अग्निपुराण अध्याय १४३
अग्निपुराण अध्याय १४३ में कुब्जिका
सम्बन्धी न्यास एवं पूजन की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 143
अग्निपुराण एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः १४३
अग्निपुराणम् अध्यायः १४३– कुब्जिकापूजा
अथ त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
कुब्जिकाक्रमपूजाञ्च वक्ष्ये
सर्वार्थसाधनीं ।
यया जिताः सुरा देवैः
शस्त्राद्यैराज्यसंयुतैः ॥१॥
महादेवजी कहते हैं- स्कन्द ! अब मैं
कुब्जिका की क्रमिक पूजा का वर्णन करूँगा, जो
समस्त मनोरथों को सिद्ध करनेवाली है। 'कुब्जिका' वह शक्ति है, जिसकी सहायता से राज्य पर स्थित हुए
देवताओं ने अस्त्र-शस्त्रादि से असुरों पर विजय पायी हैं ॥ १ ॥
मायाबीजं च गुह्याङ्गे षट्कमस्त्रं
करे न्यसेत् ।
काली कालीति हृदयं दुष्टचाण्डालिका
शिरः ॥२॥
ह्रौं स्फें ह स ख क छ ड ओं कारो
भैरवः शिखा ।
भेलखी कवचं दूती नेत्राख्या
रक्तचण्डिका ॥३॥
ततो गुह्यक्रुञ्जिकास्त्रं मण्डले
स्थानके यजेत् ।
मायाबीज 'ह्रीं' तथा हृदयादि छः मन्त्रों का क्रमशः गुह्याङ्ग
एवं हाथ में न्यास करे । 'काली- काली' – यह हृदय मन्त्र है। 'दुष्ट चाण्डालिका' - यह शिरोमन्त्र है। 'ह्रीं स्फेंह स ख क छ ड ओंकारो
भैरवः ।'- यह शिखा- सम्बन्धी मन्त्र है। 'भेलखी दूती'- यह कवच- सम्बन्धी मन्त्र है। 'रक्तचण्डिका' - यह नेत्र- सम्बन्धी मन्त्र है तथा 'गुह्यकुब्जिका' – यह अस्त्र सम्बन्धी मन्त्र है।
अङ्गों और हाथों में इनका न्यास करके मण्डल में यथास्थान इनका पूजन करना चाहिये* ॥ २-३अ ॥
* अङ्गन्यास सम्बन्धी वाक्य की योजना इस प्रकार है। ॐ
ह्रीं काली काली हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं दुष्टचाण्डालिकायै शिरसे स्वाहा। ॐ ह्रौं
स्फें ह स ख क छ ड ॐकाराय भैरवाय शिखायै वषट्। ॐ ह्रीं भेलख्यै दूत्यै कवचाय हुम्।
ॐ ह्रीं रक्तचण्डिकायै नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ गुह्यकुब्जिकायै अस्त्राय फट्। इन छः
वाक्यों द्वारा क्रमशः हृदय, सिर, शिखा,
कवच, नेत्र एवं सम्पूर्ण दिशाओं में न्यास
किया जाता है। इन्हीं वाक्यों में 'हृदयाय नमः' के स्थान में 'अङ्गुष्ठाभ्यां नमः', 'शिरसे के स्थान में 'तर्जनीभ्यां नमः', 'शिखाय' के स्थान में 'मध्यमाभ्यां
नमः', 'कवचाय की जगह 'अनामिकाभ्यां नमः',
'नेत्रत्रयाय' के स्थान में 'कनिष्ठिकाभ्यां नमः' तथा 'अस्त्राय'
के स्थान में 'करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः' कर दिया जाय तो ये करन्यास सम्बन्धी वाक्य हो जायेंगे तथा इनका क्रमशः हाथ
के दोनों अंगुष्ठों, तर्जनियों, मध्यमाओं,
अनामिकाओं, कनिष्ठिकाओं तथा करतल करपृष्ठ
भागों में न्यास किया जायगा।
अग्नौ कूर्चशिरो रुद्रे नैर्ऋत्येऽथ
शिखानिले ॥४॥
कवचम्मध्यतो नेत्रं अस्त्रन्दिक्षु
च मण्डले ।
द्वात्रिंशता कर्णिकायां स्रों
हसक्षमलनववषडसचात्ममन्त्रवीजकं ॥५॥
ब्रह्माणी चैव माहेशो कौमारी
वैष्णवी तथा ।
वाराही चैव माहेन्द्री चामुण्डा
चण्डिकेन्द्रकात् ॥६॥
मण्डल के अग्निकोण में कूर्च बीज
(हूं),
ईशानकोण में शिरोमन्त्र (स्वाहा), नैर्ऋत्यकोण
में शिखामन्त्र (वषट्), वायव्यकोण में कवचमन्त्र (हुम्),
मध्यभाग में नेत्रमन्त्र (वौषट्) तथा मण्डल की सम्पूर्ण दिशाओं में
अस्त्र-मन्त्र (फट्) - का उल्लेख एवं पूजन करे। बत्तीस अक्षरों से युक्त बत्तीस
दलवाले कमल की कर्णिका में 'स्त्रों ह स क्ष म ल न व ब घ ट स
च तथा आत्मबीज-मन्त्र (आम्) -का न्यास एवं पूजन करे। कमल के सब ओर पूर्व दिशा से
आरम्भ करके क्रमशः ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही,
माहेन्द्री, चामुण्डा और चण्डिका (
महालक्ष्मी) का न्यास एवं पूजन करना चाहिये ॥ ४-६॥
यजेद्रवलकसहान्
शिवेन्दाग्नियमेऽद्निपे ।
जले तु कुसुममालामद्रिकाणां च
पञ्चकं ॥७॥
जालन्धरं पूर्णगिरिं कामरूपं
क्रमाद्यजेत् ।
मरुदेशाग्निनैर्ऋत्ये मध्ये वै
वज्रकुब्जिकां ॥८॥
अनादिविमलः पूज्यः
सर्वज्ञविमलस्तुतः ।
प्रसिद्धविमलश्चाथ संयोगविमलस्तुतः
॥९॥
समयाख्योऽथ विमल एतद्विमलपञ्चकं ।
मरुदीशाननैर्ऋत्ये वह्नौ
चोत्तरशृङ्गके ॥१०॥
कुब्जार्थं खिंखिनी षष्ठा सोपन्ना
सुस्थिरा तथा ।
रत्नसुन्दरी चैशाने शृङ्गे
चाष्टादिनाथकाः ॥११॥
तत्पश्चात् ईशान,
पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैर्ऋत्य और पश्चिम में क्रमशः र, व, ल, क, स और ह - इनका न्यास और
पूजन करे। फिर इन्हीं दिशाओं में क्रमश: कुसुममाला एवं पाँच पर्वतों का स्थापन एवं
पूजन करे। पर्वतों के नाम हैं- जालन्धर, पूर्णगिरि और कामरूप
आदि । तत्पश्चात् वायव्य, ईशान, अग्नि
और नैर्ऋत्यकोण में तथा मध्यभाग में वज्रकुब्जिका का पूजन करे। इसके बाद वायव्य,
ईशान, नैर्ऋत्य, अग्नि
तथा उत्तर शिखर पर क्रमशः अनादि विमल, सर्वज्ञ विमल, प्रसिद्ध विमल, संयोग विमल तथा समय विमल - इन पाँच
विमलों की पूजा करे। इन्हीं शृङ्गों पर कुब्जिका की प्रसन्नता के लिये क्रमशः खिङ्खिनी,
षष्ठी, सोपन्ना, सुस्थिरा
तथा रत्नसुन्दरी का पूजन करना चाहिये। ईशानकोणवर्ती शिखर पर आठ आदिनाथों की आराधना
करे ॥ ७-११॥
मित्र ओडीशषष्ठ्याख्यौ वर्षा
अग्न्यम्बुपेऽनिले ।
भवेद्गगनरत्नं स्याच्चाप्ये
कवचरत्नकं ॥१२॥
ब्रुं मर्त्यः पञ्चनामाख्यो
मरुदीशानवह्निगः ।
याम्याग्नेये पञ्चरत्नं ज्येष्ठा
रौद्री तथान्तिका ॥१३॥
तिस्रो ह्यासां महावृद्धाः पञ्चप्रणवतोऽखिलाः
।
सप्तविंशत्यष्टविंशभेदात्सम्पूजनं
द्विधा ॥१४॥
अग्निकोणवर्ती शिखर पर मित्र की,
पश्चिमवर्ती शिखर पर औडीश वर्ष की तथा वायव्यकोणवर्ती शिखर पर षष्टि
नामक वर्ष की पूजा करनी चाहिये। पश्चिमदिशावर्ती शिखर पर गगनरत्न और कवचरत्न की
अर्चना की जानी चाहिये। वायव्य, ईशान और अग्निकोण में 'ब्रुं' बीजसहित 'पञ्चनामा'
संज्ञक मर्त्य की पूजा करनी चाहिये। दक्षिण दिशा और अग्निकोण में 'पञ्चरत्न' की अर्चना करे। ज्येष्ठा, रौद्री तथा अन्तिका – ये तीन संध्याओं की
अधिष्ठात्री देवियाँ भी उसी दिशा में पूजने योग्य हैं। इनके साथ सम्बन्ध रखनेवाली
पाँच महावृद्धाएँ हैं, उन सबकी प्रणव के उच्चारणपूर्वक पूजा
करनी चाहिये । इनका पूजन सत्ताईस अथवा अट्ठाईस के भेद से दो प्रकार का बताया गया
है ॥ १२-१४ ॥
ओं ऐं गूं क्रमगणपतिं प्रणवं वटुकं
यजेत् ।
चतुरस्रे मण्डले च दक्षिणे गणपं
यजेत् ॥१५॥
वामे च वटुकं कोणे गुरून्
सोडशनाथकान् ।
वायव्यादौ चाष्ट दश प्रतिषट्कोणके
ततः ॥१६॥
ब्रह्माद्याश्चाष्ट परितस्तन्मध्ये
च नवात्मकः ।
कुब्जिका कुलटा चैव क्रमपूजा तु
सर्वदा ॥१७॥
चौकोर मण्डल में दाहिनी ओर गणपति का
तथा बायीं ओर वटुक का पूजन करे। ॐ एं गूं क्रमगणपतये नमः।'
इस मन्त्र से क्रमगणपति की तथा 'ॐ वटुकाय नमः।'
इस मन्त्र से वटुक की पूजा करे। वायव्य आदि कोणों में चार गुरुओं का
तथा अठारह षट्कोणों में सोलह नाथों का पूजन करे। फिर मण्डल के चारों ओर ब्रह्मा
आदि आठ देवताओं की तथा मध्यभाग में नवमी कुब्जिका एवं कुलटा देवी की पूजा करनी
चाहिये। इस प्रकार सदा इसी क्रम से पूजा करे ।। १५-१७ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
युद्धजयार्णवे कुब्जिकाक्रमपूजा नाम त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कुब्जिका की क्रम-पूजा का वर्णन' नामक एक सौ
तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४३॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 144
0 Comments