आदित्य हृदय स्तोत्र
“आदित्य हृदय स्तोत्र” को वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड में १०५ वें सर्ग दिया दिया गया है। इसे
अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान् श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति हेतु दिया
गया था। आदित्य हृदय स्तोत्र का नित्य पाठ जीवन के अनेक कष्टों का एकमात्र निवारण
है। इसके नियमित पाठ से मानसिक कष्ट, हृदय रोग, तनाव, शत्रु कष्ट और असफलताओं पर विजय प्राप्त की जा
सकती है। इस स्तोत्र में उगते हुए सूर्य देव की निष्ठापूर्वक उपासना करते हुए इस
स्तोत्र का पाठ करने से हर क्षेत्र में विजय अर्थात सफलता मिलती है। आदित्य हृदय
स्तोत्र सभी प्रकार के पापों , कष्टों और शत्रुओं से मुक्ति
कराने वाला, सर्व कल्याणकारी, आयु,
उर्जा और प्रतिष्ठा बढाने वाला अति मंगलकारी विजय स्तोत्र है। इससे
पूर्व आपने भविष्योत्तरपुराणान्तर्गतम् आदित्यहृदयम् स्तोत्रम् पढ़ा ।
आदित्य हृदय स्तोत्रपाठ
ॐ अस्य
श्रीआदित्यहृदयस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीअगस्त्यऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । श्रीआदित्यहृदयभूतो भगवान् ब्रह्मा देवताः ।
ॐ बीजम् । रश्मिमतेरिति शक्तिः । ॐ
तत्सवितुरित्यादिगायत्री कीलकम् ।
निरस्ताशेषविघ्नतया
ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः ।
अथ ऋष्यादिन्यासः ॥
ॐ अगस्त्यऋषये नमः शिरसि ।
अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे ।
आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः।
हृदि ।
ॐ बीजाय नमः गुह्ये ।
ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः ।
ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्री कीलकाय
नमः नाभौ ।
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
इति ऋष्यादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः ॥
ॐ रश्मिमते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः
।
ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां
नमः ।
इति करन्यासः ॥
अथ हृदयादिषडङ्ग न्यासः ॥
ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः ।
ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा ।
ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट् ।
ॐ विवस्वते कवचाय हुम् ।
ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट् ।
इति हृदयादिषडङ्ग न्यासः ॥
॥ अथ आदित्य हृदय स्तोत्र ॥
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया
स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय
समुपस्थितम् ॥ १॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो
रणम् ।
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो
भगवानृषिः ॥ २॥
उधर श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर
चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे । इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने
उपस्थित हो गया । यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो
देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास
जाकर बोले ।१-२
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं
सनातनम् ।
येन सर्वानरीन्वत्स समरे विजयिष्यसि
॥ ३॥
सबके ह्रदय में रमन करने वाले
महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो ! वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में
अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे ।३
आदित्यहृदयं पुण्यं
सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपेन्नित्यमक्षयं परमं शिवम्
॥ ४॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं
सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमनं
आयुर्वर्धनमुत्तमम् ॥ ५॥
इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदय’ । यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का
नाश करने वाला है । इसके जप से सदा विजय कि प्राप्ति होती है । यह नित्य अक्षय और
परम कल्याणमय स्तोत्र है । सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है । इससे सब पापों का नाश
हो जाता है । यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है ।४-५
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं
देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं
भुवनेश्वरम् ॥ ६॥
भगवान् सूर्य अपनी अनंत किरणों से
सुशोभित हैं । ये नित्य उदय होने वाले, देवता
और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्द, प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं । तुम इनका रश्मिमंते
नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताये
नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः,
भुवनेश्वराये नमः इन मन्त्रों के द्वारा पूजन करो।६
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी
रश्मिभावनः ।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति
गभस्तिभिः ॥ ७॥
संपूर्ण देवता इन्ही के स्वरुप हैं
। ये तेज़ की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले
हैं । ये अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित समस्त लोकों का पालन
करने वाले हैं ।७
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः
स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो
ह्यपां पतिः ॥ ८॥
पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो
मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाप्राण ऋतुकर्ता
प्रभाकरः ॥ ९॥
ये ही ब्रह्मा,
विष्णु शिव, स्कन्द, प्रजापति,
इंद्र, कुबेर, काल,
यम, चन्द्रमा, वरुण,
पितर , वसु, साध्य,
अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु,
वायु, अग्नि, प्रजा,
प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रकाश
के पुंज हैं ।८-९
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा
गभस्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता
दिवाकरः ॥ १०॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः
सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा
मार्ताण्ड अंशुमान् ॥ ११॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो
रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः
शिशिरनाशनः ॥ १२॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः
।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथी
प्लवङ्गमः ॥ १३॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः
सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः
सर्वभवोद्भवः ॥ १४॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः
।
तेजसामपि तेजस्वी
द्वादशात्मन्नमोऽस्तु ते ॥ १५॥
इनके नाम हैं आदित्य(अदितिपुत्र),
सविता(जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य(सर्वव्यापक),
खग, पूषा(पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश्य, भानु(प्रकाशक), हिरण्यरेता(ब्रह्मांड कि उत्पत्ति के
बीज), दिवाकर(रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश
फैलाने वाले), हरिदश्व, सहस्रार्चि(हज़ारों
किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़ों वाले), मरीचिमान(किरणों से सुशोभित), तिमिरोमंथन(अन्धकार का
नाश करने वाले), शम्भू, त्वष्टा,
मार्तण्डक(ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान, हिरण्यगर्भ(ब्रह्मा), शिशिर(स्वभाव से ही सुख प्रदान करने वाले), तपन(गर्मी
पैदा करने वाले), अहस्कर, रवि, अग्निगर्भ(अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र,
शंख, शिशिरनाशन(शीत का नाश करने वाले),
व्योमनाथ(आकाश के स्वामी), तमभेदी, ऋग, यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले),
विंध्यवीथिप्लवंगम (आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल(भूरे रंग वाले), सर्वतापन(सबको ताप देने वाले),
कवि, विश्व, महातेजस्वी,
रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण),
नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन(जगत कि रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में
भी अति तेजस्वी और द्वादशात्मा हैं। इन सभी नामो से प्रसिद्द सूर्यदेव ! आपको
नमस्कार है।१०-१५
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये
नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः
॥ १६॥
पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरी
अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है । ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी
तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है ।१६
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः
॥ १७॥
आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के
दाता हैं । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं । आपको बारबार नमस्कार है ।
सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार प्रणाम है । आप अदिति के
पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से भी प्रसिद्द हैं, आपको नमस्कार है ।१७
नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो
नमः ॥ १८॥
उग्र, वीर, और सारंग सूर्यदेव को नमस्कार है । कमलों को
विकसित करने वाले प्रचंड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है ।१८
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय
सूर्यायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे
नमः ॥ १९॥
आप ब्रह्मा,
शिव और विष्णु के भी स्वामी है । सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमंडल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण
हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरुप है,
आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार
है ।१९
तमोघ्नाय हिमघ्नाय
शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये
नमः ॥ २०॥
आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक,
जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं । आपका
स्वरुप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, संपूर्ण
ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ।२०
तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे
।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये
लोकसाक्षिणे ॥ २१॥
आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के
समान है,
आप हरी और विश्वकर्मा हैं, तम के नाशक,
प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको
नमस्कार है।२१
नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति
प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष
गभस्तिभिः ॥ २२॥
रघुनन्दन ! ये भगवान् सूर्य ही
संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन
करते हैं । ये अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं ।२२
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु
परिनिष्ठितः ।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं
चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥ २३॥
ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप
से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते
रहते हैं । ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं ।२३
वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव
च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः
प्रभुः ॥ २४॥
देवता,
यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं । संपूर्ण लोकों में जितनी
क्रियाएँ होती हैं उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं ।२४
॥ फल श्रुतिः ॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु
भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति
राघव ॥ २५॥
राघव ! विपत्ति में,
कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के
अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे
दुःख नहीं भोगना पड़ता ।२५
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं
जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु
विजयिष्यसि ॥ २६॥
इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन
देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो । इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध
में विजय पाओगे ।२६
अस्मिन्क्षणे महाबाहो रावणं त्वं
वधिष्यसि ।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम च
यथागतम् ॥ २७॥
महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध
कर सकोगे । यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे वैसे ही चले गए ।२७
एतच्छ्रुत्वा महातेजा
नष्टशोकोऽभवत्तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः
प्रयतात्मवान् ॥ २८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं
हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय
वीर्यवान् ॥ २९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय
समुपागमत् ।
सर्व यत्नेन महता वधे तस्य
धृतोऽभवत् ॥ ३०॥
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी
श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से
आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की और देखते
हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथ
जी ने धनुष उठाकर रावण की और देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढे ।
उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया ।२८-३०
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं
मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपतिसङ्क्षयं विदित्वा
सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥ ३१॥
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए
भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की और देखा और निशाचरराज रावण के
विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – ‘रघुनन्दन
! अब जल्दी करो’ ।३१
इति आदित्य हृदय स्तोत्र मन्त्रम् ॥
इस प्रकार भगवान् सूर्य कि प्रशंसा में कहा गया और वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में वर्णित यह आदित्य हृदय स्तोत्र मंत्र संपन्न होता है ।
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