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वाञ्छिताधिकम् ॥ १॥
अब श्रीविद्या के आवरण पूजा की
विधि कहता हूँ - जिसके करने से साधक अपनी इच्छा से अधिक फल प्राप्त करता है
॥१॥
श्रीविद्यायाः परिवारपूजनप्रकारः
शुक्लपक्षे यजेन्नित्याः
कामेश्वर्यादिषोडश ।
कृष्णपक्षे विचित्राद्याः
कामेश्वर्यवसानकाः ॥ २॥
षोडशी च यजेन्मध्ये वक्ष्ये
तद्यजनक्रमम् ।
एकैकं स्वरमुच्चार्य नित्यामन्त्रं
समुच्चरेत् ॥ ३॥
शुक्लपक्ष में कामेश्वरी से
विचित्रा पर्यन्त तथा कृष्ण पक्ष में विचित्र से ले कर कामेश्वरी पर्यन्त १५
नित्याओं का (त्रिकोण की प्रत्येक रेखाओं पर ५, ५,
के क्रम से वामावर्त) पूजन करना चाहिए । फिर मध्य बिन्दु पर षोडशी
का मूलमन्त्र से पूजन करना चाहिए ॥२-३॥
कामेश्वर्यादिनामान्ते
नित्याश्रीपादुकां पठेत् ।
पूजयामि तर्पयामि हृदयं प्रोच्य
पूजयेत्॥ ४ ॥
अब उन नित्याओं के पूजन का क्रम
बतलाता हूँ - प्रथम एक एक स्वर फिर, वक्ष्यमाण
नित्याओं का एक एक मन्त्र, फिर कामेश्वरी आदि का नाम,
तदनन्तर ‘नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः’ लगाकर पूजन करना चाहिए ॥२-४॥
बिन्दु परित आकल्प्य त्रिकोणे
बिन्दुतोन्तिमम् ।
दक्षहस्तेन पुष्पादिवामेनाम्भो
विनिःक्षिपेत् ॥ ५॥
केचिदाहुरिहाचार्या आर्द्रकेण जलं
क्षिपेत् ।
वामावर्तेन सम्पूज्याः कोणपार्वेषु
पञ्चशः ॥ ६ ॥
मध्य बिन्दु के ऊपर त्रिकोण में
आरम्भ से लेकर अन्तिम बिन्दु पर्यन्त वामावर्त क्रम से इनकी कल्पना चाहिए । दाहिने
हाथ से ‘पूजयामि’ कहकर पुष्प समर्पित करे और बायें हाथ से ‘तर्पयामि’ कह कर जल या गाय का दूध चढाना चाहिए । कुछ
आचार्यो का कहना है कि अदरख के साध जल चढाना चाहिए । इस प्रकार त्रिकोण की
प्रत्येक रेखा पर ५, ५, के क्रम से
वामावर्त इन नित्याओं का पूजन करना चाहिए ॥५-६॥
पञ्चदशनित्यादेवीमन्त्रास्तेषु
कामेश्वरीमन्त्रः
नित्यामन्त्राः प्रवक्ष्यन्ते
स्मृताः सर्वेष्टसिद्धिदाः ।
बाला तारो नमः कामेश्वरि
दृग्दीर्घजादिमः ॥ ७॥
कामफलप्रदे सर्वसत्त्ववान्ते तु
शंकरि ।
सर्वान्ते तु जगद्वर्णात्
क्षोभणान्ते करीति च ॥ ८ ॥
वर्मत्रयं पञ्चबाणाः
प्रतिलोमाकुमारिका ।
कामेश्वरीमनुः प्रोक्तः
षट्चत्वारिंशदर्णवान् ॥ ९॥
अब पूजन के प्रयोग में लाय जाने
वाले सभी नित्याओं के मन्त्रों का उद्धार कहता हूँ,
जो स्मरण मात्र से इष्टसिद्धयों को प्रदान करते हैं -
(१) कामेश्वरी मन्त्र का
उद्धार - बाला (ऐं क्लीं सौः) तार (ॐ)
और ‘नमः कामेश्वरि’, दृक् और दीर्घ
आदि (इच्छा), फिर ‘कामफलप्रदे’,
फिर ‘सर्वसत्त्वव’, फिर
शंकरि’, फिर ‘सर्वज्गत्क्षोभणकरि’,
फिर वर्मत्रय (हुं हुं हुं), फिर पञ्चबाण
(द्रां द्रीं ब्लूं सः), और इसके अन्त में प्रतिलोमा बाला
(सौः क्लीं ऐं) लगाने से ४६ अक्षरों का कामेश्वरी मन्त्र बनता है ॥७-९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (अं) ‘ऐं क्लीं सोः ॐ नमः कामेश्वरि, इच्छाकाम फलप्रदे
सर्व सत्त्वशंकरि सर्वजगत्क्षोभणकरि हुं हुं हुं द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं स सौः
क्लीं ऐं ’ । इसके बाद ‘कामेश्वरी
नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगाकर कामेश्वरी
को पुष्प तथा जल समर्पित करे ॥७-९॥
भगमालिनीमन्त्रः
वाग्बीज भगकर्णाढ्या निद्रागे
भगिनीति च ।
भगोदरीतिवर्णान्ते भगमाले भगावहे ॥
१०॥
भगगुह्ये भगान्ते स्याद्योने
भगनिपातिनि ।
सर्वान्ते भगशब्दान्ते वशंकरि भगेति
च ॥ ११ ॥
रूपे नित्यपदं क्लिन्ने भगस्वग्निः
सदीपकः ।
पेसर्वभस्मृतिर्दीर्घानि मेह्यानय
वाग्नयः ॥ १२ ॥
देरेतेसु सझिण्टीशः पावकस्ते
भगार्णकाः ।
क्लिन्नेक्लिन्नद्रवेक्लेदयद्रावय च
केशवः ॥ १३ ॥
मोघेभगान्ते विच्चे च क्षुभ क्षोभय
सर्व च ।
सत्वान्भगेश्वरि प्रान्ते वाग्ब्लू
जंब्लू च भेपुनः ॥ १४ ॥
ब्लूमोंब्लूहेंपुनः ब्लूहोंक्लिन्ने
सर्वाणि भाक्षरम् ।
गानि मे वशमानान्ते मारुतः खी हरेति
च ॥ १५ ॥
ब्लेमायांगत्रिभूवर्णा
प्रोदिताभगमालिनी ।
(२) भगमालिनी मन्त्र का उद्धार
- वाग्बीज (ऐं), फिर
‘भग’, फिर कर्णाख्या निद्रा (भु),
फिर ‘गे भगिनि’, पिर ‘भगोदरि भगमाले भगगुह्ये भग’ के बाद ‘योने भगनिपातिनि’, सर्वभग’, ‘वशंकरिभग’,
भगमाले भगावहे भगगुह्ये भग’ के बाद ‘योने भगनिपातिनि’, सर्वभग’, वशंकरिभग’,
रुपे नित्य’, क्लिन्ने भगस्व’, तदनन्तर सदीपक अग्नि (रु), फिर ‘पे सर्वभ’ तदनन्तर दीर्घस्मृति (गा), फिर ‘न मे ह्यानय व’, एवं
अग्नि (र), फिर ‘दे रेतसु’, एव सझिण्टीश पावक (रे), फिर ‘ते
भग’, क्लिन्ने क्लिन्नद्रवे क्लेदय द्रावय’, एवं केशव (अ) फिर ‘मोघे भग’, ‘विच्चे’,
‘क्षुभ क्षोभय सर्व’, सत्वान् फिर वाक् (ऐं),
‘ब्लूं जं ब्लूं’ ‘भे ब्लूं हें ब्लूं हों’,
क्लिन्ने सर्वाणिभ’, गानि मे वशमान’ एवं मारुत (य), फिर ‘स्त्रीं
हर’, ‘ब्ले’ और अन्त माया (ह्रीं)
लगाने से एक सौ छत्तीस अक्षरों वाला भगमालिनी मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०-१६॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (आं) ‘ऐं भगभुगे भगिनि
भगोदरि भगमाले भगावहे भगगुह्ये भगयोने भगनिपातिनि सर्वभगवशंकरि भगरुपे
नित्यक्लिन्ने भगस्वरुपे सर्वभगानि मे ह्यानय वरदे रेते सुरेते भगक्लिन्ने क्लिन्नद्रवे
क्लेदय द्रावय अमोघे भगविच्चे क्षुभक्षोभय सर्वस्त्वान् भगेश्वरि ऐं ब्लूं जं
ब्लूं भे ब्लूं मों ब्लूं हें ब्लूं हों क्लिअन्ने सर्वाणि भगानि मे वशमानय
स्त्रीं हर ब्लें ह्रीं (१३६) । इसके बाद ‘भगमालिनी नित्या
श्रीपादुकां तर्पयामि नमः’ लगाकर भगमालिनी का पूजन करना
चाहिए ॥१०-१६॥
नित्यक्लिन्नामन्त्रः
नित्यक्लिन्ने मदद्रान्ते
पद्मनाभयुतंजलम् ॥ १६॥
मायाद्याग्निप्रियान्तेऽयं
नित्यक्लिन्ना शिवाक्षरः ।
(३) अब नित्यक्लिन्ना मन्त्र
का उद्धार करते हैं - ‘नित्यक्लिन्ने मदद्र’ के बाद पद्माय सहित जल (वे) इसके प्रारम्भ में माया तथा अन्त में
अग्निप्रिया (स्वाहा) लगाने से ११ अक्षरों का नित्यक्लिन्ना मन्त्र निष्पन्न होता
है ।
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (इं) ‘ह्रीं नित्यक्लिन्ने
मदद्रवे स्वाहा’ । इसके बाद ‘नित्यक्लिन्ना
नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगाकर
नित्यक्लिन्ना का पूजन करना चाहिए ॥१६॥
भेरुण्डामन्त्रः
बान्तो रेफासनस्तारसंयुतोंकुशसम्पुटः
॥ १७ ॥
चवर्गवर्णाश्चत्वारो
वह्निमन्विन्दुसंयुताः ।
वह्निप्रियान्तस्ताराद्यो
भेरुण्डाया दशाक्षरः ॥ १८ ॥
(४) अब भेरुण्डा मन्त्र का उद्धार करते हैं - तार संयुक्त रेफासन
वान्त (भ्रों) जो अंकुश (क्रों) से संपुटित हो (क्रों भ्रों क्रों), फिर वहिन, मनु एवं बिन्दु संयुक्त च वर्ग के ४ वर्ण
(च्रौं छ्रौं ज्रौं झ्रौं), इसके अन्त में अग्निप्रिया
(स्वाहा) तथा आरम्भ में तार (ॐ) लगाने से १० अक्षरों का भेरुण्डा मन्त्र निष्पन्न
होता है ॥१७-१८॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
इस प्रकार है - (ईं) ‘ॐ क्रों भ्रों क्रों
च्रौं छ्रौं ज्रौं झ्रौं स्वाहा’ । इसके बाद ‘भेरुण्दा नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगाकर
भेरुण्डा का पूजन करना चाहिए ॥१७-१८॥
वह्निवासिनीमन्त्रः
मायान्ते वह्निवासिन्यै प्रणवाद्यो
नमोन्तिकः ।
मन्त्रोऽयं वह्निवासिन्या नववर्णः
समीरितः ॥ १९ ॥
(५) वहिनवासिनी मन्त्र का उद्धार -
माया (ह्रीं), उसके बाद वहिनवासिन्यै , अन्त में नमः’ तथा प्रारम्भ में प्रणव (ॐ) लगाने से
९ अक्षरों का वहिनवासिनी मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (उं) ‘ॐ ह्रीं
वहिनवासिन्यै नमः’ । इसके बाद ‘वहिनवासिनी
नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगाकर वहिनवासिनी
का पूजन करना चाहिए ॥१९॥
महाविद्येश्वरीमन्त्रः
तारो मायाशिखीवह्निपद्मनाभेन्दुसंयुतः।
सविसर्गो भृगुर्नित्या क्लिन्ने
पश्चान्मदद्रवे ॥ २० ॥
स्वाहान्तो मनुवर्णोऽयं
महाविद्येश्वरीमनुः ।
(६) अब महाविद्येश्वरी मन्त्र
का उद्धार कहते है - तार (ॐ), माया (ह्रीं), वहिन पद्मनाभ एवं इन्दुसहित शिखी (फ्रें), फिर
विसर्ग सहित भृगु (सः), फिर नित्यक्लिन्ने मदद्रवे, और अन्त मे स्वाहा लगाने से १४ अक्षरों का महाविद्येश्वरी मन्त्र निष्पन्न
होता है ॥२०-२१॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (ऊं) ‘ॐ ह्रीं फ्रें सः
नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा’ (१४) । इसके बाद ‘महाविद्येश्वरी नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्ययामि नमः’ लगाकर महाविद्येश्वरी का पूजन करना चाहिए ॥२०-२१॥
शिवदूतीमन्त्रः त्वरितामन्त्रः
कुलसुन्दरीमन्त्रश्च
शिवदूतीचतुर्थ्यन्ता
मायाद्याहृदयान्तिका ॥ २१ ॥
शिवदूती मनुः प्रोक्तः
सप्तवर्णोखिलेष्टदः ।
(७) अब शिवदूती मन्त्र का उद्धार कहते हैं - चतुर्थ्यन्त शिवदूती
(शिवदूत्यै) के प्रारम्भ में माया (ह्रीं), तथा अन्त में
हृदय (नमः) लगाने से ७ अक्षरों का सर्वाभीष्टप्रद शिवदूती मन्त्र निष्पन्न होता है
॥२१-२२॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (ऋं) ‘ह्रीं शिवदूत्यै नमः
शिवदूती नित्या श्रीपादुकां पूजयामि नमः’ ॥२१-२२॥
तारः परावर्मखे च छे क्षः
स्त्रीवामकर्णयुक् ॥ २२ ॥
गगनं शशिसंयुक्तं
मेरुर्भगयुतोऽद्रिजा ।
फडन्तो द्वादशार्णोऽयं त्वरिताया
मनुर्मतः ॥ २३ ॥
(८) अब त्वरिता मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - तार (ॐ), परा(ह्रीं) वर्म (हुं) फिर
खेच छे क्षः स्त्री फिर वामकर्ण एवं शशि सहित गगन (हूं), फिर
भगयुक्त मेरु (क्षे), अद्रिजा (ह्रीं), तथा अन्त में फट् लगाने से त्वरिता का १२ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता
है ॥२२-२३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (ऋं) ‘ॐ ह्रीं हुं खे च छे
क्ष स्त्रीं हुं क्षे ह्रीं फट्’ इसके बाद ‘त्वरिता नित्या श्रीपादुका पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगा
कर पूजा करनी चाहिए ॥२२-२३॥
दामोदरो बिन्दुयुतः
कलौशान्तीन्दुसंयुतौ ।
भृगुमनुविसर्गाधस्त्र्यक्षरा
कुलसुन्दरी ॥ २४ ॥
(९) अब कुलसुन्दरी मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - बिन्दुयुत दामोदर (ऐं), शान्ति इन्दु
सहित क् ल् (क्लीं), मनु (औ) एवं विसर्ग सहित भृगु (सौः) इस
प्रकार तीन अक्षरों का कुलसुन्दरी मन्त्र निष्पन्न होता है ।
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
(लृं) ‘ऐं क्लीं सौः इसके बाद ‘कुलसुन्दरी
नित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ से कुलसुन्दरी का
पूजन करना चाहिए ॥२४॥
नित्यानीलपताकिनीविजयानां
मन्त्राश्च ।
भैरवीबालयायुक्ता प्राक्पश्चाच्च
क्रमोत्क्रमात् ।
तदन्ते पञ्चबाणाः
स्युर्नित्यामन्वक्षरेरिता ॥ २५ ॥
(१०) अब नित्या मन्त्र का
उद्धार कहते है - आगे क्रम एवं पीछे उत्क्रम से बालामन्त्र (ऐं क्लीं सौः) से
संपुटित त्रिपुरभैरवी इसके बाद पञ्चबाणबीज मन्त्र इस प्रकार कुल १४ अक्षरों का
नित्या मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (लृं) ‘ऐं क्लीं सौः ह्सौः
ह्स्व्लरीं हसौः सौः क्लीं ऐं द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः (१४) नित्या श्रीपादुका
पूजयामि तर्पयामि नमः’ ॥२५॥
तारो मायाफान्तरेफौ
झिण्टीशशशिसंयुतौ ।
हंसोग्न्यर्धीशबिन्दाढ्यो
हल्लेखांकुशनित्यम ॥ २६ ॥
दद्रवेवर्म सृण्यन्ता प्रोक्ता
नीलपताकिनी ।
चतुर्दशाक्षरा
सर्वत्रैलोक्याकर्षणक्षमा ॥ २७ ॥
(११) इसके बाद नीलपताकिनी मन्त्र का उद्धार कहते हैं - तार (ॐ),
माया (ह्रीं), झिर्टीश एवं शशी सहित फ एवं रेफ
(फ्रें) अग्नि, अर्धीश एवं बिन्दु सहित हंस (स्त्रं),
फिर हृल्लेखा (ह्रीं), अंकुश (क्रों) तथा ‘नित्य मदद्रवे’, फिर वर्म (हूं) तथा अन्त में सृणि
(क्रौं) लगाने से १४ अक्षरों का समस्त त्रिलोकी को आकर्षित करने वाला नीलपताकिनी
का मन्त्र कहा गया है ॥२६-२७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (एं) ‘ॐ ह्रीं फ्रें स्त्रं ह्रीं क्रों नित्यमदद्रवे हूं क्रों नीलपताकिनी
नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ ॥२६-२७॥
वराहहंसचण्डीशजनार्दनकृशानवः ।
पद्मनाभेन्दुसंयुक्ता विजयायै
नमोन्तिकः ॥ २८ ॥
विजयाया मनुः प्रोक्तः
सप्तवर्णोऽखिलार्थदः ।
(१२) अब विजया मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - पद्मनाभ (ए), एवं इन्दुसहित वराह (ह),
हंस (स), चण्डीश (ख), जनार्दन
(फ्रं), एवं कृशानु र ह्स्ख्फ्रें), फिर
‘विजयायै नमः’ यह ७ अक्षरों का
सर्वदायक विजयामन्त्र निष्पन्न होता है ॥२८-२९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (ऐं) ‘ह्स्ख्फ्रें विजयायै
नमः (७) विजय नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः; ॥२८-२९॥
सर्वमङ्गलाज्वालामालिनीविचित्राणां
मन्त्राः
ताराढ्यौ भृगुखड्गीशौ डेन्तास्यात्सर्वमङ्गला
॥ २९ ॥
नमोन्तो मनुराख्यातो नवार्णः
सर्वमङ्गलः।
(१३) अब सर्वमङ्गला मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - तार (ॐ) सहित भृगु एवं खड्गीश स्वों फिर चतुर्थ्यन्त
सर्वमङ्गला (सर्वमङ्गलायै) इसके अन्त में ‘नमः’ लगाने से ९ अक्षरों का सर्वमङ्गला मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२९-३०॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (ओं) ‘खों सर्वमङ्गलायै
नमः सर्वमङ्गलानित्या श्रीपादुकां पूजयामि, तर्पयामि नमः’
यह पूजन का मन्त्र है ॥२९-३०॥
तारो नमो भगवतिज्वालामालिनि तत्परम्
॥ ३०॥
देव्यन्ते सर्वभूतान्ते संहारान्ते
तु कारिके ।
जातवेदसिवर्णान्ते ज्वलन्ति
प्रज्वलन्ति च ॥ ३१॥
ज्वलद्वयं प्रज्वलान्ते कवचं
पावकद्वयम् ।
वर्मास्त्रान्तोदिताज्वालामालिन्यष्टयुगाक्षरा
॥ ३२॥
(१४) अब ज्वालामालिनी मन्त्र
का उद्धार कहते हैं - तार (ॐ), फिर नमो भगवति
ज्वालामालिनि के बाद देवि सर्वभूतसंहारकारिके जातवेदसि ज्वलन्ति प्रज्वलन्ति,
इसके बाद दो बार ज्वल (ज्वल ज्वल), फिर ‘प्रज्वल’ फिर कवच (हुं) के बाद दो बार पावक (रं रं),
फिर वर्म (हुं), इसके अन्त में अस्त्र (फट्)
लगाने से ४९ अक्षरों का ज्वालामालिनी मन्त्र निष्पन्न होता है ॥३०-३२॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (औं) ‘ॐ नमोभगवति
ज्वालामालिनि देवि सर्वभूतसंहारकारिके जातवेदसि ज्वलन्ति प्रज्वलन्ति ज्वल ज्वल
प्रज्वल हुं रं रं हुं फट् (४९) ज्वालामालिनी नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः’ ॥३०-३२॥
कूर्मः क्रोधीशमन्विन्दुसंयुतो ह्येकवर्णकः
।
विचित्राया मनुश्चैता नित्याः
पञ्चदशोदिताः ॥ ३३ ॥
(१५) अब विचित्रा मन्त्र का उद्धार कहते है - मनु (औ), बिन्दु सहित कूर्म (चकर), एवं क्रोधीश क (च्कौं),
यह विचित्रा का एकाक्षर मन्त्र है इस प्रकार कुल १५ नित्याओं का
पूजन प्रकार कहा गया ।
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - (अं) च्क्ॐ विचित्रा नित्या श्रीपादुकां पूजयामि नमः यह विचित्रा
के पूजन का मन्त्र है ॥३३॥
आसां मध्ये त्रिपुरसुन्दर्यायजनम्
मूलेन षोडशी मध्ये यजेत्
त्रिपुरसुन्दरीम् ।
बिन्दुत्रिकोणयोर्मध्ये
त्रिभङ्गीभिर्गुरून् यजेत् ॥ ३४ ॥
त्रिकोण में कुल १५ नित्याओं का
पूजन कर मध्य बिन्दु में मूल मन्त्र से १६ वीं महात्रिपुरसुन्दरी का पूजन करना
चाहिए । फिर बिन्दु और त्रिकोण के मध्य की तीन पंक्तियों में गुरुओं का पूजन करना
चाहिए ॥३४॥
विमर्श - षोडशी के लिए मन्त्र
- (अः) ‘मूलं महात्रिपुरसुन्दरी नित्या श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥३४॥
नानाविधगुरुकथनं तेषां
पूजनप्रकारश्च
दिव्यौपाश्चापि
सिद्धौघमानवौघस्त्रिधा हिते ।
परप्रकाशः प्रथमस्ततः परशिवाभिधः ॥
३५॥
परशक्तिश्च कौलेशः शुक्लादेवी
कुलेश्वरः ।
कामेश्वरीति सप्तैव दिव्यौघा गुरवः
पराः ॥ ३६॥
भोगः क्रीडश्च समय: सहजश्च परावरः।
सिद्धौघगुरवश्चैते चत्वारः
परिकीर्तिताः ॥ ३७॥
अब त्रिविध गुरुओं का निर्देश
कहते हैं - दिव्यौघ सिद्धौघ, और मानवौघ भेद
से गुरु तीन प्राकर के कहे गये है । १. परप्रकाश, २. परशिव,
३. परशक्ति, ४. कौलेश, ५.
शुक्लादेवी, ६. कुलेश्वर और ७. कामेश्वरी ये ७ परम दिव्यौघ
गुरु हैं । १. भोग, २. क्रीड, ३. समय,
४. सहज ये चार परावर सिद्धौध्घ गुरु बतलाये गये हैं ॥३५-३७॥
गगनो विश्वविमलौ मदनो भूवनस्तथा ।
लीलास्वात्मा प्रियेत्यष्टौ मानवा
अपरा मताः ॥ ३८ ॥
१. गगन,
२. विश्व, ३. विमल, ४.
मदन, ५. भुवन, ६. लीला, ७. स्वात्मा और ८. प्रिया ये आठ अपर मानवीय गुरु कहे गये हैं ॥३८॥
आनन्दनाथशब्दान्ताः पुरुषागुरवः
स्मृताः।
अम्बान्तास्तु स्त्रियः कार्याः
सर्वसिद्धिप्रदायिकाः ॥ ३९॥
परशक्तिस्तथा शुक्ला देवी
कामेश्वरीति च ।
तिस्रः स्त्रियस्तु दिव्येषु प्रियालीलेति
मानवे ॥ ४० ॥
श्रीपादुका पूजयामीत्यन्ते सर्वत्र
योजयेत् ।
अब गुरुओं के पूजन का मन्त्र
कहते हैं - पुरुष, गुरुओं के नाम के
आगे ‘आनन्दनाथ’ तथा स्त्री गुरुओं के
नाम के बाद अम्बा शब्द लगाकर पूजन करना चाहिए । दिव्यौघ गुरुओं में परशक्ति शुक्ला
देवी और कामेश्वरी - ये तीन स्त्रियाँ है । तथा मानवीय गुरुओं में लीला और प्रिया
ये दो स्त्रियाँ है ।
इन गुरुओं के नाम के आगे ‘श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगाकर पूजन करना
चाहिए । यथा - परप्रकाशानन्दनाथ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इत्यादि ॥३९-४१॥
ततो बिन्दोश्चतुर्दिक्षु
यजेदाम्नायदेवताः॥ ४१॥
पूर्व दक्षिणमाम्नायं पश्चिमं
चोत्तरं तथा ।
फिर बिन्दु के चारों दिशाओं में
पूर्वादि दिशाओं के दाहिने क्रम से आग्नेय देवताऔं का पूजन करना चाहिए ॥४१-४२॥
विमर्श
- उसकी विधि इस प्रकार है-
ह्रीं श्री पूर्वाम्नाय देवता श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः,
ह्रीं श्रीं दक्षिणाम्नाय
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः,
ह्रीं श्रीं पश्चिमाम्नाय
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः,
ह्रीं श्रीं उत्तराम्नाय
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥४१-४२॥
ततः प्रपूजयेद् दिक्षु मध्येतः
पञ्चपञ्चिकाः॥ ४२ ॥
प्रथमपञ्चके लक्ष्म्यादिमन्त्रदेवत
कथनम्
आद्यां मध्ये चतस्रोन्याः
पूर्वाद्याशासु पूजयेत् ।
पञ्चस्वपि गणेष्वत्र श्रीविद्याद्या
प्रकीर्तिता ॥ ४३॥
देवतापञ्चपञ्चकग्रेजनप्रकारः
श्रीविद्या च तथा
लक्ष्मीमहालक्ष्मीस्तृतीयका ।
त्रिशक्तिः सर्वसाम्राज्यापञ्चलक्ष्म्यः
प्रकीर्तिताः॥ ४४ ॥
द्वितीये कोशपञ्चके
परंज्योतिर्देवताकथनम्
श्रीविद्या च परं ज्योतिः
परनिष्कलशाम्भवी ।
अजपामातृका चेति पञ्चकोशा इमे
स्मृताः ॥ ४५ ॥
श्रीविद्या त्वरिता चैव
पराजितेश्वरी पुनः।
त्रिपुटा पञ्चबाणेशी पञ्च कल्पलता
इमाः ॥ ४६ ॥
श्रीविद्यामृतपीठेशी
सुधाश्रीरमृतेश्वरी ।
अन्नपूर्णेति विख्याताः पञ्चैताः
कामधेनवः ॥ ४७ ॥
श्रीविद्यासिद्धलक्ष्मीश्च
मातङ्गीभुवनेश्वरी ।
वाराही च स्मृतं चैतन्मुनिभी
रत्नपञ्चकम् ॥ ४८॥
पञ्चपञ्चिकाओं का पूजन
- इसके बाद मध्य में तथा पूर्वादि चारों
दिशाओं में पञ्च पञ्चिकाओम का पूजन करना चाहिए । मध्य में आद्या का तथा पूर्वादि
चारोम दिशाओं में अन्य चारों का पूजन करना चाहिए । पञ्चिकाओं के पाँच वर्गो में
आद्या श्रीविद्या ही बतलाई गई है ।
(१) १. श्रीविद्या, २.
लक्ष्मी, ३. महालक्ष्मी, ४. त्रिशक्ति
और ५. सर्वसाम्राज्य ये ५ महालक्ष्मी कहीं गई है । यह आद्य पञ्चक लक्ष्मी
संज्ञक है ।
(२) १. श्रीविद्या, २.
परज्योति, ३. परनिष्कलशाम्भवीं, ४.
अजया और ५. मातृका इन पाँचों की पञ्चकोश संज्ञा है ।
(३) १. श्रीविद्या, २. त्वरिता, ३. पारिजातेश्वरी, ४. त्रिपुटा और ५. पञ्चबाणेशी इन पाँचों की कल्पलता संज्ञा है ।
(४) १. श्रीविद्या, २.
अमृतपाटेशी, ३. सुधाश्री, ४.
अमृतेश्वरी, और ५. अन्नपूर्णा इन पञ्चक की कामधेनु संज्ञा
है।
(५) १. श्रीविद्या, २. सिद्धलक्ष्मी, ३. मातङ्गी ४. भुवनेश्वरी और ५.
वाराही इन पञ्चक को मुनियों ने रत्नसंज्ञक कहा है ॥४२-४८॥
श्रीविद्यां मूलमन्त्रेण मध्ये
संयोज्य पूजयेत् ।
क्रमतोऽन्याश्चतुर्दिक्षु तासां
मन्त्रान् क्रमाद् ब्रुवे ॥ ४९ ॥
बकेशो वह्निमारूढो
वामनेत्रेन्दुसंयुतः।
लक्ष्मीमन्त्रोऽयमेकार्णस्तेन
लक्ष्मी प्रपूजयेत् ॥ ५० ॥
श्रीविद्या
का मध्य में मूल मन्त्र से तथा अन्यों का क्रमशः पूर्व आदि चारों दिशाओं में पूजन
करना चाहिए ॥४९॥
अब इनके पूजामन्त्रों को
कहता हूँ - महालक्ष्मी पञ्चम नाम प्रथम पञ्चक के मन्त्रों का उद्धार - वामनेत्र एवं इन्दुसहित वहियुत् (श्रीं) यह एक
अक्षर का लक्ष्मी पूजन का मन्त्र है । इससे लक्ष्मी का पूर्व में पूजन करना चाहिए
॥४९-५०॥
तारपद्याशक्तिपद्याकमले कमलालये ।
प्रसीदयुगलं लक्ष्मीर्माया पद्मा
धुवो महा ॥५१ ॥
लक्ष्म्यै नमोन्तो
मन्त्रोऽयमष्टाविंशतिवर्णवान् ।
पूज्यानेन महालक्ष्मीः श्रीविद्या
दक्षिणे स्थिता ॥ ५२ ।।
तार (ॐ),
पद्म (श्रीं), शक्ति (ह्रीं), एवं कमला (श्रीं), फिर ‘कमले
कमलालये’ तदनन्तर दो बार प्रसीद (प्रसीद प्रसीद), फिर लक्ष्मी (श्रीं), माया (ह्रीं), पद्म (श्री), और ध्रुव (ॐ), और
अन्त में ‘लक्ष्म्यै नमः’ यह २८
अक्षरों का महालक्ष्मी मन्त्र है इससे श्रीविद्या के दक्षिण में महालक्ष्मी का पूजन करना चाहिए ॥५१-५२॥
लक्ष्मीर्मायामनोजन्मा
त्रिशक्तिर्मनुरीरितः ।
त्रिवर्णोनेन तं पूज्या त्रिशक्तिः
पश्चिमे स्थिता ॥ ५३॥
भृग्वाकाशकलामायारूढा
पद्मालयापुटाः।
त्रिवर्णाः सर्वसम्राज्या तां
यजेदुत्तरस्थिताम् ॥ ५४॥
लक्ष्मीं (श्रीं),
माया (ह्रीं), और मनोजन्मा (क्लीं), ये तीन अक्षर त्रिशक्ति के पूजन के मन्त्र हैं । इससे श्रीविद्या के
पश्चिमे में त्रिशक्ति का पूजन करना चाहिए ।
भृगु (स),
आकाश (ह), फिर क ल और माया (ह्रीं), इस प्रकार श्क्ल्ह्रीं इस कूट कोइ पद्मालया (श्रीं), से संपुटित करने पर तीन अक्षरों का सर्वसाम्राज्या का मन्त्र बनता है । इस
मन्त्र से श्रीविद्या के उत्तर में स्थित सर्वसाम्राज्या का पूजन चाहिए
॥५३-५४॥
विमर्श - १. लक्ष्मी मन्त्र - श्रीं
। २. महालक्ष्मी मन्त्र ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं
श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः । ३. त्रिशक्ति मन्त्र - श्रीं ह्रीं क्लीं । ४.
सर्वसाम्राज्या मन्त्र - श्री श्क्ल्ह्रीं श्री ।
पूजन का प्रकार
-
मध्य में मूल मन्त्र ‘महात्रिपुरसुद्नरी श्रीपादुकां पूजयामि तर्यपामि नमः; ।
पूर्व में ‘श्रीं लक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ ।
दक्षिण में ‘ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’
।
पश्चिमे में ‘श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिशक्ति पादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ ।
उत्तर में ‘श्रीं शक्ल्ह्रीं सर्वसामाज्रा श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ ॥४९-५४॥
तारो माया ततो हंसः सोहं
वहिनप्रियान्तिमः।
अष्टवर्णः परंज्योतिर्मनुस्तां
पूर्वतो यजेत् ॥ ५५॥
अब द्वितीय कोशपञ्च्क नामक
देवियों के मन्त्रों का उद्धार कहते हैं -
तार (ॐ),
माया (ह्रीं) फिर हंसः सोहं इसके में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने से
आठ अक्षरों का परंज्याति मन्त्र बनता है - इससे पूर्व में पूजा करनी चाहिए ॥५५॥
तारः परो निष्कलश्च शाम्भवीज्या तु
दक्षिणे ।
नभः सबिन्दुसर्गाढयो
भृगुर्द्वयर्णाजिपाऽपरे ॥ ५६ ॥
तार (ॐ) फिर परनिष्फलशाम्भवी यह ९
अक्षर का परनिष्फल शाम्भवी मन्त्र बनता है । इससे दक्षिण में पूजा करनी
चाहिए । स बिन्दु नभ (हं), विसर्गाढ्य भृगु
(सः) यह दो अक्षर का अजपा का मन्त्र है । इससे पश्चिम मे उनका पूजन करना
चाहिए ॥५६॥
अकारादिक्षकारान्ता वर्णाः प्रोक्ता
तु मातृका ।
अकार से क्षकार पर्यन्त सानुस्वार
वर्णमाला मातृका का मन्त्र कहा गया है । इससे मातृकाओं का पूजन करना चाहिए
॥५७॥
विमर्श
- १. परंज्याति मन्त्र - ॐ ह्रीं हंसः सोहं स्वाहा । २. परनिष्कशाम्भवी मन्त्र - ॐ
परनिष्कलशाम्भवी । ३. अजपा मन्त्र - हंसः । ४. मातृका मन्त्र - अं आं इं ईं उं ऊं ... हं लं क्षं ।
पूजन विधि
-
ॐ ह्रीं हंसः सोहं स्वाहा
परंज्योतिः श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, पूर्वे,
ॐ परनिष्कलशाम्भवी परनिष्फल
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, दक्षिणै,
हंसः अजया श्रीपादुकाम पूजयामि
तर्पयामि नमः, पश्चिमे,
अं आं ... क्षं मातृका श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः, उत्तरे ॥५५-५७॥
तृतीयकल्पलतापञ्चके देवताकथनम्
प्रणवो भुवनेशी हुं खेच छेक्षः पदं
पुनः॥ ५७ ॥
स्त्री हुँ मेरुः सझिण्टीशो
मायास्त्र द्वादशाक्षरः।
त्वरिताया मनुः प्रोक्तस्तेन तां
पुरतोर्चयेत् ॥ ५८ ॥
अब तृतीय कल्पलता पञ्चक देवियों के मन्त्रों
का उद्धार कहते है -
प्रणव (ॐ),
भुवनेशानी (ह्रीं), फिर ‘खेच छे क्षः’ फिर ‘स्त्रीं हुं’
तथा सझिण्टीश मेरु (क्षे), माया (ह्रें),
तथा अन्त में ‘अस्त्र फट्’ लगाने से १२ अक्षरों का त्वरिता का मन्त्र निष्पन्न होता है । इससे पूर्व
में त्वरिता का पूजन करना चाहिए ॥५७-५८॥
आकाशहंसक्रोधीशापिनाकीशहराधराः ।
सेन्दवस्तारमायाभ्यां सम्पुटाश्च
सरस्वती ॥ ५९ ॥
डेन्तो हृदन्तो मन्त्रोऽयं प्रोक्ता
एकादशाक्षरः।
अनेन पारिजातेशी दक्षिणस्यां
प्रपूजयेत् ॥ ६०॥
इन्द्र के साथ आकाश (हं),
हंस (सं), क्रोधीश (कं), पिनाकी (लं), फिर धरा बिन्दु के साथ हर (हैं),
इस कूट को तार (ॐ), तथा माया (ह्रीं) से
संपुटित कर चतुर्थ्यन्त सरस्वती (सरस्वत्यै), फिर हृदय (नमः)
लगाने से ११ अक्षरों का पारिजातेश्वरी मन्त्र बनता है । इससे दक्षिण दिशा
में पारिजातेश्वरी का पूजन करना चाहिए ॥५९-६०॥
रमामायामनोभूमिस्त्रिवर्णा
त्रिपुटोदिता ।
तां यजेत् पश्चिमे भागे
बाणेशीमुत्तरे पुनः ॥ ६१॥
रमा (श्रीं) माया (ह्रीं) एवं
मनोभूमि (क्लीं) यह तीन अक्षर का त्रिपुटा मन्त्र बनता है । इससे पश्चिमे दिशा में
त्रिपुटा का पूजन करना चाहिए ॥६१॥
द्रां द्रीं क्लीं ब्लू भृगुः
सर्गीसोदिता पञ्चवर्णका ।
चतुर्थे कामधेनुपञ्चके देवताकथनम्
वाक्कामौ भृगुरौ सर्गयुक्तो
मन्त्रस्त्रिवर्णकः ॥ ६२ ॥
द्रां द्रें क्लीं ब्लूं तथा
सर्गीभृगु (सः) यह ५ अक्षर का पञ्चबाणेशी मन्त्र कहा गया है । इससे उत्तर में पञ्चबाणेशी
का पूजन करना चाहिए ॥६२॥
विमर्श - १. त्वरिता मन्त्र
- ॐ ह्रीं हुं खेच छे क्षः स्त्रीं हुं क्षे ह्रीं फट् । २. पारिजातेश्वरी
मन्त्र - ॐ ह्रीं हं सं कं लं ह्रै ह्रीं उं सरस्वत्यै नमः । ३. त्रिपुटा
मन्त्र - श्रीं ह्रीं क्लीं । ४. पञ्चबाणेषी मन्त्र - द्रां द्रीं क्लीं ब्लुं सः ।
पूजा विधि
- १. ॐ ह्रीं हु खे च छे क्षः स्त्रीं हुं
क्षे ह्रीं त्वरिता श्रीपादुका पूजयामि तर्पयामि नमः,
पूर्वे ।
२. ॐ ह्रीं हंसं कं लं ह्रैं ह्रीं
ॐ सरस्वत्यै नमः पारिजातेश्वरी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः,
दक्षिणे,
३. श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिपुटा
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, पश्चिमे
।
४. द्रां द्री क्लें ब्लूं सः पञ्चबाणेशी
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, उत्तरे
॥५७-६२॥
अब चतुर्थ कामधेनु पञ्चक देवियों के
मन्त्रों का उद्धार कहते हैं -
वाक् (ऐं),
काम (क्लीं), तदनन्तर औ विसर्ग सहित भृगु
(सौः), यह तीन अक्षर का अमृत पीठशी मन्त्र बनता है ।
इस मन्त्र से पूर्व में उनका पूजन करना चाहिए ॥६२॥
प्रोदिताऽमृत पीठेशी तेन तां
पूर्वतो यजेत् ।
नभो भृग्वग्नयो
वामनेत्राढ्याश्चन्द्रभूषिताः ॥ ६३ ।।
सार्णाधाभुवनेशीश्रीं
कलाद्यांभुवनेश्वरीम् ।
सुधाश्रीमन्त्रउदितो वेदार्णस्तां
यजेदवाक् ॥ ६४ ॥
नभ (ह्),
भृगु (स), अग्नि (र्), इन
तीनों को वामनेत्र (ई) एवं बिन्दु से युक्त कर (हस्त्रीं) कूट बनता है । पुनः इसके
आदि में सकार सहित भुवनेशी (श्रीं), फिर ‘श्रीं’, इसके अन्त में कल अक्षरों वाली भुवनेशी
(क्लीं) लगाने से ४ अक्षरों का सुधाश्री मन्त्र बनता है । इससे दक्षिण में
उनका पूजन करना चाहिए ॥६३-६४॥
सकारोऽनुग्रहीसर्गीकामो
वागभ्रपूर्विका ।
त्रिवर्णमनुना पश्चात्
पूजयेदमृतेश्वरीम् ॥ ६५ ॥
अनुग्रही एवं सर्गी सकार (सौः) काम
(क्लीं) तथा अभ्रपूर्वक वाक् हैं इन तीन अक्षरों से अमृतेश्वरी का पश्चिम
में पूजन करना चाहिए ॥६५॥
विंशत्यर्णान्नपूर्णोक्ता तरङ्गे
नवमे मया ।
तन्मन्त्रेणोत्तरस्यां तु
पूजयेदन्नदायिनीम् ॥ ६६ ॥
बीस अक्षरों का अन्नपूर्णा
मन्त्र मैने ९वें तरङ्ग में कहा है (द्र० ९,
२-३) उक्त - ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो भगवति
माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा’ मन्त्र से अन्नपूर्णा का उत्तर
में पूजन करना चाहिए ॥६६॥
विमर्श
- १. अमृतपाठेशी मन्त्र - ऐं क्ली सौः । २ सुधाश्री मन्त्र - हस्त्रीं श्रीं श्रीं
क्लीं । ३. अमृतेश्वरी मन्त्र - सौः क्लीं
है । ४. अन्नपूर्णा मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्ण
स्वाहा
पूजाविधि
- पूर्ववत ‘श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ लगाने से पूजन
मन्त्र निष्पन्न होते हैं । उनसे ऊहापोह कर पूजा कर लेनी चाहिए । यथा ऐं क्लीं सौः
अमृतपाठेशी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, इत्यादि ॥६६॥
पञ्चमे रत्नपञ्चके देवताकथनम्
वाणीबीजं ततः क्लिन्ने कामबीजं
मदद्रवे ।
कुले वराहहंसाग्निवर्णा
औसर्गसंयुताः ॥ ६७ ॥
एकादशाक्षरो मन्त्रः
सिद्धलक्ष्म्याः समीरितः।
तेन तां पूजयेत् पूर्वे मातङ्गी
दक्षिणे पुनः ॥ ६८ ॥
अब पञ्चम रत्नपञ्चक संज्ञक
देवियों के मन्त्र का उद्धार कहते हैं -
वाणीबीज (ऐं),
फिर ‘क्लिन्ने’, फिर
कामबीज (क्लीं), तदनन्तर ‘मदद्रवे’
‘कुले’ फिर औ एवं विसर्ग सहित वराह (ह),
हंस (स), एवं अग्नि (र) इससे बना कूट
(हस्त्रौः) इस प्रकार ग्यारह अक्षरों का (ऐं क्लिन्ने क्लीं मदद्रव कुले हस्त्रौः
) सिद्ध लक्ष्मी मन्त्र कहा गया है । इससे पूर्व दिशा में सिद्धलक्ष्मी का
पूजन करना चाहिए । इसके दक्षिण में मातङ्गी का पूजन करना चाहिए ॥६७-६८॥
वाक्कामः सौः पुनर्वाणी
मायालक्ष्मीधुंवो नमः ।
भगवान्ते तिमातङ्गीश्वरि
सर्वजनार्णकाः ॥ ६९ ।।
मनोहरिपदं प्रोच्य सर्वराजवशङ्करि ।
सर्वान्ते मुखरज्यन्ते मेषो
नेत्रसमन्वितः ॥ ७० ॥
सर्वस्त्रीपुरुषान्ते तु वशंकरिपदं
वदेत् ।
सर्वदुष्टमृगप्रान्ते वशंकरि पुनः
पदम् ।
सर्वलोकवशं पश्चात् करिमायां
रमाङ्गजः ।
वाक्त्रिसप्तति वर्णोऽयं मातंग्या
उदितो मनुः ॥ ७१ ।।
अब मातङ्गी मन्त्र का उद्धार
कहते हैं - वाक् (ऐं), काम (क्लीं),
सौः, फिर वाणी (ऐं), माया
(ह्रीं), लक्ष्मी (श्रीं), तथा ध्रुव
(ॐ), फिर ‘नमो भगवति मातङ्गीश्वरि
सर्वजनमनोहरि’ फिर ‘सर्वरसजशंकरि
सर्वमुखरजि’ फिर नेत्र सहित मेष (नि), फिर
‘सर्वस्त्रीपुरुष’ ‘वशंकरि’, ‘सर्वदुष्टमृगवशंकरि’, फिर ‘सर्वलोकवश्म्करि’,
फिर माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), फिर अङ्गज (क्लीं), यथा वाक् (ऐं) लगाने से ७३
अक्षरों का मातङगी मन्त्र बनता है । इससे दक्षिण में उनका पूजन करना चाहिए ॥६९-७१॥
गगनं वह्निना वामनेत्रेन्दुभ्यां
समन्वितम् ।
भुवनेशी मनुः प्रोक्तस्तेन तां
पश्चिमे यजेत् ॥ ७२ ॥
वामनेत्रे (ई),
इन्दुसहित गगन (ह) एवं वहिन (र) अर्थात् (ह्रीं), यह भुवनेश्वरी
का मन्त्र कहा गया है । इससे पश्चिमे में उनका पूजन करना चाहिए ॥७२॥
तरङ्गे दशमे प्रोक्तो
वेदरुद्राक्षरो मनुः ।
वाराह्मास्तेन तां देव्या वामभागे
समर्चयेत् ॥ ७३ ॥
दशम तरङ्ग
में बतलाये गये ११४ अक्षर वाले (द्र० १०. ६६-७०) वाराही के मन्त्र से वाराही
देवी का उत्तर दिशा में पूजन करना चाहिए ॥७३॥
विमर्श - १. सिद्धलक्ष्मी मन्त्र
- ऐं क्लिन्ने क्लीं मदद्रवे कुले ह्स्त्रौः (१०)। २. मातङ्गी मन्त्र - ऐं
क्लीं सौः ऐं ह्रीं श्रीं ॐ नमो भगवति मातङ्गीश्वरि सर्वजन मनोहरि सर्वराजशंकरि,
सर्वमुखरञ्जिनि सर्वस्त्रीपुरुषवशंकरि सर्वदुष्टमृगवशंकरि
सर्वलोकवशंकरि ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं (७३) । ३. भुवनेश्वरी मन्त्र - ह्रीं । ४. वाराही मन्त्र - ‘ॐ ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्त्ताली वाराहि वाराहि वराहिमुखि, ऐं ग्लौं ऐं अन्धे अन्धिनि नमो रुन्धे रुन्धिनि नमो जम्भे जम्भिनि नमः,
मोहे मोहिनि नमः, स्तम्भे स्तम्भिनि नमः,
ऐं ग्लौं ऐं सर्वदुष्टप्रदुष्टानां सर्वेषां
सर्ववाक्चिचक्षुर्मुखगतिजिहवां स्तम्भं कुरु कुरु शीघ्रवश्य्म कुरु कुरु ऐं ग्लौं
ऐं ठः ठः ठः ठः ठः हुं फट् स्वाहा )(११४)।
पूजा विधि
- ‘ऐं क्लिन्ने क्लीं मदद्रवे कुले ह्स्त्रौः सिद्धलक्ष्मीः श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः’ इत्यादि ॥६७-७३॥
पञ्चिका एवमाराध्य दर्शनानि यजेच्च
षट् ।
षड्दर्शनयजनप्रकार:
आद्यं मध्ये चतुर्दिक्षु चत्वारि
पुरतोन्तिमम् ॥ ७४ ॥
शैवं शाक्त तथा ब्राह्म वैष्णवं
सौरसौगतम् ।
दर्शनान्येवमाराध्य मूलेन त्रिः
प्रतर्पयेत् ॥ ७५ ॥
इस प्रकार पञ्चपञ्चिकाओं का पूजन कर
षड्दर्शनों की पूजा करनी चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है -
प्रथमदर्शन का मध्य में, फिर चारों
दिशाओं में अग्रिम चार दर्शनों का,
तदनन्तर अन्तिम दर्शन का अग्रभाग में पूजन करना चाहिए । १. शैव,
२. शाक्त, ३. ब्राह्य, ४.
वैष्णव, ५. सौर एवं ६. सौगत ये ६ दर्शन कहे गये हैं । इस
प्रकार से दर्शनों की पूजा कर मूल मन्त्र से तीन बार उनका करना चाहिए ॥७४-७५॥
विमर्श - पूजाविधि -
शैवदर्शनश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः मध्ये,
शाक्तदर्शनश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः पूर्वे,
ब्रह्यादर्शनश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः दक्षिणे,
वैष्णवदर्शनश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः पश्चिमे,
सौरदर्शनश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः उत्तरे,
सौगतदर्शनश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः’ अग्रभागे,
इसके अनन्तर अन्त में ‘महात्रिपुरसुन्दरी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः’ इस मन्त्र से तीन बार तर्पण करना चाहिए ॥७४-७५॥
अंगुष्ठानामिकाभ्यां तां यच्छेत्
पुष्पं तु मुद्रया ।
ज्ञानाख्यया सा चांगुष्ठतर्जनीयोगतो
मता ॥ ७६॥
ऐसे तो श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी भगवती
को अङ्गुष्ठ एवं अनामिका द्वारा पुष्पादि समर्पण करना चाहिए,
किन्तु समस्त दर्शनों को ज्ञान मुद्रा द्वारा पुष्पादि समर्पित करने
की विधि कही गई है । यह मुद्रा अङ्गुष्ठ और तर्जनी को मिलाने से बनती है ॥७६॥
एवं सम्पूज्य बिन्दुस्थां
श्रीमत्रिपुरसुन्दरीम् ।
ततोऽङ्गाद्या वृत्तीनां तु पूजनं
सम्यगाचरेत् ॥ ७७ ॥
इस प्रकार वैन्दव चक्र में स्थित
श्रीमत्त्रिसुन्दरी देवी का विधिवत् पूजन करने के बाद अङ्गादि वृत्तियों की आवरण
पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥७७॥
नवावरणपूजनविधिः
भूबिम्ब्वाद बिन्दुपर्यन्तं
नवावृतिसमर्चनम् ।
मायाश्रीबीजपूर्वाणां नाम्नामन्ते
नियोजयेत् ॥ ७८ ॥
श्रीपादुकां पूजयामीत्येतद्वर्णाश्च
सर्वतः ।
अग्नीशासुरवायव्यं
पुरोदिक्ष्वङ्गपूजनम् ॥ ७९ ॥
अब आवरणपूजा कहते हैं -
भूपुर से प्रारम्भ कर बिन्दु
पर्यन्त प्रतिलोम क्रम से नौ आवरणों की पूजा करनी चाहिए । आवरण देवताओं के नाम से
प्रथम मायाबीज, श्रीबीज, तथा
अन्त में ‘श्रीपादुकां पूजयामि नमः’ यह
सर्वत्र लगाना चाहिए ॥७८-७९॥
आग्नेय,
ईशान, नैऋत्य, वायव्य,
अग्रभाग एवं दिशाओं में षडङ्गपूजा करनी चाहिए ॥७९॥
भूबिम्बास्याद्यरेखायां
दिसूर्ध्वाधः क्रमाद्यजेत् ।
सिद्धीर्दशाणिमात्वाद्या
महिमालघिमेशिता ॥ ८०॥
वशित्वसिद्धिः
प्राकाम्याभक्तिरिच्छाष्टमी पुनः।
प्राप्तिश्च सर्वकामाख्या सिद्धयो
दशकीर्तिताः ॥ ८१॥
भूबिम्ब के आद्यरेखा के ८ दिशाओं
में तथा ऊर्ध्व एवं अधोभाग में दश सिद्धियों का पूजन करना चाहिए । १. अणिमा,
२. महिमा, ३. लघिमा, ४.
ईशिता, ५. वशिता, ६. प्राकाम्य,
७. भुक्ति, ८. इच्छा. ९. प्राप्ति एवं १०
प्राकाम्या ये १० सिद्धियाँ कही गई है ॥८०-८१॥
तप्तहेमसमानाभाः पाशांकुशधराः
शुभाः।
साधकेभ्यः प्रयच्छन्ति रत्नौघं तां
विचिन्तयेत् ॥ ८२॥
तप्त सुवर्ण के समान आभावली,
पाश एवं अंकुश धारण किए हुये, साधकों को रत्न
का ढेर देती हुई सिद्धियों का ध्यान करना चाहिए ॥८२॥
भूपुरे मध्यरेखायां
पश्चिमाद्यर्चयेदिमाः ।
ब्राह्मीं माहेश्वरी चापि कौमारी
वैष्णवीमपि ॥ ८३ ॥
वाराहीं च तथेन्द्राणीं चामुण्डामथ
सप्तमीम् ।
महालक्ष्मीमिमा ध्यायेत्
सर्वाभरणसंयुताः ॥ ८४ ॥
भूपुर की मध्य रेखाओं में
एवं पश्चिमादि ८ दिशाओं में १. ब्राह्यी, २.
माहेश्वरी, ३. कौमारी, ४. वैष्णवी,
५. वाराही, ६. इन्द्राणि, ७. चामुण्डा एवं ८. महालक्ष्मी का पूजन करना चाहिए ॥८३-८४॥
विद्यां शूलं शक्तिचक्रे गदां वजं
हि दण्डकम् ।
पऱ्या क्रमेण दधतीः
सर्वाभीष्टप्रदायिकाः ॥ ८५॥
सम्पूर्ण आभूषणों से विभूषित,
अपने हाथों मे क्रमशः पुस्तक, शूल, शक्ति चक्र, गदा वज्र, दण्ड
एवं कमल लिए हुये संपूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली ऐसी इन महाशक्तियों
का ध्यान करना चाहिए ॥८४-८५॥
तस्यां तृतीयरेखायां दशमुद्राः
प्रपूजयेत् ।
शोभणद्रावणाकर्षवश्योन्मादमहांकुशाः
॥८६॥
खेचरी बीजयोनी च त्रिखण्डेति स्मृता
इमाः।
एवं भूबिम्बमाराध्य क्षोभमुद्रां
प्रदर्शयेत् ॥ ८७॥
इसके बाद भूपुर की तृतीय रेखा में १०
मुद्राओं का पूजन करना चाहिए १. क्षोभण, २.
द्रावण, ३. आकर्षण, ४. वश्य, ५. उन्माद, ६. महांकुशा, ७.
खेचरी, ८. बीज, ९. योनि एवं १०.
त्रिखण्डा ये दश मुद्रायें कही गई है ।
इस प्रकार प्रथम आवरण में भूपुर का
पूजन कर क्षोभ मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥८६-८७॥
त्रैलोक्यमोहने चक्रे योगिन्यः
प्रकटा इमाः।
पजितास्तर्पिताः सन्तु स्वेष्टदा
इति प्रार्थयेत् ॥ ८८ ॥
बिन्दौ पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा
मूलेनान्यावृति यजेत् ।
त्रैलोक्य मोहन चक्र मोहन चक्र में
प्रगट हुई ये योगिनियाँ पूजन एव्म तर्पण से अभीष्ट फल प्रदान करे - ऐसी प्रार्थना
करनी चाहिए । फिर मूल मन्त्र से बिन्दु पर पुष्पाञ्जलि चढानी चाहिए ॥८८-८९॥
विमर्श - प्रथमावरण पूजा विधि
- यन्त्र के आग्नेय आदि कोणों में यथाक्रम से षडङ्गपूजा इस प्रकार करनी चाहिए -
यथा -
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः हृदयाय नमः,
आग्नेये,
ॐ ह्रीं श्रीं शिरसे स्वाहा ऐशान्ये,
कएईलह्रीं शिखायै वौषट्
नैऋत्ये,
हसखलह्रीं कवचाय हुम्,
वायव्ये सकलह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् अग्रे,
सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं अस्त्राय
फट्,
चतुर्दिक्षु ।
इसके अनन्तर तप्तहेमसमानाभाः (द्र
१२. ८२) श्लोक के अनुसार ध्यान कर भूपुर प्रथम रेखा में पूर्व आदि दिशाओं में
अणिमादि १० सिद्धियों का इस प्रकार पूजन करे । यथा -
ह्रीं श्रीं अणिमासिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, पूर्वे,
ह्रीं श्रीं महिमासिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, आग्नेये,
ह्रीं श्रीं लघिमासिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, दक्षिण,
ह्रीं श्रीं ईशितासिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, नैऋत्ये,
ह्रीं श्रीं वशिताशिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, पश्चिमे,
ह्रीं श्रीं प्रकाम्यासिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, वायव्ये,
ह्रीं श्रीं भुक्तिसिद्धि
श्रीपादुका पूजयामि नमः, उत्तरे,
ह्रीं श्रीं इच्छासिद्धि श्रीपादुका
पूजयामि नमः ऐशान्ये,
ह्री श्रीं प्राप्तिसिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः ऊर्ध्वभागे,
ह्रीं श्रीं सर्वकामासिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि नमः, अधोभागे ।
तत्पश्चात् भूपुर की द्वितीय
रेखा में - पश्चिमादि दिशाओं में ८ मातृकाओं का इस प्रकार पूजन करना
चाहिए । यथा -
ह्रीं श्रीं ब्राह्मीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि पश्चिमे,
ह्रीं श्रीं माहेश्वरीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, वायव्ये,
ह्रीं श्रीं कौमारीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, उत्तरे,
ह्रीं श्रीं वैष्णवीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, ऐशान्ये,
ह्रीं श्रीं वाराहीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, पूर्वे,
ह्रीं श्रीं इन्द्राणीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, आग्नेये,
ह्रीं श्रीं चामुण्डामातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, दक्षिणे,
ह्रीं श्रीं महालक्ष्मीमातृका
श्रीपादुकां पूजयामि, नैऋत्ये ।
इसके बाद भूपुर की तृतीय रेखा
के ८ दिशाओं एवं ऊर्ध्व अधोभाग में १० मुद्राओं का इस प्रकार पूजन करना
चाहिए । यथा -
ह्रीं श्रीं क्षोभणमुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि,
ह्रीं श्रीं द्रावणमुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि,
ह्रीं श्रीं आकर्षणमुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि,
ह्रीं श्रीं वश्यमुद्रा श्रीपादुकां
पूजयामि,
ह्रीं श्रीं उन्मादमुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि,
ह्रीं श्रीं महांकुशामुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि,
ह्रीं श्रीं खेचरेमुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि,
ह्रीं श्रीं बीजमुद्रा श्रीपादुकां
पूजयामि,
ह्रीं श्रीं योनिमुद्रा श्रीपादुकां
पूजयामि,
ह्रीं श्रीं त्रिखण्डामुद्रा
श्रीपादुकां पूजयामि, ।
इस प्रकार प्रथमावरण का पूजन कर क्षोभमुद्रा
दिखाते हुए ‘त्रैलोक्यमोहन चक्रे’ (द्र० १२. ८८) श्लोक पढकर प्रार्थना करे, तदनन्तर
मूलमन्त्र से बिन्दु पर पुष्पाञ्जलि देनी चाहिए ।
क्षोभमुद्रा का लक्षण
इस प्रकार है -
मध्यमा मध्यमे कृत्त्वा कनिष्ठाङ्गुष्ठरोधिते
।
तर्जन्यौ दण्डवत् कृत्वा मध्यमोपर्यनामिके ।
क्षोभाभिधानमुद्रेयं
सर्वक्षोभणकारिणी ॥७८-८६॥
षोडशारे पश्चिमादि विलोमेन
क्रमादिमाः ॥ ८९ ॥
कामाकर्षणिका त्वाद्या
बुद्ध्याकर्षणिका ततः।
अहंकाराकर्षिणी च शब्दाकर्षणिका
पुनः ॥ ९० ॥
स्पर्शाकर्षणिका तद्वद
रूपाकर्षणिकापि च ।
रसाकर्षणिका चान्या गन्धाकर्षणिका
तथा ॥ ९१॥
चित्ताकर्षणिका चापि धैर्याकर्षणिका
परा ।
नामाकर्षणिका चापि बीजाकर्षणिका तथा
॥ ९२॥
अमृताकर्षणी चान्या
स्मृत्याकर्षणिका तथा ।
शरीराकर्षणी चैवमात्माकर्षणिका परा
॥ ९३॥
अब द्वितीयावरण के पूजन का
विधान कहते हैं - षोडशदल में पश्चिमे से विलोम क्रम से १६ शक्तियों का पूजन
करना चाहिए - १ कामाकर्षणिका, २.
बुद्धयाकर्षणिका, ३. अहंकाराअकर्षिणी ४. शब्दाकर्षणिका,
५. स्पर्शकर्षणिकाअ, ६. रुपाकर्षणिका, ७. रसाकर्षणिका, ८. गन्धाकर्षणिका, ८. चित्ताकर्षणिका, १०. धैर्याकर्षणिका, ११. नामाकर्षणिका, १२. बीजाकर्षणिका, १३. अमृताकर्षणिका, १४. स्मृत्याकर्षणिका, १५. शरीरकर्षणी, १६. आत्माकर्षणिका ये १६ शक्तियाँ
हैं ॥८९-९३॥
विमर्श -
ह्रीं श्रीं कामाकर्षिणीशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि’ पश्चिमे इत्यादि ।
सर्वाशापूरके चक्रे षोडशस्वरसंयुते ।
गुप्ता एतास्तु योगिन्यः पूजिताः
सन्त्विदं वदेत् ॥ ९४ ॥
दर्शयेद् द्राविणीं मुद्रां
द्वितीयावरणार्चने ।
द्राविणी मुद्रा का लक्षण
- ‘क्षोभाभिधानमुद्राया मध्यमे सरले यदा ।
क्रियते परमेशानि तदा विद्राविणी
मता’
॥९०-९५॥
काद्यष्टवर्गसंयुक्तेऽष्टारे पूज्या
इमाः पुनः ॥ ९५॥
पूर्वादिष्वनुलोमेन
बन्धूककुसुमप्रभाः।
अनङ्गकुसुमात्वाधा द्वितीयानगमेखला
॥ ९६ ॥
अनङ्गमदनातद्वद अनङ्गमदनातुरा ।
अनगरेखाचानङ्गवेगानगांकुशा पुनः॥ ९७
॥
अनङ्गमालिनीत्यष्टौ
पाशांकुशलसत्कराः।
सर्वसंक्षोभणे चक्रे देव्यो
गुप्ततराभिधाः ॥ ९८ ॥
पूजिताः सन्त्विति
प्रोच्याकर्षमुद्रां प्रदर्शयेत् ।
अब तृतीयावरण के पूजन का
विधान कहते हैं - क वर्ग आदि ८ वर्गो से युक्त अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं में
अनुलोम क्रम से बन्धूक पुष्प के समान आभा वाली हाथों मेम पाश,
अंकुश धारण किए हुये कुसुमा आदि ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए - १,
अनङ्गकुसुमा २. अनङ्गमेखला ३. अनङ्गमदना ४, अनङ्गमदनातुरा
५, अनङ्गरेखा, ६. अनङ्गवेगा ७, अनङ्गांकुशा, ८, अनङमालिनि ये ९
शक्तियाँ हैं । फिर ‘सर्वसंक्षोभणे चक्रे एता अष्टौ
गुप्ततरा योगिन्यः पूजिताः सन्तु’ ऐसा कहकर आकर्षण मुद्रा
प्रदर्शित करना चाहिए ॥९५-९९॥
विमर्श - पूजा विधि - तृतीय
आवरण में अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के अनुलोम क्रम से अनङ्गकुसुमा आदि ८ महायोगिनियों
का ध्यान कर इस प्रकार पूजन करना चाहिए ।
ध्यान मन्त्र - ‘सर्वसंक्षोभणे चक्रे - बन्धूककुसुमप्रभाः । अनङ्ग कुसुमाद्यष्टौ
पाशांकुशलसत्कराः’ ।
इस प्रकार ध्यान कर - ‘ह्रीं श्रीं अनङ्गकुसुमा श्रीपादुकां पूजयामि’ इत्यादि,
इस विधि से तृतीय आवरण में ८ शक्तियों का पूजन कर - ‘सर्वक्षोभणे चक्रे एता अष्टौ गुप्ततरा योगिन्यः पूजिताः सन्तु’ से प्रार्थना कर पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । पश्चात् आकर्षिणी मुद्रा प्रदर्शित करे।
आकर्षिणीमुद्रा का लक्षण
- ‘मध्यमाततर्जनीभ्यां
तु कनिष्ठानामिके समे ।
अंकुशाकाररुपाभ्यां मध्यमे
परमेश्वरि ।
इयमाकर्षिणी मुद्रा
त्रैलोक्याकरर्षेणे क्षमा ॥९५-९९॥
चतुर्दशारे सम्पूज्याः कादिढान्तार्णराजिते॥
९९ ॥
इन्द्रगोपनिभा रम्याः मदोन्मत्ताः
सभूषणाः।
बिभ्रत्यो दर्पणं पानपात्रं
पाशांकुशावपि ॥ १०० ॥
पश्चिमादिविलोमेन
चतुर्थावरणस्थिताः।
सर्वसंक्षोभिणीपूर्वा
सर्वविद्राविणी परा ॥ १०१॥
सर्वाकर्षिणिका चान्या सर्वाहलादकरी
पुनः।
सर्वसम्मोहिनी चापि
सर्वस्तम्भनकारिणी ॥ १०२॥
सर्वजृम्भणिका नामाष्टमीसर्ववशंकरी ।
सर्वरञ्जिनिका चापि सर्वोन्मादिनिका
तथा ॥ १०३॥
सर्वार्थसाधिनी चाथ
सर्वसम्पत्तिपूरणी ।
सर्वमन्त्रमयी चान्त्या
सर्वद्वन्द्वक्षयंकरी ॥ १०४ ॥
अब चतुर्थ आवरण के पूजन का
विधान कहते है - ककार से ढकार तक वर्णो से सुशोभित चतुर्दश दल में पश्चिमे दिशा से
प्रारम्भ कर विलोम क्रम से इन्द्रगोप (लाल बीलबहूटी) सदृश आभावाली,
मदोन्मत्त, आभूषणों से अलंकृत, हाथों में क्रमशः दर्पण, पान-पात्र, पाश और अंकुश लिए हुये इन १४ शक्तियों का पूजन करना चाहिए -
१. सर्वसंक्षोभिणी २.
सर्वविद्राविणी ३. सर्वाकर्षणिका ४. सर्वाहलादकरे ५. सर्वसम्मोहिनी ६.
सर्वस्तम्भनकारिणी ७. सर्वजृम्भणिका ८. सर्ववशंकरी, ९. सर्वरञ्जिनिका, १०. सर्वोन्मादिनिका, ११. सर्वार्थसाधिनी १२. सर्वसंपत्पूरिणी १३. सर्वमन्त्रमयी और १४.
सर्वद्वन्द्वक्षयंकरी ये १४ शक्तियाँ है ॥९९-१०४॥
मूलेन पुष्पं दत्त्वाथ वश्यमुद्रां
प्रदर्शयेत् ।
सर्वसौभाग्यदे चक्रे सम्प्रदायाभिधा
इमाः ॥ १०५॥
योगिन्यः पूजितास्तृप्ता मङ्गलानि
दिशन्तु मे ।
फिर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर
वश्यमुद्रा प्रदर्शित करे, तथा ‘सर्वसौभाग्यप्रदे चक्रे इमाश्चतुर्दशसंप्रदाययोगिन्यः पूजिताः सन्तु
तृप्ताः सन्तु ए मङ्गलानि दिशन्तु’ ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए
॥१०५-१०६॥
विमर्श - पूजा विधि -
इन्द्रगोपनिभा (द्र ० १२.१००) के अनुसार ध्यान कर चतुर्थावरण में चतुर्दशदल में
पश्चिमे दिशा से विलोम क्रम से सर्वसंक्षोभिणी सर्वसंक्षोभिणीशक्ति श्रीपादुका
पूजयामि’
। इसी प्रकार प्रारम्भ में माया पद बीजाक्षर के आगे एक-एक वर्ण,
तदनन्तर महाशक्तियों के नाम के अन्त में ‘शक्ति
श्रीपादुकाम पूजयामि’ कहकर चतुर्दश शक्तियों की पूजा करे,
फिर ‘सर्वसौभाग्यप्रदे चक्रे
इमाश्चतुर्दशसंप्रदाययोगिन्यः पूजिताः सन्तु’ से प्रार्थना
कर पुष्पाञ्जलि समर्पित कर वश्यमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
वश्यमुद्रा के लक्षण
- पुटाकारौ करौ कृत्वा तर्जन्यावंकुशाकृति ।
परिवार्य क्रमेणैव मध्यमे तदधोगते ।
क्रमेण देवि तेनैव कनिष्ठनामिका हृदः
॥
संयोज्य निविडाः सर्वा अङ्गुष्ठावग्रदेशतः
।
मुद्रेय्म परमेशानि सर्ववश्यकरी मता
॥९९-१०६॥
सम्प्रार्थ्यति दशारेथ
णादिभान्तार्णभूषिते ॥ १०६ ।।
सम्पूज्या दशयोगिन्यो
जपापुष्पसमप्रभाः ।
स्फुरन्मणिविभूषाढ्याः
पाशांकुशलसत्कराः ॥ १०७॥
पश्चिमादिविलोमेन
साधकाभीष्टसिद्धिदाः।
अब पञ्चम आवरण के पूजा का
विधान कहते हैं - णकार से भकार तक वर्णो से सुशोभित दशदल में जपाकुसुम के समान
आभावाली,
जगमगाते आभूषणों से अलंकृत तथा हाथों में पाश और अंकुश धारण किए
हुये दश कुल-योगिनियों का पश्चिम से प्रारम्भ कर विलोम रीति से पूजन करना
चाहिए ॥१०६-१०८॥
सर्वसिद्धिप्रदा पूर्वा
सर्वसम्पत्प्रदा ततः ॥ १०८ ॥
सर्वप्रियंकरी चान्या
सर्वमङ्गलकारिणी ।
सर्वकामप्रदा पश्चात्
सर्वदुःखविमोचनी ॥ १०९ ॥
सर्वमृत्युप्रशमनी
सर्वविघ्ननिवारिणी ।
सर्वाङ्गसुन्दरी चान्या
सर्वसौभाग्यदायिनी ॥ ११० ॥
बिन्दौ पुष्पं समाथोन्मादमुद्रां
प्रदर्शयेत् ।
सर्वार्थसाधके चक्रे पञ्चमे सर्वतः
स्थिताः ॥ १११ ॥
पूजिताः कुलयोगिन्यः सन्तु
मेऽभीष्टसिद्धिदाः ।
१. सर्वसिद्धिप्र्दा,
२. सर्वसम्पप्रदा, ३. सर्वप्रियंकरी, ४. सर्वमङ्गलकारिणी, ५. सर्वकामप्रदा, ६. सर्वदुःखविमोचिनी, ७. सर्वमृत्युप्रशमनी, ८. सर्वविध्नानिवारिणी ९. सर्वाङ्गसुन्दरी तथा १०. सर्वसौभाग्यप्रदायिनी
ये १० कुल योगिनियाँ कही गई हैं । बिन्दु पर पुष्पाञ्जलि समर्पित कर उन्मादमुद्रा
प्रदर्शित करनी चाहिए तथा ‘सर्वार्थसाधक चक्रे इमा दश
कुलयोगिन्यः पूजिताः मेऽभीष्टसिद्धिदाः च सन्तु’ से
प्रार्थना करनी चाहिए ॥१०८-११२॥
विमर्श - पूजा विधि - १२. १०७ श्लोक के अनुसार ध्यान कर पश्चिम दिशा से विलोम
क्रम द्वारा ‘ह्रीं श्रीं णं
सर्वसिद्धिप्रदादेवी श्रीपादुकां पूजयामि नमः’ से दशों का
पूजन करे, इसी प्रकार प्रथम माया, फिर
लक्ष्मीबीज, तदनन्तर भकार तक के मातृकावर्णो के एक-एक अक्षर,
फिर नाम, उसके आगे देवी, फिर ‘श्रीपादुकां पूजयामि नमः’ कह कर दश दलों में दशों देवियों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार
कुलयोगिनियों का पूजन कर ‘सर्वार्थसाधक चक्र इमा दश
कुलयोगिन्यः पूजिताह सन्तु’ मन्त्र पढते हुये पुष्पाञ्जलि
समर्पित कर उन्मादमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
उन्मादमुद्रा का लक्षण
- सम्मुखौ तु करौ कृत्वा मध्यमामध्यमेनुजे
अनामिके तु सरले तदघस्तर्जनीद्वयम्
दण्डाकारी ततोङ्गुष्टौ
मध्यमानस्वदेशगौ
मुद्रैषान्मादिनी नाम क्लेदिनी
सर्वयोषिताम’ ॥१०८-११२॥
इति सम्प्रार्थ्य सम्पूज्य
मादिक्षान्तविभूषिते ॥ ११२ ॥
परे दशारे योगिन्य उद्यद्
भास्करसन्निभाः ।
ज्ञानमुद्राटंकपाशवरधारिकराम्बुजाः
॥ ११३ ॥
अब षष्ठावरण का पूजन कहते
हैम - मकार से क्षकार पर्यन्त १० वर्णो से सुशोभित द्वितीय दशदल में,
उदीयमान सूर्य के समान आभावाली, हाथ में
ज्ञानमुद्रा, टंक, पाश और वरमुद्रा
धारण की हुई सर्वज्ञा आदि दश योगिनियों का पश्चिमे दिशा से प्रारम्भ कर विलोम क्रम
द्वारा पूजा करनी चाहिए ॥११२-११३॥
सर्वज्ञा सर्वशक्तिश्च
सर्वैश्वर्यफलप्रदा ।
सर्वज्ञानमयी पश्चात् सर्वव्याधिविनाशिनी
॥ ११४ ॥
सर्वाधारस्वरूपा च सर्वपापहरापरा ।
सर्वानन्दमयी देवी
सर्वरक्षास्वरूपिणी ॥ ११५ ॥
सर्वेप्सितार्थफलदा
पश्चिमादिविलोमगाः ।
पुष्पं मूलेन दत्त्वाथो
कुर्यान्मुद्रां महांकुशाम् ॥ ११६ ॥
सर्वरक्षाकरे चक्रे निगर्भाः पूजिता
इमाः।
योगिन्यस्तर्पिताः सन्तु
ममाभीष्टफलप्रदाः॥ ११७ ॥
१. सर्वज्ञा,
२. सर्वशक्ति, ३. सर्वैर्श्यफलप्रदा, ४. सर्वज्ञानमयी, ५. सर्वव्याधिविनाशिनी, ६. सर्वाधारस्वरुपा, ७. सर्वपापहरा, ८. सर्वानन्दमयी ९. सर्वरक्षास्वरुपिणी, १०.
सर्वेप्सितार्थफलदा - ये दश योगिनियाँ हैं ।
इनका पूजन कर मूल मन्त्र से
पुष्पाञ्जलि समर्पित कर महांकुशामुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए तथा ‘सर्वरत्नाकरे चक्रे इमा दश निगर्भा योगिन्यः पूजिताः सन्तु तर्पिताः सन्तु
ममाभीष्ट फलप्रदाः सन्तु’ से प्रार्थना करनी चाहिए ॥११४-११७॥
विमर्श - पूजा विधि - ‘सर्वरत्नाकरे चक्रे’ (द्र ० १२. ११३) श्लोक के
अनुसार देवियों का ध्यान कर सर्वज्ञा आदि १० निगर्भा योनियों का पूजन करना चाहिए ।
यथा - ‘ह्रीं श्रीं मं सर्वज्ञादेवी श्रीपादुका पूजयामि’
। इसी प्रकार आदि में ‘ह्रीं श्रीं’ तथा आगे का वर्ण लगाकर देवियों के नाम के आगे ‘श्रीपादुकां
पूजयामि’ से उपर्युक्त १० योगिनियों का पूजन करना चाहिए ।
फिर मूल मन्त्र से पुष्पाञ्जलि चढाकर ‘सर्वरत्नाकरे चक्रे
इमा दशानिगर्बहयोगिन्यः पूजिताः सन्तु’ इस प्रकार प्रार्थना
कर महांकुशामुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
महांकुशा का लक्षण
- अस्यास्त्वनामिका युग्ममघः कृत्वांकुशाकृति ।
तर्जन्यावपि तेनैव क्रमेण
विनियोजयेत् ।
इयं महांकुशामुद्रा
सर्वकामार्थसाधिनी ॥११२-११७॥
सम्प्रार्थ्येवमथाष्टारे
दाडिमीपुष्पसन्निभाः।
रक्ताशुकाधनुर्बाणविद्यावरलसत्कराः ॥११८॥
अकाराद्यष्टवर्गाद्या
पश्चिमादिविलोमतः।
पूजयेत् पूर्व सम्प्रोक्ता बीजाधा
अष्टदेवताः ॥ ११९ ॥
अब सप्तम आवरण के पूजन का
विधान कहते हैं - अनार के पुष्प जैसी आभा वाली, लाल
रंग के वस्त्रों से अलृकृत, हाथों में धनुष, बाण, विद्या
और वर धारण किए हुये, न्यासोक्त वशिनी आदि ८
देवियों का ध्यान कर, अकरादि ८ वर्णो से सुशोभित अष्टदल
में पूर्वोक्त बीजों के साथ उक्त ८ देवियों का पश्चिमे से विलोम क्रम द्वारा पूजन
करना चाहिए ॥११८-११९॥
वशिनी चापि कौमारी मोदिनी विमलारुणा
।
जयिनी चापि सर्वेशी कौलिनीत्युदिताः
पुरा ॥ १२० ॥
सर्वरोगहरे चक्रे रहस्याः पूजिता
मया ।
तर्पिताः पूजिताः सन्त्वित्युक्त्वा
दद्यात् सुमाञ्जलिम् ॥ १२१॥
वशिनी,
कौमारी, मोदिनी, विमला,
अरुणा, जयिनी, सर्वेशी
और कौलिनी ये ८ देवियाँ हैं । इनके पूजन के पश्चात् ‘सर्वरोगहरे
चक्रे अष्टारे इमा रहस्ययोगिन्यः पूजिताः तर्पिताः सन्तु’ से
प्रार्थना कर पुष्पाञ्जलि अर्पित करनी चाहिए । तदनन्तर खेचरीमुद्रा
प्रदर्शित करना चाहिए । तदनन्तर त्रिपुरसुन्दरी को संतुष्ट करना चाहिए ॥१२०-१२१॥
विमर्श - पूजाविधि - ‘सर्वरोगहरे अष्टारे चक्रे (द्र ० १२. ११८) इस श्लोक के अनुसार देवियों का
ध्यान कर अकाराअदि विभूषित अष्टदल में वशिनी आदि ८ योगिनियों का पूर्ववत् पूजन करना चाहिए । यथा - ह्रीं श्रीं अं आं
वशिनीवग्देवता श्रीपादुकां पूजयामि नमः, ह्रीं श्रीं इ ईं
कौमारीवाग्देवता श्रीपादुकां पूजयामि नमः, इत्यादि । इस
प्रकार पूर्वोक्त रीति से उक्त योगिनियों का पूजन कर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि
समर्पित कर ‘सर्वरोगहरे चक्रे अष्टारे इमा रहस्य योगिन्यः
पूजिताः सन्तु’ ऐसी प्रार्थना कर खेचरीमुद्रा प्रदर्शित करनी
चाहिए ।
खेचरीमुद्रा का लक्षण
- सव्यं दक्षिणहस्ते तु सव्यहस्ते तु दक्षिणम् ।
वाहू कृत्वा महादेवि हस्तौ
संपरिवर्त्य च ॥
कनिष्ठानामिके देवि युक्ता तेन
क्रमेण तु ।
तर्जनीभ्या समाक्रान्ते
सर्वोर्ध्वमपि मध्यमे ॥
अङ्गुष्ठो तु महादेवि सरलावपि
कारयेत् ।
इयं सा खेचरी नाम मुद्रा
सर्वोत्तमोत्तमा ॥१२०-१२१॥
खेचरी दर्शयेन्मुद्रा सुन्दरी
तोषयेत्ततः ।
त्रिकोणेत्वकथाद्यर्णरचिते
पश्चिमादितः ॥ १२२ ॥
यजेत् कामेशकामेश्योर्बाणाश्चापं च
पाशकम् ।
अंकुशं चानुलोमेन चतुर्दिक्षु
समाहितः ॥ १२३॥
जम्भमोहवशस्तम्भपदाद्यान्
बीजपूर्वकान् ।
बाणबीजानि बाणादौ मीनकृष्णौ
सबिन्दुकौ ॥ १२४ ॥
चापादौ पाशकस्यादौ पाशमाये नियोजयेत्
।
अंकुशं त्वंकुशस्यादौ स्मर्तव्या
हेतिदेवताः ॥ १२५ ।।
अब अष्टम आवरण के पूजन का
विधान कहते हैं - अ क थ इन तीन वर्णो से विभूषित, त्रिकोण में पश्चिमादि अनुलोम क्रम से, चारों दिशाओं
में स्वस्थ चित्त हो कर, अपने अपने बीजों के साथ जम्भ,
मोह, वश और स्तम्भ संज्ञक वाले कामेश्वर और
कामेश्वरी के बाण, धनुष, पाश और अंकुश
की पूजा करनी चाहिए । बाण के पहले पञ्चबाण बीज, धनुष के पहले
सानुस्वार मीनकृष्ण (धं थं), पाश के पहले पाश और मायाबीज (आं
ह्रीं) तथा अंकुश के पहले अंकुश बीज (क्रौं) लगाना चाहिए ॥१२२-१२५॥
नानारत्नविभूषाढ्याः
स्वस्वायुधसमन्विताः।
विद्यददामसमानांग्यो
यौवनोन्मदमन्थराः ॥ १२६ ॥
अनेक रत्नों से सुशोभित,
अपने अपने आयुधों से युक्त, विद्युत के समान
देदीप्यमान अङ्गो वाली तथा यौवन के उन्माद से इठलाती हुई चाल वाली, उक्त आयुध देवियों का ध्यान करना चाहिए ॥१२६॥
अग्न्यादिकोणत्रितये पूज्याः
कूटत्रयादिकाः।
कामेश्वरी च वजेशी तृतीया भगमालिनी
॥ १२७ ॥
आग्नेयादि तीन कोणों में कूटत्रय
कामेश्वरी, वज्रेशी और भगमालिनी का पूजन
करना चाहिए ॥१२७॥
कामेश्वरीरुद्रशक्तिः
शरच्चन्द्रशतप्रभा ।
स्मर्तव्या दधती हस्तैः पुस्तकाऽभीवरस्रजः
॥ १२८ ॥
कामेशी का ध्यान
- शरत्कालीन चन्द्रमा जैसी स्वच्छ कान्तिवाली, अपने
हाथों में पुस्तके, वर और माला धारण की हुई, रुद्र की शक्ति, कामेश्वरी का ध्यान करना चाहिए
॥१२८॥
वजेश्वरीविष्णुशक्तिरुद्यन्मार्तण्डसप्रभा
।
इक्षुचापवराभीतिपुष्पबाणलसत्करा ॥
१२९ ॥
वज्रेशी का ध्यान
- उदीयमान सूर्य के समान आभा वाली, इक्षु
का चाप, वर, अभय और पुष्पबाण अपने
हाथों में लिए हुये, विष्णु की शक्ति, वज्रेश्वरी
देवी का ध्यान करना चाहिए ॥१२९॥
भगमालाब्रह्मशक्तिस्तप्तहाटकसप्रभा
।
ज्ञानमुद्रां वरं पाशमंकुशं दधती
करैः ॥ १३० ॥
उत्तप्त सुवर्ण के समान जगमगाती हुई,
हाथों में ज्ञानमुद्रा, वर, एवं अंकुश लिए हुये, ब्रह्मदेव की शक्ति, भगमालिनी का ध्यान करना चाहिए ॥१३०॥
एवं त्रिकोणं सम्पूज्य यच्छेत्
पुष्पाञ्जलिं ततः।
बीजमुद्रां प्रदाथ प्रार्थयेत्
सुन्दरीमिदम् ॥ १३१॥
सर्वसिद्धिप्रदे चक्रे योगिन्यः
पूजिता मया ।
दिशन्त्वतिरहस्याख्या मङ्गलं मे
निरन्तरम् ॥ १३२ ॥
इस प्रकार त्रिकोण में उक्त देवियों
का पूजन कर पुष्पाञ्जलि प्रदान करनी चाहिए । तदनन्तर बीजमुद्रा प्रदर्शित करते
हुये ‘सर्वसिद्धप्रदे चक्रे इमा अतिरहस्या योगिन्यः पूजिताः सन्तु मे निरन्तरं
मङ्गलं दिशन्तु’ ऐसी प्रार्थना त्रिपुरसुन्दरी से
करनी चाहिए ॥१३१-१३२॥
विमर्श - पूजाविधि - ‘नानारन्त०’ (द्र० १२.१२६) श्लोक के अनुसार आयुध
देवियों का ध्यान कर, अ क थ वर्णों से संयुक्त त्रिकोण के
चारों ओर, पश्चिम से प्रारम्भ कर, अनुलोम
क्रम से, अपने अपने बीजमन्त्रों के साथ कामेश्वर और
कामेश्वरी के बाण, धनुष, आदि का इस
प्रकार पूजन करे । यथा -
यां रां लां वां शां द्रां द्रीं
क्लीं ब्लूं सः कामेश्वरकामेश्वरी जम्भबाण श्रीपादुकां पूजयामि पश्चिमे,
धं थं कामेश्वरकामेश्वरी मोहनधनुः
श्रीपादुकां पूजयामि उत्तरे,
आं ह्रीं कामेश्वरकामेश्वरी
वशीकरणपाश श्रीपादुकां पूजयामि पूर्वे,
क्रों कामेश्वरकामेश्वरी
स्तम्भनांकुश श्रीपादुकां पूजयामि दक्षिण,
इसके बाद त्रिकोण के आग्नेयादि
कोणों में (१२.१२५) श्लोक के अनुसार कामेश्वरी रुद्रशक्ति का,
(१२. १२९) श्लोक के अनुसार विष्णुशक्ति वज्रेश्वरी का तथा
(१२.१३०) श्लोक के अनुसार ब्रह्मशक्ति भगमालिनी का ध्यान कर इस प्रकार पूजन
करना चाहिए । यथा-
कएईलह्रीं कामेश्वरीपीठे
कामेश्वरीरुद्रशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि,
हसकहलह्रीं पूर्णगिरिपीठे वज्रेश्वरीविष्णुशक्ति
श्रीपादुकां पूजयामि,
सकलह्रीं जालन्धरपीठे
भगमालिनीब्रह्माशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि,
इस प्रकार पूजन करने के पश्चात्
मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित कर ‘सर्वसिद्धिप्रदे
चक्रे इमा अतिरहस्या योगिन्यः पूजिताः सन्तु निरन्तरं मङ्गलं दिशन्तु’ ऐसी प्रार्थना बीजमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
बीजमुद्रा का लक्षण
- परिवर्त्य करौ स्पष्टावर्द्धचन्द्राकृती प्रिये । तर्जन्यङ्युगले
युगपत्कारयेत्ततः ॥ अघः कनिष्ठावष्टब्धे मध्यमे विनियोजयेत । तथैव कुटिले योज्ये
सर्वाधस्तादनमिके । बीजमुद्रेयमुदिता सर्वसिद्धिप्रदायिनी ॥१२२-१३२॥
बिन्दौ सम्पूजयेत्
पश्चाच्छ्रीमत्रिपुरसुन्दरीम् ।
मूलविद्यां समुच्चार्य ध्यात्वा
पूर्वोक्तवर्मना ॥ १३३॥
सर्वानन्दमये चक्रे
सर्वाभीष्टविधायिनीम् ।
परापररहस्याख्या योगिनी पूजितास्तु
मे ॥ १३४ ॥
योनिमुद्रां प्रदर्याथ तर्पणं त्रिः
समाचरेत् ।
धूपं दीपं च
नैवेद्यमन्नैर्नानाविधैर्दिशेत् ॥ १३५॥
अब नवम आवरण की पूजन विधि
कहते हैं - इसके बाद बिन्दु पर विधिवत् ध्यान कर पूर्वोक्त विधि से मूलविद्या
मन्त्र बोलकर श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर ‘स्वानन्दमये चक्रे सर्वाभीष्टविधायिनीं परात्पररहस्य योगिनी
श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी पूजितास्तु’ ऐसी प्रार्थना कर
योनिमुद्रा प्रदर्शित कर ३ बार तर्पण करना चाहिए । तदनन्तर धूप, दीप, आदि तथा अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थो का
नैवेद्य भगवती को निवेदित करना चाहिए ॥१३३-१३५॥
विमर्श - पूजाविधि - ११ ५१
श्लोक द्वारा भगवती के स्वरुप का ध्यान कर बिन्दु पर मूल मन्त्र - ‘श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी श्रीपादुकां पूजयामि’ से श्री
श्रीविद्या का पूजन कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करे । फिर ‘सर्वानन्दमये
चक्रे श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी पूजितास्तु’ ऐसी प्रार्थना कर महायोनिमुद्रा
प्रदर्शित करना चाहिए ।
महायोनिमुद्रा का लक्षण
- मध्यमे कुटिले कृत्वा तर्जनुपरि संस्थिते ।
अनामिका मध्यगते तथैव हि कनिष्ठिके
॥
सर्वा एकत्र संयोज्या अङ्गुष्ठ
परिपीडिता ।
एषा तु प्रथमा मुद्रा महायोन्यमिधा
मता ॥
फिर मूल मन्त्र - ‘श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरीं तर्पयामि’ से तीन बार तर्पण
कर धूप दीपादि उपचारों से देवी का पूजन कर विविध नैवेद्य समर्पित करे ॥१३३-१३५॥
वहिनं सम्पूज्य पूर्वोक्तविधिना
तत्र सुन्दरीम ।
आवाह्य जुहुयाद् द्रव्यं
पञ्चविंशतिसंख्यया ॥ १३६ ॥
इसके बाद पूर्वोक्त विधि (द्र० १.
१२९) से अग्निदेव की पूजा कर उसमें त्रिपुरसुन्दरी का आवाहन कर
हव्यद्रव्यों से २५ आहुतियाँ (मूलमन्त्र द्वारा) प्रदार करे ॥१३६॥
होमविधानबटुकादिबलिदानप्रकारः
श्रीचक्रस्य बलिं दद्याधुतशेषेन
संयुतः।
ईशानाग्नेयनैर्ऋत्यवायुकोणेषु च
क्रमात् ॥ १३७ ॥
बटुकस्य च योगिन्याः
क्षेत्रेशगणनाथयोः।
निजैर्मन्त्रैः स्वमुद्राभिः
पूर्वसंकीर्तितैर्मया ॥ १३८ ॥
फिर श्रीचक्रे के ईशान,
आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य कोणों में हुतशेष
द्रव से, अपने अपने मन्त्रों एव मुद्राओं से क्रमशः बटुक, योगिनी, क्षेत्रपाल और गणपति को पूर्वोक्त रीति से बलि प्रदान करनी चाहिए ॥१३७-१३८॥
प्रदक्षिणानतीः कृत्वा मूलविद्यां
ततो यजेत् ।
एवं श्री सुन्दरी नित्यं
पूजयन्विजितेन्द्रियः ॥ १३९ ॥
नवावृतियुतां सर्वान्
कामानिष्टानवाप्नुयात् ।
साधकाभीष्टसिद्धिदाः प्रयोगाः
अथ प्रयोगा वक्ष्यन्ते
साधकाभीष्टसिद्धिदाः ॥ १४०॥
तदनन्तर प्रदाक्षिणा और नमस्कार कर
मूलविद्या का जप करना चाहिए । इस प्रकार जितेन्द्रिय साधक प्रतिदिन ९ आवरणों के
साथ श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी का पूजन का अपने समस्त मनोरथों को पूर्ण करता है
॥१३९-१४०॥
विमर्श - बलिदान विधि - ‘एह्येहि देवीपुत्र बटुकनाथ कपिलजटाभार भासुर त्रिनेत्रज्वालामुख
सर्वविघ्नान्नाशय नाशय सर्वोपचार सहितं इमं बलिं गृहण गृहण स्वाहा’ इस मन्त्र से तर्जनी और अङ्गुष्ठ मिलाकर बटुकमुद्रा प्रदर्शित कर हुतशेष
द्रव्यों की बलि ईशान कोण में बटुक को देनी चाहिए ।
तदनन्तर ‘ऊर्ध्वं ब्रह्माण्डतो वा दिशिगगनतले भूतले निष्कले वा
पाताले वा तले वा सलिलपानयोर्यत्र
कुत्र स्थितां वा ।
प्रीता देव्यः सदा नः शुभबलिविधिना
पातु वीरेन्द्रवन्द्याः ॥
यां योगिनीभ्यो नमः’
इस मन्त्र से अनामिका,
कनिष्ठा एवं अङ्गुष्ठ को मिलाने से निष्पन्न मुद्रा द्वारा हुतशेष
द्रव्य से योगिनियों को बलि देनी चाहिए ।
तदनन्तर ‘क्षां क्षीं क्षूं क्षे क्षौं क्षः हुं स्थानक्षेत्रपालेश सर्वकामं पूरय
स्वाहा’ इस मन्त्र से बायें हाथ का अङ्गुष्ठ और अनामिका को
मिलाने से निष्पन्न मुद्रा प्रदर्शित कर हुतशेष द्रव्य से श्रीचक्र के नैऋत्यकोण
में क्षेत्रपाल को बलि प्रदान करना चाहिए ।
फिर ‘गां गीं गूं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं में वशमानय सर्वोपचार सहितं बलिं
गृहण गृहण स्वाहा’ इस मन्त्र से पढकर थोडी वक्र की हुई
मध्यमा की मुद्रा प्रदर्शित कर हुत शेष द्रव्य से श्रीचक्र के वायव्यकोण में गणपति
को बलिप्रदान करना चाहिए ॥१३७-१४०॥
नवलक्षजपेनास्य रुद्ररूपो नरो भवेत्
।
मल्लिकामालतीपुष्पैोमाद्
वागीशतामियात् ॥ १४१॥
इस मन्त्र का ९ लाख जप करने
से साधक रुद्र स्वरुप प्राप्त कर लेता है । इस मन्त्र के द्वारा मल्लिका(बेला)
और मालती के फूलों के होम से साधक को वागीशता प्राप्त होती है ॥१४१॥
करवीरैर्जपापुष्पैोमान्मोहयते जगत् ।
चन्द्रकुंकुमकस्तूरीहोमात् कामाधिको
भवेत् ॥ १४२ ॥
चम्पकैः पाटलैर्विश्वं
वशमानयतेऽचिरात ।
इतना ही नहीं कनेर और जपाकुसुम
के होम से साधक सारे जगत् को मोहित कर लेता है । कपूर,
कुंकुम और कस्तूरी के होम से व्यक्ति कामदेव से भी आधिक रुप
संपन्न हो जाता है । चम्पा एवं गुलाब के होम से व्यक्ति शीघ्र ही विश्व को अपना वशवर्ती
बना लेता है ॥१४२-१४३॥
लाजाहोमो राज्यदायी मधुनोपद्रवक्षयः
॥ १४३॥
निशिच्छागपलैहोमो
रिपुसैन्यविनाशकृत् ।
दध्याज्यदुग्धमधुभिः
क्रमाद्धोमादवाप्नुयात् ॥ १४४ ॥
आरोग्यं सम्पदं ग्राम धनं
शर्करयासुखम् ।
कमलैर्धनसम्पत्तिर्दाडिमैराजवश्यताम्
॥ १४५ ॥
क्षत्नियामातुलिङ्गैस्तु वैश्या
नारङ्गजैः फलैः ।
शूद्राः कूष्माण्डसम्भूतैर्वश्याः
स्युरचिराद्भुतैः ॥ १४६ ॥
लाजा के होम से राज्य प्राप्ति होती
है,
मधु के होम से समस्त उपद्रव नष्ट हो जाते है, रात्रि
के समय छागमांस के होम से शत्रु सेना नष्ट हो जाती है । दही के होम से आरोग्य,
घी के होम से संपत्ति, दूध के होम से ग्राम,
तथा मधु के होम से धन प्राप्त होता है । कमलों के होम से धन संपत्ति
मिलती है तथा अनार के होम से राजा वशवर्ती हो जाता है । बिजौरा के होम से
क्ष्त्रिय, नारंगी के होम से वैश्य, तथा
पेठा के होम से वैश्य, तथा पेठा के होम से शूद्र शीघ्र ही वश
में हो जाते है ॥१४३-१४६॥
पनसानां
लक्षहोमावश्यास्स्युश्चक्रवर्तिनः ।
द्राक्षाफलैरिष्टसिद्धि
रम्भाभिमन्त्रिणो वशाः ॥ १४७ ॥
नारिकेलैस्तु सम्पत्तिस्तिलैः
सर्वेष्टसिद्धयः ।
गुग्गुलैर्दुःखनाशः स्यात्
सर्वेष्टं शर्करागुडैः ॥ १४८ ॥
पायसैर्धनधान्याप्तिर्बन्धूकैः
प्राणिनो वशाः ।
पक्वैश्चूतफलैोमाल्लक्षमात्राद्धरावशा
॥ १४९ ॥
कटहल से एक लाख आहुतियाँ देने पर
चक्रवर्ती राजा वश में हो जाता है, अंगूर
के होम से इष्टसिद्धि, बेला के होम से मन्त्री वश में हो
जाता है । नारियल के होम से संपत्ति तथा तिल के होम से सभी अभीष्ट पदार्थ प्राप्त
होते हैं ॥१४७-१४९॥
गुग्गुलु के होम से दुःख नाश,
चक्रवड एवं गुड के होम से मनोरथ पूर्ण होते हैं । खीर के होम से धन
धान्य मिलता है । बन्धूक (दुपहिरया) के फूलों के होम से प्राणी वश में हो जाते हैं
॥ पक्व आमों की एक लाख आहुतियाँ देने से पृथ्वी
पर रहने वाले सारे प्राणी वश में हो जाते हैं ॥१४८-१४९॥
लवणै राजिकायुक्तोमाद्
दुष्टविनाशनम् ।
कर्पूरहोमाल्लभते वाक्पतित्वं
नरोऽचिरात् ॥ १५० ॥
करञ्जफलहोमेन भूतप्रेतादयो वशाः ।
राई मिश्रित लवण के होम से दुष्टों
का नाश होता है । कपूर के होम से शीघ्र कवित्व की प्राप्ति होती है । करञ्ज फल के
होम से भूत प्रेत आदि वश में हो जाते हैं ॥१५०-१५१॥
बिल्वैः
स्यादतुलालक्ष्मीरिक्षुदण्डैः सुखाप्तयः ॥ १५१॥
घृतहोमादीप्सिताप्तिः शान्तिः
स्यात्तिलतण्डुलैः ।
किंबहूक्तेन देवेशि सर्वेष्टं
साधितं नृणाम् ॥ १५२ ।।
बिल्वफल के होम से अतु लक्ष्मी तथा
ईख खण्ड के होम से सुख मिलता है । घी के होम से अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति तथा तिल
तन्दुल के होम से शान्ति प्राप्त होती है । हे देवेशि - विशेष क्या कहें इस मन्त्र
द्वारा मनुष्य अपने समस्त अभीष्टों को प्राप्त कर लेता हैं ॥१५१-१५२॥
मध्ये कूटत्रिके भेदा
वर्णान्तरनियोजनात् ।
बहवोऽन्येन गदिता ग्रन्थगौरवभीतितः
॥ १५३ ॥
कूटत्रितय के मध्य में अन्य वर्णो
के लगाने से इस ‘श्रीविद्या के अनेक
भेद हो जाते हैं । ग्रन्थ विस्तार के भय से यहाँ उनका निर्देश नहीं कर रहा हूँ
॥१५३॥
विमर्श
- षोडशी मन्त्र के मध्य के तीनों कूटो में वर्णविपर्यय द्वारा कुबेरोपासिता आदि
बत्तीस भेद बनते हैं, जिनका आचार्य ने ‘नौका’ में वर्णन किया है ।
इसके अलावा आगम शास्त्र में षोडशी विद्या के कुछ और भी भेद कहे गये हैं जो निम्नलिखित हैं -
कामराजविद्या
- कएलईह्रीं, हसकहलह्रीं सकलह्रीं ।
प्रथमलोपामुद्रा
- हसकलह्रीं, हसकलह्रीं सकलह्रीं ।
मनुपूजिता
- कहएअईलह्रीं, हकएईलह्रीं, सकएईलह्रीं ।
चन्द्रपूजिता
- सहकएलईलह्रीं, सहकहईलह्रीं, सहकएईलह्रीं ।
कुबेरपूजिता
- हसकएईलह्रीं हसकएईलह्रीं हसकएईलह्रीं ।
द्वितीयलोपामुद्रा
- कएईलह्रीं, हसकहलह्रीं, सहसकलह्रीम ।
नन्दिपूजिता
- सएईलह्रीं, सहकलह्रीं, सकलह्रीं ।
सूर्यपूजितः
- कएईलह्रीं, हसकलह्रीम, सकलह्रीं ।
शंकरपूजिता
- कएईलह्रीं, हसकलह्रीं, सहसकलह्रीं, कएईलहसकहलसकसकलह्रीं,
विष्णुपूजिता
- कएईलह्रीं, हसकलह्रीं, सहसकलह्रीं, सएलह्रीं, सहकहलह्रीं,
सकलह्रीं ।
दुवार्सापूजिता
- कएईलह्रीं, हसकहलह्रीं, सकलह्रीं ॥१५३॥
अपरीक्षितशिष्याय न देयेऽयं कदाचन ।
पुत्राय वा सुशिष्याय
दत्त्वाऽभीष्टप्रदायिनी ॥ १५४ ॥
यह श्रीविद्या अपरीक्षित
शिष्य को कभी नहीं देनी चाहिए । अभीष्ट फल दायिनी यह विद्या अपने पुत्र एवं
सुपरीक्षित शिष्य को ही देनी चाहिए ॥१५४॥
गोपालसुन्दरीमन्त्रः
गोपालसुन्दरी वक्ष्ये
भोगमोक्षप्रदायिकाम् ।
मायारमाचित्तजन्मा कृष्णायेति पदं
ततः ॥ १५५ ॥
आद्यं वाक्कूटमुच्चार्य गोविन्दाय
पदं वदेत् ।
द्वितीयं तु ततः कूटं गोपीजन पदं
ततः ॥ १५६ ॥
वल्लभायपदान्तं तु तृतीयं
कूटमुच्चरेत् ।
स्वहान्ता वह्नियुग्मार्णा स्मृतां
गोपालसुन्दरी ॥ १५७ ॥
अब भोग मोक्षदायिनी गोपालसुन्दरी
मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -
माया (ह्रीं),
रमा (श्रीं), चित्तजन्मा (क्लीं), फिर ‘कृष्णाय’ इस प्रथम
वाक्कूट का उच्चारण कर ‘गोविन्दाय’ यह
द्वितीय कूट, फिर गोपीजनवल्लभाय तृतीय कूट बोलना चाहिए ।
इसके अन्त में स्वाहा लगाने से २० अक्षरों का गोपालसुन्दरी मन्त्र निष्पन्न होता
है ॥१५५-१५७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ‘ह्रीं श्रीं क्लीं
कृष्णाय गोविन्द्राय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ ॥१५५-१५७॥
विद्यायादौ मुनी उक्तौ
विधात्रानन्दभैरवौ ।
छन्दस्तु दैवीगायत्री
देवतासुन्दरीयुता ॥ १५८ ॥
गोपालो मन्मथो बीजं शक्तिः
पावकवल्लभा ।
मायाश्रीमन्मथैर्हत् स्यात् कृष्णाय
शिर ईरितम् ॥ १५९ ॥
विनियोग तथा षडङ्गन्यास
- इस गोपालसुन्दरी विद्या के विधात्रा तथा आनन्दभैरव दो ऋषि हैं,
देवी गायत्री छन्द है, गोपालसुन्दरी देवता है,
कामबीज क्लीं तथा स्वाहा शक्ति है । माया (ह्रीं), श्री (श्रीं), कामबीज (क्लीं) से हृदय में,‘कृष्णाय’ से शिर में, ‘गोविन्दाय’
से शिखा, ‘गोपीजन’ से कवच,
‘वल्लभाय’ से नेत्र तथा ‘स्वाहा’ से अस्त्रन्यास करना चाहिए ॥१५८-१५९॥
विमर्श - विनियोग - अस्य श्रीगोपालसुन्दरीमन्त्रस्य
विधात्रानन्दभैरवी ऋषि देवी गायत्रीछन्दः गोपालसुन्दरी देवता क्लींबीजं
स्वाहाशक्तिः ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ह्रीं श्री क्लीं
हृदयाय नमः, कृष्णाय शिरसे स्वाहा,
गोविन्दाय शिखाय वषट्, गोपीजन कवचाय हुम्
वल्लभाय नेत्रत्रयाय वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट्
॥१५८-१५९॥
गोविन्दाय शिखागोपीजनेति कवचं मतम् ।
वल्लभाय स्मृत नेत्रमस्त्रं
पावकभार्यया ॥ १६० ॥
अस्य मन्त्रस्य न्यासत्रयकथनम्
मूनि भाले भ्रुवोरक्ष्णोः कर्णयो
सयोर्मुखे ।
चिबुके च गले बाह्वोर्हृदये जठरे
न्यसेत् ॥ १६१॥
नाभौ लिङ्गे गुदे
सक्थ्नोर्जानुनोर्जङ्घयोरपि ।
गुल्फयोः पादयोर्वर्णान्
कूटत्रयविवर्जितान् ॥ १६२ ॥
सृष्टिन्यासोऽयमुदितो हृदाद्यं सान्तिकास्थितिः।
संहारोंघ्यादिमूर्धान्तः पुनः
सृष्टिं स्थितिं चरेत् ॥ १६३ ॥
सृष्टि स्थिति तथा संहारन्यास
- शिर,
ललाट, भौंह, नेत्र,
कान, नासिका, मुख,
चिबुक, कण्ठ, कन्धा,
हृदय, उदर, नाभि,
लिङ, गुदा, कमर, जानु, जंघा, सृष्टि न्यास कहा
जाता है । हृदय से कन्धों तक का न्यास स्थितिन्यास तथा पैरों से शिर तक का न्यास संहारन्यास होता
है । इसके बाद पुनः सृष्टिन्यास करना चाहिए ॥१६०-१६३॥
विमर्श - सृष्टिन्यास -
ह्रीं नमः मूर्ध्नि, श्रीं नमः ललाटे, क्लीं नमः भ्रुवो,
क्रुं नमः नेत्रयोः ष्णां नमः कर्णयो,
यं नमः नासिकयोः,
गों नमः मुखे, विं नमः चिबुके, न्दां नमः कण्ठे,
यं नमः बाहुमूले, गों नमः हृदि, पीं नमः उदरे,
जं नमः नाभौ, नं नमः लिङ्ग, वं नमः गुदे,
ल्लं नमः कटयां भां नमः जान्वोः, यं नमः जंघयोः,
स्वां नमः गुल्फयोः, हां नमः पादयोः,
स्थितिन्यास
- ह्रीं नमः हृदि, श्रीं नमः उदरे,
क्लीं नमः नाभौ कृं नमः लिङ्गे ष्णां नमः मूलाधारे
यं नमः कटयां गों नमः जान्वोः विं नमः जंघयोः
न्दां नमः गुल्फयोः यं नमः पादयोः गों नमः मूर्ध्नि
पीं नमः ललाटे जं नमः भ्रुवोः नं नमः नेत्रयोः
वं नमः कर्णयोः ल्लं नमः नसोः भां नमः मुखे
यं नमः चिबुके स्वां नमः कण्ठे हां नमः बाहुमूले
संहारन्यास
- ह्रीं नमः पादयोः श्रीं नमः गुल्फयोः,
क्लीं नमः जंघयोः कृं नमः जान्वोः ष्णां नमः कटयां
यं नमः गुदे गों नमः लिङ्गे विं नमः नाभौ
न्दां नमः उदरे यं नमः हृदि गों नमः बाहुमूले
पी नमः कण्ठे जं नमः चिबुके नं नमः मुखे
वं नमः नसोः ल्लं नमः कर्णयोः भां नमः नेत्रयोः
यं नमः भ्रुवोः स्वां नमः ललाटे हां नमः मूर्ध्नि ।
गोपालसुन्दरी मन्त्र द्वारा इस रीति
से सृष्टि, स्थिति तथा संहारन्यास कर पुनः
सृष्टिन्यास और स्थितिन्यास करना चाहिए ॥१६०-१६३॥
करशुद्ध्यासनन्यासौ न्यासं
वाग्देवताभिधम् ।
कृत्वा पूर्वोदितान कूटत्रयं
कास्यहृदि न्यसेत् ॥ १६४ ॥
कूटत्रयद्विरावृत्त्या षडङ्ग
पुनराचरेत् ।
कमलावसुधायुक्तं ध्यायेच्छ्रीचक्रगं
हरिम् ॥ १६५॥
फिर पूर्वोक्त रीति से करशुद्धिन्यास
(द्र० ११. ८-१४) तथा वाग्देवतान्यास आसनन्यास (द्र० ११. २७-३६) कर तीनों
कूटों से शिर, मुख एवं हृदय में न्यास करना
चाहिए । पुनः तीनों कूटों की दो आवृति से षडङ्गन्यास करना चाहिए । इसके बाद
श्रीचक्र में स्थित कमला और वसुधा के साथ श्री हरि
का ध्यान करना चाहिए ॥१६४-१६५॥
विमर्श - त्रिकूटन्यास
- ११ तरङ्ग
में वर्णित विधि से करशुद्धिन्यास, आसनन्यास,
वाग्देवतान्यास कर, त्रिकूट द्वारा इस प्रकार
न्यास करना चाहिए -
षडङ्गन्यास - कृष्णाय हृदयाय नमः, गोविन्दाय शिरसे स्वाहा,
गोपीजनवल्लभाय शिखायै वषट्, कृष्णाय कवचाय हुम्
गोविन्दाय नेत्रत्रयाय वौषट् गोपीजनवल्लभाय अस्त्राय फट्
॥१६४-१६५॥
ध्यानजपादिपीठपूजाविधानम्
क्षीराभ्भोधिस्थकल्पद्रुमवनविलसद्रनयुमण्डपान्तः
प्रोद्यच्छ्रीपीठसंस्थं
करधृतजलजारीक्षुचापांकुशेषुम् ।
पाशं वीणां सुवेणुं दधतमवनिमाशोभितं
रक्तकान्तिं
ध्यायेद् गोपालमीशं
विधिमुखविबुधैरीड्यमानं समन्तात् ॥ १६६ ॥
अब गोपालसुन्दरी मन्त्र का ध्यान
कहते हैं - क्षीरसागर के मध्य में स्थित कल्पवृक्ष के वन में,
शोभायमान रत्नमण्डप के भीतर, श्रीपीठ पर आसीन,
अपनी आठों भुजाओं में क्रमशः पद्म, चक्र,
इक्षुचाप, बाण, अंकुश,
पाश, वीणा, एवं वेणु
धारण किए हुये, रक्तिम, प्रभा वाले धरा
एवं लक्ष्मी से सुशोभित तथा ब्रह्मा आदि देवताओं से स्तूयमान गोपालनन्दन का ध्यान
करना चाहिए ॥१६६॥
एवं ध्यात्वा जपेल्लक्ष दशांश
पायसान्धसा ।
जुहुयाद्वैष्णवे पीठे पूजयेत्
सुन्दरीहरिम् ॥ १६७ ॥
इस प्रकार गोपाल का ध्यान कर उक्त
गोपालसुन्दरी मन्त्र एक लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर खीर से उसका
दशांश होम करना चाहिए । फिर वैष्णव पीठ पर गोपालसुन्दरी का पूजन करना चाहिए ॥१६७॥
आदावङ्गानि सम्पूज्य प्रागाद्याशासु
पूजयेत् ।
वासुदेवं संकर्षणं
प्रद्युम्नमनिरुद्धकम् ॥ १६८ ॥
पूज्यावल्यादिकोणेषु शान्तिः
श्रीश्च सरस्वती ।
रतिः पुनर्दिक्षु पूज्या रुक्मिणी
सत्यभामिका ॥ १६९॥
कालिन्दी जाम्बवत्याख्या
मित्रविन्दासुनन्दया ।
सलक्षणानाग्निजिती ततोऽर्ध्या
निधयोऽपि च ॥ १७०॥
महापद्मश्च पद्मश्च शखो मकरकच्छपौ ।
मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो
नव ॥ १७१॥
ततश्च सुन्दरी प्रोक्तावृतिपूजा
समाचरेत् ।
प्रयोगानपि तत्रोक्तान्
कुर्यादिष्टप्रसिद्धये ॥ १७२ ॥
सर्वप्रथम अङ्गपूजा कर पूर्वादि
दिशाओं में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध का पूजन करे । फिर आग्नेय आदि कोणों में शान्ति,
श्री सरस्वती एवं रति का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्वादि दिशाओं
में रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी,
जाम्बवती, मित्रविन्दा, सुनन्दा,
सुलक्षणा, एवं नाग्निजिती - इन आठ पट्ट्रानियोम
का पूजन करना चाहिए । इसके बाद नव निधियों का भी पूजन करना चाहिए । महापद्म,
पद्म, शंख, मकर, कच्छप, कुन्द, नील और खर्व ये
नव निधियाँ हैं । (द्र० १२. ७८-१३५)) । इसके बाद त्रिपुरसुन्दरी के प्रयोग में कहे
गये ९ आवरणों की पूजा करनी चाहिए, और अपनी अभीष्ट सिद्धि के
लिए वहीं बतलाये गये प्रयोगों के अनुसार अनुष्ठान भी करना चाहिए - (द्र०
१२.१४०-१५२) ॥१६८-१७२॥
विधि -
गोपालसुन्दरी के आवरण पूजा के लिए वृत्ताकार कर्णिका अष्टदल एवं भूपुर सहित यन्त्र
का निर्माण करना चाहिए । उस यन्त्र पर सामान्य पूजा पद्धति के अनुसार पीठ देवताओम
एवं विमला आदि वैष्णवी पीठशक्तियों का पूजन कर (१२.१६६) श्लोक के अनुसार ध्यान कर
आवाहनादि उपचारों ध्यान कर आवाहनादि उपचारों से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त पूजन कर,
इस प्रकार आवरण पूजा करे । सर्वप्रथम आग्नेयादि कोणों में षडङ्गन्यास
पूजा करे । यथा-
ह्रीं श्रीं क्लीं हृदयाय नमः,
आग्नेये, कृष्णाय शिरसे स्वाहा नैऋत्ये,
गोविन्दाय शिखायै वषट्,
अग्रे, स्वाहा अस्त्राय फट्, चतुर्दिक्षु,
फिर पूर्व आदि चारों दिशाओं में -
ॐ वासुदेवाय नमः,
पूर्व, ॐ संकर्षणाय नमः दक्षिणे,
ॐ प्रद्युम्नाय नमः,पश्चिमे, ॐ अनिरुद्धाय नमः, उत्तरे ।
इसके बाद आग्नेयादि चारो कोणों में
- शान्त्यै नमः आग्नेये,
श्रियै नमः नैऋत्ये,
सरस्वत्यै नमः वायव्ये, रत्यै नमः ऐशान्ये ।
तत्पश्चात् अष्टदलों में पूर्वादि
दिशाओं के क्रम से रुक्मिणी आदि का -
ॐ रुक्मिण्यै नमः,
पूर्व, ॐ सत्यभामायै नमः, आग्नेये
ॐ कालिन्द्यै नमः,
दक्षिणे ॐ जाम्बवत्यै
नमः, नैऋत्ये
मित्रबिन्दायै नमः,
पश्चिमे सुनन्दायै
नमः, वायव्ये
सुलक्षणायै नमः,
उत्तरे
नाग्निजित्यै नमः ऐशान्ये
इसके बाहर पूर्वादि दिशाओं तथा मध्य
में नव निधियों की इस प्रक पूजा करे -
महापद्माय नमः पूर्वे, पद्माय नमः आग्नेये, शंखाय नमः दक्षिणे
मकराय नमः नैऋत्ये, कच्छपाय नमः, ऐशान्ये, मुकुन्दाय
नमः वायव्य
कुन्दाय नमः उत्तरे, नीलाय नमः ऐशान्ये, खर्वाय नमः मध्ये,
इसके बाद त्रिपुरसुन्दरी के पूजा के
प्रसङ्ग में कही गयी विधि के अनुस्व नव आवरणों की पूजा करनी चाहिए । आवरण पूजा बाद
धूप दीप उपचारों से गोपालसुन्दरी का पूजन करना चाहिए ॥१६८-१७२॥
एवं यो भजते नित्यं
श्रीमद्गोपालसुन्दरीम् ।
सर्वान् कामानवाप्यान्ते सायुज्यं
ब्रह्मणो व्रजेत् ॥ १७३ ॥
इस प्रकार जो साधक प्रतिदिन
गोपालसुन्दरी की उपासना करता उसकी समस्त कामनायें पूरी होती हैं और अन्त में वह
ब्रह्य स्वरुप प्राप्त करता है ॥१७३॥
इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ चक्रस्थ-त्रिपुरसुन्दरी गोपालसुन्दर्योः पूजनं नाम
द्वादशस्तरङ्गः॥१२॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित
मन्त्रमहोदधि के द्वादश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ०
सुधाकर मालवीय कृत 'अरित्र' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १२ ॥
आगे पढ़ें- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १३
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