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अग्निपुराण अध्याय १४४

अग्निपुराण अध्याय १४४         

अग्निपुराण अध्याय १४४ में कुब्जिका की पूजा-विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १४४

अग्निपुराणम् चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 144           

अग्निपुराण एक सौ चौंवालीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १४४ 

अग्निपुराणम् अध्यायः १४४– कुब्जिकापूजा

अथ चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

श्रीमतीं कुब्जिकां वक्ष्ये धर्मार्थादिजयप्रदां ।

पूजयेन्मूलमन्त्रेण परिवारयुतेन वा ॥१॥

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द ! अब मैं धर्म, अर्थ, काम तथा विजय प्रदान करनेवाली श्रीमती कुब्जिकादेवी के मन्त्र का वर्णन करूंगा। परिवारसहित मूलमन्त्र से उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ १ ॥

ओं ऐं ह्रौं श्रीं खैं ह्रें हसक्षमलचवयम्भगवति अम्बिके ह्रां ह्रीं क्ष्रीं क्षौं क्ष्रूं क्रीं कुब्जिके ह्रां ओं ङञनणमे अघोरमुखि व्रां छ्रां छीं किलि २ क्षौं विच्चे ख्यों श्रीं क्रों ओं ह्रों ऐं वज्रकुब्जिनि(१) स्त्रीं त्रैलोक्यकर्षिणि ह्रीं कामाङ्गद्राविणि ह्रीं स्त्रीं महाक्षोभकारिणि ऐं ह्रीं क्ष्रीं ऐं ह्रों श्रीं फें क्षौं नमो भगवति क्ष्रौं कुब्जिके ह्रों ह्रों क्रैं ङञणनमे अघोरमुखि छ्रांछां विच्चे ओं किलि २ ॥२॥

'ॐ ऐं ह्रीं श्रीं खैं ह्रें हसक्षमलचवयं भगवति अम्बिके ह्रां ह्रीं क्ष्रीं क्ष्रौं क्ष्रूं क्रीं कुब्जिके ह्रां ॐ ङञनणमेऽअघोरमुखि व्रां छ्रां छीं किलि किलि क्षौं विच्चेख्यों श्रीं क्रों, ॐ ह्रों, ऐं वज्रकुब्जिनि स्त्रीं त्रैलोक्यकर्षिणि ह्रीं कामाङ्गद्राविणि ह्रीं स्त्रीं महाक्षोभकारिणि ऐं ह्रीं क्ष्रीं ऐं ह्रीं श्रीं फें क्षौं नमो भगवति क्ष्रौं कुब्जिके ह्रों ह्रों क्रैं ङञणनमे अघोरमुखि छ्रां छां विच्चे, ॐ किलि किलि । - यह कुब्जिकामन्त्र है ॥ २ ॥

कृत्वा कराङ्गन्यासञ्च सन्ध्यावन्दनमाचरेत् ।

वामा ज्येष्ठा तथा रौद्रीं सन्ध्यात्रयमनुक्रमात् ॥३॥

करन्यास और अङ्गन्यास करके संध्या-वन्दन करे। वामा, ज्येष्ठा तथा रौद्री - ये क्रमशः तीन संध्याएँ कही गयी हैं ॥ ३ ॥

कौली गायत्री

कुलवागीशि विद्महे महाकालीति धीमहि ।

तन्नः कौली प्रचोदयात् ॥४॥

'कुलवागीशि विग्रहे, महाकौलीति धीमहि । तन्नः कौली प्रचोदयात्।' 'कुलवागीश्वरि! हम आपको जानें। महाकौली के रूप में आपका चिन्तन करें। कौली देवी हमें शुभ कर्मों के लिये प्रेरित करे' ॥ ४ ॥

मन्त्राः पञ्च प्रणवाद्याः पादुकां पूजयामि च ।

मध्ये नाम चतुर्थ्यन्तं द्विनवात्मकवीजकाः ॥५॥

नमोन्ता वाथ षष्ट्या तु सर्वे ज्ञेया वदामि तान् ।

कौलीशनाथः सुकला जन्मतः कुब्जिका ततः ॥६॥

श्रीकण्ठनाथः कौलेशो गगनानन्दनाथकः ।

चटुला देवी मैत्रीशी कराली तूर्णनाथकः ॥७॥

अतलदेवी श्रीचन्द्रा देवीत्यन्तास्ततस्त्विमे ।

भगात्मपुङ्गणदेवमोहनीं पादुकां यजेत् ॥८॥

अतीतभुवनानन्दरत्नाढ्यां पादुकां यजेत् ।

ब्रह्मज्ञानाथ कमला परमा विद्यया सह ॥९॥

इसके पाँच मन्त्र हैं, जिनके आदि में 'प्रणव' और अन्त में 'नमः' पद का प्रयोग होता है। बीच में पाँच नाथों के नाम हैं; अन्त में 'श्रीपादुकां पूजयामि इस पद को जोड़ना चाहिये। मध्य में देवता का चतुर्थ्यन्त नाम जोड़ देना चाहिये। इस प्रकार ये पाँचों मन्त्र लगभग अठारह अठारह अक्षरों के होते हैं। इन सबके नामों को षष्ठी विभक्ति के साथ संयुक्त करना चाहिये। इस तरह वाक्य-योजना करके इनके स्वरूप समझने चाहिये । मैं उन पाँचों नाथ का वर्णन करता हूँ-कौलीशनाथ, श्रीकण्ठनाथ, कौलनाथ, गगनानन्दनाथ तथा तूर्णनाथ। इनकी पूजा का मन्त्र- वाक्य इस प्रकार होना चाहिये - 'ॐ कौलीशनाथाय नमस्तस्मै पादुकां पूजयामि।' इनके साथ क्रमशः ये पाँच देवियाँ भी पूजनीय हैं सुकला देवी, जो जन्म से ही कुब्जा होने के कारण 'कुब्जिका' कही गयी हैं; २ - चटुला देवी, ३ - मैत्रीशी देवी, जो विकराल रूपवाली हैं, ४- अतल देवी और ५ - श्रीचन्द्रा देवी हैं। इन सबके नाम के अन्त में 'देवी' पद है। इनके पूजन का मन्त्र-वाक्य इस प्रकार होगा- ॐ सुकलादेव्यै नमस्तस्यै भगात्मपुङ्गण- देवमोहिनी पादुकां पूजयामि।' दूसरी (चटुला) देवी की पादुका का यह विशेषण देना चाहिये- 'अतीतभुवनानन्दरत्नाढ्यां पादुकां पूजयामि।' इसी तरह तीसरी देवी की पादुका का विशेषण 'ब्रह्मज्ञानाढ्यां', चौथी की पादुका का विशेषण 'कमलाढ्यां' तथा पाँचवीं की पादुका का विशेषण 'परमविद्याढ्यां' देना चाहिये ॥ ५-९ ॥

विद्यादेवीगुरुशुद्धिस्त्रिशुद्धिं प्रवदामि ते ।

गगनश्चटुली चात्मा पद्मानन्दो मणिः कला ॥१०॥

कमलो माणिक्यकण्ठो गगनः कुमुदस्ततः ।

श्रीपद्मो भैरवानन्दो देवः कमल इत्यतः ॥११॥

शिवो भवोऽथ कृष्णश्च नवसिद्धाश्च षोडश ।

इस प्रकार विद्या देवी और गुरु ( उपर्युक्त पाँच नाथ ) - इन तीन की शुद्धि 'त्रिशुद्धि' कहलाती है। मैं तुमसे इसका वर्णन करता हूँ। गगनानन्द, चटुली, आत्मानन्द, पद्मानन्द, मणि, कला, कमल, माणिक्यकण्ठ, गगन, कुमुद, श्रीपद्म, भैरवानन्द, कमलदेव, शिव, भव तथा कृष्ण - ये सोलह नूतन सिद्ध हैं ।। १०-११अ ॥

चन्द्रपूरोऽथ गुल्मश्च शुभः कामोऽतिमुक्तकः ॥१२॥

कण्ठो वीरः प्रयोगोऽथ कुशलो देवभोगकः ।

विश्वदेवः खड्गदेवो रुद्रो धातासिरेव च ॥१३॥

मुद्रास्फीटी वंशपूरो भोजः षोडश सिद्धकाः ।

समयान्यस्तु देहस्तु षोढान्यासेन यन्त्रितः ॥१४॥

प्रक्षिप्य मण्डले पुष्पं मण्डलान्यथ पूजयेत् ।

अनन्तञ्च महान्तञ्च सर्वदा शिवपादुकां ॥१५॥

महाव्याप्तिश्च शून्यञ्च पञ्चतत्त्वात्ममण्डलं ।

श्रीकण्ठनाथपादुकां शङ्करानन्तकौ यजेत् ॥१६॥

चन्द्रपूर, गुल्म, शुभकाम, अतिमुक्तक, वीरकण्ठ, प्रयोग, कुशल, देवभोगक्र (अथवा भोगदायक), विश्वदेव, खङ्गदेव, रुद्र, धाता, असि, मुद्रास्फोट, वंशपूर तथा भोज ये सोलह सिद्ध हैं। इन सिद्धों का शरीर भी छः प्रकार के न्यासों से नियन्त्रित होने के कारण इनके आत्मा के समान जाति का ही (सच्चिदानन्दमय) हो गया है। मण्डल में फूल बिखेरकर मण्डलों की पूजा करे। अनन्त, महान्, शिवपादुका, महाव्याप्ति, शून्य, पञ्चतत्त्वात्मक- मण्डल, श्रीकण्ठनाथ- पादुका, शंकर एवं अनन्त की भी पूजा करे ॥ १२-१६ ॥

सदाशिवः पिङ्गलश्च भृग्वानन्दश्च नाथकः ।

लाङ्गूलानन्दसंवर्तौ मण्डलस्थानके यजेत् ॥१७॥

नैर्ऋत्ये श्रीमहकालः पिनाकी च महेन्द्रकः ।

खड्गो भुजङ्गो वाणश्च अघासिः शब्दको वशः ॥१८॥

आज्ञारूपो नन्दरूपो बलिन्दत्वा क्रमं यजेत् ।

ह्रीं खं खं हूं सौं वटुकाय अरु २ अर्घं पुष्पं धूपं दीपंगन्धं बलिं पूजां गृह्ण २ नमस्तुभ्यम् । ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं क्षें क्षेत्रपालाय अवतर २ महाकपिलजटाभार भास्वरत्रिनेत्रज्वालामुख एह्येहि गन्ह्दपुष्पबलिपूजां गृह्ण २ खः खः ओं कः ओं लः ओं महाडामराधिपतये(३) स्वाहा ॥

बलिशेषेऽथ यजेथ्रीं ह्रूं हां श्रीं वै त्रिकूटकं ॥१९॥

वामे च दक्षिणे ह्यग्रे याम्ये निशानाथपादुकाः ।

दक्षे तमोरिनाथस्य हग्रे कालानलस्य च ॥२०॥

उड्डियाणं जालन्धरं पूर्णं वै कामरुपकं ।

गगनानन्ददेवञ्च स्वर्गानन्दं सवर्गकं ॥२१॥

परमानन्ददेवञ्च सत्यानन्दस्य पादुकां ।

नागानन्दञ्च वर्गाख्यमुक्तान्ते रत्नपञ्चकं ॥२२॥

सदाशिव, पिङ्गल, भृग्वानन्द नाथ समुदाय, लाङ्गूलानन्द और संवर्त - इन सबका मण्डल- स्थान में पूजन करे। नैर्ऋत्यकोण में श्रीमहाकाल, पिनाकी, महेन्द्र, खड्ग, नाग, बाण, अघासि (पाप का छेदन करने के लिये खड्गरूप), शब्द, वश, आज्ञारूप और नन्दरूप-इनको बलि अर्पित करके क्रमशः इनका पूजन करे। इसके बाद वटुक को अर्घ्य, पुष्प, धूप, दीप, गन्ध एवं बलि तथा क्षेत्रपाल को गन्ध, पुष्प और बलि अर्पित करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं खं खं हूं सौं वटुकाय अरु अरु अर्घ्यं पुष्पं धूपं दीपं गन्धं बलिं पूजां गृह्ण गृह्ण नमस्तुभ्यम् । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं क्षेत्रपालायावतरावतर महाकपिलजटाभार भास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख एह्येहि गन्धपुष्पबलिपूजां गृह्ण गृह्ण खः खः ॐ कः ॐ लः ॐ महाडामराधिपतये स्वाहा।' बलि के अन्त में दायें-बायें तथा सामने त्रिकूट का पूजन करे; इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं ह्रूं ह्रां श्रीं त्रिकूटाय नमः ।' फिर बायें निशानाथ की, दाहिने तमोऽरिनाथ ( या सूर्यनाथ) - की तथा सामने कालानल की पादुकाओं का यजन-- पूजन करे। तदनन्तर उड्डियान, जालन्धर, पूर्णगिरि तथा कामरूप का पूजन करना चाहिये। फिर गगनानन्ददेव, वर्गसहित स्वर्गानन्ददेव, परमानन्ददेव, सत्यानन्ददेव की पादुका तथा नागानन्ददेव की पूजा करे। इस प्रकार 'वर्ग' नामक पञ्चरत्न का तुमसे वर्णन किया गया है ॥ १७ २२ ॥

सौम्ये शिवे यजेत्षट्कं सुरनाथस्य पादुकां ।

श्रीमत्समयकोटीशं विद्याकोटीश्वरं यजेत् ॥२३॥

कोटीशं बिन्दुकोटीशं सिद्धकोटीश्वरन्तथा ।

सिद्धचतुष्कमाग्नेय्यां अमरीशेश्वरं यजेत् ॥२४॥

चक्रीशनाथं कुरुङ्गेशं वृत्रेशञ्चन्द्रनाथकं ।

यजेद्गन्धादिभिश्चैतान् याम्ये विमलपञ्चकं ॥२५॥

यजेदनादिविमलं सर्वज्ञविमलं ततः ।

यजेद्योगीशविमलं सिद्धाख्यं समयाख्यकं ॥२६॥

उत्तर और ईशानकोण में इन छ: की पूजा 'करे- सुरनाथ की पादुका को, श्रीमान् समयकोटीश्वर की, विद्याकोटीश्वर की, कोटीश्वर की, बिन्दुकोटीश्वर की तथा सिद्धकोटीश्वर की। अग्निकोण में चार* सिद्ध- समुदाय की तथा अमरीशेश्वर, चक्रीशेश्वर, कुरङ्गेश्वर, वृत्रेश्वर और चन्द्रनाथ या चन्द्रेश्वर की पूजा करे। इन सबकी गन्ध आदि पञ्चोपचारों से पूजा करनी चाहिये। दक्षिण दिशा में अनादि विमल, सर्वज्ञ विमल, योगीश विमल, सिद्ध विमल और समय विमल इन पाँच विमलों का पूजन करे ।। २३- २६ ॥

* मन्त्रमहोदधि १२ । ३७ के अनुसार चार सिद्धौघ' गुरु हैं। यथा-योगक्रीड, समय, सहज और परावर । पूजा का मन्त्र- 'योगक्रीडानन्दनाथाय नमः, समयानन्दनाथाय नमः' इत्यादि ।

नैऋत्ये चतुरो देवान् जयेत्कन्दर्पनाथकं ।

पूर्वाः शक्तीश्च सर्वाश्च कुब्जिकापादुकां यजेत् ॥२७॥

नवातम्केन मन्त्रेण पञ्चप्रणवकेन वा ।

सहस्राक्षमनवद्यं विष्णुं शिवं सदा यजेत् ॥२८॥

पूर्वाच्छिवान्तं ब्रह्मादि ब्रह्माणी च महेश्वरी ।

कौमारी वैष्णवी चैव वाराही शक्रशक्तिका ॥२९॥

चामुण्डा च महालक्ष्मीः पूर्वादीशान्तमर्चयेत् ।

नैऋत्यकोण में चार वेदों का, कंदर्पनाथ का, पूर्वोक्त सम्पूर्ण शक्तियों का तथा कुब्जिका की श्रीपादुका का पूजन करे। इनमें कुब्जिका को पूजा 'ॐ ह्रां ह्रीं कुब्जिकायै नमः ।' इस नवाक्षर मन्त्र से अथवा केवल पाँच प्रणवरूप मन्त्र से करें। पूर्व दिशा से लेकर ईशानकोण- पर्यन्त ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, अनन्त, वरुण, वायु, कुबेर तथा ईशान इन दस दिक्पालों की पूजा करे। सहस्रनेत्रधारी इन्द्र, अनवद्य विष्णु तथा शिव की पूजा सदा ही करनी चाहिये। ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, ऐन्द्री, चामुण्डा तथा महालक्ष्मी इनकी पूजा पूर्व दिशा से लेकर ईशानकोण- पर्यन्त आठ दिशाओं में क्रमशः करे ॥ २७-२९अ ॥

डाकिनी राकिनी पूज्या लाकिनी काकिनी तथा ॥३०॥

शाकिनी याकिनी पूज्या वायव्यादुग्रषट्षु च ।

यजेद्ध्यात्वा ततो देवीं द्वात्रिंशद्वर्णकात्मकां ॥३१॥

पञ्चप्रणवकेनापि ह्रीं कारेणाथवा यजेत् ।

तदनन्तर वायव्यकोण से छः उग्र दिशाओं में क्रमशः डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, काकिनी, शाकिनी तथा याकिनी - इनकी पूजा करे। तत्पश्चात् ध्यानपूर्वक कुब्जिकादेवी का पूजन करना चाहिये। बत्तीस व्यजन अक्षर ही उनका शरीर है। उनके पूजन में पाँच प्रणव अथवा 'ह्रीं' का बीजरूप से उच्चारण करना चाहिये। (यथा-ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ कुब्जिकायै नमः ।' अथवा 'ॐ ह्रीं कुब्जिकायै नमः ।) ।। ३०-३१अ ॥

नीलोत्पलदलश्यामा षड्वक्त्रा षट्प्रकारिका ॥३२॥

चिच्छक्तिक्तिरष्टादशाख्या बाहुद्वादशसंयुता ।

सिंहासनसुखासीना प्रेतपद्मोपरिस्थिता ॥३३॥

कुलकोटिसहस्राढ्या कर्कोटो मेखलास्थितः ।

तक्षकेणोपरिष्टाच्च गले हारश्च वासुकिः ॥३४॥

कुलिकः कर्णयोर्यस्याः कूर्मः कुण्डलमण्डलह्ः ।

भ्रुवोः पद्मो मकापद्मो वामे नागः कपालकः ॥३५॥

अक्षसूत्रञ्च खट्वाङ्गं शङ्कं पुस्तञ्च दक्षिणे ।

त्रिशूलन्तदर्पणं खड्गं रत्नमालाङ्कुशन्धनुः ॥३६॥

श्वेतमूर्ध्वमुखन्देव्या ऊर्ध्वश्वेतन्तथापरं ।

पूर्वास्यं पाण्डरं क्रोधि दक्षिणं कृष्णवर्णकं ॥३७॥

हिमकुन्देन्दभं सौम्यं ब्रह्मा पादतले स्थितः ।

विष्णुस्तु जघने रुद्रो हृदि कण्ठे तथेश्वरः ॥३८॥

सदाशिवो ललाटे स्याच्छिवस्तस्योर्ध्वतः स्थितः ।

आघूर्णिता कुब्जिकैवन्ध्येया पूजादिकर्मसु ॥३९॥

देवी की अङ्गकान्ति नील कमल दल के समान श्याम है, उनके छः मुख हैं और उनकी मुखकान्ति भी छः प्रकार की है। वे चैतन्य- शक्तिस्वरूपा हैं। अष्टादशाक्षर मन्त्र द्वारा उनका प्रतिपादन होता है। उनके बारह भुजाएँ हैं। वे सुखपूर्वक सिंहासन पर विराजमान हैं। प्रेतपद्म के ऊपर बैठी हैं। वे सहस्रों कोटि कुलों से सम्पन्न हैं। 'कर्कोटक' नामक नाग उनकी मेखला (करधनी) है। उनके मस्तक पर 'तक्षक' नाग विराजमान है। 'वासुकि नाग उनके गले का हार है। उनके दोनों कानों में स्थित 'कुलिक' और 'कूर्म' नामक नाग कुण्डल- मण्डल बने हुए हैं। दोनों भौंहों में 'पद्म' और 'महापद्म' नामक नागों की स्थिति है। बायें हाथों में नाग, कपाल, अक्षसूत्र, खट्वाङ्ग, शङ्ख और पुस्तक हैं। दाहिने हाथों में त्रिशूल, दर्पण, खड्ग, रत्नमयी माला, अङ्कुश तथा धनुष हैं। देवी के दो मुख ऊपर की ओर हैं, जिनमें एक तो पूरा सफेद है और दूसरा आधा सफेद है। उनका पूर्ववर्ती मुख पाण्डुवर्ण का है, दक्षिणवर्ती मुख क्रोधयुक्त जान पड़ता है, पश्चिमवाला मुख काला है और उत्तरवर्ती मुख हिम, कुन्द एवं चन्द्रमा के समान श्वेत है। ब्रह्मा उनके चरणतल में स्थित हैं, भगवान् विष्णु जघनस्थल में विराजमान हैं, रुद्र हृदय में ईश्वर कण्ठ में, सदाशिव ललाट में तथा शिव उनके ऊपरी भाग में स्थित हैं। कुब्जिकादेवी झूमती हुई-सी दिखायी देती हैं। पूजा आदि कर्मों में कुब्जिका का ऐसा ही ध्यान करना चाहिये ॥३२-३९॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे कुब्जिकापूजा नाम चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कुब्जिका की पूजा का वर्णन' नामक एक सौ चौवालीसवां अध्याय पूरा हुआ॥१४४॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 145 

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