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- अग्निपुराण अध्याय १४५
- अग्निपुराण अध्याय १४४
- अग्निपुराण अध्याय १४३
- अग्निपुराण अध्याय १४२
- सूर्य मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजराख्य सूर्य कवच
- देवीरहस्य पटल ३२
- देवीरहस्य पटल ३१
- अग्निपुराण अध्याय १४१
- अग्निपुराण अध्याय १४०
- अग्निपुराण अध्याय १३९
- अग्निपुराण अध्याय १३८
- रहस्यपञ्चदशिका
- महागणपति मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजर महागणपति कवच
- देवीरहस्य पटल २७
- देवीरहस्य पटल २६
- देवीरहस्य
- श्रीदेवीरहस्य पटल २५
- पञ्चश्लोकी
- देहस्थदेवताचक्र स्तोत्र
- अनुभव निवेदन स्तोत्र
- महामारी विद्या
- श्रीदेवीरहस्य पटल २४
- श्रीदेवीरहस्य पटल २३
- अग्निपुराण अध्याय १३६
- श्रीदेवीरहस्य पटल २२
- मनुस्मृति अध्याय ७
- महोपदेश विंशतिक
- भैरव स्तव
- क्रम स्तोत्र
- अग्निपुराण अध्याय १३३
- अग्निपुराण अध्याय १३२
- अग्निपुराण अध्याय १३१
- वीरवन्दन स्तोत्र
- शान्ति स्तोत्र
- स्वयम्भू स्तव
- स्वयम्भू स्तोत्र
- ब्रह्मा स्तुति
- श्रीदेवीरहस्य पटल २०
- श्रीदेवीरहस्य पटल १९
- अग्निपुराण अध्याय १३०
- अग्निपुराण अध्याय १२९
- परमार्थ चर्चा स्तोत्र
- अग्निपुराण अध्याय १२८
- अग्निपुराण अध्याय १२७
- अग्निपुराण अध्याय १२६
- परमार्थद्वादशिका
- अग्निपुराण अध्याय १२५
- अग्निपुराण अध्याय १२४
- अग्निपुराण अध्याय १२३
- ब्रह्म स्तुति
- अनुत्तराष्ट्रिका
- ज्येष्ठब्रह्म सूक्त
- श्रीदेवीरहस्य पटल १८
- श्रीदेवीरहस्य पटल १७
- ब्रह्म स्तव
- अभीष्टद स्तव
- श्रीदेवीरहस्य पटल १६
- श्रीदेवीरहस्य पटल १५
- मनुस्मृति अध्याय ६
- श्रीदेवीरहस्य पटल १४
- श्रीदेवीरहस्य पटल १३
- अग्निपुराण अध्याय १२२
- अग्निपुराण अध्याय १२१
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
देवीरहस्य पटल ३२
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ३२ में सूर्यपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत सूर्यपूजापद्धति के विषय में बतलाया
गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् द्वात्रिंशः पटल: सूर्यपूजापद्धतिः
Shri Devi Rahasya Patal 32
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य बत्तीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् द्वात्रिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ३२ सूर्य पूजा पद्धति
अथ द्वात्रिंशः पटल:
सूर्यपूजापद्धतिः
श्रीभैरव उवाच
अद्याहं सवितुर्वक्ष्ये
नित्यपूजारहस्यकम् ।
पद्धतिं परमां दिव्यां शृणु पार्वति
सादरम् ॥ १ ॥
पञ्चकृत्यमकृत्वा यो गायत्री सञ्जपेच्छिवे
।
स पातकी भवेद्रोगी यदिदं शिवशासनम्
॥ २ ॥
सवितुर्नित्यपूजायाः पद्धतिं गद्यरूपिणीम्
।
सर्वतत्त्वरहस्याढ्यां वक्ष्येऽहं प्राणवल्लभे
॥ ३ ॥
श्री भैरव बोले- हे पार्वति !
आदरपूर्वक सुनो, अब मैं सविता के नित्य पूजन का
महत्त्व बतलाता हूँ। पञ्चाङ्ग सेवन के बिना जो गायत्री का जप करता है, वह शिवशासनानुसार पापी और रोगी होता है। हे प्राणवल्लभे! गद्य-रूप में,
सभी तत्त्वों से परिपूर्ण सविता नित्य पूजन की पद्धति का वर्णन मैं
करता हूँ ।। १-३ ।।
ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय
बद्धपद्मासनः स्वशिरः स्थसहस्राराधोमुखकमल- कर्णिकामध्यवर्तिनं श्रीगुरुं
चिदानन्दस्वरूपं ध्यात्वा नुत्वा तद्दर्शनानन्दाप्लुतो भूत्वा 'हंसः सोहं स्वाहा' इति सञ्जप्य जपं हंसाय निवेद्य,
'सोहं हंसः स्वाहा' इति ध्यात्वा जप्त्वा
गुरवे निवेद्य, तदाज्ञां गृहीत्वा बहिरागत्य मलादीन्
संत्यज्य, वर्णानुरूपं शौचं विधाय देवं ध्यात्वा
प्राणायामत्रयं विधाय तत्त्वत्रयेणाचम्य दन्तधावनं कुर्यात्। तद्यथा— क्लीं सर्वजनमनोहराय कामदेवाय वौषट् इति दन्तान् संशोध्य, ह्रामिति गण्डूषत्रयं विधाय प्रणवेन त्रिराचम्य शिरोमुखहृत्कुक्षिनाभिपृष्ठलिङ्ग-
जानुपादेषु प्रत्येकं मूलबीजाक्षराणि न्यसेत् ।
ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पद्मासन
बाँधकर बैठे अपने मस्तक में स्थित अधोमुख सहस्रदल कमल की कर्णिका में स्थित
चिदानन्दस्वरूप गुरु का ध्यान करे। उनको प्रणाम करे। उनके दर्शन से आनन्दप्लुत
होकर 'हंसः सोहं स्वाहा' का
जप करके हंस को जप निवेदित कर दे। 'सोहं हंसः स्वाहा'
से फिर ध्यान करके जप करे और इसे गुरु को निवेदित करे। गुरु की
आज्ञा लेकर बाहर जाकर मलोत्सर्ग करे। वर्णानुरूप शौच करके देव का ध्यान करके तीन
प्राणायाम करे तीन तत्त्वों से आचमन करके दतुवन करे।
दाँतों का शोधन 'क्लीं सर्वजनमनोहराय कामदेवाय वौषट्'
से करे 'ह्रां' से
तीन बार कुल्ला करे। प्रणव से तीन आचमन करे। इसके बाद मूल मन्त्र-वर्ण से न्यास
करे।
जैसे- ॐ नमः शिरसि। ह्रां नमः मुखे।
ह्रीं नमः हृदये। सः नमः कुक्षौ। सूं नमः नाभौ। र्यां नमः पृष्ठे। यं नमः लिगे। नं
नमः जानौ। मः नमः पादयोः ।
तत उपस्पृश्य मायाबीजेन ताराद्येन
प्राणायामत्रयं कुर्यात् । पूरकं १६ कुम्भकं ६४ रेचकं ३२ इति
प्राणापानसमानोदानव्यानादीन् नियम्य, नद्यादौ
गत्वा मृत्त्रयं मूलेन त्रिधाभिमन्त्र्य, मलापकर्षणं स्नानं
निर्माय ॐ गां गीं गूं ।
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति
।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ॥
इत्यङ्कुशमुद्रया
सूर्यमण्डलात्तीर्थान्यावाह्य,
ॐ भगवन् भवभूतेश ग्रहनायक भास्कर ।
चिद्रूप वेदनेत्रेश
परमार्थाद्वयप्रभो ॥
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावद्भानो
इहावह ।
इसके बाद बैठकर 'ॐ ह्रीं' से तीन
प्राणायाम करे। ॐ ह्रीं के १६ मानसिक जप से पूरक, ६४
जप से कुम्भक और ३२ जप से रेचक करे। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यानादि प्राणों
को नियमित करे। तब नदी तट पर जाकर मिट्टी को मूल मन्त्र के तीन जप से अभिमन्त्रित
करे। मलापकर्षण स्नान करे। सूर्यमण्डल से अङ्कुश मुद्रा से तीर्थों का आवाहन करे
आवाहन मन्त्र है-
ॐ गां गीं गं गंगे च यमुने चैव
गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ।।
देवता का आवाहन करे। जैसे-
ॐ भगवन् भवभूतेश ग्रहनायक भास्कर ।
चिद्रूप वेदनेत्रेश परमार्थाद्वयोप्रभो।
यावत् त्वां तर्पयिष्यामि तावद्
भानो इहावह।।
इत्यावाह्य,
तृतीयां मृदमङ्गे विलिप्य मूलं सप्तधा समुच्चार्य, कुम्भमुद्रां प्रदर्श्य जले त्रिरुन्मज्जेत्। इति स्नात्वा देवं ध्यात्वा
मूलेन देवायार्घ्यत्रयं दत्त्वा मूलविद्यां दशधा जप्त्वा सूर्यगायत्र्या
महामार्तण्डायार्घ्यत्रयं दद्यात् । ॐ ह्रीं सूर्यरूपाय विद्महे ह्रींसः
ज्योतीरूपाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ३। ॐ हंसः महामार्तण्डाय
प्रकाशशक्तिसहिताय एष तेऽर्घो नमः । इत्यर्घ्यत्रयं दत्त्वा मूलेन
त्रिर्मार्जनपूर्वमाचम्य वासोऽन्यत् परिधाय संध्यां कुर्यात् । यथा - जले त्र्यनं
कृत्वा स्वदेह उपस्पृश्य वामहस्ते जलं धृत्वा दक्षहस्तेनाच्छाद्य, लंवंरंयहं इति त्रिरभिमन्त्र्य दक्षकरें धृत्वा तद्गलि- ताम्बुबिन्दुभिः
स्वमूर्ध्नि द्वादशधा संमार्ज्य, इडया तज्जलमन्तर्नीत्वा,
शारीरं कलुषं प्रक्षाल्य वामनासया विरेच्य तज्जलं कृष्णं पापरूपं
स्ववामभाग- स्थवज्रशिलायामास्फालेयेदिति मलापकर्षणं कृत्वा, ॐ
ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं
शोधयामि स्वाहा, ॐ ह्री शिवतत्त्वं
शोधयामि स्वाहा, इति त्रिराचम्य,
पूर्ववत् १६ । ६४ । ३२ त्रिः प्राणानायम्य गायत्री दशधा जपेत् ।
सवितुर्देवि गायत्री कौलिको दशधा
जपेत् ।
महापातकयुक्तोऽपि सर्वरोगैः
प्रमुच्यते ॥
इति जप्त्वा,
मूलं यथाशक्त्या जप्त्वा जपं देवाय समर्प्य, मूलमुच्चार्य
उद्वमन्तमनाभासं परमं व्योम
चिन्मयम् ।
अव्ययं सच्चिदाकाशमगमन्
ज्योतिरुत्तमम् स्वाहा ॥
इत्युपस्थाय जलाञ्जलिं दत्त्वा
पुनर्जले श्रीचक्रं वा योनिचक्रं बिन्दुमण्डितं विलिख्य,
मूलान्ते श्रीमहामार्तण्डदेवः सूर्यः सविता
विस्फुरासहितस्तृप्यतामिति द्वादशवारं संतर्प्य, प्रत्येकं
परिवारदेवताः संतर्प्य पित्रादितर्पणं विधाय त्रिराचम्य, स्नानेशाय
वरुणाय ॐ ह्रूंश्रूंवां वरुणाय वौषट् इति नत्वा, देवं
सदेवीकं विसृज्य, हृत्कुशेशयकोशान्तलनं ध्यात्वा, स्नानशाटी निर्वर्त्य यागमण्डपमागच्छेदिति सन्ध्याविधिः ।
इस प्रकार आवाहन करके अपने अङ्गों
में तीन बार मिट्टी का लेप करे। मूल मन्त्र का जप सात बार करे। कुम्भ मुद्रा
दिखाकर जल में तीन बार स्नान करे। इस प्रकार स्नान करके देव का ध्यान करके मूल
मन्त्र से तीन अर्घ्य प्रदान करे। मूल मन्त्र का जप दश बार करे। पूर्ववर्णित
सूर्यगायत्री से महामार्तण्ड को तीन अर्घ्य प्रदान करें। सूर्य गायत्री इस प्रकार
है-
ॐ ह्रीं सूर्यरूपाय विद्महे ह्रीं
सः ज्योतीरूपाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्।
ॐ हंसः महामार्तण्डाय
प्रकाशशक्तिसहिताय एष तेऽर्घ्यो नमः ।
अर्घ्य के बाद मूल मन्त्र से तीन
मार्जन करके आचमन करे और वस्त्र बदल कर सन्ध्या करे। जल में त्रिकोण कल्पित करे। अपने
शरीर का स्पर्श करे। बाँयें हाथ में जल लेकर दाँयें हाथ से उसे ढँके । तीन बार लं
वं रं यं हं के जप से जल को अभिमन्त्रित करे। तब जल को दाहिने हाथ में लेकर उससे
टपकते बूँदों से अपने मूर्धा पर मार्जन करे। इड़ा नाड़ी से जल को भीतर खींचकर
पापरूप शरीर कलुष का प्रक्षालन करे। वाम नासा से जल का विरेचन करे। उस जल में
कृष्ण पापरूप को अपने वाम भागस्थ कल्पित वज्रशिला पर पटक दे। यही मलापकर्षण क्रिया
है।
तीन बार आचमन करे;
जैसे-
ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा
।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि
स्वाहा।
ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि स्वाहा
।
पूर्ववत् १६,
६४, ३२ मात्रा से पूरक, कुम्भक,
रेचक करके दश बार गायत्री का जप करे। कौलिक देवीगायत्री का जप दश
बार करे। इससे महापातकी भी सभी रोगों से मुक्त हो जाता है। मूलमन्त्र का यथाशक्ति
जप करके जप देवता को समर्पित करे। मूल मन्त्र बोलकर यह मन्त्र पढ़े-
उद्वमन्तमनाभासं परमं व्योम
चिन्मयम् ।
अव्ययं संचिदाकाशमगमन्
ज्योतिरुत्तमम् स्वाहा।।
जलाञ्जलि प्रदान करे। फिर जल में
श्रीचक्र या योनिचक्र में बिन्दुसहित अङ्कित करके मूल मन्त्र के अन्त में 'श्रीमहामार्तण्डदेवः सूर्यः सविता विस्फुरासहितस्तृप्यताम्' से दश बार तर्पण करे। प्रत्येक परिवारदेवता का तर्पण करें। पितरों का
तर्पण करे। तीन आचमन करे। जलदेवता वरुण को इस मन्त्र से नमस्कार करे। जैसे—
स्नानेशाय वरुणाय ॐ ह्रूं श्रूं वां
वरुणाय वौषट् ।
देवी सहित देव को विसर्जित करे। हृत्कुशेशयकोशान्तर्लीनरूप
में ध्यान करके स्नान धोती को निचोड़कर यागमण्डप में प्रवेश करे।
तत्र पादौ प्रक्षाल्य गेहान्तः
प्रविश्य सामान्याघ्योंदकेनाभ्युक्ष्य, ॐ
ह्रां देहल्यै नमः, ॐ गं गणपतये नमः, ॐ
सं सरस्वत्यै नमः, ॐ दुं दुर्गायै नमः, ॐ क्षां क्षेत्रपालाय नमः, मध्ये वास्तुदेवताभ्यो
नमः इति पूर्वद्वारादारभ्योत्त- रद्वारपर्यन्तमभ्यर्च्य, द्वारोर्ध्वे
गङ्गायै नमः, दक्षिणे यमुनायै नमः, द्वाराधः
सरस्वत्यै नमः, उत्तरे चक्रायै नमः, मध्ये
सुधार्णवाय नमः, इति संपूज्य मूलेन निरीक्ष्य, छोटिकाभिः संताड्य यथार्हमासन उपविश्य शोधनं कुर्यात् । ॐ आं
आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसनशोधने विनियोगः। ॐ
प्रीं पृथिव्यै नमः।
ॐ महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ॥
पाँव धोकर यागमण्डप में प्रवेश करे।
सामान्य अर्घ्यजल से प्रोक्षण करे। पूजन करें। मन्त्र है –
ॐ ह्रां देहल्यै नमः । ॐ गं गणपतये
नमः । ॐ सं सरस्वत्यै नमः । ॐ दुं दुर्गायै नमः । ॐ क्षां क्षेत्रपालाय नमः ।
मध्ये वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
इस प्रकार पूर्व द्वार से प्रारम्भ
करके उत्तर द्वार तक पूजन करके द्वार का पूजन करें। द्वार के ऊपरी भाग में गङ्गायै
नमः,
दक्षिण भाग में यमुनायै नमः, अधोभाग में
सरस्वत्यै नमः, उत्तर में चक्रायै नमः, मध्य में सुधार्णवायै नमः। पूजन के बाद मूल मन्त्र से निरीक्षण करे।
छोटिका से ताड़न करे योग्य आसन पर बैठकर शोधन करे।
ॐ आं आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ
ऋषिः,
सुतलं छन्दः, कूम देवता, आसनशोधने विनियोगः । ॐ प्रीं पृथिव्यै नमः ।
ॐ महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
ॐ क्रांह्रांह्रीं
आधारशक्तिकमलासनाय नमः, ॐ अनन्ताय नमः,
पद्मनालाय नमः, पद्माय नमः, परागेभ्यो नमः, अष्टदलपद्मासनाय नमः, सहस्रदल-पद्मासनाय नमः, ॐहंसः श्रीकर्णिकायै नमः,
सप्ततुरगेभ्यो नमः, इति संपूज्य दिव्यदृष्ट्या
दिव्यांस्तालत्रयेणान्तरिक्षगतान् वामपाणिघातत्रयेण भौमान् विघ्नानुत्सार्य,
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ।।
इत्यक्षतप्रक्षेपेण भूतान्निःसार्य,
ॐ ह्रः अस्त्राय फडिति दिग्बन्धनं कृत्वा, 'ॐ
हंसः मां रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा' इत्यात्मरक्षां विधाय,
हूं फट् वाम-नासया वायुमापूर्य, ह्रीं फट्
कुम्भयित्वा सः फट् विरेच्य, स्वात्मानं हंसरूपं ध्यात्वा ॐ
हूंहंसः इत्याकुञ्चेन कुलकुण्डलिनीं सार्धत्रिवलयां दीर्घाकारामुत्थाप्य, प्रदीपकलिकाकारां विसतन्तुतनीयसी तडित्कोटिप्रभां चन्द्रकोटिशीतलां
सूर्यकोटिदुर्दश वह्निकोटिकरालां सुषुम्नामार्गेण षट्चक्रं भित्त्वा
ब्रह्मपथान्तर्नीत्वा परमशिवेन संयोज्य, सामरस्योद्भवानन्दामृतेन
सन्तर्प्य, पुनस्तेनैव पथा मूलाधारं प्रापयित्वा वामे
पापपुरुषं श्मश्रुलं रक्ताक्षं धूम्रवर्णं खड्गचर्मधरं स्वाङ्गुष्ठाकारं विचिन्त्य,
यरंवलंहं इति भूतबीजै: शोषण- दाहन - प्लावनादीन् कुर्यात्। यथा—
आदौ प्राणायामयोगेन यमिति वायुबीजेन षोडशवारजप्तेन शोषयेत्। ततो
रमिति वह्निबीजेन चतुष्षष्टिवारजप्तेन दाहयेत्। वमिति वरुणबीजेन
द्वात्रिंशद्वारजप्तेन प्लावयेत्। लमिति भूबीजेन दशधा जप्तेन देहं दृढं विचिन्त्य,
हमित्याकाशबीजेन दशधा जप्तेन शून्यात्मकं स्वात्मानं ध्यात्वा
हृदयारविन्दकर्णिकायां देवं सूर्यं ध्यायेत्।
ॐ क्रां ह्रां ह्रीं
आधारशक्तिकमलासनाय नमः । ॐ अनन्ताय नमः । पद्मनालाय नमः पद्माय नमः । परागेभ्यो
नमः । अष्टदलपद्मासनाय नमः। सहस्त्रदलपद्मासनाय नमः । ॐ ह्रीं हंसः श्रीकर्णिकायै
नमः। सप्ततुरगेभ्यो नमः ।
इस प्रकार पूजा करके दिव्य दृष्टि
से दशो दिशाओं का निरीक्षण करते हुए तीन ताली बजाये बाँयी ऍड्री से पृथ्वी पर तीन
आघात करे। विघ्नोत्सारण हेतु निम्न मन्त्र पढ़े-
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ।।
यह मन्त्र पढ़कर अक्षत फेंककर भूत-
निस्सारण करे। ॐ ह्र: अस्त्राय फट् बोलकर दिग्बन्ध करे।
भूतशुद्धि- 'ॐ हंसः मां रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा' बोलकर
आत्मरक्षा करे। 'हं फट्' बोलकर वाम
नासा से पूरक करे। 'ह्रीं फट्' से
कुम्भक करे। सं फट् से रेचक करे। अपनी आत्मा को हंसरूप मानकर 'ॐ ह्रं हंसः' से आकुञ्चन करके साढ़े तीन कुण्डलरूपा
कुण्डलिनी को दीर्घाकार सीधा करे। प्रदीपकलिका आकार की, बिसतन्तु
के समान पतली, कोटि विद्युत्-सी प्रभावती कोटि चन्द्र-सी
शीतल, कोटि सूर्य के समान दुर्दर्शी, करोड़
अग्नि के समान भयंकर कुण्डलिनी को सुषुम्ना मार्ग से षट्चक्रों का भेदन कराते हुए
ब्रह्मरन्ध्र के अन्त में लाकर परमशिव से मिला दे। उनके सामरस्य होने से उत्पन्न
आनन्दरूप अमृत से तर्पण करे। इसके बाद कुण्डलिनी को उसी मार्ग से मूलाधार में ले
आये। अपनी वाम कुक्षि में दढ़ियल, लाल नेत्र वाले, धूम्र वर्ण, खड्ग-ढालयुक्त, अपने
अँगूठे के बराबर आकार वाले पापपुरुष का चिन्तन करके यं रं वं लं हं भूतबीजों से
शोषण, दाहन, प्लावनादि करे। जैसे- पहले
प्राणायामयोग से 'यं' वायुबीज के सोलह
जप से शोषण करे। तब अग्नि-बीज 'रं' का
चौसठ जप से दाहन करे। जलबीज 'वं' के
बत्तीस जप से प्लावन करे। 'भूबीज 'लं'
के दश जप से अपने तन को दृढ़ करे। आकाशबीज 'हं'
के दश जप से अपनी आत्मा का चिन्तन शून्यात्मक करे। हृदयकमल की
कर्णिका में देव सूर्य का ध्यान करे।
देदीप्यमानमुकुटं मणिकुण्डलमण्डितम्
।
देवं सहस्रकिरणं विस्फुरालिङ्गितं
स्मरेत् ॥
इति ध्यात्वा स्वात्मानं देवरूपं
स्मृत्वा, ॐ आंह्रींक्रोंह्रांह्रीं
हंसः मम प्राणा इह प्राणा ঌमम जीव इह स्थितः ঌ मम
सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनश्च क्षुस्त्वक्श्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणाः इहैवागत्य सुखं
चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति
भूतशुद्धिप्राणप्रतिष्ठाक्रमः । ततो मूलन्यासं विधाय मूलान्ते शिरसि त्रिः सूर्यं
सम्पूज्य मन्त्रसङ्कल्पं कुर्यात् ।
देदीप्यमानमुकुटं मणिकुण्डलमण्डितम्
।
देवं सहस्रकिरणं विस्फुरालिंगितं
स्मरेत् ।।
ऐसा ध्यान करके अपनी आत्मा का
चिन्तन देवस्वरूप में करे तब प्राणप्रतिष्ठा करे, जैसे- ॐ आं ह्रीं क्रीं ह्रां ह्रीं हंसः मम प्राणा इह प्राणाः, ॐ आं ह्रीं क्रीं ह्रां ह्रीं हंसः मम जीव इह स्थितः, ॐ आं ह्रीं क्रीं ह्रां ह्रीं हंसः मम सर्वेन्द्रियाणि
वाङ्मनश्चक्षुस्त्व- श्रोत्रजिह्वाप्राणप्राणाः इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु
स्वाहा। यह भूतशुद्धि प्राणप्रतिष्ठा है। इसके बाद मूल न्यास करके मूल मन्त्र
बोलते हुए शिर पर तीन बार सूर्यपूजन करे। इसके पश्चात् मन्त्र सङ्कल्प करे।
ॐ अस्य श्रीसूर्यपूजामन्त्रस्य
श्रीब्रह्मा ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः,
श्रीसविता देवता, ह्रां बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकम् धर्मार्थकाममोक्षार्थे
सूर्यपूजायां विनियोगः ।
ब्रह्मऋषये नम: शिरसि,
गायत्र्यच्छन्दसे नमो मुखे, श्रीसवित्रे
देवतायै नमो हृदि, ह्रां बीजाय नमो नाभौ ह्रीं शक्तये नमो
गुह्ये, ॐ कीलकाय नमः पादयोः, जपे
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु ।
ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः,
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः,
ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः, ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां
नमः, ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ह्रां हृदयाय । ह्रीं शिरसे ०। ह्रूं
शिखायै ० ह्रैं कवचाय० ह्रौं नेत्र ० ह्रः अस्त्राय ० । इति करषडङ्गन्यासः ।
ॐ नमः शिरसि,
ह्रां नेत्रयोः, ह्रीं मुखे, सः हृदि, सूं कुक्षौ र्यां नाभौ, यं जानुनोः नं पादयोः, मः शिरसः । पादपर्यन्तमिति
सप्तधा व्यापयेदिति मूलविद्यान्यासः ।
ॐ ह्रां ऋग्वेदात्मने सूर्याय नमः
शिरसि । ॐ ह्रीं यजुर्वेदात्मने सूर्याय नमः कुक्षौ । ॐ सः सामवेदात्मने सूर्याय
नमो गुह्ये। ॐ अथर्ववेदात्मने सूर्याय नमः पादयोः । इति त्रिर्व्यापयेदिति
वेदन्यासः ।
ॐ ह्रां आत्मरूपाय सूर्याय हृदयाय
नमः । ॐ ह्रीं परमात्मने सूर्याय शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं सर्वभूतात्मने सूर्याय
शिस्नायै ० । ॐ ह्रैं ज्ञानात्मने सूर्याय कवचाय० । ॐ ह्रौं अन्तरात्मने सूर्याय
नेत्रत्रयाय० । ॐ ह्रः हंसात्मने सूर्याय अस्त्राय फट्। एवमङ्गुलीन्यासः ।
इत्यात्मन्यासः ।
विनियोग —
अस्य श्रीसूर्यपूजामन्त्रस्य श्रीब्रह्मा ऋषि, गायत्र्यं छन्दः, श्री सविता देवता, ह्रां बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ
कीलकम् धर्मार्थकाममोक्षार्थे सूर्यपूजायां विनियोगः ।
ऋष्यादि न्यास –
ब्रह्मऋषये मनः शिरसि।
गायत्र्यछन्दसे नमः मुखे। श्रीसवित्रे पादयोः । जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
देवतायै नमः हृदि । ह्रां बीजाय नमः
नाभौ। ह्रीं शक्तये नमः गुह्ये । ॐ कीलकाय नमः ।
करन्यास—
ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ह्रीं
तर्जनीभ्यां नमः । ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ह्रौं
कनिष्ठाभ्यां नमः। ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि न्यास –
ह्रां हृदयाय नमः । ह्रीं शिरसे
स्वाहा ह्रूं शिखायै वषट् । ह्रैं कवचाय हुँ। ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ह्रः
अस्त्राय फट् ।
मूल मन्त्र न्याय—
ॐ नमः शिरसि। ह्रां नमः नेत्रयोः ।
ह्रीं नमः मुखे। सः नमः हृदि। सूं नमः कुक्षौ। र्यां नमः नाभौ। यं नमः जानुनी। नं
नमः पादयोः । मः नमः शिरसः। पादपर्यन्तम् ।
मूल मन्त्र से सात बार व्यापक न्यास
करे।
वेद न्यास—
ॐ ह्रां ऋग्वेदात्मने सूर्याय नमः
शिरसि। ॐ ह्रीं यजुर्वेदात्मने सूर्याय नमः कुक्षौ। ॐ सः सामवेदात्मने सूर्याय नमः
गुह्ये । ॐ अथर्ववेदात्मने सूर्याय नमः पादयोः ।
वेदन्यास से तीन बार व्यापक न्यास
करे।
आत्मन्यास हृदयादि—
ॐ ह्रां आत्मरूपाय सूर्याय हृदयाय
नमः। ॐ ह्रीं परमात्मने सूर्याय शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं सर्वभूतात्मने सूर्याय
शिखायै वषट् । ॐ ह्रैं ज्ञानात्मने सूर्याय कवचाय हूँ। ॐ ह्रौं अन्तरात्मने
सूर्याय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः हंसात्मने सूर्याय अस्त्राय फट् ।
न्यास अङ्गुष्ठादि —
ॐ ह्रां आत्मरूपाय सूर्याय
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं परमात्मने सूर्याय शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं
सर्वभूतात्मने सूर्याय शिखायै वषट् । ॐ ह्रैं ज्ञानात्मने सूर्याय कवचाय हुँ। ॐ
ह्रौं अन्तरात्मने सूर्याय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः हंसात्मने सूर्याय अस्त्राय
फट् ।
ॐ ह्रां सोमात्मने सूर्याय
अङ्गुष्ठाभ्यां । ॐ ह्रीं भौमात्मने सूर्याय तर्जनीभ्यां ० । ॐ ह्रूं बुधात्मने
सूर्याय मध्यमाभ्यां ० ॐ ह्रैं जीवात्मने सूर्याय अनामिकाभ्यां ० । ॐ ह्रौं
शुक्रात्मने सूर्याय कनिष्ठिकाभ्यां । ॐ ह्रः सौरात्मने सूर्याय करतलकरपृष्ठाभ्यां
नमः । एवं हृदयादिन्यासः । इति ग्रहन्यासः ।
ॐ अंआंइंईंउंऊंऋंऋॄंलृंलॄंएंऐं ओं
औं अं अः सूर्याय नमः मूलाधारे । ह्रां कंखंगंघंङं सूर्याय नमः मणिपूरे। ह्रीं चंछंजंझंञं
सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । सः टंठंडंढंणं सूर्याय नमः अनाहते । सूर्याय तंथंदंधंनं
सूर्याय नमः विशुद्धौ । नं पंफंबंभंमं सूर्याय नमः आज्ञायां । म: यंरंलंवंशंषंसंहंळंक्षः
सूर्याय नमः ब्रह्मरन्ध्रे । इति सप्तधा व्यापयेदिति मूलशुद्धिमातृकान्यासः ।
अंआं गायत्रीछन्दसे सूर्याय नमो
ब्रह्मरन्ध्रे । इंईं त्रिष्टुप्छन्दसे सूर्याय नमः आज्ञायां । उंऊं अनुष्टुप्छन्दसे
सूर्याय नमो विशुद्धौ । ऋंऋॄंलृंलॄं उष्णिक्छन्दसे सूर्याय नमः अनाहते । एंऐं
विराट्छन्दसे सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । ओंऔं सम्राट्छन्दसे सूर्याय नमो मणिपूरे ।
अंअः बृहतीछन्दसे सूर्याय नमो मूलाधारे। इति सप्तधा व्यापयेदिति सप्तछन्दोन्यासः ।
ग्रहन्यास-अङ्गुष्ठादि—
ॐ ह्रां सोमात्मने सूर्याय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं भौमात्मने
सूर्याय तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं बुधात्मने सूर्याय मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं
जीवात्मने सूर्याय अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं शुक्रात्मने सूर्याय कनिष्ठाभ्यां
नमः । ॐ ह्रः सौरात्मने सूर्याय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ग्रहन्यास हृदयादि—
ॐ ह्रां सोमात्मने सूर्याय हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं भौमात्मने सूर्याय
शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं बुधात्मने सूर्याय शिखायै वषट् । ॐ ह्रैं जीवात्मने
सूर्याय कवचाय हुँ। ॐ ह्रौं शुक्रात्मने सूर्याय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः
सौरात्मने सूर्याय अस्त्राय फट् ।
मूल शुद्धि मातृका न्यास - ॐ अं आं
इं ईं उं ऊं ऋं ॠं ऌं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः सूर्याय नमः मूलाधारे । ह्रां कं खं
गं घं ङं सूर्याय नमः मणिपूरे । ह्रीं चं छं जं झं ञं सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । सः
टं ठं डं ढं णं सूर्याय नमः अनाहते । सूर्याय तं थं दं धं नं सूर्याय नमः विशुद्धौ
। नं पं फं बं भं मं सूर्याय नमः आज्ञायाम् । मः यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं
सूर्याय नमः ब्रह्मरन्ध्रे ।
सात बार व्यापक न्यास मूल मन्त्र से
करे।
सप्त छन्द न्यास –
अं आं गायत्रीछन्दसे सूर्याय नमो ब्रह्मरन्ध्रे । इं ईं त्रिष्टुप्
छन्द सूर्याय नमो आज्ञायाम् । उं ऊं अनुष्टुप् छन्दसे सूर्याय नमः विशुद्धौ । ऋं ॠं
ऌं लॄं उष्णिक् छन्दसे सूर्याय नमः अनाहते । एं ऐं विराट् छन्दसे सूर्याय नमः
स्वाधिष्ठाने। ओं औं सम्राट् छन्दसे सूर्याय नमः मणिपूरे । अं अः बृहती छन्दसे
सूर्याय नमः मूलाधारे।
सात बार व्यापक न्यास करे।
ॐ गौराश्वाय सूर्याय नमो
ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां पाण्डुराश्वाय सूर्याय नमः आज्ञायां । ह्रीं सिताश्वाय
सूर्याय नमो विशुद्धौ । सः श्वेताश्वाय सूर्याय नमः अनाहते । सूर्याय हिमाश्वाय
सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने। नं क्षीराश्वाय सूर्याय नमो मणिपूरे। मः कुन्दाश्वाय
सूर्याय नमो मूलाधारे । इति त्रिर्व्यापयेत् इति सप्ततुरगन्यासः ।
ॐ अजपादेवतायै सूर्याय नमः
ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां गायत्रीदेवतायै सूर्याय नमः आज्ञायां । ह्रीं
सावित्रीदेवतायै सूर्याय नमो विशुद्धौ । सः सरस्वतीदेवतायै सूर्याय नमः अनाहते।
सूर्याय त्र्यक्षरीदेवतायै सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने। नं
ब्रह्मवादिनीदेवतायै सूर्याय नमो मणिपूरे । मः पञ्चमुखीदेवतायै सूर्याय नमो
मूलाधारे । इति त्रिर्व्यापयेदिति गायत्रीन्यासः ।
ॐ शिवतत्त्वाय सूर्याय नमो
ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां शक्तितत्त्वाय सूर्याय नमः आज्ञायां । ह्रीं मायातत्त्वाय
सूर्याय नमो विशुद्धौ । सः विद्यातत्त्वाय सूर्याय नमः अनाहते । सूर्याय
कलातत्त्वाय सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । नं नियतितत्त्वात्मने सूर्याय नमो मणिपूरे
। म आत्मतत्त्वाय सूर्याय नमो मूलाधारे । इति त्रिर्व्यापयेदिति तत्त्वन्यासः।
सप्ततुरग न्यास - ॐ गौराश्चाय
सूर्याय नमः ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां पाण्डुराश्वाय सूर्याय नमः आज्ञायाम् । ह्रीं
सिताश्वाय सूर्याय नमः विशुद्धौ । सः श्वेताश्वाय सूर्याय नमः अनाहते । सूर्याय
हिमाश्वाय सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । नं क्षीराश्वाय सूर्याय नमः मणिपूरे । मः
कुन्दाश्चाय सूर्याय नमः मूलाधारे।
तीन व्यापक न्यास करे।
गायत्री न्यास - ॐ अजपादेवतायै
सूर्याय नमः ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां गायत्रीदेवतायै सूर्याय नमः आज्ञायाम् । ह्रीं
सावित्रीदेवतायै सूर्याय नमः विशुद्धौ । सः सरस्वतीदेवतायै सूर्याय नमः अनाहते ।
सूर्याय त्र्यक्षरीदेवतायै सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । नं ब्रह्मवादिनीदेवतायै
सूर्याय नमः मणिपूरे । मः पञ्चमुखीदेवतायै सूर्याय नमः मूलाधारे ।
तीन व्यापक न्यास करें।
तत्त्वन्यास —
ॐ शिवतत्त्वाय सूर्याय नमो ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां शक्तितत्त्वाय
सूर्याय नमः आज्ञायाम् । ह्रीं मायातत्त्वाय सूर्याय नमो विशुद्धौ । सः
विद्यातत्त्वाय सूर्याय नमो अनाहते । सूर्याय कलात्तत्त्वाय सूर्याय नमो
स्वाधिष्ठाने । नं नियतितत्त्वाय सूर्याय नमो मणिपूरे । मः आत्मतत्त्वाय सूर्याय
नमो मूलाधारे।
तीन व्यापक न्यास करे।
ॐ कामरूपपीठेशाय सूर्याय नमो
ब्रह्मरन्ध्रे । ह्रां उड्डीयानपीठेशाय सूर्याय नमः आज्ञायां । ह्रीं
जालन्धरपीठेशाय सूर्याय नमो विशुद्धौ । सः पूर्णगिरिपीठेशाय सूर्याय नमः अनाहते । सूर्याय
मधुपुरीपीठेशाय सूर्याय नमः स्वाधिष्ठाने । नं अवन्तीपीठेशाय सूर्याय नमो मणिपूरे ।
मः वाराणसीपीठेशाय सूर्याय नमो मूलाधारे । मूलं कुरुक्षेत्रपीठेशाय सूर्याय नमः
सर्वाङ्गेषु । त्रिर्व्यापयेदिति पीठन्यासः । इति द्वादशन्यासाः। यथोक्तम्-
मुनिमायामूलविद्यावेदात्मग्रहशुद्धयः
।
छन्दस्तुरगगायत्रीतत्त्वपीठादयः पुनः
॥
एते हि द्वादश न्यासाः
सर्वतन्त्रेषु गोपिताः ।
वर्णितास्तव देवेशि सर्वरोगापहारकाः
॥
एतान् यः कुरुते न्यासान् सवितुः
सर्वसिद्धये ।
तस्य
लक्ष्मीधनारोग्यविद्याकीर्तिसुखाप्तयः ।।
न्यासान्ते भास्करं ध्यायेत्
पूजाकोटिफलं लभेत् । इति ।
पीठन्यास —
ॐ कामरूपपीठेशाय सूर्याय नमो ब्रहारन्ध्रे । ह्रां उड्डीयानपीठेशाय
सूर्याय नमो आज्ञायाम् । ह्रीं जालन्धरपीठेशाय सूर्याय नमो विशुद्धौ । सः
पूर्णगिरिपीठेशाय सूर्याय नमो अनाहते । सूर्याय मधुपुरीपीठेशाय सूर्याय नमो
स्वाधिष्ठाने । नं अवन्तीपीठेशाय सूर्याय नमो मणिपूरे। यः वाराणसीपीठेशाय सूर्याय
नमो मूलाधारे। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः कुरुक्षेत्रपीठेशाय सूर्याय नमः
सर्वाङ्गेषु ।
ऊपर बारह प्रकार के न्यासों का
वर्णन किया गया है। ये बारह प्रकार के न्यास चार श्लोकों में वर्णित हैं। वे हैं -
१. ऋष्यादि न्यास, २. माया न्यास,
३. मूल विद्या न्यास, ४. वेद न्यास, ५. आत्म न्यास, ६. ग्रह न्यास, ७. शुद्धि न्यास, ८. छन्द न्यास, ९. तुरग न्यास, १०. गायत्री न्यास, ११ तत्त्व न्यास, १२. पीठ न्यास ये बारह न्यास सभी
तन्त्रों में गोपित हैं। हे देवि! तुम्हें मैंने बतलाया। ये न्यास सभी रोगों के
विनाशक हैं। सूर्य की सभी सिद्धियों के लिये जो इन बारह न्यासों को करता है,
उसे लक्ष्मी, धन, आरोग्य,
विद्या, कीर्ति और सुख की प्राप्ति होती है।
अथ मातृकान्यासः - अं कं ५ आं
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । इं चं ५ ईं तर्जनीभ्यां ० । डं टं ५ ऊं मध्यमाभ्यां एं तं ५
ऐं अनामिकाभ्यां ०। ओं पं ५ औं कनिष्ठिकाभ्यां । अं यंरंलंवंशंषंसंहंळंक्षः अः
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । इति करन्यासः । एवं षडङ्गन्यासः । इति
स्वराद्यन्तमातृकान्यासः ।
अथ शुद्धमातृकान्यासः अं नमः शिरसि।
आं नमो मुखवृत्ते । एवं इं दक्षनेत्रे । ईं वामनेत्रे उं दक्षकर्णे। ऊं वामकर्णे ॠ
दक्षनासापुटे। वामे । लं दक्षगण्डे । लूं वामे एं ऊर्ध्वोष्ठे । ऐं अधरोष्ठे ओं
ऊर्ध्वदन्तपक्ता औं अधोदन्तपक्तौ । अं शिरसि । अः मुखे। कं दक्षबाहुमूले । खं
कूर्परे । गं मणिबन्धे। घं अङ्गुलिमूले। ङं अङ्गुल्यये । चं वामबाहुमूले। छं
कूर्परे । जं मणिबन्थे । झं अङ्गुलिमूले। अं अङ्गुल्यये । टं दक्षपादमूले। ठं
जानुनि । डं गुल्फे । ढं अङ्गुलिमूले। णं अङ्गुल्यये । तं वामपादमूले। थं जानुनि ।
दं गुल्फे | धं अङ्गुलिमूले। नं
अङ्गुल्यये। पं दक्षपार्श्वे। फं वामे। बं पृष्ठे । भं नाभौ । मं जठरे । यं हृदि ।
रं दक्षासे । लं ककुदि । वं वामांसे । शं हृदादिदक्षहस्तायान्तं । षं
हृदादिवामहस्ताग्रान्तं । सं हृदादिदक्षपादाग्रान्तं। हं हृदादिवामपादाग्रान्तं ।
ळं पादादिशिरः पर्यन्तं । क्षः नमः शिरसः पादपर्यन्तमिति त्रिर्व्यापयेत्। इति
मातृकान्यासः ।
मातृकान्यास
करन्यास- अं कं खं गं घं ङं आं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। इं चं
छं जं झं जं ञं ईं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाभ्यां नमः। एं
तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः । ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठाभ्यां नमः। अं
यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि न्यास - अं कं खं गं घं ङं ओं
हृदयाय नमः। इं चं छं जं झं जं ञं ईं शिरसे स्वाहा । उं टं ठं डं ढं झं ऊं शिखायै
वषट्। एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुँ। ओं पं फं बं भं मं औँ नेत्रत्रयाय वौषट् ।
अं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं अः अस्त्राय फट्।
शुद्ध मातृका न्यास - अं नमः शिरसि ।
आं नमः मुखवृत्ते । इं नमः दक्षनेत्रे । ईं नमः वामनेत्रे । उं नमः दक्षकर्णे । ऊं
नमः वामकर्णे । ऋं नमः दक्षनासापुटे । ऋॄं नमः वामनासापुटे । लृं नमः दक्षगण्डे ।
लॄं नमः वामगण्डे । एं नमः ऊर्ध्वोष्ठे । ऐं नमः अधरोष्ठे । ओं नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ
। औं नमः अधोदन्तपंक्तौ । अं नमः शिरसि । अः नमः मुखे। कं नमः दक्षबाहुमूले। खं
नमः कूर्परे। गं नमः मणिबन्धे । घं नमः अङ्गुलि-मूले। ङं नमः अङ्गुल्यये । चं नमः
वामबाहुमूले। छं नमः कूर्परे । जं नमः मणिबन्धे । झं नमः अङ्गुलिमूले। ञं नमः अङ्गुल्यये।
टं नमः दक्षपादमूले । ठं नमः जानुनि । डं नमः गुल्फे । ढं नमः अङ्गुलिमूले। णं नमः
अङ्गुल्यये । तं नमः वामपादमूले । थं नमः जानुनि । दं नमः गुल्फे । धं नमः
अङ्गुलिमूले । नं नमः अङ्गुल्यये । पं नमः दक्षपार्श्वे । फं नमः वामपार्श्वे । बं
नमः पृष्ठे। भं नमः नाभौ । मं नमः जठरे । यं नमः हृदि । रं नमः दक्षांसे । लं नमः
ककुदि । वं नमः वामांसे । शं नमः हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तम्। षं नमः
हृदादिवामहस्ताग्रान्तम् । सं नमः हृदादिदक्षपादान्तम् । हं नमः
हृदादिवामपादान्तम्। लं पादादिशिरः पर्यन्तम् । क्षं नमः शिरसः पादपर्यन्तम् ।
ह्रीं नमः शिरसि,
हं नमो हृदि, सः नमः पादयोः, मूलं शिरसः पादपर्यन्तं त्रिर्व्यापयेदिति न्यासं विधाय
हृत्कमलकर्णिकान्तर्गतं देवं ध्यायेत्-
जपादाडिमबिम्बाभं द्विभुजं
चारुणाम्बरम् ।
सप्ताश्वरथसंयुक्तं
मणिकुण्डलमण्डितम् ॥
कीयूरहाराभरणं कलशाम्भोजधारिणम् ।
सवितारं जगन्नाथं विस्फुरालिङ्गितं
भजे ॥
एवं ध्यात्वा मानसोपचारैरभ्यर्च्य
स्ववामे त्रिकोणवृत्तमण्डलं विलिख्य 'रं
वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः' इति संपूज्य, त्रिपदीं क्षालितां संस्थाप्य तत्र शङ्खं संस्थाप्य शङ्खे 'अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः' इति संपूज्य,
तीर्थजलेनापूर्य 'सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने
नमः' इत्यभ्यर्च्य, हंसः सूर्याय ह्रीं
नमः इति त्रिर्गन्धाक्षतपुष्पैः समभ्यर्च्य, ॐ गांगींगूं 'गङ्गे च यमुने चैव' इत्यादिना सूर्यमण्डलात्
तीर्थान्यङ्कुश- मुद्रयावाह्य, ॐ ह्रांह्रींस: हंसः शुचिषदे
सूर्याय नमः इति संपूज्य, धेनुयोनि- मत्स्यखशोल्कामुद्राः
प्रदर्श्य प्रणमेत् ।
दर्शनेनापि शङ्खस्य किं पुनः
स्पर्शनेन च ।
विलयं यान्ति पापानि
हिमवद्भास्करोदये ॥
ह्रीं नमः शिरसि,
हं नमः हृदि, सः नमः पादयोः, ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः, शिरसः पादपर्यन्तम्।
मूल मन्त्र से तीन व्यापक न्यास करके हृदय कमलकर्णिकास्थित देव का इस प्रकार ध्यान
करे-
अड़हुल और अनारदाने की आभा के समान
वर्ण है। दो भुजायें हैं। सुन्दर रेशमी वस्त्र हैं। रथ सात घोड़ों से युक्त है।
कानों में मणिकुण्डल है। केयूर हार का आभरण है। एक हाथ में कमल है और दूसरे हाथ
में कलश है। जगन्नाथ सविता विस्फुरा से अलिङ्गित हैं। ऐसे सूर्य भगवान् का मैं
ध्यान करता हूँ। इस प्रकार का ध्यान करके मानसोपचारों से उनका पूजन करे।
अर्घ्यस्थापन- अपने वाम भाग में
त्रिकोण वृत्त का मण्डल बनाकर 'रं वह्नि-
मण्डलदशकलात्मने नमः' से पूजन करें। त्रिपाद को धोकर उस पर
स्थापित करें। त्रिपाद पर शङ्ख स्थापित करे। 'अं अर्कमण्डलाय
द्वादशकलात्मने नमः' से शङ्ख का पूजन करे। शङ्ख को तीर्थजल
से पूर्ण करे 'सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः' से जल का अर्चन करे। 'हंसः सूर्याय ह्रीं नमः'
से गन्धाक्षतपुष्प के द्वारा तीन बार पूजन करे। 'ॐ गां गीं गूं गङ्गे च यमुने चैव मन्त्र बोलकर अङ्कशमुद्रा से सूर्यमण्डल
से तीर्थों का आवाहन उस जल में करे। 'ॐ ह्रां ह्रीं स: हंसः
शुचिषदे सूर्याय नमः से पूजन करे। धेनु, योनि, मत्स्य और खशोल्का मुद्रा दिखावे और प्रणाम करे। प्रणाम का मन्त्र इस
प्रकार है-
दर्शनेनापि शङ्खस्य किं पुनः
स्पर्शनेन च ।
विलयं यान्ति पापानि हिमवद्
भास्करोदये ।।
इति सामान्यार्घ्यं विधाय
सुधार्घ्यं कुर्यात्। यथा सामान्यार्घ्यस्य दक्षे त्रिकोणवृत्तचतुरश्रं विलिख्य,
सामान्याघ्र्योदकेनाभ्युक्ष्य, ॐ ह्रां हृदयाय
नमः पूर्वे । ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा दक्षिणे। ॐ ह्रूं शिखायै वषट् पश्चिमे । ॐ ह्रैं
कवचाय हुं उत्तरे । ॐ ह्रौं नेत्रेभ्यो वौषट् अधः । ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वे ।
इति संपूज्य, ॐ इतीशाने, हमित्याग्नेये,
सः इति अग्रे, इति त्र्यश्रं संपूज्य, क्षालिताधारं संस्थाप्य 'रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने
नमः' इत्यभ्यर्च्य तत्र
सौवर्णं राजतं वापि रक्तं वा
मृण्मयं घटम् ।
स्थापयेच्छोभितं दिव्यमालाभिः
कुङ्कुमाञ्चितम् ।।
इति संस्थाप्य 'हंसः सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः' इति संपूज्य,
मधु- मात्रेणापूर्य तत्रानामिकाङ्गुष्ठाभ्याममृतधारापातेन संपूर्य,
'सौ: सोममण्डलाय षोडश- कलात्मने नमः' इति
सोममण्डलादमृतीकरणमुद्रयामृतं ध्यात्वा तत्रानीय कुम्भे निःक्षिप्य अंआं
इत्यादिक्षान्तमुच्चार्य मूलमुच्चार्य, 'प्रांप्रीं अः अमृते
अमृतोद्भवे अमृताकर्षिणि अमृतवर्षिणि महा- मार्तण्डमण्डलेश्वरि सुधादेवि
परमानन्देश्वरि हांह्रींस: हंसः सोहं स्वाहा' इति दशधा जपेत्
इति जप्त्वा-
सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे ।
अमाबीजमये देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन देवेशि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं
ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम् ॥
कृष्णशापविनिर्मुक्ता त्वं मुक्ता
ब्रह्मशापतः ।
विमुक्ता रुद्रशापेन पवित्रा भव
साम्प्रतम् ॥
पवमानः परानन्दः पवमानः परो रसः ।
पवमानं परं ब्रह्म तेन त्वां
पावयाम्यहम् ॥
इति त्रिः संपूज्य
गङ्गादितीर्थान्यावाह्य धेनुयोनिमत्स्यमुद्राः प्रदर्श्य 'हंस:सोहं स्वाहा' इत्यमृतीकृत्य मूलं दशधा प्रजप्य
गन्धाक्षतपुष्पैः संपूज्य महामृतमयं तीर्थं ध्यायेदिति घटस्थापनम् ।
सुधार्घ्य-स्थापन –
सामान्यार्घ्य के दक्ष भाग में त्रिकोण वृत्त चतुरस्र अङ्कित करें।
सामान्य अर्घ्य जल से अभ्युक्षित करे। मण्डल की पूजा करे। ॐ ह्रां हृदयाय नमः पूवें।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा दक्षिणे ॐ ह्रूं शिखायै वषट् पश्चिमे । ॐ ह्रैं कवचाय हुं
उत्तरे। ॐ ह्रौं नेत्रेभ्यो वौषट् अधोभागे। ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वं । इसके
बाद 'ॐ' से ईशान में, 'हं' से आग्नेय में, 'सः'
से आगे त्रिकोण में पूजन करें आधार को धोकर मण्डल पर स्थापित करें। 'रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः' से पूजन करे। इस
मण्डल पर सोना, चाँदी, ताम्बे या
मिट्टी के कलश को माला, कुङ्कुम आदि से सुशोभित करके स्थापित
करे। कलश का पूजन 'हंसः सूर्यमण्डाय द्वादशकलात्मने नमः'
से करे। इसके बाद इसे मधु से पूर्ण करे। इसके बाद
अँगुष्ठ-अनामिकायोग से अमृत धारापात करे। 'सौः सोममण्डलाय
षोड़शकलात्मने नमः' से सोममण्डल से अमृतीकरण मुद्रा से अमृत
लाकर कलश में निक्षिप्त करे। इसके बाद अं से क्षं तक की इक्यावन मातृकाओं का
उच्चारण करके मूल मन्त्र बोलकर 'म्रां म्रीं म्रूं म्रैं
म्रौं म्र: अः अमृते अमृतोद्भवे अमृताकर्षिणि अमृतवर्षिणि महामार्तण्डमण्डलेश्वरि
सुधादेवि परमानन्देश्वरि ह्रां ह्रीं सः हंसः सोहं स्वाहा' का
दश बार जप करे। इसके बाद निम्न मन्त्रों का जप तीन बार करे-
सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे ।
अमाबीजमये देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन देवेशि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं
ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम् ॥
कृष्णशापविनिर्मुक्ता त्वं मुक्ता
ब्रह्मशापतः ।
विमुक्ता रुद्रशापेन पवित्रा भव
साम्प्रतम् ॥
पवमानः परानन्दः पवमानः परो रसः ।
पवमानं परं ब्रह्म तेन त्वां
पावयाम्यहम् ॥
इन मन्त्रों से तीन बार पूजा करके
गङ्गादि तीर्थों का आवाहन करे । धेनु, योनि,
मत्स्य मुद्रा का प्रदर्शन करें। 'हंसः सोहं
स्वाहा' से अमृतीकरण करके मूल मन्त्र का दश बार जप करे।
गन्धाक्षतपुष्प से पूजन कर महा अमृतमय तीर्थ का कलश में ध्यान करे।
घटान्ते त्रिकोणं विलिख्य साधारं
पात्रं संस्थाप्य घटामृतेनापूर्य, अं
नम इत्यादि क्षं नमः इत्यन्तां मातृकां सञ्जप्य, मूलं तदुपरि
जप्त्वा दिव्यखण्डं भावयेदिति परमं पात्रम् । परमपात्रान्ते गुरु शक्ति
ग्रह-वीरपाद्याचमनी- मधुपर्कपात्राणि संस्थाप्य, गुरुशक्तिग्रहवीरपात्राणि
तीर्थामृतेनापूर्य, पाद्याच- मनीयपात्रे जलं मधुपर्कपात्रे
घृतमधुसितादि निःक्षिपेत् । ततः पूजाद्रव्याणि परमपात्रामृतेनाभ्युक्ष्य
धेनुयोन्यमृतीकरणमुद्राः प्रदर्श्य, श्रीचक्रं रत्नपीठा-
धारोपरि ध्यात्वा बिन्दुविराजमान त्रिकोणमण्डित-वसुकोणाञ्चित- सुवृत्तविराजित -
वसुदलखचित- वृत्तत्रयविलसित धरणीसद्माश्रयं श्रीचक्रं विलिख्य संस्थाप्य वा,
ॐ ह्रांह्रींसः हंसः सोहंसः स्वाहा, अं
आमित्यादि -क्षान्तमुच्चार्य शिवशक्तिसदाशिवेश्वरशुद्धविद्यामायाकला-
विद्यारागकालनियतिपुरुषप्रकृत्यहङ्कारमनो- बुद्धित्वक्चक्षुः श्रोत्रजिह्वाघ्राण-
वाक्पाणिपादपायूपस्थशब्दस्पर्शरूपरसगन्धाकाशवायुवह्निसलिलपृथि-
व्यात्मकषट्त्रिंशत्तत्त्वस्वरूपाय श्रीयोगपीठाय नमः । ॐ ह्रां अष्टदल- पद्माय नमः
। ॐ द्वादशदलपद्माय नमः । ॐ सहस्रदलपद्माय नमः । ॐ सप्तच्छन्देभ्यो नमः । ॐ
सप्ततुरगेभ्यो नमः । मूलं श्रीरत्नसिंहासनाय नमः इति संपूज्य, पद्मकेसराञ्जलिं गृहीत्वार्घ्यमुद्रां बद्ध्वा, श्रीदेवं
पूर्वोक्तं ध्यात्वा, मूलान्ते विस्फुरासहिताय श्रीसूर्याय
पाद्याचमनीयमधुपर्काचमनीयार्घ्यगन्धाक्षत-पुष्पस्नानवस्त्रालङ्कारनानाहारकेयूरनूपुराभरणरत्नसिंहासन-
गन्धाक्षतपुष्पधूप-दीपनैवेद्याचमनीयताम्बूलच्छत्रचामरारात्रिकादीन् निवेद्य,
मानसोपचारैः संपूज्य, सदेवीकं देवं
सूर्यनाडीनिर्गतं वायुतेजोरूपं पुष्पमात्रं ध्यात्वा-
भगवन् सर्वलोकेश सहस्रकिरण प्रभो ।
यावत् त्वामर्चयिष्यामि तावत् सूर्य
इहावह ॥
इति श्रीबिन्दुबिम्बे पुष्पं
दत्त्वा बिम्बमुद्रया जीवं न्यसेत् ।
परम पात्रस्थापन —
कलश के बगल में आधारपात्र को स्थापित करके कलश के अमृत से उसे भर
दें। अं नमः, ओं नमः से क्षं नमः तक मातृकाओं का जप करके
उसके ऊपर मूल मन्त्र का जप करे। इस परम पात्र को दिव्य होने की भावना करे।
परम पात्र के बाद गुरुपात्र,
शक्तिपात्र, ग्रहपात्र, वीरपात्र,
पाद्यपात्र, आचमनीय पात्र और मधुपर्क पात्र का
स्थापन करे तब गुरुपात्र, शक्तिपात्र, ग्रहपात्र
और वीरपात्र को कलश-तीर्थ के अमृत से पूर्ण करे। पाद्य, आचमनीय
पात्रों में जल भरे। मधुपर्क पात्र में भी मधु और चीनी मिलावे। तब पूजन सामग्रियों
का परम पात्र के अमृत से प्रोक्षण करे। धेनु, योनि, अमृतीकरण मुद्रा दिखाये ।
रत्नपीठ के आधार पर श्रीचक्र का
ध्यान करे। श्रीचक्र में बिन्दु, त्रिकोण,
अष्टकोण, सुवृत्त विराजित अष्टदल, वृत्तत्रय, भूपुरत्रययुक्त श्रीचक्र अङ्कित करे या
पूर्वनिर्मित श्रीचक्र को स्थापित करे। ॐ ह्रां ह्रीं सः हंसः सोहं स्वाहा'
'अ' से 'क्ष' तक मातृका का उच्चारण करे। शिव शक्ति सदाशिवेश्वर, शुद्ध
विद्या, माया-कला विद्या, राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, अहङ्कार, मन, बुद्धि, त्वक्, चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा, घ्राण,
वाक्, पाणि, पाद,
पायु, उपस्थ, शब्द,
स्पर्श, रूप, रस,
गन्ध, आकाश, वायु,
अग्नि, जल, पृथिव्यात्मक
षट् त्रिंशत्तत्वस्वरूपाय श्रीयोगपीठाय नमः । ॐ ह्रां अष्टदलपद्माय नमः । ॐ ह्रीं
द्वादशदलपद्माय नमः । ॐ ह्रीं सहस्रदलपद्माय नमः । ॐ ह्रीं सप्तछन्देभ्यो नमः । ॐ
ह्रीं सप्ततुरगेभ्यो नमः । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः श्रीरत्नसिंहासनाय नमः से
पूजा करे। अञ्जलि में कमल केसर लेकर अर्घ्यमुद्रा बनाकर श्रीदेव का पूर्वोक्त रूप
में ध्यान करे। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः विस्फुरासहिताय श्रीसूर्याय पाद्य,
आचमनीय, मधुपर्क, आचमनीय,
अर्घ्य, गन्धाक्षत, पुष्प,
स्नान, वस्त्र, अलंकार,
नानाहार, केयूर, नूपुर,
आभरण, रत्नसिंहासन, गन्धाक्षत,
पुष्प, धूप, दीप,
नैवेद्य, आचमनीय, ताम्बूल,
छत्र, चामर, आरती अर्पण
करे। मानसोपचारों से पूजन करे। देवीसहित को पिंगला नाड़ी निर्गत वायु तेजोरूप
पुष्पमात्र ध्यान करें। प्राणप्रतिष्ठा करे।
भगवन् सर्वलोकेश सहस्रकिरणप्रभो ।
यावत् त्वां अर्चयिष्यामि तावत्
सूर्य इहावह ।।
इस मन्त्रपाठ के बाद बिन्दुमण्डल
में बिम्बमुद्रा से उस फूल को रखे।
ॐ ह्रांह्रींस: हंसः यंरंलंवंशंषंसंहंळंक्षः
विस्फुरासहितस्य श्रीसूर्यस्य प्राणा इह प्राणाः,
ॐ विस्फुरासहितस्य श्रीसूर्यस्य जीव इह स्थितः, ॐ विस्फुरासहितस्य श्रीसूर्यस्य सर्वेन्द्रियाणि, ॐ
वाङ्मनस्त्वक्चक्षुः श्रोत्र- जिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु
स्वाहा, इति प्राणान् दत्त्वा, आवाहनसंस्थापन-
संनिरोधनावगुण्ठनसंमुखी (करणसुप्रसन्नामृतीकरणपरमी)-करणानुपूर्वं
धेनुयोनिमत्स्यपद्मबिम्बभानुख - शोल्कामुद्राः प्रदर्श्य, मूलान्ते
भगवन् सूर्य इदं रत्नसिंहासनमास्यताम्। मूलान्ते परमावरणदेवता
रश्मिमण्डलान्निर्गता ध्यात्वा, मूलं पाद्याचमनीयमधुपर्काचमनीय-पात्रेभ्यः
सर्वं समर्प्य, मूलान्ते भगवन्नर्घ्यं गृहाण वौषट्, मू० गन्धं गृहाण नमः, मू० पुष्पाणि गृहाण वषट्,
मू० सर्वाङ्ग गङ्गोदकं नमः, मू०
भगवन् रत्नवस्त्रालङ्कारादि गृहाण नमः, मू० भगवन् रत्नपादुके गृहाण नमः, मू० भगवन्
रत्नसिंहासनं नमः, मू० गन्धाक्षतपूर्वं पुष्पाणि गृहाण नमो वौषट्,
मू० भगवन् धूपं गृहाण नमः, मू० भगवन् दीपं
गृहाण नमः, इति खशोल्कया सर्व दत्त्वा, आत्मपुरतस्त्र्यनं सवृत्तं भूमौ विलिख्य तत्र साधारं पात्रं संस्थाप्य,
नैवेद्यं निवेद्य मूलेनामृतीकृत्य, खशोल्कया
निरीक्ष्य, मूलं दशधा जप्त्वा धेनुयोनिमुद्रे प्रदर्श्य,
ॐ ह्रांह्रींसः भवगन् सूर्य अपोशानं नमः, अमृतोपस्तरणमसि
स्वाहा इति जलं दत्वा, पुण्ड्रकमुद्रां प्रदर्श्य
ग्रासमुद्रयाऽऽप्राय, मूलान्ते देवं संतृप्तं ध्यात्वा
इदमाचमनीयं स्वधा, (अमृतापिधानमसि स्वाहा ) मू० ताम्बूलं नमः,
मूलान्ते सप्तधा परमपात्रामृतेन सन्तर्प्य विस्फुरामपि त्रिः
सन्तर्प्य प्रणमेत् ।
ॐ ह्रां ह्रीं सः हंसः यं रं लं वं
शं षं सं हं ळं क्षं विस्फुरासहितस्य श्रीसूर्यस्य प्राण इह प्राणाः ।
ॐ ह्रां ह्रीं सः हंसः यं रं लं वं
शं षं सं हं ळं क्षं विस्फुरासहितस्य सूर्यस्य जीव इह स्थितः।
ॐ ह्रां ह्रीं सः हंसः यं रं लं वं
शं षं सं हं ळं क्षं वाङ्मनस्त्वक्चक्षुः श्रोत्रजिह्वाप्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं
चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
इस प्रकार प्राणप्रतिष्ठा करके
आवाहन,
संस्थापन, संनिरोध, अवगुंठन,
सम्मुखीकरण, प्रसन्नामृतीकरण, परमीकरण करे । धेनु, योनि, मत्स्य,
पद्म, बिम्ब, भानु,
खशोल्का मुद्राओं को दिखाये। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः भगवन्
सूर्य इदं रत्नसिंहासन-मास्यताम् । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः परमावरणदेवता
रश्मिमण्डलान्निर्गता का ध्यान करे। तब पूजा करे; जैसे-
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः
पाद्यं समर्पयामि। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः आचमनीयं समर्पयामि। ॐ ह्रां ह्रीं
सः सूर्याय नमः मधुपर्कं समर्पयामि। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः आचमनीयं
समर्पयामि। ये सभी समर्पण आचमनीय जल से करे। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः भगवन्
अर्घ्यं गृहाण वौषट् । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः गन्धं गृहाण नमः । ॐ ह्रां
ह्रीं सः सूर्याय नमः पुष्पाणि गृहाण वषट् । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः
सर्वाङ्गे गङ्गोदकं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः रत्नवस्त्रालङ्कारादि
गृहाण नमः । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः भगवन् रत्नपादुके गृहाण नमः । ॐ ह्रां
ह्रीं सः सूर्याय नमः भगवन् रत्नसिंहासनं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः
गन्धाक्षतपूर्वं पुष्पाणि गृहाण नमो वौषट् । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः भगवन्
धूपं गृहाण नमः । ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः भगवन् दीपं गृहाण नमः - इन सबका
समर्पण खशोल्का मुद्रा से करे।
अपने सामने भूमि पर त्रिकोण वृत्त
अंकित करके उस पर आधार रखकर पात्र रखे। निवेद्य नैवेद्य को अर्पण करे। मूल मन्त्र
से अमृतीकरण करे। खशोल्का मुद्रा से नैवेद्य का निरीक्षण करे। मूल मन्त्र का जप दश
बार करें। धेनु-योनिमुद्रा दिखावे।
'ॐ ह्रां ह्रीं सः भगवन् सूर्य
आपोशानं नमः अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा' से जल प्रदान करे।
पुण्ड्रक मुद्रा दिखावे। ग्रास मुद्रा से आघ्राण करे। मूल मन्त्र से देव के
सन्तृप्त होने का ध्यान करे। इदम् आचमनीयं स्वधा अमृतापिधानमसि स्वाहा । ॐ ह्रां
ह्रीं सः सूर्याय नमः ताम्बूलं नमः ।
मूल मन्त्र बोलकर परम पात्र के अमृत
से सात बार तर्पण करे। तब विस्फुरा का तर्पण तीन बार करके प्रणाम करे।
ततः परिवारदेवता ध्यायेत्। यथा-
सौम्यानि रक्तवर्णानि वरदाब्जकराणि
च ।
भूषितानि द्विहस्तानि भानोरङ्गानि
भावयेत् ॥
दंष्ट्राकरालमत्युग्रं प्रज्वलत्पावकप्रभम्
।
तर्जयेद् विघ्नसङ्घातमित्थमस्त्रं
विचिन्तयेत् ॥
सोमं कुमुदकुन्दाभं भौमं चामीकरप्रभम्
।
नीलरत्ननिभं सौम्यं गुरुं गोरोचनानिभम्
॥
गोक्षीरसन्निभं शुक्रं शनिं
नीलाञ्जनप्रभम् ।
कामरूपधराः सर्वे
दिव्याम्बरविभूषणाः ॥
वामोरुन्यस्तसद्धस्ता दक्षहस्ताभयप्रदाः
।
ध्यानपूर्वं ग्रहानेवं सुभक्त्या
कौलिकोऽर्चयेत् ॥
इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा,
वीरपात्रामृतेन संहृतिक्रमेण स्ववामावृत्त्या पूजयेत् ।
द्वाःस्थादिदेवायुधध्यानार्चनान्तं
पूजाक्रमः, इति शिवशासनम् ।
इसके बाद परिवार अर्थात् आवरण देवता
का ध्यान करे। ध्यान के पाँच श्लोक हैं। इन श्लोकों में ग्रहों के रूप का वर्णन
है। इनका अर्थ इस प्रकार हैं-
सूर्य-
सूर्य सौम्य रूप है। उसका वर्ण लाल है। एक हाथ में वरमुद्रा है और दूसरे हाथ में
कमल है। वस्त्राभूषणों से सुशोभित दो हाथ हैं। इस प्रकार ध्यान सूर्य का करें।
इनके अस्त्र अत्यन्त उग्र हैं। दाँत भयंकर हैं। प्रज्ज्वलित अग्नि की प्रभा वाले
हैं। इनका अस्त्र विघ्नों के समूह का विनाशक है।
चन्द्र
- चन्द्रमा की आभा कुमुदिनी - फूल के समान श्वेत है।
मंगल-
मंगल की प्रभा स्वर्णिम है।
बुध-
बुध की प्रभा नीलम रत्न के समान नीली है।
गुरु-
गुरु की प्रभा गोरोचन के समान है।
शुक्र-
शुक्र का वर्ण गाय के दूध के समान श्वेत है।
शनि
- शनि की प्रभा नीले अञ्जन के समान हैं।
ये सभी ग्रह इच्छानुरूप रूप धारण
करने वाले हैं। सभी दिव्य वस्त्रों को धारण करते हैं। इनके आभूषण भी दिव्य हैं।
इनका बाँयाँ हाथ ऊरु पर न्यस्त है। दाहिने हाथ में अभय मुद्रा है। कौलिक
ध्यानपूर्वक इनका पूजन करे। इनको पुष्पाञ्जलि देकर वीरपात्र के अमृत से संहारक्रम
से अपने वामावर्त क्रम से इनका पूजन करे। इनके आयुधों का पूजन पूजा के अन्त में
करे। यही पूजा का क्रम है। यही शिव का शासन है।
देवीरहस्य पटल ३२- आवरणपूजा
यथा-लं इन्द्रश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः, वीरपात्रामृतेन
तर्पयेत् । रं अग्निश्रीपादुकां पू० । टं यम श्रीपा० । क्षं निर्ऋतिश्री ० । वं
वरुणश्री ० । यं वायुश्री ० । सं सोमश्री०
। हं ईशानश्री ०। ॐ ब्रह्मश्री ० । ह्रीं अनन्तश्री ० । इति पद्मपत्रैरभ्यर्चयेत्
( अभीष्ट सिद्धि ० ) इति प्रथमावरणम् ।।
प्रथम आवरण
- भूपुर में पूर्वादि क्रम से-
लं इन्द्रश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः । वीरपात्र के अमृत से तर्पण करे।
रं अग्निश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
टं यमश्रीपादुका पूजयामि तर्पयामि
नमः।
क्षं निर्ऋतिश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
वं वरुणश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
यं वायुश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
कुं कुबेर श्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
हं ईशानश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ॐ ब्रह्मश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
ह्रीं अनन्तश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
इनका पूजन कमलपत्रों से करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुम्यं
प्रथमावरणार्चनम्।।
इस श्लोक से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ गं गणेशश्रीपादुकां पू० । ॐ चं
चण्डवेतालश्रीपा० । ॐ लोलाक्ष श्रीपा०। ॐ विकरालश्री ० । इति
गन्धाक्षतपुष्पैरभ्यर्च्य पूर्व-दक्षिण-पश्चिमोत्तरेषु
वामावर्तेनान्तर्द्वाःस्थान् संपूजयेदिति (अभीष्ट ० ) इति द्वितीयावरणम् ।
द्वितीय आवरण-
भूपुर के द्वारों पर पूर्वादि क्रम से—
ॐ गं गणेशश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः- पूर्वद्वार पर ।
ॐ चं चण्डवेतालश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः- दक्षिण में ।
ॐ लोलाक्षश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः — पश्चिम में।
ॐ विकरालश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः- उत्तर में ।
गन्धाक्षतपुष्प से पूजन करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
द्वितीयावरणार्चनम्।।
इसके पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।
मू० गुं स्वगुरुपादुकां पूजयामि नमः
तर्पयामि नमः, इति गुरुपात्रामृतेन
संपूज्य, वा संतर्प्य, पं परमगुरु
श्री०, पं परमेष्ठिगुरुश्री०, इति
वृत्तत्रयेषु वायव्यादीशान्तं संपूजयेदिति तृतीयावरणम् ।
तृतीयावरण-
तीनों वृत्तों में वायव्य से ईशान कोण तक-
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः गुं
स्वगुरुपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
गुरुपात्र अमृत से इनका पूजन तर्पण
करे।
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः पं
परमगुरुश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः पं
परमेष्ठिगुरुश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
पूजन गन्धाक्षतपुष्प से करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुम्यं
तृतीयावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि अर्पित
करे।
सौ: ज्योत्स्नादेवीदीप्तासहितसोमश्रीपा०
इति ग्रहपात्रामृतेन तर्पयेत् । सं सूक्ष्मासहितमङ्गलश्री ० । बं जयासहितबुधश्री ०
। जुं भद्रासहितजीवश्री ० । श्री विमलासहितशुक्र श्री ० शं निर्मलासहितशनिश्री ०
रां विद्युतासहित- राहुश्री ०। कं सर्वतोवक्त्रासहितकेतुश्री ० । इति
गन्धाक्षतपद्मपरागैर्वामावर्तेन वसुदले पूर्वादीशान्तं संपूजयेदिति चतुर्थावरणम्।
चतुर्थावरण-
अष्टदल में पूर्व ईशान तक पूजन करे। ग्रहपात्र के अमृत से तर्पण करे-
सौ: ज्योत्स्नादेवी
दीप्तासहितसोमश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
सं सूक्ष्मासहितमंगलश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
बं जयासहितबुधश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः।
जुं भद्रासहितजीव श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
श्री विमलासहित शुक्र श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
शं निर्मलासहितशनिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
रां विद्युतासहितराहुश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
कं
सर्वतोवक्त्रासहितकेतुश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
गन्धाक्षत- पद्मपराग से वामावर्त
क्रम से पूजन करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
चतुर्थावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि अर्पित
करे।
ॐ ह्रांह्रीं तपनीसहितसूर्यश्रीपा०। ॐ तापिनीसहितदिवाकर श्री०। ॐ बोधिनीसहित भानुश्री ० । ॐ रोधिनीसहित -भास्कर श्री० । ॐ कलिनीसहितरविश्री ० । ॐ शोषिणीसहितत्वष्टृ श्री ०। ॐ वरेण्यासहिततपनश्री ० । ॐ आकर्षिणीसहित-धर्मश्री ० । इति श्रीपरमपात्रामृतेन स्ववामावृत्त्या वसुकोणे पद्मपत्रैः संपूजयेदिति पञ्चमावरणम्।
पञ्चमावरण-
अष्टकोण में स्व- वामावर्त क्रम से पद्मपत्रों से पूजन करे। श्रीपरमपात्र के अमृत
से तर्पण करे-
ॐ ह्रां ह्रीं तपिनीसहितसूर्य
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं तापिनीसहितदिवाकर
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं
बोधिनीसहितभानुश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं रोधिनीसहितभास्कर
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं कलिनीसहितरविश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं शोषिणीसहितत्वष्टा
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं
वरेण्यासहिततपनश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं
आकर्षिणीसहितधर्मश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
पञ्चमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ ह्रांह्रीं मायासहितहंसश्रीपा०
इतीशाने । ॐ विश्वावतीसहितग्रहपतिश्री ० इति आग्नेये। ॐ हेमप्रभासहितत्रयीतनुश्री ० इत्यये । इति
गन्धपुष्पाक्षतैरर्चयेदिति षष्ठावरणम्।
षष्ठावरण-
त्रिकोण में गन्धाक्षतपुष्प से पूजन करे-
ॐ ह्रां ह्रीं
मायासहितहंसश्रीपादुकां पूजयामि – ईशान कोण में।
ॐ ह्रां ह्रीं
विश्वावतीसहितग्रहपतिश्रीपादुकां पूजयामि - आग्नेय कोण में ।
ॐ ह्रां ह्रीं
हेमप्रभासहितत्रयीतनुश्रीपादुकां पूजयामि – सम्मुख
कोण में ।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
षष्ठावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ 'जगध्वनिमये मातर्घण्टायै नमः' इति संपूज्य
शनैर्वादयन् मूलविद्यामुच्चार्य श्रीविस्फुरासहितसवितृश्री०, इति द्वादशवारं शतपत्रैः केवलमभ्यर्चयेदिति सप्तमावरणम् ।
सप्तम आवरण-
बिन्दुमण्डल में केवल कमल के फूल से बारह बार पूजन करे-
ॐ ह्रां ह्रीं जगद्ध्वनिमये
मातर्घण्टायै नमः से पूजन करके धीरे-धीरे घण्टावादन करे। इसके बाद इस प्रकार पूजा
करे-
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः श्री
विस्फुरासहितसवितृ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
बारह बार कमलफूल से पूजा करे।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
सप्तमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
ॐ रत्नकलशश्रीपा०,
ॐ सुवर्णकमलश्री० इति परमपात्रामृतेन वामदक्षिणयोः करकमलयोः
सम्पूजयेदित्यष्टमावरणम्।
अष्टमावरण-
बिन्दु में भगवान् के हाथों में परमपात्र के अमृत से बाम और दक्ष करकमलों में पूजन
करे –
ॐ ह्रां ह्रीं रत्नकलशश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं सुवर्णकमलश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सल
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
अष्टमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित
करे।
इत्थं संपूज्य,
मूलेन मूलदेवतां त्रिः सन्तर्प्य प्रणमेत् । ततो मूलदेवतासहिताय श्रीसूर्याय
सपरिच्छदाय परमान्नं नैवेद्यं निवेदयामि नमः, मूलेन दत्त्वा मूलान्ते
सप्तप्रदक्षिणानि कृत्वा मूलान्ते मेरुपुण्ड्रकमुद्रां प्रदर्श्य पुनः पुनः
प्रणमेत् ।
इस प्रकार पूजा करके मूल मन्त्र से
मूल देवता सूर्यनारायण का तीन बार तर्पण करके नमस्कार करे। इसके बाद
मूलदेवतासहिताय श्रीसूर्याय सपरिच्छदाय परमान्नं नैवेद्यं निवेदयामि नमः। मूल
मन्त्र से नैवेद्य समर्पित करे। पानीय आचमनीय प्रदान करे। मूल मन्त्र के जप के साथ
सात प्रदक्षिणा करे । मूल मन्त्रोच्चारणपूर्वक मेरुपुण्ड्रक मुद्रा प्रदर्शित करे।
बार-बार प्रणाम करे।
दक्षिणान्तर्गता वामा वामान्तरगताः
पराः ।
अङ्गुलीर्योंजयेद् देवि चाङ्गुष्ठौ
संमुखौ चरेत् ॥
आवर्त्य व्योमवद् हस्तावङ्गुष्ठौ
देव्यधोमुखौ ।
मेरुपुण्ड्रकमुद्रेशं दिव्या
भास्करवल्लभा ॥
नैवेद्ये च प्रणामे च
पुण्ड्रकाख्यां प्रदर्शयेत् ।
इति नत्वा संकल्पपूर्व षडङ्गं विधाय
प्राणायामत्रयं कृत्वा अर्कमालया मूलं यथाशक्त्या जपेत् । जपान्ते-
गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं
गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादात्
प्रभाकर ॥
इति जपं देवाय समर्प्य,
योनिमुद्रया प्रणमेत् ।
मेरुपुण्ड्रक मुद्रा
- दक्षिण हाथ की अंगुलियों के बीच में वाम हाथ की अंगुलियों को प्रवेश कराये।
अँगूठों को सम्मुख रखे । हाथों को आकाशवत् घुमाकर अँगूठों को अधोमुख करे। ऐसा करने
से दिव्य मेरुपुण्ड्रक मुद्रा बनती है, जो
सूर्य को अति प्रिय है। नैवेद्य और प्रणाम अर्पण करते समय मेरुपुण्ड्रक मुद्रा को
प्रदर्शित करे।
इस प्रकार प्रणाम करके
सङ्कल्पपूर्वक षडङ्ग न्यास करके तीन प्राणायाम करे । अर्कमाला से यथाशक्ति मूल
मन्त्र का जप करे। जप के पश्चात् जप का समर्पण निम्नांकित मन्त्र से करे-
गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं
गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादात्
प्रभाकर ।।
इस मन्त्र से जप समर्पित करके
योनिमुद्रा से प्रणाम करे।
ततः कवचसहस्त्रनामस्तवराजपाठं
कुर्यात् ( वैश्वदेवादिनित्यकर्म कुर्यात् ) । तदपि बिम्बमुद्रया देवाय समर्प्य
दण्डवत् प्रणम्य, ॐ ह्रींवीं
वीरवटुकाय नमः । ॐ यांयूंयों योगिनीभ्यो नमः । ॐ क्षां क्षेत्रपालेभ्यो नमः । ॐ
त्रांत्रों तेजश्चण्डाभ्यां नमः, इति बलिं निवेद्य, ॐ ह्रांहूं सर्वभूतेभ्यः सर्वविघ्नकृद्भ्यो बलिर्वौषट्' इति बलिं दत्त्वा (ततः सूर्यस्य क्षमापयेत्) श्रीसामयिकैः सह वीरवन्दनं
विधाय, तदन्ते 'ॐ सोहं हंसः स्वाहा'
इत्यानन्दपात्रं शिरसि निःक्षिप्य, परमानन्दमयो
भूत्वा स्वात्मानं तेजोमयं सूर्यरूपं विभाव्य 'ॐ ह्रः
अस्त्राय फट् ' सूर्यास्त्रं ध्यात्वा प्रणम्य पुष्पाञ्जलिं
दत्त्वा भानवीं मुद्रां प्रदर्श्य, संहारमुद्रया श्रीचक्रे
बिन्दुबिम्बात् सूर्यतेजोमयं पुष्पमादाय पिङ्गलयाघ्राय तत्सौरं तेजः परमशिवेन
संयोज्य, पुनर्मूलाधारं प्रापय्य
स्वात्मानं तेजोमयरूपं दिव्यं नाटयन् स्वशक्त्या सह यथासुखं विहरेत् ।
तब कवच,
सहस्रनाम और स्तोत्र का पाठ करे। वैश्वदेवादि नित्य कर्म करे। इसे
भी विम्बमुद्रा से देवता को समर्पित करे। दण्डवत् भूमि पर लेटकर प्रणाम करे। इसके
बाद निम्नवत् बलि प्रदान करे-
वटुक को बलि
- ॐ ह्रीं वीं वीरवटुकाय नमः ।
योगिनियों को बलि
–
ॐ यां यूं यों योगिनीभ्यो नमः ।
क्षेत्रपाल को बलि-
ॐ क्षां क्षेत्रपालेभ्यो नमः ।
तेजचण्ड को बलि-
ॐ त्रां त्रों तेजश्चण्डाभ्यां नमः ।
इसके बाद समस्त भूतों को बलि प्रदान
करें- ॐ ह्रां ह्रूं सर्वभूतेभ्यः सर्वविघ्नकृद्भ्यो बलिर्वौषट् ।
इस प्रकार बलि-प्रदान के बाद सूर्य
से क्षमा माँगे। श्रीसामयिकों के साथ वीरवन्दन करे। इसके बाद 'ॐ सोहं हंसः स्वाहा' से आनन्दपात्र को शिर पर उड़ेल
कर परमानन्दित होकर अपने को तेजोमय सूर्यरूप मानकर 'ॐ ह्रः
अस्त्राय फट्' से सूर्यास्त का ध्यान करे। प्रणाम करे।
पुष्पाञ्जलि देकर भानवी मुद्रा दिखावे। संहारमुद्रा से श्रीचक्र के बिन्दुबिम्ब से
सूर्य तेजोमय पुष्प लेकर पिङ्गला से सूँघे । तब सौर तेज को परम शिव के साथ जोड़कर
पुनः मूलाधार में लाकर अपने को तेजोमय रूप में दिव्य समझकर नाचे। अपनी शक्ति के
साथ यथाशक्ति विहार करे।
देवीरहस्य पटल ३२- पटलोपसंहारः
इत्येषा नित्यपूजायाः
पद्धतिर्गद्यरूपिणी ।
तव स्नेहेन निर्णीता नाख्येया
कौलिकैः प्रिये ॥
इस गद्य-पद्यमयी नित्य पूजा पद्धति
को तुम्हारे स्नेहवश मैंने निरूपित किया है। कौलिक इसे किसी को न बतलाये।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये सूर्यपूजापद्धतिनिरूपणं नाम द्वात्रिंशः पटलः ॥३२॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में सूर्यपूजापद्धति निरूपण नामक द्वात्रिंश पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 33
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