श्रीललितोपनिषत्
श्रीललितोपनिषत् या ललिता उपनिषद श्री
ललिता देवी को समर्पित एक दिव्य उपनिषद है। इस उपनिषद में भी बहुत सुंदर और गूढ़
अर्थ दिया है । मानव शरीर नौ चक्रात्मकरूप से बना है । श्री-चक्र इन्हीं नौ चक्रों
की शक्ति से परिपूर्ण है । मानव शरीर के विभिन्न अंग श्री-चक्र के विभिन्न अंग
हैं। यह उपनिषद परम ब्रह्मा का दिव्य ज्ञान देता है।
श्रीललितोपनिषत्
॥ श्रीललितात्रिपुरसुन्दर्यै नमः ॥
ॐ परमकारणभूता शक्तिः केन
नवचक्ररूपो देहः ।
नवचक्रशक्तिमयं श्रीचक्रम् ।
पुरुषार्थाः सागराः ।
देहो नवरत्ने द्वीपः । आधारनवकमुद्राः
शक्तयः ।
त्वगादिसप्तधातुभिरनेकैः संयुक्ताः
सङ्कल्पाः कल्पतरवः ।
तेजः कल्पकोद्यानम् ॥
अर्थ:परम-कारण-भूता शक्ति द्वारा
मानव शरीर नौ चक्र-रूपात्मक बना है । ``श्री-चक्र''
इन्हीं नौ चक्रों की शक्ति से परिपूर्ण है । पुरुषार्थ ही
सागर-स्वरूप है और इस सागर में शरीर नौ रत्नों (नवचक्र रूपी रत्न) में स्थित द्वीप
के समान है । मूलाधार की नौ मुद्राएँ ही शक्तियाँ हैं । त्वचा-आदि सात धातुओं से
युक्त अनेक सङ्कल्प ही कल्पवृक्ष हैं । ``तेज'' सुन्दर उपवन है ।
रसनया भासमाना
मधुराम्लतिक्तकटुकषायलवणरसाः षड्रसाः ।
क्रियाशक्तिः पीठं कुण्डलिनी
ज्ञानशक्तिरहमिच्छाशक्तिः ।
महात्रिपुरसुन्दरी ज्ञाता होता ।
ज्ञानमर्घ्यं ज्ञेयं हविः ज्ञातृज्ञानज्ञेयानां
नमोभेदभावनं श्रीचक्रपूजनम् ॥
अर्थ: जिह्वा के द्वारा अनुभूत
होनेवाले मधुर, अम्ल, तिक्त,
कटु, कषाय और लवणात्मक स्वाद ही छह रस हैं ।
क्रियाशक्ति पीठ है, ज्ञानशक्ति कुण्डलिनी है और इच्छाशक्ति
अहङ्कार है । महात्रिपुरसुन्दरी ज्ञाता और होता हैं । ज्ञान अर्घ्य है और ज्ञेय ही
हवनीय प्रदार्थ है । ज्ञाता (किसी विषय या वस्तु को जो जान रहा हो), ज्ञान (किसी विषय/वस्तु का ज्ञान) और ज्ञेय (वह विषय/वस्तु जिसको जाना जा
रहा है)- इनकी नमन-पूर्वक भेद-भावना ही श्रीचक्र का पूजन है ।
नियतिसहितश्रृङ्गारादयो नवरसाः ।
अणिमादयः कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यपुण्यपापमया
ब्राह्म्यादयोऽष्टशक्तयः ।
आधारनवकमुद्रा शक्तयः ।
पृथ्व्यप्तेजोवाय्वाकाशश्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वा-
प्राणवाक्पाणिपादपायूपस्थमनोविकाराः
षोडशशक्तयः ।
वचनादानगमनविसर्गानन्दादानोपादानोपेक्षा-
बुद्धयोऽनङ्गकुसुमादिशक्तयोऽष्टौ ।
अलम्बुषाकुहूविश्वोदरीवरुणाहस्तिजिह्वायशस्विनी-
गान्धारीपूषासरस्वतीडापिङ्गलासुषुम्ना
चेति चतुर्दशनाडयः
सर्वसङ्क्षोभिण्यादिचतुर्दशारदेवताः ॥
अर्थ: श्रृङ्गार-आदि नौ रस हैं ।
अणिमा-आदि,काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मात्सर्य-पुण्य
और पाप तथा ब्राह्मी आदि आठ शक्तियाँ हैं । मूलाधार की नौ मुद्राएँ शक्तियाँ हैं ।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश; श्रोत्र, त्वचा,
चक्षु,जिह्वा और घ्राण; वाक्,
पाणि, पाद, पायु,
उपस्थ; और मन के विकार-यह सोलह शक्तियाँ हैं ।
वचन, आदान, गमन, विसर्ग,
आनन्द,आदान-उपादान, उपेक्षा
और बुद्धि ही अनङ्ग-कुसुमादि आठ शक्तियाँ हैं । अलम्बुषा, कुहू,
विश्वोदरी, वरुणा, हस्ति-जिह्वा,
यशस्विनी,गान्धारी, पूषा,
सरस्वती, इडा, पिङ्गला
और सुषुम्ना- ये नाडियाँ सर्व-संक्षोभिणी आदि चतुर्दशार की देवता हैं ।
प्राणापानव्यानोदानसमाननागकूर्मकृकलदेवदत्तधनञ्जया
दशवायवः सर्वसिद्धिप्रदादि
बहिर्दशारदेवताः ।
एतद्वायुदशकसंसर्गोपाधिभेदेन
रेचकपूरकपोषकदाहकाल्पावकामृतमिति
प्राणः
सङ्ख्यत्वेन पञ्चविधोऽस्ति ।
जठराग्निर्मनुष्याणां मोहको
भक्ष्यभोज्यलेह्यचोष्यात्मकं
चतुर्विधमन्नं पाचयति ।
तदा काशवान्सकलाः
सर्वज्ञत्वाद्यन्तर्दशारदेवताः ॥
अर्थ: प्राण,
अपान, व्यान, उदान,
समान, नाग, कूर्म,
कृकल, देवदत्त और धनञ्जय- ये १० वायु
सर्व-सिद्धि-प्रदा आदि बहिर्दशार के देवता हैं । इन्हीं १० वायुओं के सम्पर्क से
उपाधि-भेद द्वारा रेचक, पूरक, पोषक,
दाहक और अल्पावकामृत नाम से प्राण पाँच प्रकार का होता है । भक्ष्य,
भोज्य, लेह्य और चोष्य- इन चार प्रकार के
अन्नों का पाचन मनुष्यों का जठराग्नि करता है । तभी सर्वज्ञत्व-आदि अन्तर्दशार के
सभी देवता प्रकाशमान् होते हैं ।
शीतोष्णसुखदुःखेच्छासत्वरजस्तमोगुणादय
वशिन्यादिशक्तयोऽष्टौ ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः
पञ्चतन्मात्राः पञ्चपुष्पबाणा
मन इक्षुधनुर्वल्यो बाणो रागः पाशो
द्वेषोऽङ्कुशः ।
अव्यक्तमहत्तत्त्वाहङ्कारकामेश्वरीवज्रेश्वरी-
भगमालिन्योऽन्तस्त्रिकोणाग्रदेवताः
॥
अर्थ: शीत,
ऊष्ण, सुख, दु:ख,
इच्छा, सत्व-गुण, रज-गुण,
तम-गुण-ये आठ ही वशिनी आदि ८ शक्तियाँ हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध- ये पाँच तन्मात्राएँ ५ पुष्प-बाण हैं; मन- ईख
का धनुष है; वृत्तियाँ- बाण हैं; राग
(आसक्ति)- पाश है; और द्वेष- अङ्कुश है । अव्यक्त, महत्-तत्त्व और अहङ्कार मध्यस्थ त्रिकोण की कामेश्वरी, वजेश्वरी और भग-मालिनी देवता हैं ।
पञ्चदशतिथिरूपेण कालस्य
परिणामावलोकनपञ्चदशनित्याः
शुद्धानुरुपाधिदेवताः । निरुपाधिसार्वदेवकामेश्वरी
सदाऽऽनन्दपूर्णा ।
स्वात्म्यैक्यरूपललिताकामेश्वरी
सदाऽऽनन्दघनपूर्णा स्वात्मैक्यरूपा
देवता ललितामिति ॥
अर्थ: १५ तिथियों के रूप से काल के
परिणाम को देखनेवाली १५ नित्याएँ हैं- ये नित्याएँ शुद्ध-स्वरूपा अधि-देवता हैं ।
उपाधि-रहिता सर्व-देव-मयी कामेश्वरी सदा आनन्द-पूर्णा हैं । साधक की अपनी आत्मा
में मिली हुई स्थितिवाली, परिपूर्ण
आनन्द-स्वरूप वाली ललिता कामेश्वरी इष्ट-देवता हैं ।
साहित्यकरणं सत्त्वं ।
कर्त्तव्यमकर्त्तव्यमिति भावनामुक्ता उपचाराः ।
अहं त्वमस्ति नास्ति
कर्त्तव्याकर्त्तव्यमुपासितव्यानुपासितव्यमिति विकल्पना ।
मनोविलापनं होमः ॥
अर्थ: सहित करना अर्थात् सामञ्जस्य
करना ही सत्व है । कर्तव्य या अकर्तव्य- इस भावना से मुक्त होना ही उपचार है । ``मैं'- ``तुम' है । कर्तव्य या
अकर्तव्य नहीं हैं । उपासित और अनुपासित- यह विकल्पना है । मन को विलय करना ही होम
है ।
बाह्याभ्यन्तरकरणानां
रूपग्रहणयोग्यतास्तीत्यावाहनम् ।
तस्य
बाह्याभ्यन्तरकरणानामेकरूपविषयग्रहणमासनम् ।
रक्तशुक्लपदैकीकरणं पाद्यम् ।
उज्ज्वलदामोदाऽऽनन्दात्सानन्दनमर्घ्यम्
।
स्वच्छास्वतः शक्तिरित्याचमनम् ।
चिच्चन्द्रमयीस्मरणं स्नानम् ।
चिदग्निस्वरूपपरमानन्दशक्तिस्मरणं
वस्त्रम् । प्रत्येकं
सप्तविंशतिधाभिन्नत्वेन
इच्छाक्रियात्मकब्रह्मग्रन्थिमयी
सतन्तुब्रह्मनाडी ब्रह्मसूत्रं
सव्यातिरिक्तवस्त्रम् । सङ्गरहितं
स्मरणं विभूषणम् ।
स्वच्छन्दपरिपूर्णस्मरणं गन्धः ।
समस्तविषयाणां
मनःस्थैर्येणानुसन्धानं कुसुमम् । तेषामेव सर्वदा
स्वीकरणं धूपः ।
पवनाच्छिन्नोर्ध्वज्वालासच्चिदाह्लादाकाशदेहो दीपः ।
समस्तयातायातवर्जनं नैवेद्यम् ।
अवस्थात्रयैकीकरणं ताम्बूलम् ।
मूलाधारादाब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं
ब्रह्मरन्ध्रादामूलाधारपर्यन्तं
गतागतरूपेण प्रादक्षिण्यम् ।
तुरीयावस्थानं
संस्कारदेहशून्यं
प्रमादितावतिमज्जनं बलिहरणम् ।
सत्त्वमस्ति
कर्त्तव्यमकर्त्तव्यमौदासीन्यमात्मविलापनं होमः ।
भावनाविषयाणामभेदभावना तर्पणम् ।
स्वयं तत्पादुकानिमज्जनं
परिपूर्णध्यानम् ॥
अर्थ: बाहरी और भीतरी इन्द्रियों की
रूप-ग्रहण करने की योग्यता है- यह ``आवाहन''
है । साधक की बाहरी और भीतरी इन्द्रियों द्वारा एक रूप-एक विषय का
ग्रहण करना ही ``आसन'' है । रक्त और
शुक्ल- इन दोनों पदों को एक करना ``पाद्य'' है । उज्ज्वल आनन्द से आनन्दित करना ``अर्घ्य''
है । शक्ति की स्वच्छता- यही ``आचमन'' है । चिच्चन्द्र-मयी का स्मरण करना ``स्नान''
है । चिदग्नि-स्वरूपा परमानन्द-शक्ति का स्मरण करना ``वस्त्र'' है । इच्छा-क्रियात्मक ब्रह्मग्रन्थि-मयी
ब्रह्म-नाडी ही ``ब्रह्म-सूत्र'' है,
और यही ब्रह्मनाडी २७ प्रकार से भिन्न होकर अतिरिक्त वस्त्र भी है ।
सङ्ग-रहित स्मरण ही ``आभूषण'' है ।
स्वच्छन्द परिपूर्ण स्मरण ही ``गन्ध'' है
। मन की स्थिरता द्वारा सभी विषयों का अनुसन्धान करना- यह ``पुष्प''
है । उन विषयों को सदा स्वीकार करना- यह 'धूप''
है । पवन द्वारा उठी हुई सच्चिदानन्द की ज्योति ही ``दीपक' है । सारे आवागमन का त्याग- यही ``नैवेद्य'' है । तीनों अवस्थाओं को एक करना- ``ताम्बूल'' है । मूलाधार से ब्रह्म-रन्ध्र तक और
ब्रह्म-रन्ध्र से मूलाधार तक आना-जाना ही ``प्रदक्षिणा''
है । तुरीय स्थिति को प्राप्त कर के संस्कार-देह से रहित होकर,
परमानन्द में डूबना- यह बलि देना है । कर्तव्य-अकर्तव्य की उदासीनता
से आत्म-लय कर मात्र सत्व ही है- यह भावना करना होम है । भावना के विषयों में अभेद
का विचार रखना ही तर्पण है। अपने को श्रीपादुका में मग्न करना ही पूर्ण ध्यान है।
एवं मूर्तित्रयं भावनया युक्तो
मुक्तो भवति ।
तस्य देवतात्मैक्यसिद्धिश्चितिकार्याण्यप्रयत्नेन
सिध्यन्ति
स एव शिवयोगीति कथ्यते ॥
अर्थ: इस प्रकार तीनों स्वरूपों की
भावना से युक्त होनेवाला मुक्त हो जाता है । उसे देवता और आत्मा के ऐक्य की सिद्धि
बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाती है और वह शिव-योगी कहलाता है ।
॥ इति श्रीललितोपनिषत्सम्पूर्णा ॥
॥ श्रीललितोपनिषत् सम्पूर्ण होती है ॥
0 Comments