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मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
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रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
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रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
ब्राह्मणगीता ८
आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान
श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता।
पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ७ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ८ में अध्यात्मविषयक
महान् वन का वर्णन हैं ।
ब्राह्मणगीता ८
कृष्णने युधिष्ठिरंप्रति
विद्याब्रह्मणोररण्यत्वरूपणपरब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच।
संकल्पदंशमशकं शोकहर्षहिमातपम्।
मोहान्धकारतिमिरं
लोभव्याधिसरीसृपम्।।
विषयैकात्ययाध्वानं
कामक्रोधकिरातकम्।
तदतीत्य महादुर्गं प्रविष्टोस्मि महद्वनम्।।
ब्राह्मण्युवाच।
क्व तद्वनं महाप्राज्ञ के वृक्षाः
सरितश्च काः।
कियन्तः पर्वताश्चैव कियत्यध्यनि
तद्वनम्।।
ब्राह्मण उवाच।
नैतदस्ति पृथग्भावः किञ्चिनद्यत्ततः
सुखम्।
नैतदस्त्यपृथग्भावः किञ्चिद्दुःखतरं
ततः।।
तस्माद्ध्रस्वतरं नास्ति न ततोस्ति
महत्तरम्।
नास्ति तस्माद्दुःखतरं
नास्त्यन्यत्तत्समं सुखम्।।
न तत्राविश्यि शोचन्ति न
प्रहृष्यन्ति च द्विजाः।
न च बिभ्यति केभ्यश्चिन्नैभ्यो
बिभ्यति केचन।।
तस्मिन्वने सप्त महाद्रुमाश्च
फलानि सप्तातिथयश्च सप्त।
सप्ताश्रमाः सप्त समाधयश्च
दीक्षाश्च सप्तैतदरण्यरूपम्।।
पञ्चवर्णानि दिव्यानि पुष्पाणि च
फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य
तिष्ठन्ति तद्वन्म्।।
सुवर्णानि द्विवर्णानि पुष्पाणि च
फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य
तिष्ठन्ति तद्वनम्।।
`शङ्कराणि त्रिवर्णानि पुष्पाणि च
फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति
तद्वनम्'
सुरभीणि द्विवर्णानि पुष्पाणि च
फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य
तिष्ठन्ति तद्वनम्।।
सुरभीण्येकवर्णानि पुष्पाणि च फलानि
च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य
तिष्ठन्ति तद्वनम्।।
बहून्यव्यक्तवर्णानि पुष्पाणि च
फलानि च।
विसृजन्तौ महावृक्षौ तद्वनं व्याप्य
तिष्ठतः।।
एको वह्निः सुमना ब्राह्मणोत्र
पञ्चेन्द्रियाणि समिधश्चात्र सन्ति।
तेभ्यो वृक्षाःक सप्त फलन्ति दीक्षा
गुणाः फलान्यतिथयः फलाशाः।।
आतिथ्यं प्रतिगृह्णन्ति तत्र सप्त
महर्षयः।
अर्चितेषु प्रलीनेषु
तेष्वन्यद्रोचते वनम्।।
प्रज्ञावृक्षं मोक्षफलं
शान्तिच्छायासमन्वितम्।
ज्ञानाश्रयं
तृप्तितोयमन्तःक्षेत्रज्ञभास्करम्।।
येऽधिगच्छन्ति तत्सन्तस्तेषां
नास्ति पुनर्भवः।
ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक्च तस्य
नान्तोऽधिगम्यते।।
सप्त स्त्रियस्तत्र चरन्ति सत्या-
स्त्ववाङ्मुखा भानुमत्यो जनित्र्यः।
ऊर्ध्वं रसानाददते प्रजाभ्यः
सर्वान्यथा नित्यमनित्यता च।।
तत्रैव प्रतितिष्ठन्ति
पुनस्तत्रोदयन्ति च।
सप्त सप्तर्षयः सिद्धा
वसिष्ठप्रमुखैः सह।।
यशो वर्चो भगश्चैव विजयः
सिद्धतेजसः।
एतमेवानुवर्तन्ते सप्त ज्योतींषि
भास्करम्।।
ऋषयः पर्वताश्चैव सन्ति तत्र
समासतः।
नद्यश्च परितो वारि वहन्त्यो
ब्रह्मिसम्भवम्।।
नदीनां सङ्गमश्चैव वैताने समुपहरे।
स्वात्मतृप्ता यतो यान्ति साक्षादेव
पितामहम्।।
कृशाशाः सुव्रताः शान्तास्तपसा
दग्धकिल्बिषाः।
आत्मन्यात्मानमावेश्य
ब्राह्मणास्तमुपासते।।
शमिमप्यत्र शंसन्ति विद्यारण्यविदो
जनाः।
तदरण्यमभिप्रेत्य यथातत्वमजायत।।
एतदेवेदृशं पुण्यमरण्यं ब्राह्मणा
विदुः।
विदित्वा चानुतिष्ठन्ति
क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिना।।
।। इति श्रीमन्महाभारते
आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता ८ अष्टाविंशोऽध्यायः।। 28 ।।
ब्राह्मणगीता ८ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! जहाँ
संकल्प रूपी डाँस और मच्छरों की अधिकता होती है। शोक और हर्षरूपी गर्मी,
सर्दी का कष्ट रहता है, मोहरूपी अन्धकार फैला
हुआ है, लोभ तथा व्याधिरूपी सर्प विचरा करते हैं। जहाँ
विषयों का ही मार्ग है, जिसे अकेले ही तय करना पड़ता है तथा
जहाँ काम और क्रोधरूपी शत्रु डेरा डाले रहते हैं, उस संसार
रूपी दुर्गम पथ का उल्लंघन करके अब मैं ब्रह्मरूपी महान् वन में प्रवेश कर चुका
हूँ। ब्राह्मणी ने पूछा- महाप्राज्ञ! वह वन कहाँ है? उसमें
कौन-कौन से वृक्ष, गिरि, पर्वत और
नदियाँ हैं तथा वह कितनी दूरी पर है। ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! उस वन में न भेद है
न अभेद, वह इन दोनों से अतीत है। वहाँ लौकिक सुख और दु:ख
दोनों का अभाव है। उससे अधिक छोटी, उससे अधिक बड़ी और उससे
अधिक सूक्ष्म भी दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उसके समान सुखरूप भी कोई नहीं है। उस वन
में प्रवष्टि हो जाने पर द्विजातियों को न हर्ष होता है, न
शोक। न तो वे स्वयं किन्हीं प्राणियों से डरते हैं और न उन्हीं से दूसरे कोई
प्राणी भय मानते हैं। वहाँ सात बड़े बड़े वृक्ष हैं, सात उन
वृक्षों के फल हैं तथा सात ही उन फलों के भोक्ता अतिथि हैं। सात आश्रम हैं। वहाँ
सात प्रकार की समाधि और सात प्रकार की दीक्षाएँ हैं। यही उस वन का स्वरूप है। वहाँ
के वृक्ष पाँच प्रकार के रंगों के दिव्य पुष्पों और फलों की सृष्टि करते हुए सब ओर
से वन को व्याप्त करके स्थित हैं। वहाँ दूसरे वृक्षों ने सुन्दर दो रंग वाले पुष्प
और फल उत्पन्न करते हुए उस वन को सब ओर से व्याप्त कर रखा है। तीसरे वृक्ष वहाँ
सुगन्धयुक्त दो रंग वाले पुष्प और फल प्रदान करते हुए उस वन को व्याप्त करके स्थित
हैं। चौथे वृक्ष सुगन्धयुक्त केवल एक रंग वाले पुष्प और फलों की सृष्टि करते हुए
उस वन के सब ओर फैले हैं। वहाँ दो महावृक्ष बहुत से अव्यक्त रंग वाले पुष्प और
फलों की रचना करते हुए उस वन को व्याप्त करके स्थित हैं। उस वन में एक ही अग्रि है,
जीव शुद्धचेता ब्राह्मण हैं, पाँच इन्द्रियाँ
समिधाएँ हैं। उनसे जो मोक्ष प्राप्त होता है, वह सात प्रकार
का है। इस यज्ञ की दीक्षा का फल अवश्य होता है। गुण ही फल है। सात अतिथि ही फलों
के भोक्ता हैं। वे महर्षिगण इस यज्ञ में आतिथ्य ग्रहण करते हैं और पूजा स्वीकार
करते ही उनका लय हो जाता है। तत्पश्चात् वह ब्रह्मरूप वन विलक्षण रूप से प्रकाशित
होता है। उसमें प्रज्ञारूपी वृक्ष शोभा पाते हैं, मोक्षरूपी
फल लगते हैं और शान्तिमयी छाया फैली रहती है। ज्ञान वहाँ का आश्रय स्थान और तृप्ति
जल है। उस वन के भीतर आत्मारूपी सूर्य का प्रकाश छाया रहता है। जो श्रेष्ठ पुरुष
उस वन का आश्रय लेते हैं, उन्हें फिर कभी भय नहीं होता। वह
वन ऊपर नीचे तथा इधर-उधर सब ओर व्याप्त है। उसका कहीं भी अन्त नहीं है।
वहाँ सात स्त्रियाँ निवास करती हैं,
जो लज्जा के मारे अपना मुँह नीचे की ओर किये रहती हैं। वे चिन्मय
ज्योति से प्रकाशित होती हैं। वे सबकी जननी हैं और वे उस वन में रहने वाली प्रजा
से सब प्रकार के उत्तम रस उसी प्रकार ग्रहण करती हैं, जैसे
अनित्यता सत्य को ग्रहण करती है। सात सिद्ध सप्तर्षि वसिष्ठ आदि के साथ उसी वन में
लीन होते और उसी से उत्पन्न होते हैं। यश, प्रभा, भग (ऐश्वर्य), विजय, सिद्धि
(ओज) और तेज- ये सात ज्योतियाँ उपर्युक्त आत्मारूपी सूर्य का ही अनुसरण करती हैं। उस
ब्रह्मतत्व में ही गिरी, पर्वत, झरनें,
नदी और सरिताएँ स्थित हैं, जो ब्रह्मजनित जल
बहाया करती हैं। नदियों का संगम भी उसी के अत्यन्त गूढ़ हृदयाकाश में संक्षेप से
होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञ का विस्तार होता रहता है। वही साक्षात पितामह का
स्वरूप है। आत्मज्ञान से तृप्त पुरुष उसी को प्राप्त होते हैं। जिनकी आशा क्षीण हो
गयी है, जो उत्तम व्रत के पालन की इच्छा रखते हैं। तपस्या से
जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ करके
परब्रह्म की उपासना करते हैं। विद्या (ज्ञान) के ही प्रभाव से ब्रह्मरूपी वन का
स्वरूप समझ में आता है। इस बात को जानने वाले मुनष्य इस वन में प्रवेश करने के
उद्देश्य से शम (मनोनिग्रह) की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे
बुद्धि स्थिर होती है। ब्राह्मण ऐसे गुण वाले इस पवित्र वन को जानते हैं और
तत्त्वदर्शी के उपदेश से प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष उस ब्रह्मवन को शास्त्रत:
जानकर शम आदि साधनों के अनुष्ठान में लग जाते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत
आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व मे ब्राह्मणगीता ८ सम्बन्धी २८ वाँ अध्याय
पूरा हुआ।
शेष जारी.............. ब्राह्मणगीता ९
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