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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीसूक्त
वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। श्री अर्थात लक्ष्मी। वेद मंत्रों के ऐसा समूह जिसमें धन-धान्य की अधिष्ठात्री माँ लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति के लिए स्तुति किया जाता है, श्रीसूक्तम् या श्री सूक्त कहलाता है।
श्रीसूक्तम्
श्रीसूक्तम् देवी लक्ष्मी की आराधना
करने हेतु उनको समर्पित मंत्र हैं। इसे 'लक्ष्मी
सूक्तम्' भी कहते हैं। यह सूक्त ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के
खिलसूक्त (जो की पांचवें मण्डल के अन्त में उपलब्ध होता है) के अन्तर्गत आता है।
जिस प्रकार किसी भी पूजन पद्धति में षोडशोपचार(१६) विधि से किसी भी देवी-देवता का
पुजा किया जाता है। उसी प्रकार श्रीसूक्तम्
में मन्त्रों की संख्या पन्द्रह है। सोलहवें मन्त्र में फलश्रुति है। अनेक
देवी पूजन में इन १६ ऋचाओं को ही मंत्र रूप से पुजा किया जाता है। इसके बाद में
ग्यारह मन्त्र परिशिष्ट के रूप में उपलब्ध होते हैं। इनको 'लक्ष्मीसूक्त'
के नाम से जाना जाता है। श्रीसूक्तम् का चौथा मन्त्र बृहती छन्द में
है। पांचवाँ और छटा मन्त्र त्रिष्टुप छन्द में है। अन्तिम मन्त्र का छन्द
प्रस्तारपंक्ति है । शेष मन्त्र अनुष्टुप छन्द में है। श्रीशब्दवाच्या लक्ष्मी इस
सूक्त की देवता हैं। श्रीसूक्तम् का विनियोग लक्ष्मी के आराधना, जप, हवन आदि में किया जाता है। महर्षि बोधायन,
वशिष्ठ आदि ने इसके विशेष प्रयोग बतलाये हैं । श्रीसूक्तम् की
फलश्रुति में भी इस सूक्त के मन्त्रों का जप तथा इन मन्त्रों के द्वारा हवन करने
को कहा गया है। आनन्द, कर्दम, श्रीद और
चिक्लीत ये चार श्रीसूक्तम् के ऋषि हैं। इन चारों को श्री का पुत्र बताया गया है।
श्रीपुत्र हिरण्यगर्भ को भी श्रीसूक्तम् का ऋषि माना जाता है। जिसे लिखा गया है
कि-
आनन्द: कर्दम: श्रीदश्चिक्लीत इति
विश्रुता: ।
ऋषय श्रिय: पुत्राश्च
श्रीर्देवीर्देवता मता: ।।
श्री सूक्त
Shri suktam
ऋग्वेदीय श्रीसूक्तम्
॥ अथ श्रीसूक्तम् ॥
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं
सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं
जातवेदो म आवह ॥ १ ॥
हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव ! आप
सुवर्ण के समान रंगवाली, किंचित्
हरितवर्णविशिष्टा, सोने और चाँदी के हार पहननेवाली, चन्द्रवत् प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का
मेरे लिये आवाहन करें ॥ १ ॥
तां म आवह जातवेदो
लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं
गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥
हे अग्ने ! उन लक्ष्मीदेवी का,
जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिये आवाहन करें ॥ २ ॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां
हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये
श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥
जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके
पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं,
उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मीदेवी
मुझे प्राप्त हों ॥ ३ ॥
कां सोस्मितां
हिरण्यप्राकारामार्द्रां
ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां
तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥
जो साक्षात् ब्रह्मरूपा,
मन्द मन्द मुसकरानेवाली, सोने के आवरण से आवृत,
दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा,
भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान
तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ आवाहन करता
हूँ ॥४॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं
श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्ये
अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे
॥५॥
मैं चन्द्र के समान शुभ्र
कान्तिवाली, सुन्दर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा
पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मीदेवी
की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्र्य दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण
करता हूँ ॥ ५ ॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो
वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु
मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः
॥६॥
हे सूर्य के समान प्रकाशस्वरूपे !
आपके ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उसके फल आपके
अनुग्रह से हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्र्य को दूर करें ॥ ६ ॥
उपैतु मां देवसखः
कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्
कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥
हे देवि ! देवसखा कुबेर और उनके
मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों अर्थात् मुझे
धन और यश की प्राप्ति हो । मैं इस राष्ट्र में- देश में उत्पन्न हुआ हूँ,
मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें ॥ ७ ॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठाम-
लक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां
निर्णुद मे गृहात् ॥८॥
लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहन अलक्ष्मी
(दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो
क्षुधा और पिपासा से मलिन—क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि ! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को
दूर करो ॥ ८ ॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां
नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां
तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥९॥
सुगन्धित जिनका प्रवेशद्वार है,
जो दुराधर्षा तथा नित्यपुष्टा हैं और जो गोमय के बीच निवास करती हैं,
सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मीदेवी का मैं अपने घर में आवाहन करता
हूँ ॥ ९ ॥
मनसः काममाकूतिं
वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि
श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥
मन की कामनाओं और संकल्प की सिद्धि
एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हो; गौ
आदि पशुओं एवं विभिन्न अन्नों-भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश के रूप में
श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें ॥ १० ॥
कर्दमेन प्रजाभूता
मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले
मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥
लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम
सन्तान हैं। कर्दमऋषि! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्मों की माला धारण
करनेवाली माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित करें ॥ ११ ॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि
चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं
श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥
जल स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करे।
लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत ! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मीदेवी का मेरे
कुल में निवास करायें ॥ १२ ॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं
पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं
जातवेदो म आवह ॥१३॥
हे अग्ने! आर्द्रस्वभावा,
कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा,
पद्मों की माला धारण करनेवाली, चन्द्रमा के
समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे
यहाँ आवाहन करें ॥ १३ ॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं
सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं
जातवेदो म आवह ॥१४॥
हे अग्ने ! जो दुष्टों का निग्रह
करनेवाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो
मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करनेवाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, लक्ष्मीदेवी का
मेरे लिये आवाहन करें ॥ १४ ॥
तां म आवह जातवेदो
लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो
दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम्
॥१५॥
हे अग्ने ! कभी नष्ट न होनेवाली उन
लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें, जिनके
आगमन से बहुत-सा धन, गौएँ, दासियाँ,
अश्व और पुत्रादि हमें प्राप्त हों ॥ १५ ॥
श्रीसूक्तम् फलश्रुति
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा
जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च
श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥
जिसे लक्ष्मी की कामना हो,
वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे
तथा इन पन्द्रह ऋचाओंवाले श्रीसूक्त का निरन्तर पाठ करे ॥ १६ ॥
॥ इति ऋग्वेदोक्तश्रीसूक्तं
सम्पूर्णं ॥
पौराणीक श्रीसूक्तम्
हिरण्यवर्णां हिमरौप्यहारां
चन्द्रां त्वदीयां च हिरण्यरूपाम् ।
लक्ष्मीं मृगीरूपधरां* श्रियं त्वं मदर्थमाकारय जातवेदः ॥ १॥
यस्यां सुलक्ष्म्यामहमागतायां
हिरण्यगोऽश्वात्मजमित्रदासान् ।
लभेयमाशु ह्यनपायिनीं तां मदर्थमाकारय
जातवेदः ॥ २॥
प्रत्याह्वये तामहमश्वपूर्वां देवीं
श्रियं मध्यरथां समीपम् ।
प्रबोधिनीं हस्तिसुबृंहितेनाहूता
मया सा किल सेवतां माम् ॥ ३॥
कांसोस्मितां तामिहद्मवर्णामाद्रां
सुवर्णावरणां ज्वलन्तीम् ।
तृप्तां हि भक्तानथ
तर्पयन्तीमुपह्वयेऽहं कमलासनस्थाम् ॥ ४॥
लोके ज्वलन्तीं यशसा प्रभासां
चन्द्रामुदामुत देवजुष्टाम् ।
तां पद्मरूपां शरणं प्रपद्ये श्रियं
वृणे त्वों व्रजतामलक्ष्मीः ॥ ५॥
वनस्पतिस्ते तपसोऽधिजातो वृक्षोऽथ
बिल्वस्तरुणार्कवर्णे ।
फलानि तस्य त्वदनुग्रहेण माया
अलक्ष्मीश्च नुदन्तु बाह्याः ॥ ६॥
उपैतु मां देवसखः कुबेरः सा
दक्षकन्या मणिना च कीर्तिः ।
जातोऽस्मि राष्ट्रे किल मर्त्यलोके
कीर्तिं समृद्धिं च ददातु मह्यम् ॥ ७॥
क्षुत्तृट्कृशाङ्गी मलिनामलक्ष्मीं
तवाग्रजां तामुतनाशयामि ।
सर्वामभूतिं ह्यसमृद्धिमम्बे
गृहाञ्च (गृहाच्च) निष्कासय मे द्रुतं त्वम् ॥ ८॥
केनाप्यधर्षाम्मथ गन्धचिह्नां
पुष्टां गवाश्वादियुतां च नित्यम् ।
पद्मालये सर्वजनेश्वरीं तां
प्रत्याह्वयेऽहं खलु मत्समीपम् ॥ ९॥
लभेमहि श्रीमनसश्च कामं वाचस्तु
सत्यं च सुकल्पितं वै ।
अन्नस्य भक्ष्यं च पयः पशूनां
सम्पद्धि मय्याश्रयतां यशश्च ॥ १०॥
मयि प्रसादं कुरु कर्दम त्वं
प्रजावती श्रीरभवत्त्वया हि ।
कुले प्रतिष्ठापय में श्रियं वै
त्वन्मातरं तामुत पद्ममालाम् ॥ ११॥
स्निग्धानि चापोऽभिसृजन्त्वजस्रं
चिक्लीतवासं कुरु मद्गृहे त्वम् ।
कुले श्रियं मातरमाशुमेऽद्य
श्रीपुत्र संवासयतां च देवीम् ॥ १२॥
तां पिङ्गलां पुष्करिणीं च
लक्ष्मीमाद्रां च पुष्टिं शुभपद्ममालाम् ।
चन्द्रप्रकाशां च हिरण्यरूपां
मदर्थमाकारय जातवेदः ॥ १३॥
आद्रां(आद्रीं) तथा यष्टिकरां
सुवर्णां तां यष्टिरूपामथ हेममालाम् ।
सूर्यप्रकाशां च हिरण्यरूपां
मदर्थमाकारय जातवेदः ॥ १४॥
यस्यां प्रभूतं कनकं च गावो
दास्यस्तुरङ्गान्पुरुषांश्च सत्याम् ।
विन्देयमाशु ह्यनपायिनीं तां
मदर्थमाकारय जातवेदः ॥ १५॥
श्रियः पञ्चदशश्लोकं सूक्तं
पौराणमन्वहम् ।
यः पठेज्जुहुयाच्चाज्यं श्रीयुतः
सततं भवेत् ॥ १६॥
इति पौराणीकम् श्रीसूक्तं समाप्तम्
।
* मृगीरूपधरां “श्रीर्धृत्वा हरिणीरूपमरण्ये सञ्चार ह'' इति पुराणवचनात्
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