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कर्मकाण्ड

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श्रीस्तोत्र

श्रीस्तोत्र

जो मनुष्य सदा ही लक्ष्मी के इस श्रीस्तोत्र का पाठ और श्रवण करता है, भगवती लक्ष्मी उन्हें राज्य अथवा धन  की स्थिरता और संग्राम में विजय आदि का अभीष्ट वरदान प्रदान कराती है साथ ही उन्हे भोग तथा मोक्ष प्रदान कराती हैं ।

श्रीस्तोत्रम्

लक्ष्मीस्तोत्र और उसका फल

श्रीस्तोत्रम्

अथाग्नेये षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

पुष्कर उवाच -

राज्यलक्ष्मीस्थिरत्वाय यथेन्द्रेण पुरा श्रियः ।

स्तुतिः कृता तथा राजा जयार्थं स्तुतिमाचरेत् ॥ १॥

पुष्कर कहते हैं-परशुरामजी! पूर्वकाल में इन्द्र ने राज्यलक्ष्मी की स्थिरता के लिये जिस प्रकार भगवती लक्ष्मी की स्तुति की थी, उसी प्रकार राजा भी अपनी विजय के लिये उनका स्तवन करे॥१॥

इन्द्र उवाच -

नमस्ते सर्वलोकानां जननीमब्धिसम्भवाम् ।

श्रियमुन्निन्द्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् ॥ २॥

इन्द्र बोले-जो सम्पूर्ण लोकों की जननी हैं, समुद्र से जिनका आविर्भाव हुआ है, जिनके नेत्र खिले हुए कमल के समान शोभायमान हैं तथा जो भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में विराजमान हैं, उन लक्ष्मीदेवी को मैं प्रणाम करता हूँ।

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनि ।

सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥ ३॥

जगत्को पवित्र करनेवाली देवि! तुम्ही सिद्धि हो और तुम्हीं स्वधा, स्वाहा, सुधा, संध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो।

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।

आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥ ४॥

शोभामयी देवि! तुम्हीं यज्ञविद्या, महाविद्या, गुह्यविद्या तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली आत्मविद्या हो।

आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।

सौम्या सौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम् ॥ ५॥

आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र), त्रयी (ऋक्, साम, यजु), वार्ता (जीविका-प्रधान कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य कर्म) तथा दण्डनीति भी तुम्ही हो। देवि! तुम स्वयं सौम्यस्वरूपवाली (सुन्दरी) हो; अत: तुमसे व्याप्त होने के कारण इस जगत्का रूप भी सौम्य मनोहर दिखायी देता है।

का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।

अध्यास्ते देव देवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥ ६॥

भगवति! तुम्हारे सिवा दूसरी कौन स्त्री है, जो कौमोदकी गदा धारण करनेवाले देवाधिदेव भगवान् विष्णु के अखिल यज्ञमय विग्रह को, जिसका योगी लोग चिन्तन करते हैं, अपना निवास स्थान बना सके।

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम् ।

विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम् ॥ ७॥

देवि! तुम्हारे त्याग देने से समस्त त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; किंतु इस समय पुन: तुम्हारा ही सहारा पाकर यह समृद्धिपूर्ण दिखायी देती है।

दाराः पुत्रास्तथागारं सुहृद्धान्यधनादिकम् ।

भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम् ॥ ८॥

महाभागे! तुम्हारी कृपादृष्टि से ही मनुष्यों को सदा स्त्री, पुत्र, गृह, मित्र और धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है।

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् ।

देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥ ९॥

देवि! जिन पुरुषों पर आपकी दयादृष्टि पड़ जाती है, उन्हें शरीर की नीरोगता, ऐश्वर्य, शत्रुपक्ष की हानि और सब प्रकार के सुख-कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं।

त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता ।

त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम् ॥ १०॥

मातः! तुम सम्पूर्ण भूतों की जननी और देवाधिदेव विष्णु सबके पिता हैं। तुमने और भगवान् विष्णु ने इस चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है।

मानं कोषं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् ।

मा शरीरं कलत्रञ्च त्यजेथाः सर्वपावनि ॥ ११॥

सबको पवित्र करनेवाली देवि! तुम मेरी मान-प्रतिष्ठा, खजाना, अन्न-भण्डार, गृह, साज-सामान, शरीर और स्त्री-किसी का भी त्याग न करो।

मा पुत्रान्मासुहृद्वर्गान्मा पशून्मा विभूषणम् ।

त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलालये ॥ १२॥

भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में वास करनेवाली लक्ष्मी! मेरे पुत्र, मित्रवर्ग, पशु तथा आभूषणों को भी न त्यागो।

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः ।

त्यजन्ते ते नरा सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥ १३॥

विमलस्वरूपा देवि! जिन मनुष्यों को तुम त्याग देती हो, उन्हें सत्य, समता, शौच तथा शील आदि सद्गुण भी तत्काल ही छोड़ देते हैं।

त्वयावलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः ।

कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥ १४॥

तुम्हारी कृपादृष्टि पड़ने पर गुणहीन मनुष्य भी तुरंत ही शील आदि सम्पूर्ण उत्तम गुणों तथा पीढ़ियों तक बने रहनेवाले ऐश्वर्य से युक्त हो जाते हैं।

स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् ।

स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥ १५॥

देवि! जिसको तुमने अपनी दयादृष्टि से एक बार देख लिया, वही श्लाघ्य (प्रशंसनीय), गुणवान्, धन्यवाद का पात्र, कुलीन, बुद्धिमान्, शूर और पराक्रमी हो जाता है।

सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः ।

पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥ १६॥

विष्णुप्रिये! तुम जगत्की माता हो। जिसकी ओर से तुम मुँह फेर लेती हो, उसके शील आदि सभी गुण तत्काल दुर्गुण के रूप में बदल जाते हैं।

न ते वर्णयितुं शक्ता गुणान् जिह्वापि वेधसः ।

प्रसीद देवि पद्माक्षि नास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥ १७॥

कमल के समान नेत्रोंवाली देवि! ब्रह्माजी की जिह्वा भी तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकती। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ तथा कभी भी मेरा परित्याग न करो॥२-१७॥

पुष्कर उवाच

एवं स्तुता ददौ श्रीश्च वरमिन्द्राय चेप्सितम् ।

सुस्थिरत्वं च राज्यस्य सङ्ग्रामविजयादिकम् ॥ १८॥

पुष्कर कहते हैं-इन्द्र के इस प्रकार स्तवन करने पर भगवती लक्ष्मी ने उन्हें राज्य की स्थिरता और संग्राम में विजय आदि का अभीष्ट वरदान दिया।

स्वस्तोत्रपाठश्रवणकर्तॄणां भुक्तिमुक्तिदम् ।

श्रीस्तोत्रं सततं तस्मात्पठेच्च श्रृणुयान्नरः ॥ १९॥

साथ ही अपने स्तोत्र का पाठ या श्रवण करनेवाले पुरुषों के लिये भी उन्होंने भोग तथा मोक्ष मिलने के लिये वर प्रदान किया। अतः मनुष्य को चाहिये कि सदा ही लक्ष्मी के इस श्री स्तोत्र का पाठ और श्रवण करे* ॥१८-१९॥

इत्याग्नेये महापुराणे श्रीस्तोत्रं नाम षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३६॥

इस प्रकार आदि आत्रेय महापुराणमें 'श्रीस्तोत्रका वर्णन ' नामक दो सौ सैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २३७ ॥

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