ब्राह्मणगीता ७

ब्राह्मणगीता ७

आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ६ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ७ में अन्तर्यामी की प्रधानता का वर्णन हैं । 

ब्राह्मणगीता ७

ब्राह्मणगीता ७

कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति प्रजापतिना एकेनैव शब्देन परब्रह्मोपदेशे देवर्ष्यादीनां स्वस्वयोग्यतानुसारेण नानार्थावगमप्रतिपादकब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।। 1 ।।

ब्राह्मण उवाच। 

एकः शास्ता न द्वितीयोस्ति शास्ता

यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि।

तेनैव युक्तः प्रवणादिवोदकं

यथा नियुक्तोस्मि तथा वहामि।।  

एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो

यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि।

तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव

पुरा हता दानवाः सर्व एव।।      

एको बन्धुर्नास्ति ततो द्वितीयो

यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि।

तेनानुशिष्टा बान्धवा बन्धुमन्तः

सप्तर्षयः पार्थ दिवि प्रभान्ति।।    

एकः श्रोता नास्ति ततो द्वितीयो

यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि।

तस्मिन्गुरौ गुरुवासं निरुष्यट

शक्रो गतः सर्वलोकामरत्वम्।।     

एको द्वेष्टा नास्ति ततो द्वितीयो

यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि।

तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव

लोके द्विष्टाः पन्नगाः सर्व एव।।    

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

प्रजापतौ पन्नगानां देवर्षीणां च संविदम्।। 

देवर्षयश्च नागाश्चाप्यसुराश्च प्रजापतिम्।

पर्यपृच्छन्नुपासीनं श्रेयोः नः प्रोच्यतामिति।।         

तेषां प्रोवाच भगवाञ्श्रेयः समनुपृच्छताम्।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ते श्रुत्वा प्राद्रवन्दिशः।।         

तेषां प्रद्रवमाणानामुपदेशं च शृण्वताम्।

सर्पाणां दंशने भावः प्रवृत्तः पूर्वमे तु।।      

असुराणां प्रवृत्तस्तु दंभभावः स्वभावजः।

दानं देवा व्यवसिता दममेव महर्षयः।।     

एकं शास्तारमासाद्य शब्देनैकेन संस्कृताः।

नानाव्यवसिताः सर्वे सर्पदेवर्षिदानवाः।।   

शृणोत्ययं प्रोच्यमानं गृह्णाति च यथातथम्।

पृच्छतस्तदतो भूयो गुरुरन्यो न विद्यते।।  

तस्य चानुमते कर्म ततः पश्चात्प्रवर्तते।

गुरुर्बन्धुश्च शास्ता च द्वेष्टा च हृदि संश्रिताः।।       

पापेन विचरँल्लोके पापचारी भवत्ययम्।

शुभेन विचरँल्लोके शुभचारी भवत्युत।।   

कामचारी तु कामेन य हन्द्रियसुखे रतः।

ब्रह्मचारी सदैवैष य इन्द्रियजये रतः।।     

अपेतव्रतकर्मा तु केवलं ब्रह्मणि स्थितः।

ब्रह्मभूतश्चरँल्लोके ब्रह्मचारी भवत्ययम्।।  

ब्रह्मैव समिधस्तस्य ब्रह्माग्निर्ब्रह्मसंस्तरः।

आपो ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म स ब्रह्मणि समाहितः।। 

एतदेवेदृशं सूक्ष्मं ब्रह्मचर्यं विदुर्बुधाः।

विदित्वा चान्वपद्यन्त क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिताः।।

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता ७ सप्तविंशोऽध्यायः।। 27 ।। 

  

ब्राह्मणगीता ७ हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! जगत् का शासक एक ही है, दूसरा नहीं। जो हृदय के भीतर विराजमान है, उस परमात्मा को ही मैं सबका शासक बतला रहा हूँ। जैसे पानी ढालू स्थान से नीचे की ओर प्रवाहित होता है, वैसे ही उस- परमात्मा की प्रेरणा से मैं जिस तरह के कार्य में नियुक्त होता हूँ, उसी का पालन करता रहता हूँ। एक ही गुरु है दूसरा नहीं। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरु के अनुशासन से समस्त दानव हार गये हैं। एक ही बन्धु है, उससे भिन्न दूसरा कोई बन्धु नहीं है। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं बन्धु कहता हूँ। उसी के उपदेश से बान्धवगण बन्धुमान होते हैं और सप्तर्षि लोग आकाश में प्रकाशित होते हैं। एक ही श्रोता है, दूसरा नहीं। जो हृदय मे स्थित परमात्मा है, उसी को मैं श्रोता कहता हूँ। इन्द्र ने उसी को गुरु मानकर गुरुकुलवास का नियम पूरा किया अर्थात् शिष्य भाव से वे उस अन्तर्यामी की ही शरण में गये। इससे उन्हें सम्पूर्ण लोकों का साम्राज्य और अमरत्व प्राप्त हुआ। एक ही शत्रु है दूसरा नहीं। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरु की प्रेरणा से जगत् के सारे साँप सदा द्वेषभाव से युक्त रहते हैं। पूर्वकाल में सर्पों, देवताओं और ऋषियों की प्रजापति के साथ जो बातचीत हुई थी, उस प्राचीन इतिहास के जानकार लोग उस विषय में उदाहरण दिया करते हैं। एक बार देवता, ऋषि, नाग और असुरों ने प्रजापति के पास बैठकर पूछा- भगवन्! हमारे कल्याण का क्या उपाय है? यह बताइये। कल्याण की बात पूछने वाले उन महानुभावों का प्रश्न सुनकर भगवान प्रजापति ब्रह्माजी ने एकाक्षर ब्रह्म- ॐकार का उच्चारण किया। उनका प्रणवनाद सुनकर सब लोग अपनी अपनी दिशा (अपने अपने स्थान) की ओर भाग चले। फिर उन्होंने उस उपदेश के अर्थ पर जब विचार किया, तब सबसे पहले सर्पों के मन दूसरों के डँसने का भाव पैदा हुआ, असुरों में स्वाभाविक दम्भ का आविर्भाव हुआ था देवताओं ने दान को और महर्षियों ने दम को ही अपनाने का निश्चय किया। इस प्रकार सर्प, देवता, ऋषि और दानव- ये सब एक ही उपदेशक गुरु के पास गये थे और एक ही शब्द के उपदेश से उनकी बुद्धि का संस्कार हुआ तो भी उनके मन में भिन्न भिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न हो गये। श्रोता गुरु के कहे हुए उपदेश को सुनता है और उसको जैसे जैसे (भिन्न भिन्न रूप में) ग्रहण करता है। अत: प्रश्न पूछने वाले शिष्य के लिये अपने अन्तर्यामी से बढ़कर दूसरा कोई गुरु नहीं है। पहले वह कर्म का अनुमोदन करता है, उसके बाद जीव की उस कर्म में प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार हृदय में प्रकट होने वाला परमात्मा ही गुरु, ज्ञानी, श्रोता और द्वेष्टा है। संसार में जो पाप करते हुए विचरता है, वह पापाचारी और जो शुभ कर्मों का आचरण करता है, वह शुभाचारी कहलाता है। इसी तरह कामनाओं के द्वारा इन्द्रिय सुख में परायण मनुष्य कामचारी और इन्द्रिय संयम में प्रवृत्त रहने वाला पुरुष सदा ही ब्रह्मचारी है।

जो व्रत और कर्मों का त्याग करके केवल ब्रह्म मे स्थित है, वह ब्रह्म स्वयं होकर संसार में विचरता रहता है, वही मुख्य ब्रह्मचारी है। ब्रह्म की उसकी समिधा है, ब्रह्म ही अग्रि है, ब्रह्म से ही वह उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म ही उसका जल और ब्रह्म ही गुरु है। उसी चित्तवृतियाँ सदा ब्रह्म में ही लीन रहती हैं। विद्वानों ने इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य बतलाया है। तत्त्वदर्शी का उपदेश पाकर प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष इस ब्रह्मर्चय के स्वरूप को जानकर सदा उसका पालन करते रहते हैं।

इस प्रकार श्री महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता ७ विषयक २७वाँ अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी.................ब्राह्मणगीता ८

Post a Comment

0 Comments