सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम् कि
श्रृंखला में अभी तक आपने भविष्य पुराण व स्कन्दपुराणान्तर्गत सूर्य सहस्त्रनाम
पढ़ा अब रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ३४ में सूर्यपञ्चाङ्ग निरूपण
अंतर्गत् सूर्यसहस्रनामस्तोत्रम् के विषय में पढेंगें।
श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम् रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् चतुस्त्रिंशः पटलः
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य चौंतीसवाँ
पटल
सूर्य सहस्र नाम स्तोत्र
Shri Devi Rahasya Patal 34
देवीरहस्य पटल ३४ सूर्य सहस्रनाम स्तोत्र
श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
अथ चतुस्त्रिंशः पटलः ।
सूर्यसहस्रनाम
सहस्त्रनाममाहात्म्यम्
अथ श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
श्रीभैरव उवाच ।
देवदेवि महादेवि सर्वाभयवरप्रदे ।
त्वं मे प्राणप्रिया प्रीता वरदोऽहं
तव स्थितः ॥ १॥
किञ्चित् प्रार्थय मे प्रेम्णा
वक्ष्ये तत्ते ददाम्यहम् ।
श्री भैरव ने कहा- हे देवदेवि
महादेवि! सबों को अभय का वर देने वाली! तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो।
तुम्हारे स्नेहवश मैं तुम्हें वर देने के लिये उद्यत हूँ। प्रेमपूर्वक जो कुछ भी
मांगोगी,
वह मैं देने को तैयार हूँ ।। १ ।।
श्रीदेव्युवाच ।
भगवन् देवदेवेश महारुद्र महेश्वर ॥
२॥
यदि देयो वरो मह्यं वरयोग्यास्म्यहं
यदि ।
देवदेवस्य सवितुर्वद नामसहस्रकम् ॥
३॥
श्री देवी ने कहा –
भगवन् देवदेवेश महारुद्र महेश्वर! यदि मुझे आप वर देने के योग्य
समझकर वर देने को तैयार हैं तो देवदेव सविता के सहस्रनाम का वर्णन कीजिये ।। २-३।।
श्रीभैरव उवाच ।
एतद्गुह्यतमं देवि सर्वस्वं मम
पार्वति ।
रहस्यं सर्वदेवानां दुर्लभं
कामनावहम् ॥ ४॥
श्री भैरव ने कहा- हे पार्वति ! यह
गुह्यतम है और मेरा सर्वस्व है। यह सभी देवों को दुर्लभ रहस्य है। कामनाओं को पूरा
करने वाला है।
यो देवो भगवान् सूर्यो वेदकर्ता
प्रजापतिः ।
कर्मसाक्षी जगच्चक्षुः स्तोतुं तं
केन शक्यते ॥ ५॥
जो देव भगवान् सूर्य हैं,
वहीं वेदकर्ता ब्रह्मा है। कर्मों के साक्षी संसार के नेत्र हैं।
उनकी स्तुति करने की क्षमता किसमें है?
यस्यादिर्मध्यमन्तं च सुरैरपि न
गम्यते ।
तस्यादिदेवदेवस्य सवितुर्जगदीशितुः
॥ ६॥
मन्त्रनामसहस्रं ते वक्ष्ये
साम्राज्यसिद्धिदम् ।
सर्वपापापहं देवि
तन्त्रवेदागमोद्धृतम् ॥ ७॥
जिसके आदि,
मध्य और अन्त का ज्ञान देवताओं को भी नहीं है, उस आदिदेवदेव जगदीश्वर सविता के मन्त्रनामसहस्र का वर्णन में करता हूँ। यह
साम्राज्यसिद्धिप्रदायक एवं सभी पापों का विनाशक है। तन्त्र-वेद-आगम से उद्धृत है।
माङ्गल्यं पौष्टिकं चैव रक्षोघ्नं
पावनं महत् ।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं
सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ८॥
धनदं पुण्यदं पुण्यं श्रेयस्करं
यशस्करम् ।
वक्ष्यामि परमं तत्त्वं
मूलविद्यात्मकं परम् ॥ ९॥
मंगलकारी,
पुष्टिप्रद, रक्षाकारक, पावन,
महान् सर्वमङ्गलमाङ्गल्य एवं सभी पापों का विनाशक है। यह धन देने
वाला, पुण्यप्रदायक, श्रेयष्कर एवं
यशस्कर है। अब मैं मूल विद्यात्मक परम तत्त्व का वर्णन करता हूँ।।४-९ ।।
ब्रह्मणो यत् परं ब्रह्म पराणामपि
यत् परम् ।
मन्त्राणामपि यत् तत्त्वं महसामपि
यन्महः ॥ १०॥
शान्तानामपि यः शान्तो मनूनामपि यो
मनुः ।
योगिनामपि यो योगी वेदानां प्रणवश्च
यः ॥ ११॥
ग्रहाणामपि यो भास्वान् देवानामपि
वासवः ।
ताराणामपि यो राजा वायूनां च
प्रभञ्जनः ॥ १२॥
इन्द्रियाणामपि मनो देवीनामपि यः
परा ।
नगानामपि यो मेरुः पन्नगानां च
वासुकिः ॥ १३॥
तेजसामपि यो वह्निः कारणानां च यः
शिवः ।
सविता यस्तु गायत्र्याः परमात्मेति
कीर्त्यते ॥ १४॥
वक्ष्ये परमहंसस्य तस्य नामसहस्रकम्
।
ब्रह्मों में जो परम ब्रह्म है,
पराओं में जो परा है, मन्त्रों में जो तत्त्व
है, प्रकाशों में जो प्रकाश मैं हूँ, शान्तों
में जो शान्त है, मनुओं में जो मनु है, योगियों में जो योगी हैं, वेदों में जो प्रणव है,
ग्रहों में जो सूर्य है, देवों में जो इन्द्र
है, ताराओं में जो राजा है, वायुओं में
जो प्रभञ्जन है, इन्द्रियों में जो मन है, देवियों में जो परा देवी है, पर्वतों में जो मेरु है,
कारणों में जो शिव है, गायत्री में जो सविता
है और जो परमात्मा कहा जाता है;उसी परमहंस के सहस्रनाम को
मैं कहता हूँ।।१०-१४।।
सर्वदारिद्र्यशमनं सर्वदुःखविनाशनम्
॥ १५॥
सर्वपापप्रशमनं सर्वतीर्थफलप्रदम् ।
ज्वररोगापमृत्युघ्नं सदा
सर्वाभयप्रदम् ॥ १६॥
तत्त्वं परमतत्त्वं च
सर्वसारोत्तमोत्तमम् ।
राजप्रसादविजय-लक्ष्मीविभवकारणम् ॥
१७॥
आयुष्करं पुष्टिकरं
सर्वयज्ञफलप्रदम् ।
मोहनस्तम्भनाकृष्टि-वशीकरणकारणम् ॥
१८॥
अदातव्यमभक्ताय सर्वकामप्रपूरकम् ।
शृणुष्वावहिता भूत्वा
सूर्यनामसहस्रकम् ॥ १९॥
यह सहस्रनाम का वर्णन मैं करता हूँ।
यह सभी दरिद्रताओं को नष्ट करता है। सभी दुःखों का विनाशक है,
सभी पापों का हरण करने वाला है एवं सभी तीर्थों के फलों का दाता है।
ज्वर, रोग, अपमृत्यु का विनाशक है।
सर्वदा सभी भयों से निर्भय करता है। यह परम सभी तत्त्वों में उत्तम, राजा की कृपा, विजय, लक्ष्मी
और वैभव का कारण है। यह आयु प्रदान करने वाला, पुष्टि देने
वाला एवं समस्त यज्ञों के फल को देने वाला है। जो भक्त न हो, उसे देने योग्य नहीं है। सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला है। अब
सावधानीपूर्वक सूर्यसहस्रनाम को सुनो।। १५-१९।।
श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम् विनियोगः
अस्य श्रीसूर्यनामसहस्त्रस्य
श्रीब्रह्मा ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः,
श्रीभगवान् सविता देवता, ह्रां बीजं, सः शक्ति, ह्रीं कीलकं, धर्मार्थकाममोक्षार्थे
सूर्यसहस्त्रनामपाठे विनियोगः ।
सहस्त्रनाम विनियोग —
इस सूर्यसहस्रनाम के ऋषि ब्रह्मा, छन्द
गायत्री, देवता भगवान् सविता, बीज ह्रां,
शक्ति सः एवं कीलक ह्रीं हैं। धर्म, अर्थ,
काम एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु सूर्यसहस्रनामपाठ में इसका विनियोग
किया जाता है।
ध्यानम् ॥
कल्पान्तानलकोटिभास्वरमुखं
सिन्दूरधूलीजपा-
वर्णं रत्नकिरीटिनं द्विनयनं
श्वेताब्जमध्यासनम् ।
नानाभूषणभूषितं स्मितमुखं
रक्ताम्बरं चिन्मयं
सूर्यं स्वर्णसरोजरत्नकलशौ
दोर्भ्यां दधानं भजे ॥ १॥
प्रत्यक्षदेवं विशदं सहस्रमरीचिभिः
शोभितभूमिदेशम् ।
सप्ताश्वगं सद्ध्वजहस्तमाद्यं देवं
भजेऽहं मिहिरं हृदब्जे ॥ २॥
ध्यान - सविता देव का मुख करोड़
कल्पान्तकारी अग्निज्वाला के समान प्रकाशमान है। सिन्दूर और अड़हुल के फूल के समान
लाल रंग का वर्ण है। माथे पर रत्नकिरीट है। दो नेत्र हैं। श्वेत कमल के मध्य में
विराजमान हैं। विविध आभूषणों से भूषित हैं। मुस्कानयुक्त मुख है। चिन्मय लाल
वस्त्र है। सूर्य के एक हाथ में स्वर्णकमल और दूसरे हाथ में रत्नकलश शोभित हैं। ये
प्रत्यक्ष देव हैं। विशद हजारों किरणों से भूमि को शोभित कर रहे हैं। इनके रथ में
सात घोड़े हैं। इनके हाथ में सद् ध्वज है। ऐसे आद्य देव मिहिर का मैं अपने हृदयकमल
में ध्यान करता हूँ ।। १-२ ।।
अथ सूर्य सहस्र नाम
ॐ ह्रां ह्रीं सः हं सः सोऽहं सविता
भास्करो भगः ।
भगवान् सर्वलोकेशो भूतेशो भूतभावनः
॥ ३॥
भूतात्मा सृष्टिकृत् स्रष्टा कर्ता
हर्ता जगत्पतिः ।
आदित्यो वरदो वीरो वीरलो विश्वदीपनः
॥ ४॥
विश्वकृद् विश्वहृद् भक्तो भोक्ता
भीमोऽभयापहः ।
विश्वात्मा पुरुषः साक्षी परं
ब्रह्म परात् परः ॥ ५॥
प्रतापवान् विश्वयोनिर्विश्वेशो
विश्वतोमुखः ।
कामी योगी महाबुद्धिर्मनस्वी
मनुरव्ययः ॥ ६॥
प्रजापतिर्विश्ववन्द्यो वन्दितो
भुवनेश्वरः ।
भूतभव्यभविष्यात्मा तत्त्वात्मा
ज्ञानवान् गुणी ॥ ७॥
सात्त्विको राजसस्तामस्तमवी
करुणानिधिः ।
सहस्रकिरणो भास्वान् भार्गवो
भृगुरीश्वरः ॥ ८॥
निर्गुणो निर्ममो नित्यो
नित्यानन्दो निराश्रयः ।
तपस्वी कालकृत् कालः कमनीयतनुः कृशः
॥ ९॥
दुर्दर्शः सुदशो दाशो
दीनबन्धुर्दयाकरः ।
द्विभुजोऽष्टभुजो धीरो
दशबाहुर्दशातिगः ॥ १०॥
दशांशफलदो
विष्णुर्जिगीषुर्जयवाञ्जयी ।
जटिलो निर्भयो भानुः पद्महस्तः
कुशीरकः ॥ ११॥
समाहितगतिर्धाता विधाता कृतमङ्गलः ।
मार्तण्डो लोकधृत् त्राता रुद्रो
भद्रप्रदः प्रभुः ॥ १२॥
अरातिशमनः शान्तः शङ्करः कमलासनः ।
अविचिन्त्यवपुः (१००) श्रेष्ठो
महाचीनक्रमेश्वरः ॥ १३॥
सहस्रनाम —
ॐ ह्रां ह्रीं सः ह्सौः हंसः आदित्य, भास्कर,
भग, भगवान्, सर्वलोकेश,भूतेश, भूतभावन, भूतात्मा
सृष्टिकृत् स्रष्टा, कर्ता हर्ता, जगत्पति,
आदित्य, वरद वीर, वीरल,
विश्वदीपन, विश्वकृत, विश्वहद,
भक्त, भोक्ता, भीम,
भयापह, विश्वात्मा, पुरुष,
साक्षी, परंब्रह्म, परात्पर,
प्रतापवान, विश्वयोनि, विश्वेश,
विश्वतोमुख, कामी, योगी,
महाबुद्धि, मनस्वी, मनु,
अव्यय, प्रजापति, विश्ववन्द्य,
वन्दित, भुवनेश्वर, भूतभव्य,
भविष्यात्मा, तत्त्वात्मा, ज्ञानवान, गुणी, सात्त्विक,
राजस, तामस, तमस्वी,
करुणानिधि, सहस्रकिरण, भास्वान,
भार्गव, भृगुरीश्वर, निर्गुण,
निर्मम नित्य, नित्यानन्द, निराश्रय, तपस्वी, कालकृत,
काल, कमनीयतनु, कृश,
दुर्दर्श, सुदश, दाश,
दीनबन्धु, दयाकर, द्विभुज,
अष्टभुज, धीर, दशबाहु,
दशातिग, दशांशफलद, विष्णु,
जिगीषु, जयवान्, जयी,
जटिल, निर्भय, भानु,
पद्महस्त, कुशीरक, समाहितगति,
धाता, विधाता, कृतमंगल, मार्तण्ड, लोकधृत, त्राता,
रुद्र, भद्रप्रद, प्रभु,
अरातिशमन, शान्त, शंकर,
कमलासन, अविचिन्त्यवपु, श्रेष्ठ,
महाचीनपराक्रमेश्वर ।। ३-१३।।
महार्तिदमनो दान्तो महामोहहरो हरिः
।
नियतात्मा च कालेशो दिनेशो
भक्तवत्सलः ॥ १४॥
कल्याणकारी कमठकर्कशः कामवल्लभः ।
व्योमचारी महान् सत्यः
शम्भुरम्भोजवल्लभः ॥ १५॥
सामगः पञ्चमो द्रव्यो ध्रुवो
दीनजनप्रियः ।
त्रिजटो रक्तवाहश्च रक्तवस्त्रो
रतिप्रियः ॥ १६॥
कालयोगी महानादो निश्चलो
दृश्यरूपधृक् ।
गम्भीरघोषो निर्घोषो घटहस्तो महोमयः
॥ १७॥
रक्ताम्बरधरो रक्तो
रक्तमाल्यानुलेपनः ।
सहस्रहस्तो विजयो हरिगामी हरीश्वरः
॥ १८॥
मुण्डः कुण्डी भुजङ्गेशो रथी
सुरथपूजितः ।
न्यग्रोधवासी न्यग्रोधो वृक्षकर्णः
कुलन्धरः ॥ १९॥
शिखी चण्डी जटी ज्वाली
ज्वालातेजोमयो विभुः ।
हैमो हेमकरो हारी हरिद्रलासनस्थितः
॥ २०॥
हरिद्श्वो जगद्वासी जगतां
पतिरिङ्गिलः ।
विरोचनो विलासी च विरूपाक्षो
विकर्तनः ॥ २१॥
विनायको विभासश्च भासो भासां पतिः
प्रभुः ।
मतिमान् रतिमान् स्वक्षो विशालाक्षो
विशाम्पतिः ॥ २२॥
बालरूपो गिरिचरो गीर्पतिर्गोमतीपतिः
।
गङ्गाधरो गणाध्यक्षो गणसेव्यो
गणेश्वरः ॥ २३॥
गिरीशनयनावासी सर्ववासी सतीप्रियः ।
सत्यात्मकः सत्यधरः सत्यसन्धः
सहस्रगुः ॥ २४॥
अपारमहिमा मुक्तो मुक्तिदो
मोक्षकामदः ।
मूर्तिमान् ( २००)
दुर्धरोऽमूर्तिस्तुटिरूपो लवात्मकः ॥ २५॥
महार्तिदमन,
दान्त, महामोहापहारी, हरि,
नियतात्मा, कालेश, दिनेश,
भक्तवत्सल, कल्याणकारी, कमठकर्कश,
कामवल्लभ, व्योमचारी, महान्,
सत्य, शम्भु, अम्भोजवल्लभ,
सामग, पञ्चम द्रव्य, ध्रुव,
दीनजनप्रिय, त्रिजट, रक्तवाह,
रक्तवस्त्र, रतिप्रिय, कालयोगी,
महानाद, निश्चल, दृश्यरूपधृक्,
गम्भीरघोष, निर्घोष, घटहस्त,
मयोमय, रक्ताम्बरधर, रक्त,
रक्तमाल्यानुलेपन, सहस्रहस्त, विजय, हरिगामी, हरीश्वर,
मुण्ड, कुण्डी, भुजङ्गेश,
रथी, सुरथपूजित, न्यग्रोधवासी,
न्यग्रोध, वृक्षकर्ण, धुरन्धर,
शिखी, चण्डी, जटी,
ज्वाली, ज्वालातेजोमय विभु, हेम, हेमकरी, हारी, हरिद्रत्नासनस्थित, हरिदश्व, जगद्वासी,
जगत्पतिरिंगित, विरोचन, विलासी,
विरूपाक्ष, विकर्तन, विनायक,
विभास, भास, भासाम्पति,
प्रभु मतिमान, रतिमान, स्वक्ष,
विशालाक्ष, विशांपति, बालरूप,
गिरिचर, गीर्पति, गोमतीपति,
गङ्गाधर, गणाध्यक्ष, गणसेव्य,
गणेश्वर, गिरीशनयनावासी, सर्ववासी, सतीप्रिय, सत्यात्मक,
सत्यधर, सत्यसन्ध, सहस्रगु,
अपारमहिमा, मुक्त, मुक्तिद,
मोक्षकामद, मूर्तिमान, दुर्धर
मूर्ति, तुटिरूप, लवात्मकः ।। १४-२५ ।।
प्राणेशो
व्यानदोऽपानसमानोदानरूपवान् ।
चषको घटिकारूपो मुहूर्तो दिनरूपवान्
॥ २६॥
पक्षो मास ऋतुर्वर्षा
दिनकालेश्वरेश्वरः ।
अयनं युगरूपश्च कृतं
त्रेतायुगस्त्रिपात् ॥ २७॥
द्वापरश्च कलिः कालः कालात्मा
कलिनाशनः ।
मन्वन्तरात्मको देवः
शक्रस्त्रिभुवनेश्वरः ॥ २८॥
वासवोऽग्निर्यमो रक्षो वरुणो यादसां
पतिः ।
वायुर्वैश्रवणं शैव्यो गिरिजो
जलजासनः ॥ २३॥
अनन्तोऽनन्तमहिमा परमेष्ठी गतज्वरः
।
कल्पान्तकलनः क्रूरः कालाग्निः
कालसूदनः ॥ ३०॥
महाप्रलयकृत् कृत्यः
कुत्याशीर्युगवर्तनः ।
कालावर्तो युगधरो युगादिः शहकेश्वरः
॥ ३१॥
आकाशनिधिरूपश्च सर्वकालप्रवर्तकः ।
अचिन्त्यः सुबलो बालो बलाकावल्लभो
वरः ॥ ३२॥
वरदो वीर्यदो वाग्मी
वाक्पतिर्वाग्विलासदः ।
साङ्ख्येश्वरो वेदगम्यो
मन्त्रेशस्तन्त्रनायकः ॥ ३३॥
कुलाचारपरो नुत्यो नुतितुष्टो
नुतिप्रियः ।
अलसस्तुलसीसेव्यस्तुष्टा
रोगनिबर्हणः ॥ ३४॥
प्रस्कन्दनो विभागश्च नीरागो
दशदिक्पतिः ।
वैराग्यदो विमानस्थो
रत्नकुम्भधरायुधः ॥ ३५॥
महापादो महाहस्तो महाकायो महाशयः ।
ऋग्यजुःसामरूपश्च
त्वष्टाथर्वणशाखिलः ॥ ३६॥
सहस्रशाखी सद्वृक्षो महाकल्पप्रियः
पुमान् ।
कल्पवृक्षश्च मन्दारो ( ३००)
मन्दाराचलशोभनः ॥ ३७॥
प्राणेश-व्यान
अपान-समान-उदान-रूपवान, चषक, घटिकारूप, मुहूतदिन, रूपवान,
पक्ष-मास ऋतु-वर्ष दिन-कालेश्वरेश्वर, अयन,
युग, कृत, त्रेता,
द्वापर, कलि, काल,
कालात्मा, कलिनाशन, मन्वन्तर,
देव, शक्र, त्रिभुवनेश्वर,
इन्द्र, अग्नि, यम,
निर्ऋति, वरुण, यादसांपति,
वायु, कुबेर, शैव्य,
गिरिज, जलजासन, अनन्त,
अनन्तमहिमा, परमेष्ठी, गतज्वर,
कल्पान्तकलन, क्रूर, कालाग्नि,
कालसूदन, महाप्रलय-कृत, कृत्य,
कृत्याशी, युगवर्तन, कालावर्त,
युगधर, युगादि, शहकेश्वर,
आकाशनिधि-रूप, सर्वकालप्रवर्तक, अचिन्त्य, सुबल, बाल, बलाकावल्लभ, वर, वरद, वीर्यद, वाग्मी, वाक्पति,
वाग्विलासद, सांख्येश्वर, वेदगम्य, मन्त्रेश, तन्त्रनायक,
कुलाचारपर, नुत्य, नुतितुष्ट,
नुतिप्रिय, अलस, तुलसीसेव्य
तुष्ट, रोगनिवर्हण, प्रस्कन्दन,
विभाग, निराग, दशदिक्पति,
वैराग्यद, विमानस्थ, रत्नकुम्भधरायुध,
महापाद, महाहस्त, महाकाय,
महाशय, ऋग्यजुः सामरूप, त्वष्टा,
अथर्वणशाखिन्, सहस्रशाखी, सद्वृक्ष, महाकल्पप्रिय, पुमान,
कल्पवृक्ष, मन्दार, मन्दराचलशोभन।।
२६-३७।।
मेरुर्हिमालयो माली मलयो मलयद्रुमः
।
सन्तानकुसुमच्छन्नः सन्तानफलदो
विराट् ॥ ३८॥
क्षीराम्भोधिर्घृताम्भोधिर्जलधिः
क्लेशनाशनः ।
रत्नाकरो महामान्यो वैण्यो वेणुधरो
वणिक् ॥ ३९॥
वसन्तो मारसामन्तो ग्रीष्मः
कल्मषनाशनः ।
वर्षाकालो वर्षपतिः शरदम्भोजवल्लभः
॥ ४०॥
हेमन्तो हेमकेयूरः शिशिरः
शिशुवीर्यदः ।
सुमतिः सुगतिः साधुर्विष्णुः
साम्बोऽम्बिकासुतः ॥ ४१॥
सारग्रीवो महाराजः सुनन्दो
नन्दिसेवितः ।
सुमेरुशिखरावासी सप्तपातालगोचरः ॥
४२॥
आकाशचारी नित्यात्मा
विभुत्वविजयप्रदः ।
कुलकान्तः कुलाद्रीशो विनयी विजयी
वियत् ॥ ४३॥
विश्वम्भरा वियच्चारी वियद्रूपो
वियद्रथः ।
सुरथः सुगतस्तुत्यो वेणुवादनतत्परः
॥ ४४॥
गोपालो गोमयो गोप्ता प्रतिष्ठायी
प्रजापतिः ।
आवेदनीयो वेदाक्षो महादिव्यवपुः
सुराट् ॥ ४५॥
निर्जीवो जीवनो मन्त्री
महार्णवनिनादभृत् ।
वसुरावर्तनो नित्यः
सर्वाम्नायप्रभुः सुधीः ॥ ४६॥
न्यायनिर्वापणः शूली कपाली
पद्ममध्यगः ।
त्रिकोणनिलयश्चेत्यो
बिन्दुमण्डलमध्यगः ॥ ४७॥
बहुमालो महामालो दिव्यमालाधरो जपः ।
जपाकुसुमसङ्काशो जपपूजाफलप्रदः ॥
४८॥
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सहस्रनयनो
रविः ।
सर्वतत्त्वाश्रयो ब्रध्नो
वीरवन्द्यो विभावसुः ॥ ४९॥
विश्वावसुर्वसुपतिर्वसुनाथो
विसर्गवान् ।
आदिरादित्यलोकेशः सर्वगामी (४००)
कलाश्रयः ॥ ५०॥
मेरु, हिमाचल, माली, मलय मलयद्रुम,
सन्तानकुसुमच्छन्न, सन्तानफलद, विराट, क्षीराम्भोधि, घृताम्भोधि,
जलधि, क्लेशनाशन, रत्नाकर,
महामान्य, वैण्य, वेणुधर,
वणिक, वसन्त मारसामन्त, ग्रीष्म,
कल्पषनाशन, वर्षाकाल, वर्षपति,
शरद, अम्भोजवल्लभ, हेमन्त,
हेमकेयूर, शिशिर, शिशुवीर्यद,
सुमति, सुगति, साधु,
विष्णु, साम्ब, अम्बिकासुत,
सारग्रीव, महाराज, सुनन्द,
नन्दिसेवित, सुमेरुशिखरावासी, सप्तपातालगोचर, आकाशचारी, नित्यात्मा,
विभुत्वविजयप्रद, कुलकान्त, कुलाधीश, विहारी, विनयी,
विजयी, वियत्, विश्वम्भर,
वियद्व्यापी, वियद्रूप, वियद्रथ,
सुरथ, सुगतस्तुत्य, वेणुवादनतत्पर,
गोपाल, गोमय, गोप्ता,
प्रतिष्ठायी, प्रजापति, आवेदनीय,
वेदाक्ष, महादिव्यवपु, सुराट,
निर्जीव, जीवन, मन्त्री,
महार्णवनिनादवान, वसुरावर्तन, नित्य, सर्वाम्नायप्रभु, सुधी,
न्यायनिर्वापण, शूली, कपाली,
पद्ममध्यग, त्रिकोणनिलय, चेत्य, बिन्दुमण्डलमध्यग, बहुमाल्य,
महामाल्य, दिव्यमाला धर, जप, जपाकुसुमसंकाशी, जपपूजाफलप्रद,
सहस्रमूर्धा, देवेन्द्र, सहस्रनयन, रवि, सर्वतत्त्वाश्रय,
ब्रघ्न, वीरवन्द्य, विभावसु,
विश्वावसु, वसुपति, वसुनाथ,
विसर्गवान, आदिरादित्य, लोकेश,
सर्वगामी, कलाश्रय।। ३८-५०।।
भोगेशो देवदेवेन्द्रो नरेन्द्रो
हव्यवाहनः ।
विद्याधरेशो विद्येशो यक्षेशो
रक्षणो गुरुः ॥ ५१॥
रक्षःकुलैकवरदो गन्धर्वकुलपूजितः ।
अप्सरोवन्दितोऽजय्यो जेता
दैत्यनिबर्हणः ॥ ५२॥
गुह्यकेशः पिशाचेशः किन्नरीपूजितः
कुजः ।
सिद्धसेव्यः समाम्नायः साधुसेव्यः
सरित्पतिः ॥ ५३॥
ललाटाक्षो विश्वदेहो नियमी
नियतेन्द्रियः ।
अर्कोऽर्ककान्तरत्रेशोऽनन्तबाहुरलोपकः
॥ ५४॥
अलिपात्रधरोऽनङ्गोऽप्यम्बरेशोऽम्बराश्रयः
।
अकारमातृकानाथो देवानामादिराकृतिः ॥
५५॥
आरोग्यकारी चानन्दविग्रहो निग्रहो
ग्रहः ।
आलोककृत् तथादित्यो वीरादित्यः
प्रजाधिपः ॥ ५६॥
आकाशरूपः स्वाकार
इन्द्रादिसुरपूजितः ।
इन्दिरापूजितश्चेन्दुरिन्द्रलोकाश्रयस्त्विनः
॥ ५७॥
ईशान ईश्वरश्चन्द्र ईश ईकारवल्लभः ।
उन्नतास्योऽप्युरुवपुरुन्नताद्रिचरो
गुरुः ॥ ५८॥
उत्पलोऽप्युच्चलत्केतुरुच्चैर्हयगतिः
सुखी ।
उकाराकारसुखितस्तथोष्मा निधिरूषणः ॥
५९॥
अनूरुसारथिश्चोष्णभानुरूकारवल्लभः ।
ऋणहर्ता ॠलिहस्त ऋॠभूषणभूषितः ॥ ६०॥
लृप्ताङ्ग लॄमनुस्थायी
लृलॄगण्डयुगोज्ज्वलः ।
एणाङ्कामृतदश्चीनपट्टभृद् बहुगोचरः
॥ ६१॥
एकचक्रधरश्चैकोऽनेकचक्षुस्तथैक्यदः
।
एकारबीजरमण एऐओष्ठामृताकरः ॥ ६२॥
ओङ्कारकारणं ब्रह्म
औकारौचित्यमण्डनः ।
ओऔदन्तालिरहितो महितो महतां पतिः ॥
६३॥
अंविद्याभूषणो भूष्यो
लक्ष्मीशोऽम्बीजरूपवान् ।
अःस्वरूपः (५००) स्वरमयः
सर्वस्वरपरात्मकः ॥ ६४॥
भोगेश,
देवदेवेन्द्र, नरेन्द्र, हव्यवाहन, विद्याधरेश, विद्येश,
यक्षेश, रक्षणगुरु, रक्षः
कुलैकवरद, गन्धर्वकुलपूजित, कुज,
सिद्धसेव्य, समाम्नाय साधुसेव्य, सरित्पति, ललाटाक्ष, विश्वदेह,
नियमी, नियतेन्द्रिय, अर्क,
अर्कान्तरत्नेश, अनन्तबाहु, अलोपक, अलिपात्रधर, अनङ्ग,
अम्बरेश, अम्बराश्रय, अकारमातृकानाथ,
देवानाम आदि आकृति, आरोग्यकारी, आनन्दविग्रह, निग्रह, ग्रह,
आलोककृत, आदित्य, वीरादित्य,
प्रजाधिप, आकाशरूप, स्वाकार,
इन्द्रादिसुरपूजित, इन्दिरापूजित, इन्दु, इन्द्रलोकाश्रयस्थित, ईशान,
ईश्वर, चन्द्र, ईश,
ईकारवल्लभ, उन्नतास्य, उरुवपु,
उन्नताद्रिचर, गुरु, उत्पल,
उच्चलत्केतु, उच्चैर्हयगति, सुखी, उकाराकारसुखित, उष्मा,
निधिरूप, अनूरुसारथि, उष्णभानु,
उकारवल्लभ, ऋणहर्ता, ऋलिहस्त,
ऋभूषणभूषित, क्लृप्ताङ्ग, लमनुस्थायी, लॡगण्डयुगोज्ज्वल, एणांकामृतद, चीनपट्टभृत्, बहुगोचर,
एकवक्त्रधर, एक, अनेकचक्षु,
ऐक्यद, एकारबीजरमण, एऐओष्ठामृताकर
ॐ कारकारण, ब्रह्म, औकारौचित्यमण्डन,
ओऔदन्तालिरहित, महित, महतां
पति, अविद्याभूषण, भूष्य, लक्ष्मीश, अंबीजरूपवान, अरूप,
स्वरमय, सर्वस्वपरात्मक ।। ५१-६४।।
अंअःस्वरूपमन्त्राङ्गः
कलिकालनिवर्तकः ।
कर्मैकवरदः कर्मसाक्षी कल्मषनाशनः ॥
६५॥
कचध्वंसी च कपिलः कनकाचलचारकः ।
कान्तः कामः कपिः क्रूरः कीरः
केशिनिसूदनः ॥ ६६॥
कृष्णः कापालिकः कुब्जः कमलाश्रयणः
कुली ।
कपालमोचकः काशः काश्मीरघनसारभृत् ॥
६७॥
कूजत्किन्नरगीतेष्टः कुरुराजः
कुलन्धरः ।
कुवासी कुलकौलेशः ककाराक्षरमण्डनः ॥
६८॥
खवासी खेटकेशानः खड्गमुण्डधरः खगः ।
खगेश्वरश्च खचरः खेचरीगणसेवितः ॥
६९॥
खरांशुः खेटकधरः खलहर्ता खवर्णकः ।
गन्ता गीतप्रियो गेयो गयावासी
गणाश्रयः ॥ ७०॥
गुणातीतो गोलगतिर्गुच्छलो
गुणिसेवितः ।
गदाधरो गदहरो गाङ्गेयवरदः प्रगी ॥
७१॥
गिङ्गिलो गटिलो गान्तो
गकाराक्षरभास्करः ।
घृणिमान् घुर्घुरारावो घण्टाहस्तो
घटाकरः ॥ ७२॥
घनच्छन्नो घनगतिर्घनवाहनतर्पितः ।
ङान्तो ङेशो
ङकाराङ्गश्चन्द्रकुङ्कुमवासितः ॥ ७३॥
चन्द्राश्रयश्चन्द्रधरोऽच्युतश्चम्पकसन्निभः
।
चामीकरप्रभश्चण्डभानुश्चण्डेशवल्लभः
॥ ७४॥
चञ्चच्चकोरकोकेष्टश्चपलश्चपलाश्रयः
।
चलत्पताकश्चण्डाद्रिश्चीवरैकधरोऽचरः
॥ ७५॥
चित्कलावर्धितश्चिन्त्यश्चिन्ताध्वंसी
चवर्णवान् ।
छत्रभृच्छलहृच्छन्दच्छुरिकाच्छिन्नविग्रहः
॥ ७६॥
जाम्बूनदाङ्गदोऽजातो जिनेन्द्रो
जम्बुवल्लभः ।
जम्वारिर्जङ्गिटो जङ्गी जनलोकतमोपहः
॥ ७७॥
जयकारी (६००) जगद्धर्ता
जरामृत्युविनाशनः ।
अं अः स्वरूपमन्त्राङ्ग,
कलिकालनिवर्तक, कर्मैकवरद, कल्मषनाशन, कचध्वंसी, कपिल,
कनकाचलचारक, कान्त, काम,
कपि, क्रूर, कीर,
केशनिसूदन, कृष्ण, कापालिक,
कुब्ज, कमलाश्रयण, कुली,
कपालमोचक, काश, काश्मीरघनसारभृत,
कूजत्किन्नरगीतेष्ट, कुलराज, कुलन्धर, कुवासी, कुलकौलेश,
ककाराक्षरमण्डन, खवासी, खेटकेशान,
खड्गमुण्डधर, खग, खगेश्वर,
खचर, खेचरीगणसेवित, खरांशु,
खेटकघर, खलहर्ता, खवर्णक,
गन्ता, गीतप्रिय, गेय,
गयावासी, गणाश्रय, गुणातीत,
गोलगति, गुच्छल, गुणिसेवित,
गदाधर, गदहर, गाङ्गेयवरद,
प्रगी, गिङ्गिल, गटिल,
गान्त, गकाराक्षरभास्कर, घृणिमान, घुघुराराव, घण्टाहस्त,
घटाकर, घनच्छन्न, घनगति,
धनवाहनतर्पित, ङान्त, ङेश,
डकाराङ्ग, चन्द्रकुङ्कुमवासित, चन्द्राश्रय, चन्द्रधर, अच्युत,
चम्पकसन्निभ, चामीकरप्रभ, चण्डभानु, चण्डेशवल्लभ, चंचत्कोरकोकेष्ट,
चपल, चपलाश्रय, चलत्पताक,
चण्डाद्रि, चीवरैकघर, अचर,
चित्कलावर्धित, चिन्त्य, चिन्ता- ध्वंसी, चवर्णवान, छत्रभृत,
छलहत, छन्द, छुरिकाछिन्नविग्रह,
जाम्बूनदाङ्गद, अजात, जिनेन्द्र,
जम्बुवल्लभ, जम्बारि, जंगिट,
जङ्गी, जनलोकतमोपह, जयकारी,
जगदुद्धर्ता, जरामृत्युविनाशन।। ६५-७८ ।।
जगत्त्राता जगद्धाता जगद्ध्येयो
जगन्निधिः ॥ ७८॥
जगत्साक्षी
जगच्चक्षुर्जगन्नाथप्रियोऽजितः ।
जकाराकारमुकुटो झञ्जाछन्नाकृतिर्झटः
॥ ७९॥
झिल्लीश्वरो झकारेशो झञ्जाङ्गुलिकराम्बुजः
।
झञाक्षराञ्चितष्टङ्कष्टिट्टिभासनसंस्थितः
॥ ८०॥
टीत्कारष्टङ्कधारी च
ठःस्वरूपष्ठठाधिपः ।
डम्भरो डामरुर्डिण्डी डामरीशो
डलाकृतिः ॥ ८१॥
डाकिनीसेवितो डाढी
डढगुल्फाङ्गुलिप्रभः ।
णेशप्रियो णवर्णेशो णकारपदपङ्कजः ॥
८२॥
ताराधिपेश्वरस्तथ्यस्तन्त्रीवादनतत्परः
।
त्रिपुरेशस्त्रिनेत्रेशस्त्रयीतनुरधोक्षजः
॥ ८३॥
तामस्तामरसेष्टश्च तमोहर्ता
तमोरिपुः ।
तन्द्राहर्ता तमोरूपस्तपसां फलदायकः
॥ ८४॥
तुट्यादिकलनाकान्तस्तकाराक्षरभूषणः
।
स्थाणुस्थलीस्थितो नित्यं स्थविरः
स्थण्डिल स्थुलः ॥ ८५॥
थकारजानुरध्यात्मा देवनायकनायकः ।
दुर्जयो दुःखहा दाता
दारिद्र्यच्छेदनो दमी ॥ ८६॥
दौर्भाग्यहर्ता देवेन्द्रो
द्वादशाराब्जमध्यगः ।
द्वादशान्तैकवसतिर्द्वादशात्मा
दिवस्पतिः ॥ ८७॥
दुर्गमो दैत्यशमनो दूरगो दुरतिक्रमः
।
दुर्ध्येयो दुष्टवंशघ्नो दयानाथो
दयाकुलः ॥ ८८॥
दामोदरो दीधितिमान् दकाराक्षरमातृकः
।
धर्मबन्धुर्धर्मनिधिर्धर्मराजो
धनप्रदः ॥ ८९॥
धनदेष्टो धनाध्यक्षो धरादर्शो
धुरन्धरः ।
धूर्जटीक्षणवासी च धर्मक्षेत्रो
धराधिपः ॥ ९०॥
धाराधरो धुरीणश्च धर्मात्मा
धर्मवत्सलः ।
धराभृद्वल्लभो धर्मी धकाराक्षरभूषणः
॥ ९१॥
नमप्रियो नन्दिरुद्रो ( ७००) नेता नीतिप्रियो
नयी ।
जगत्त्राता,
जगद्धाता, जगद्धयेय, जगन्निधि,
जगत्साक्षी, जगच्चक्षु, जगन्नाथप्रिय,
अजित, जकाराकारमुकुट, झञ्जाछत्राकृति
झट, झिल्लीश्वर, झकारेश, झञ्जाङ्गुलिकराम्बुज, झञाक्षराञ्चित, टङ्क, टिट्टिभासनसंस्थित, टीत्कार,
टङ्कधारी, ठस्वरूप, ठठाधिप
डम्भर, डामरु, डिण्डी, डामरीश, डलाकृति, डाकिनीसेवित,
डाढी, डढगुल्फाङ्गुलिप्रभ, णेशप्रिय, णवर्णेश, णकारपदपङ्कज,
ताराधिपेश्वर, तथ्य, तन्त्रीवादनतत्पर,
त्रिपुरेश त्रिनेत्रेश, त्रयीतनु, अधोक्षज, ताम, तामरसेष्ट,
तमोहर्ता, तमोरिपु, तन्द्राहर्ता,
तमोरूप, तपः फलदायक, तुट्यादिकलनाकान्त,
तकाराक्षरभूषण, स्थाणुस्थलीस्थित, नित्य, स्थविर, स्थण्डिल,
स्थिर, थकारजानु, अध्यात्मा,
देवनायक, नायक, दुर्जय,
दुःखहा, दाता, दारिद्र्यच्छेदन,
दमी, दौर्भाग्यहर्ता, देवेन्द्र,
द्वादशाराब्ज-मध्यम, द्वादशान्तैकवसति,
द्वादशात्मा, दिवस्पति, दुर्गम,
दैत्यशमन, दूरग, दुरतिक्रम,
दुध्येय, दुष्टवंशघ्न, दयानाथ,
दयाकुल, दामोदर, दीधितिमान,
दकाराक्षरमातृक, धर्म-बन्धु, धर्मनिधि, धर्मराज, धनप्रद,
धनदेष्ट, धनाध्यक्ष, धरादर्श,
धुरन्धर, धूर्जटी, क्षणवासी,
धर्मक्षेत्र, धराधिप, धाराधर,
धुरीण, धर्मात्मा, धर्मवत्सल,
धराभृद्वल्लभ, धर्मी, धकाराक्षरभूषण,
नर्मप्रिय, नन्दिरुद्र, नेता,
नीतिप्रिय, नयी ।।७९-९१।।
नलिनीवल्लभो नुन्नो
नाट्यकृन्नाट्यवर्धनः ॥ ९२॥
नरनाथो नृपस्तुत्यो नभोगामी
नमःप्रियः ।
नमोन्तो नमितारातिर्नरनारायणाश्रयः
॥ ९३॥
नारायणो नीलरुचिर्नम्राङ्गो नीललोहितः
।
नादरूपो नादमयो नादबिन्दुस्वरूपकः ॥
९४॥
नाथो नागपतिर्नागो नगराजाश्रितो नगः
।
नाकस्थितोऽनेकवपुर्नकाराक्षरमातृकः
॥ ९५॥
पद्माश्रयः परं ज्योतिः पीवरांसः
पुटेश्वरः ।
प्रीतिप्रियः प्रेमकरः
प्रणतार्तिभयापहः ॥ ९६॥
परत्राता परध्वंसी पुरारिः
पुरसंस्थितः ।
पूर्णानन्दमयः पूर्णतेजाः
पूर्णेश्वरीश्वरः ॥ ९७॥
पटोलवर्णः पटिमा पाटलेशः परात्मवान्
।
परमेशवपुः प्रांशुः प्रमत्तः
प्रणतेष्टदः ॥ ९८॥
अपारपारदः पीनः पीताम्बरप्रियः पविः
।
पाचनः पिचुलः प्लुष्टः
प्रमदाजनसौख्यदः ॥ ९९॥
प्रमोदी प्रतिपक्षघ्नः
पकाराक्षरमातृकः ।
फलं भोगापवर्गस्य फलिनीशः फलात्मकः
॥ १००॥
फुल्लदम्भोजमध्यस्थः
फुल्लदम्भोजधारकः ।
स्फुटद्योतिः स्फुटाकारः
स्फटिकाचलचारकः ॥ १०१॥
स्फूर्जत्किरणमाली च
फकाराक्षरपार्श्वकः ।
बालो बलप्रियो बान्तो बिलध्वान्तहरो
बली ॥ १०२॥
बालादिर्बर्बरध्वंसी बबोलामृतपानकः
।
बुधो बृहस्पतिर्वृक्षो बृहदश्वो
बृहद्गतिः ॥ १०३॥
बपृष्ठो भीमरूपश्च भामयो
भेश्वरप्रियः ।
भगो भृगुर्भृगुस्थायी भार्गवः
कविशेखरः ॥ १०४॥
भाग्यदो भानुदीप्ताङ्गो भनाभिश्च
भमातृकः ।
महाकालो (८००) महाध्यक्षो महानादो
महामतिः ॥ १०५॥
नलिनीवल्लभ,
नुन्न, नाट्यकृत, नाट्यवर्धन,
नरनाथ, नृपस्तुत्य, नभोगामी,
नमः प्रिय, नमोऽन्त, नमिताराति,
नरनारायणाश्रय, नारायण, नीलरुचि,
नम्राङ्ग, नीललोहित, नादरूप, नादमय, नादबिन्दुस्वरूप नाथ, नागपति,
नाग, नगराजाश्रित, नग,
नाकस्थित, अनेकवपु, नकाराक्षरमातृका,
पद्माश्रय, परंज्योति, पीवरांस,
पुटेश्वर, प्रीतिप्रिय, प्रेयकर,
प्रणतार्तिभयापह परत्राता, परध्वंसी, पुरारि, पुरसंस्थित, पूर्णानन्दमय,
पूर्णतेज, पूर्णेश्वरीश्वर, पटोलवर्ण, पटिमा, पाटलेश,
परात्मवान, परमेशवपु, प्रांशु,
प्रमत्त, प्रणतेष्टद, अपारपारद,
पीन, पीताम्बरप्रिय, पवि,
पाचन, पिचुल, प्लुष्ट,
प्रमदाजनसौख्यद, प्रमोदी, प्रतिपक्षघ्न, पकाराक्षरमातृक, भोगापवर्ग-फल, फलिनीश, फलात्मक,
फुल्लदम्भोजमध्यस्थ, फुल्लदम्भोजधारक, स्फुटज्ज्योति, स्फुटाकार, स्फटिकाचलचारक,
स्फूर्जत्किरणमाली, फकाराक्षरपार्श्वक,
बाल, बलप्रिय, बान्त,
बिलध्वान्तहर, बली, बालादिबर्बरध्वंसी, बब्बोलामृतपानक, बुध, बृहस्पति,
वृक्ष, बृहदश्व, बृहद्गति,
बपृष्ठ, भीमरूप, भामय,
भेश्वरप्रिय, भग, भृगु,
भृगुस्थायी, भार्गव, कविशेखर,
भाग्यद, भानुदीप्ताङ्ग भनाभि, भमातृक, महाकाल, महाध्यक्ष,
महानाद, महामति ।। ९३ १०५ ।।
महोज्ज्वलो मनोहारी मनोगामी मनोभवः
।
मानदो मल्लहा मल्लो
मेरुमन्दरमन्दिरः ॥ १०६॥
मन्दारमालाभरणो माननीयो मनोमयः ।
मोदितो मदिराहारो मार्तण्डो
मुण्डमुण्डितः ॥ १०७॥
महावराहो मीनेशो मेषगो मिथुनेष्टदः
।
मदालसोऽमरस्तुत्यो मुरारिवरदो मनुः
॥ १०८॥
माधवो मेदिनीशश्च मधुकैटभनाशनः ।
माल्यवान् मेधनो मारो मेधावी
मुसलायुधः ॥ १०९॥
मुकुन्दो मुररीशानो मरालफलदो मदः ।
मदनो मोदकाहारो मकाराक्षरमातृकः ॥ ११०॥
यज्वा यज्ञेश्वरो यान्तो योगिनां
हृदयस्थितः ।
यात्रिको यज्ञफलदो यायी यामलनायकः ॥
१११॥
योगनिद्राप्रियो योगकारणं
योगिवत्सलः ।
यष्टिधारी च यन्त्रेशो
योनिमण्डलमध्यगः ॥ ११२॥
युयुत्सुजयदो योद्धा
युगधर्मानुवर्तकः ।
योगिनीचक्रमध्यस्थो युगलेश्वरपूजितः
॥ ११३॥
यान्तो यक्षैकतिलको यकाराक्षरभूषणः
।
रामो रमणशीलश्च रत्नभानू रुरुप्रियः
॥ ११४॥
रत्नमौली रत्नतुङ्गो
रत्नपीठान्तरस्थितः ।
रत्नांशुमाली रत्नाढ्यो
रत्नकङ्कणनूपुरः ॥ ११५॥
रत्नाङ्गदलसद्बाहू रत्नपादुकमण्डितः
।
रोहिणीशाश्रयो रक्षाकरो
रात्रिञ्चरान्तकः ॥ ११६॥
रकाराक्षररूपश्च लज्जाबीजाश्रितो
लवः ।
लक्ष्मीभानुर्लतावासी लसत्कान्तिश्च
लोकभृत् ॥ ११७॥
लोकान्तकहरो लामावल्लभो लोमशोऽलिगः
।
लिङ्गेश्वरो लिङ्गनादो लीलाकारी
ललम्बुसः ॥ ११८॥
लक्ष्मीवाँल्लोकविध्वंसी
लकाराक्षरभूषणः ।
वामनो वीरवीरेन्द्रो वाचालो (९००)
वाक्पतिप्रियः ॥ ११९॥
महोज्ज्वल,
मनोहारी, मनोगामी, मनोभव,
मानद, मल्लहा, मल्ल,
मेरुमन्दरमन्दिर, मन्दारमालाभरण, माननीय, मनोमय, मोदित, मदिराहार, मार्तण्ड, मुण्डमुण्डित,
महा- वराह, मीनेश मेष, मिथुनेष्टद,
मदालस, अमरस्तुत्य, मुरारिवरद,
मनु, माधव, मेदि- नीश,
मधुकैटभनाशन, माल्यवान, मेघन,
मार, मेधावी, मुसलायुध,
मुकुन्द, मुररीशान, मरालफलद,
मद, मोदन, मोदकाहार,
मकाराक्षर, मातृक, यज्वा
यज्ञेश्वर, यान्त योगिनां हृदयस्थित, यात्रिक,
यज्ञफलद, यायी, यामलनायक,
योगनिद्राप्रिय, योगकारण, योगिवत्सल, यष्टिधारी, यन्त्रेश,
योनिमण्डलमध्यग, युयुत्सुजयद, योद्धा, युग धर्मानुवर्तक, योगिनीचक्रमध्यस्थ,
युगलेश्वरपूजित, यान्त, यक्षैकतिलक,
यकाराक्षरभूषण, राम, रमणशील,
रत्नभानु, रुरुप्रिय, रत्नमौली,
रत्नतुङ्ग, रत्नपीठान्तरस्थित रत्नांशुमाली,
रत्नाढ्य, रत्नकङ्कणनूपुर, रत्नाङ्गलसद् वाहु, रत्नपादुकमण्डित, रोहिणीशाश्रय, रक्षाकर, रात्रिंचरान्तक,
रकाराक्षरस्वरूप, लज्जा- बीजाश्रित, लव, लक्ष्मीभानु, लतावासी,
लसत्कान्ति, लोकभृत्, लोकान्तकहर,
लामावल्लभ, लोमश, अलिग,
लिङ्गेश्वर, लिङ्गनाद, लीलाकारी,
ललम्बुस, लक्ष्मीवान, लोकविध्वंसी,
लकाराक्षरभूषण, वामन, वीरवीरेन्द्र,
वाचाल, वाक्पतिप्रिय ।। १०६-११९ ।।
वाचामगोचरो वान्तो वीणावेणुधरो वनम्
।
वाग्भवो वालिशध्वंसी
विद्यानायकनायकः ॥ १२०॥
वकारमातृकामौलिः शाम्भवेष्टप्रदः
शुकः ।
शशी शोभाकरः शान्तः
शान्तिकृच्छमनप्रियः ॥ १२१॥
शुभङ्करः शुक्लवस्त्रः श्रीपतिः
श्रीयुतः श्रुतः ।
श्रुतिगम्यः शरद्बीजमण्डितः
शिष्टसेवितः ॥ १२२॥
शिष्टाचारः शुभाचारः शेषः
शेवालताडनः ।
शिपिविष्टः शिबिः शुक्रसेव्यः शाक्षरमातृकः ॥ १२३॥
षडाननः षट्करकः षोडशस्वरभूषितः ।
षट्पदस्वनसन्तोषी षडाम्नायप्रवर्तकः
॥ १२४॥
षड्सास्वादसन्तुष्टः
षकाराक्षरमातृकः ।
सूर्यभानुः सूरभानुः सूरिभानुः
सुखाकरः ॥ १२५॥
समस्तदैत्यवंशघ्नः समस्तसुरसेवितः ।
समस्तसाधकेशानः समस्तकुलशेखरः ॥ १२६॥
सुरसूर्यः सुधासूर्यः स्वःसूर्यः
साक्षरेश्वरः ।
हरित्सूर्यो हरिद्भानुर्हविर्भुग्
हव्यवाहनः ॥ १२७॥
हालासूर्यो होमसूर्यो हुतसूर्यो
हरीश्वरः ।
ह्राम्बीजसूर्यो ह्रींसूर्यो
हकाराक्षरमातृकः ॥ १२८॥
ळम्बीजमण्डितः सूर्यः क्षोणीसूर्यः
क्षमापतिः ।
क्षुत्सूर्यः क्षान्तसूर्यश्च ळङ्क्षःसूर्यः सदाशिवः ॥ १२९॥
अकारसूर्यः क्षःसूर्यः सर्वसूर्यः
कृपानिधिः ।
भूःसूर्यश्च भुवःसूर्यः स्वःसूर्यः
सूर्यनायकः ॥ १३०॥
ग्रहसूर्य ऋक्षसूर्यो लग्नसूर्यो
महेश्वरः ।
राशिसूर्यो योगसूर्यो मन्त्रसूर्यो
मनूत्तमः ॥ १३१॥
तत्त्वसूर्यः परासूर्यो
विष्णुसूर्यः प्रतापवान् ।
रुद्रसूर्यो ब्रह्मसूर्यो वीरसूर्यो
वरोत्तमः ॥ १३२॥
धर्मसूर्यः कर्मसूर्यो विश्वसूर्यो
विनायकः । (१०००)
वाचामगोचर,
वान्त, वीणावेणुधर, वन,
वाग्भव, वालिशध्वंसो, विद्यानायकनायक,
वकारमातृकामौलि, शाम्भवेष्टप्रद, शुक, शशी, शोभाकर, शान्त, शान्तिकृत्, शमनप्रिय,
शुभङ्कर, शुक्लवस्त्र, श्रीपति,
श्रीयुत श्रुत, श्रुतिगम्य, शरद् बीजमण्डित, शिष्टसेवित, शिष्टाचार,
शुभाचार, शेष, शेवालताड़न,
शिपिविष्ट, शिवि, शुक्रसेव्य,
शाक्षरमातृक, षडानन, षट्करक,
षोड़शस्वरभूषित, षट्पदस्वनसन्तोषी, षडाम्नायप्रवर्तक, षड्रसास्वाद- सन्तुष्ट, षकाराक्षरमातृक, सूर्यभानु, सूरभानु,
सूरिभानु, सुखाकर, समस्तदैत्यवंशघ्न,
समस्तसुरसेवित, समस्तसाधकेशान, समस्तकुलशेखर, सुरसूर्य, सुधासूर्य,
स्वः सूर्य, साक्षरेश्वर, हरित्सूर्य, हरिद्भानु, हविर्भुक्
हव्यवाहन, हालासूर्य, होमसूर्य,
हुतसूर्य, हरीश्वर, हांबीजसूर्य,
ह्रीसूर्य, हकाराक्षरमातृक, ळंबीजमण्डितसूर्य, क्षोणीसूर्य, क्षमापति, क्षुत्सूर्य, क्षान्तसूर्य,
ळंक्षंसूर्य, सदाशिव, अकारसूर्य,
क्षःसूर्य, सर्वसूर्य, कृपानिधि,
भूः सूर्य, 'भुव: सूर्य, स्व:सूर्य, सूर्यनायक, ग्रहसूर्य,
ऋक्षसूर्य, लग्नसूर्य, महेश्वर,
राशिसूर्य, योगसूर्य, मन्त्रसूर्य,
मनूत्तम, तत्त्वत्सूर्य, परासूर्य, विष्णुसूर्य, प्रतापवान,
रुद्रसूर्य, ब्रह्मसूर्य, वीरसूर्य, वरोत्तम, धर्मसूर्य,
कर्मसूर्य, विश्वसूर्य विनायक।।१२०-१३२।।
श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम्
फलश्रुतिः
इतीदं देवदेवेशि मत्रनामसहस्रकम् ॥
१३३॥
देवदेवस्य सवितुः सूर्यस्यामिततेजसः
।
सर्वसारमयं दिव्यं
ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ॥ १३४॥
ब्रह्मज्ञानमयं पुण्यं
पुण्यतीर्थफलप्रदम् ।
सर्वयज्ञफलैस्तुल्यं
सर्वसारस्वतप्रदम् ॥ १३५॥
सर्वश्रेयस्करं लोके कीर्तिदं धनदं
परम् ।
सर्वव्रतफलोद्रिक्तं
सर्वधर्मफलप्रदम् ॥ १३६॥
हे देवदेवेशि ! यह मन्त्र नामसहस्र
समाप्त हुआ। अमित तेजस्वी सूर्यदेव का सर्वसारमय दिव्य सहस्रनाम ब्रह्म तेजविवर्धक
है। यह ब्रह्मज्ञानमय, पुनीत, पुण्यफलप्रदायक है। सभी यज्ञ के फलों के समान है सभी सारस्वत प्रदायक है।
सर्वश्रेयष्कर, संसार में कीर्तिप्रद, धनप्रद
और श्रेष्ठ है। सर्वव्रतफलों का दायक और सर्वधर्म फलप्रद है।। १३३-१३६ ।।
सर्वरोगहरं देवि शरीरारोग्यवर्धनम्
।
प्रभावमस्य देवेशि नाम्नां
सहस्रकस्य च ॥ १३७॥
कल्पकोटिशतैर्वर्षैर्नैव शक्नोमि
वर्णितुम् ।
यं यं काममभिध्यायेद् देवानामपि
दुर्लभम् ॥ १३८॥
तं तं प्राप्नोति सहसा पठनेनास्य
पार्वति ।
यः पठेच्छ्रावयेद्वापि शृणोति
नियतेन्द्रियः ॥ १३९॥
स वीरो धर्मिणां राजा लक्ष्मीवानपि
जायते ।
धनवाञ्जायते लोके पुत्रवान्
राजवल्लभः ॥ १४०॥
आयुरारोग्यवान् नित्यं स भवेत्
सम्पदां पदम् ।
देवि! यह सर्वरोगहर एवं
शरीरारोग्यवर्धक है। इस सहस्रनाम के प्रभाव का वर्णन करोड़ कल्प सौं वर्ष में भी
मैं नहीं कर सकता। देवों को भी दुर्लभ जिस-जिस कामना से इसका पाठ किया जायगा,
वे सभी इसके पाठमात्र से प्राप्त होती है। जो नियतेन्द्रिय होकर
इसका पाठ करता है या सुनाता है या सुनता है, वह वीर साधक
धार्मिकों का राजा एवं लक्ष्मीवान होता है। संसार में वह धनवान होता है, पुत्रवान होता है और राजाओं का प्रिय होता है।। १३७-१४० ।।
रवौ पठेन्महादेवि सूर्यं सम्पूज्य
कौलिकः ॥ १४१॥
सूर्योदये रविं ध्याता लभेत् कामान्
यथेप्सितान् ।
सङ्क्रान्तौ यः पठेद् देवि त्रिकालं
भक्तिपूर्वकम् ॥ १४२॥
इह लोके श्रियं भुक्त्वा सर्वरोगैः
प्रमुच्यते ।
सप्तम्यां शुक्लपक्षे यः
पठदस्तङ्गते रवौ ॥ १४३॥
सर्वारोग्यमयं देहं धारयेत्
कौलिकोत्तमः ।
आयु-आरोग्यवान होकर नित्य
सम्पत्तियों से युक्त रहता है। हे महादेवि! रविवार में सूर्य को पूजकर जो कौलिक
इसका पाठ उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हुए करता है, वह यथेष्ट कामनाओं को पूरा कर लेता है। संक्रान्ति के अवसर पर जो इसका पाठ
भक्तिपूर्वक तीनों कालों में करता है, वह इस संसार में
श्रीसम्पदा का भोग करके सभी रोगों से मुक्त होता है। रविवार की सप्तमी तिथि शुक्ल
पक्ष में सूर्यास्त काल में जो इसका पाठ करता है, वह कौलिक
पूर्ण आरोग्यमय शरीर धारण करता है।। १४१-१४३ ।।
व्यतीपाते पठेद् देवि मध्याह्ने
संयतेन्द्रियः ॥ १४४॥
धनं पुत्रान् यशो मानं लभेत्
सूर्यप्रसादतः ।
चक्रार्चने पठेद् देवि जपन् मूलं
रविं स्मरन् ॥ १४५॥
रवीभूत्वा महाचीनक्रमाचारविचक्षणः ।
सर्वशत्रून् विजित्याशु
लभेल्लक्ष्मीं प्रतापवान् ॥ १४६॥
व्यतीपात योग में मध्याह्न में
संयतेन्द्रिय होकर जो इसका पाठ करता है, उसे
सूर्य की कृपा से धन, पुत्र, यश और मान
मिलता है। हे देवि! महाचीनक्रम के आचार में दक्ष कौलिक यदि चक्रार्चन में इसका पाठ
करता है एवं सूर्य का स्मरण करते हुए मूल मन्त्र का जप करता है, वह सूर्य के समान होकर सभी शत्रुओं को जीतकर लक्ष्मीयुक्त एवं प्रतापी
होता है।। १४४-१४६ ।।
यः पठेत् परदेशस्थो वटुकार्चनतत्परः
।
कान्ताश्रितो वीतभयो भवेत् स
शिवसन्निभः ॥ १४७॥
शतावर्तं पठेद्यस्तु
सूर्योदययुगान्तरे ।
सविता सर्वलोकेशो वरदः सहसा भवेत् ॥
१४८॥
बहुनात्र किमुक्तेन पठनादस्य
पार्वति ।
इह लक्ष्मीं सदा भुक्त्वा
परत्राप्नोति तत्पदम् ॥ १४९॥
परदेश में
वटुक के पूजन में तत्पर शक्ति के साथ निर्भय होकर जो इसका पाठ करता है,
वह शिव के समान हो जाता है। एक युग के अन्त और दूसरे युग के
प्रारम्भ अर्थात् युगादि काल में सूर्योदय के समय जो इसका पाठ सौ बार करता है,
उसके लिये सर्वलोकेश सविता सहसा वरद होते हैं। बहुत कहने से क्या
लाभ; हे पार्वति! इसके पाठ से साधक इस संसार में सदा लक्ष्मी
का भोग करता है और देहान्त के बाद सूर्यलोक प्राप्त करता है।। १४७-१४९ ।।
रवौ देवि लिखेद्भूर्जे
मन्त्रनामसहस्रकम् ।
अष्टगन्धेन दिव्येन
नीलपुष्पहरिद्रया ॥ १५०॥
पञ्चामृतौषधीभिश्च
नृयुक्पीयूषबिन्दुभिः ।
विलिख्य विधिवन्मन्त्री
यन्त्रमध्येऽर्णवेष्टितम् ॥ १५१॥
गुटीं विधाय संवेष्ट्य मूलमन्त्रमनुस्मरन्
।
कन्याकर्तितसूत्रेण
वेष्टयेद्रक्तलाक्षया ॥ १५२॥
सुवर्णेन च संवेष्ट्य पञ्चगव्येन
शोधयेत् ।
साधयेन्मन्त्रराजेन धारयेन्मूर्ध्नि
वा भुजे ॥ १५३॥
हे देवि! रविवार में इस
मन्त्रनामसहस्र को भोजपत्र पर दिव्य अष्टगन्ध में नीला पुष्प, हल्दी, पञ्चामृत, औषधि,
नृयुक्पीयूष बिन्दु के मिश्रण से विधिवत् लिखकर यन्त्र में
अर्णवेष्टित करके गुटिका बनाकर मूल मन्त्र का स्मरण करते हुए कुमारी कन्या द्वारा
काते सूत से वेष्टित करके लाह से वेष्टित करे। तब सोने से मढ़वाकर पञ्चगव्य से
उसका शोधन करे। मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित करे। मूर्धा में या भुजा में धारण करे।।
१५०-१५३ ।।
किं किं न साधयेद् देवि यन्ममापि
सुदुर्लभम् ।
कुष्ठरोगी च शूली च प्रमेही
कुक्षिरोगवान् ॥ १५४॥
भगन्धरातुरोऽप्यर्शी अश्मरीवांश्च
कृच्छ्रवान् ।
मुच्यते सहसा धृत्वा गुटीमेतां
सुदुर्लभाम् ॥ १५५॥
वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च
कामिनी ।
धारयेद्गुटिकामेतां वक्षसि
स्मयतर्पिता ॥ १५६॥
वन्ध्या लभेत् सुतं कान्तं
काकवन्ध्यापि पार्वति ।
मृतवत्सा बहून् पुत्रान् सुरूपांश्च
चिरायुशः ॥ १५७ ॥
रणे गत्वा गुटीं धृत्वा
शत्रूञ्जित्वा लभेच्छ्रियम् ।
अक्षताङ्गो महाराजः सुखी स्वपुरमाविशेत्
॥ १५८॥
ऐसा करने से साधक को मेरे लिये भी
दुर्लभ पदार्थ प्राप्त होते हैं। कुष्ठरोगी, शूली,
प्रमेही, कुक्षिरोगी, भगन्दर
से आतुर, अर्शरोगी, अश्मरी रोगी,
कृच्छ्रवान इस दुर्लभ गुटिका को धारण करके तुरन्त रोग मुक्त हो जाते
हैं। वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा
कामिनी यदि इस गुटिका को मुझे अर्पित करके वक्ष में धारण करती है तो बन्ध्या को
सुन्दर पुत्र होता है। काकवन्ध्या को भी सुन्दर पुत्र होता है। मृतवत्सा को बहुत
से सुन्दर दीर्घायु पुत्र प्राप्त होते हैं। गले में इस गुटिका धारण करके यदि
युद्ध में जाये तो शत्रु को जीतकर विजयश्री लाभ करता है। महाराजा बिना किसी चोट
घाव के अपने नगर में सुखपूर्वक लौट आता है।। १५४-१५८ ।।
यो धारयेद् भुजे नित्यं
राजलोकवशङ्करीम् ।
गुटिकां
मोहनाकर्षस्तम्भनोच्चाटनक्षमाम् ॥ १५९॥
स भवेत् सूर्यसङ्काशो महसा महसां
निधिः ।
धनेन धनदो देवि विभवेन च शङ्करः ॥
१६०॥
श्रियेन्द्रो यशसा रामः पौरुषेण च
भार्गवः ।
गिरा बृहस्पतिर्देवि नयेन
भृगुनन्दनः ॥ १६१॥
बलेन वायुसङ्काशो दयया पुरुषोत्तमः
।
आरोग्येण घटोद्भूतिः कान्त्या
पूर्णेन्दुसन्निभः ॥ १६२॥
राजलोक-वशंकरी इस गुटिका जो नित्य
अपनी भुजा में धारण किए रहता है, उसमें मोहन,
आकर्षण, स्तम्भन और उच्चाटन की क्षमता होती
है। वह सूर्य के समान प्रकाशमान प्रकाशनिधि होकर धन में कुबेर के समान और वैभव में
शंकर के समान हो जाता है। श्रीमानों में इन्द्र, यशस्वियों
में राम, पौरुष में परशुराम, वाणी में वृहस्पति,
न्याय में शुक्राचार्य, बल में वायु, दया में पुरुषोत्तम, आरोग्य में अगस्त्य एवं कान्ति
में पूर्णिमा के चाँद के समान होता है ।। १५९-१६२ ।।
धर्मेण धर्मराजश्च रत्नै
रत्नाकरोपमः ।
गाम्भीर्येण तथाम्भोधिर्दातृत्वेन
बलिः स्वयम् ॥ १६३॥
सिद्ध्या श्रीभैरवः साक्षादानन्देन चिदीश्वरः
।
किं प्रलापेन बहुना पठेद्वा
धारयेच्छिवे ॥ १६४॥
शृणुयाद् यः परं दिव्यं
सूर्यनामसहस्रकम् ।
स भवेद् भास्करः साक्षात्
परमानन्दविग्रहः ॥ १६५॥
स्वतन्त्रः स प्रयात्यन्ते
तद्विष्णोः परमं पदम् ।
इदं दिव्यं महत् तत्त्वं
सूर्यनामसहस्रकम् ॥ १६६॥
धर्म में धर्मराज के समान,
रत्नों में रत्नाकर जैसा, गाम्भीर्य में सागर
जैसा, दाताओं में बलि के समान होता है। सिद्धों में श्रीभैरव,
साक्षात् आनन्द में चिदीश्वर जैसा होता है। बहुत प्रलाप से क्या लाभ?
जो इसका पाठ करता है या धारण करता है या श्रवण करता है, वह सूर्यनामसहस्त्र के परम दिव्य प्रभाव से साक्षात् सूर्य के समान परमानन्द
विग्रह होता है। देहान्त के बाद वह मुक्त होकर विष्णु के परम पद को प्राप्त करता
है। सूर्य नाम सहस्र का यह महान् दिव्य तत्त्व है।।१६३-१६६ ।।
अप्रकाश्यमदातव्यमवक्तव्यं
दुरात्मने ।
अभक्ताय कुचैलाय परशिष्याय पार्वति
॥ १६७॥
कर्कशायाकुलीनाय दुर्जनायाघबुद्धये
।
गुरुभक्तिविहीनाय निन्दकाय शिवागमे
॥ १६८॥
देयं शिष्याय शान्ताय गुरुभक्तिपराय
च ।
कुलीनाय सुभक्ताय सूर्यभक्तिरताय च
॥ १६९॥
इदं तत्त्वं हि तत्त्वानां
वेदागमरहस्यकम् ।
सर्वमन्त्रमयं गोप्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥ १७०॥
यह सहस्रनाम दुष्टों को बतलाने
योग्य,
देने योग्य या कहने योग्य इसे नहीं है। अभक्त, कुचैल, परशिष्य को भी नहीं बतलाना चाहिये। कर्कश,
अकुलीन, दुर्जन, पापबुद्धि,
गुरुभक्तिविहीन, शिवागमों के निन्दक को यह
बतलाने योग्य नहीं है। शान्त, गुरुभक्ति-परायण, कुलीन, उत्तम भक्त, सूर्यभक्ति
में लग्न शिष्य को ही इसे देना चाहिये। यह तत्त्वों का त्तत्त्व, वेदों एवं आगमों का रहस्य, सर्वमन्त्रमय होने के
कारण पूर्णतः गोप्य है। इसे अपनी योनि के समान ही गुप्त रखना चाहिये ।।१६७-१७० ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये सूर्यसहस्रनामनिरूपणं नाम चतुस्त्रिंशः पटलः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में सूर्यसहस्रनाम निरूपण नामक चतुस्त्रिंश पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 35
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