इन्द्र स्तोत्र

इन्द्र स्तोत्र

जो मनुष्य कौथुमी शाखा में कहे गये इस इन्द्र स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है, उसकी बड़ी-से-बड़ी विपत्ति में शचिपति इन्द्र रक्षा करते हैं। उसे अतिवृष्टि, शिलावृष्टि तथा भयंकर वज्रापात से भी कभी भय नहीं होता, जिस घर में यह स्तोत्र पढ़ा जाता है और जो पुण्यवान पुरुष इसे जानता है, उसके घर पर न कभी वज्रपात होता है और न ओले या पत्थर ही बरसते हैं।

इन्द्र स्तोत्रम्

इन्द्र स्तोत्रम्

नन्द उवाच ।।

इन्द्रः सुरपतिः शक्रो दितिजः पवनाग्रजः ।  

सहस्राक्षो भगाङ्गश्च कश्यपाङ्गज एव च ।।

बिडौजाश्च सुनासीरो मरुत्वान्पाकशासनः ।।१।।

जयन्तजनकः श्रीमाञ्छचीशो दैत्यसूदनः ।

वज्रहस्तः कामसखो गौतमीव्रतनाशनः ।। २ ।।

वृत्रहा वासवश्चैव दधीचिदेहभिक्षुकः ।

विष्णुश्च वामनभ्राता पुरुहूतः पुरन्दरः ।। ३ ।।

दिवस्पतिः शतमखः सुत्रामा गोत्रभिद्विभुः ।

लेखर्षभो बलारातिर्जम्भभेदी सुराश्रयः ।।४।।

संक्रन्दनो दुश्च्यवनस्तुराषाण्मेघवाहनः ।

आखण्डलो हरिहयो नमुचिप्राणनाशनः ।। ५ ।।

वृद्धश्रवा वृषश्चैव दैत्यदर्पनिषूदनः ।

षट्चत्वारिंशन्नामानि पापघ्नानि विनिश्चितम् ।। ६ ।।

स्तोत्रमेतत्कौथुमोक्तं नित्यं यदि पठेन्नरः ।

महाविपत्तौ शक्रस्तं वज्रहस्तश्च रक्षति ।। ७ ।।

अतिवृष्टिशिलावृष्टिवज्रपाताच्च दारुणात् ।

कदाचिन्न भयं तस्य रक्षिता वासवः स्वयम् ।। ८ ।।

यत्र गेहे स्तोत्रमिदं यश्च जानाति पुण्यवान् ।

न तत्र वज्रपतनं शिलावृष्टिश्च नारद ।। ९ ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे इन्द्र स्तोत्रम् सम्पूर्णं ।।२१।।

इन्द्र स्तोत्र भावार्थ सहित

नन्द उवाच ।।

इन्द्रः सुरपतिः शक्रो दितिजः पवनाग्रजः ।

सहस्राक्षो भगाङ्गश्च कश्यपाङ्गज एव च ।।

बिडौजाश्च सुनासीरो मरुत्वान्पाकशासनः ।।१।।

जयन्तजनकः श्रीमाञ्छचीशो दैत्यसूदनः ।

वज्रहस्तः कामसखो गौतमीव्रतनाशनः ।। २ ।।

वृत्रहा वासवश्चैव दधीचिदेहभिक्षुकः ।

विष्णुश्च वामनभ्राता पुरुहूतः पुरन्दरः ।। ३ ।।

दिवस्पतिः शतमखः सुत्रामा गोत्रभिद्विभुः ।

लेखर्षभो बलारातिर्जम्भभेदी सुराश्रयः ।।४।।

संक्रन्दनो दुश्च्यवनस्तुराषाण्मेघवाहनः ।

आखण्डलो हरिहयो नमुचिप्राणनाशनः ।। ५ ।।

वृद्धश्रवा वृषश्चैव दैत्यदर्पनिषूदनः ।

षट्चत्वारिंशन्नामानि पापघ्नानि विनिश्चितम् ।। ६ ।।

नन्द बोलेइन्द्र, सुरपति, शक्र, अदितिज, पवनाग्रज, सहस्राक्ष, भगांग, कश्यपात्मज, विडौजा, शुनासीर, मरुत्वान, पाकशासन, जयन्तजनक, श्रीमान, शचीश, दैत्यसूदन, वज्रहस्त, कामसखा, गौतमीव्रतनाशन, वृत्रहा, वासव, दधीचि-देह-भिक्षुक, जिष्णु, वामनभ्राता, पुरुहूत, पुरन्दर, दिवस्पति, शतमख, सुत्रामा, गोत्रभिद, विभु, लेखर्षभ, बलाराति, जम्भभेदी, सुराश्रय, संक्रन्दन, दुश्च्यवन, तुराषाट, मेघवाहन, आखण्डल, हरि, हय, नमुचिप्राणनाशन, वृद्धश्रवा, वृष तथा दैत्यदर्पनिषूदनये छियालीस नाम निश्चय ही समस्त पापों का नाश करने वाले हैं।

स्तोत्रमेतत्कौथुमोक्तं नित्यं यदि पठेन्नरः ।

महाविपत्तौ शक्रस्तं वज्रहस्तश्च रक्षति ।। ७ ।।

जो मनुष्य कौथुमी शाखा में कहे गये इस स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है, उसकी बड़ी-से-बड़ी विपत्ति में इन्द्र वज्र हाथ में लिये रक्षा करते हैं।

अतिवृष्टिशिलावृष्टिवज्रपाताच्च दारुणात् ।

कदाचिन्न भयं तस्य रक्षिता वासवः स्वयम् ।। ८ ।।

उसे अतिवृष्टि, शिलावृष्टि तथा भयंकर वज्रापात से भी कभी भय नहीं होता; क्योंकि स्वयं इन्द्र उसकी रक्षा करते हैं।

यत्र गेहे स्तोत्रमिदं यश्च जानाति पुण्यवान् ।

न तत्र वज्रपतनं शिलावृष्टिश्च नारद ।। ९ ।।

नारद! जिस घर में यह स्तोत्र पढ़ा जाता है और जो पुण्यवान पुरुष इसे जानता है; उसके घर पर न कभी वज्रपात होता है और न ओले या पत्थर ही बरसते हैं।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में वर्णित इन्द्र स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।।२१।।

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