैं।
उन्हीं में पूर्वोक्त दान आदि कर्मों की स्थिति है। वे ही कर्म सनातन धर्म के नाम
से प्रसिद्ध हैं। जो उस सनातन धर्म का आश्रय लेता है,
उसे कभी दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती है। इसीलिये धर्म मार्ग से भ्रष्ट
होने वाले लोगों का नियंत्रण किया जाता है। जो योगी और मुक्त है, वह अन्य धर्मात्माओं की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। जो धर्म के अनुसार
बर्ताव करता है, वह जहाँ जिस अवस्था में हो, वहाँ उसी स्थिति में उसको अपने कर्मानुसार उत्तम फल की प्राप्ति होती है
और वह धीरे-धीरे अधिक काल बीतने पर संसार-सागर से तर जाता है। इस प्रकार जीव सदा
अपने पूर्वजन्मों में किये हुए कर्मों का फल भोगता है। यह आत्मा निर्विकार ब्रह्म
होने पर भी विकृत होकर इस जगत में जो जन्म धारण करता है, उसमें
कर्म ही कारण है।
आत्मा के शरीर धारण करने की प्रथा
सबसे पहले किसने चलायी है, इस प्रकार संदेह
प्राय: लोगों के मन में उठा करता है, अब उसी का उत्तर दे रहा
हूँ। सम्पूर्ण जगत के पितामह ब्रह्मा जी ने सबसे पहले स्वयं ही शरीर धारण करके
स्थावर-जंगम रूप समस्त त्रिलोकी की (कर्मानुसार) रचना की। उन्होंने प्रधान नामक
तत्त्व की उत्पत्ति की, जो देहधारी जीवों की प्रकृति कहलाती
है। जिसने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है तथा लोक में जिसे मूल प्रकृति के
नाम से जानते हैं। यह प्राकृत जगत क्षर कहलाता है, इससे
भिन्न अविनाशी जीवात्मा को अक्षर कहते हैं। (इनसे विलक्षण शुद्ध परब्रह्म हैं)- इन
तीनों से जो दो तत्त्व- क्षर और अक्षर हैं, वे सब प्रत्येक
जीव के लिये पृथक-पृथक होते हैं। श्रुति में जो सृष्टि के आरम्भ में समरूप से
निर्दिष्ट हुए हैं, उन प्रजापति ने समस्त स्थावर भूतों और
जंगम प्राणियों की सृष्टि की है, यह पुरातन श्रुति है।
पितामह ने जीव के लिये नियत समय तक
शरीर धारण किये रहने की, भिन्न-भिन्न
योनियों में भ्रमण करने की और परलोक से लौटकर फिर इस लोक में जन्म लेने आदि की भी
व्यवस्था की है। जिसने पूर्वजन्म में अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया हो,
ऐसा कोई मेधावी अधिकारी पुरुष संसार की अनित्यता के विषयक में जैसी
बात कह सकता है, वैसी ही मैं भी कहूँगा। मेरी कही हुई सारी
बातें यथार्थ और संगत होंगी। जो मनुष्य सुख और दु:ख दोनों को अनित्य समझता है,
शरीर को अपवित्र वस्तुओं का समूह समझता है और मृत्यु को कर्म का फल
समझता है तथा सुख के रूप में प्रतीत होने वाला जो कुछ भी है वह सब दु:ख ही दु:ख है,
ऐसा मानता है, वह घोर एवं दुस्तर संसार सागर
से पार हो जायगा।
जन्म, मृत्यु एवं रोगों से घिरा हुआ जो पुरुष प्रधान तत्त्व (प्रकृति) को जानता
है और समस्त चेतन प्राणियों में चैतन्य को समान रूप से व्याप्त देखता है, व पूर्ण परम पद के अनुसंधान में संलग्न हो जगत के भोगों से विरक्त हो जाता
है। साधुशिरोमणे! उस वैराग्यवान पुरुष के लिये जो हितकर उपदेश है, उसका मैं यथार्थ रूप से वर्णन करूँगा। उसके लिये जो सनातन अविनाशी
परमात्मा का उत्तम ज्ञान अभीष्ट है, उसका मैं वर्णन करता
हूँ। विप्रवर! तुम सारी बातों को ध्यान देकर सुनो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत
आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में अट्ठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
इसके हिन्दी अनुवाद के लिए साभार krishnakosh.org व्यक्त करते हुए, अनुगीता ३ समाप्त।
शेष जारी......... अनुगीता ४
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (37)
- Worship Method (32)
- अष्टक (55)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (27)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (33)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवता (2)
- देवी (192)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (79)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (43)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (56)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (110)
- स्तोत्र संग्रह (713)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: