श्रीकृष्णस्तोत्र अष्टावक्रकृत
जो प्रातःकाल उठकर अष्टावक्र द्वारा
किये गये श्रीकृष्णस्तोत्र का पाठ करता है, वह
परम निर्वाणरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय
नहीं है।
श्रीकृष्ण स्तोत्रम् अष्टावक्रकृतम्
अष्टावक्र उवाच ।।
गुणातीत गुणाधार गुणबीज गुणात्मक ।
गुणीश गुणिनां बीज गुणायन नमोऽस्तु
ते ।।
सिद्धिस्वरूप
सिद्ध्येश सिद्धिबीज परात्पर ।
सिद्धिसिद्धिगुणाधीश सिद्धानां
गुरवे नमः ।।
हे वेदबीज वेदज्ञ वेदिन्वेदविदां वर
।
वेदाज्ञाताद्यरूपेश वेदाज्ञेश
नमोऽस्तु ते ।।
ब्रह्मानन्तेश शेषेन्द्र
धर्मादीनामधीश्वर ।
सर्व सर्वेश शर्वेश बीजरूप नमोऽस्तु
ते ।।
प्रकृते प्राकृत प्रज्ञ प्रकृतीश
परात्पर ।
संसारवृक्ष तद्बीज फलरूप नमोऽस्तु
ते ।।
सृष्टिस्थित्यन्तबीजेश सृष्टिस्थित्यन्तकारण
।
महाविराट्तरोर्बीज राधिकेश नमोऽस्तु
ते ।।
अहो यस्य त्रयः स्कन्धा
ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
शाखाप्रशाखा वेदाद्यास्तपांसि
कुसुमानि च ।।
संसारविफला एव प्रकृत्यंकुरमेव च ।
तदाधार निराधार सर्वाधार नमोऽस्तु
ते ।।
तेजोरूप निराकार प्रत्यक्षानूहमेव च
।
सर्वाकारातिप्रत्यक्ष स्वेच्छामय
नमोऽस्तु ते ।।
इत्युक्त्वा स मुनिश्रेष्ठो निपत्य
चरणाम्बुजे ।
प्राणांस्तत्याज योगेन तयोः
प्रत्यक्ष एव च ।।
पपात तत्र तद्देहः पादपद्मसमीपतः ।
तत्तेजश्च समुत्तस्थौ
ज्वलदग्निशिखोपमम् ।।
सप्ततालप्रमाणं तु चोत्थाय च पपात ह
।
भ्रामं भ्रामं च परितो लीनं
चाभूत्पदाम्बुजे ।।
अष्टावक्रकृतं स्तोत्रं
प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
परं निर्वाण मोक्षं च समाप्नोति न
संशयः ।।
प्राणाधिको मुमुक्षूणां
स्तोत्रराजश्च नारद ।
हरिणाऽहो पुरा दत्तो वैकुण्ठे
शंकराय च ।।
इति श्रीब्रह्मववर्ते महापुराणे
श्रीकृष्णजन्मखण्डे श्रीकृष्ण स्तोत्रं अष्टावक्रकृतं ।। २९ ।।
अष्टावक्रकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र भावार्थ सहित
अष्टावक्र उवाच ।।
गुणातीत गुणाधार गुणबीज गुणात्मक ।
गुणीश गुणिनां बीज गुणायन नमोऽस्तु
ते ।।
अष्टावक्र बोले–
प्रभो! आप तीनों गुणों से परे होकर भी समस्त गुणों के आधार हैं।
गुणों के कारण गुणस्वरूप हैं। गुणियों के स्वामी तथा उनके आदिकारण हैं। गुणनिधे!
आपको नमस्कार है।
सिद्धिस्वरूप
सिद्ध्येश सिद्धिबीज परात्पर ।
सिद्धिसिद्धिगुणाधीश सिद्धानां
गुरवे नमः ।।
आप सिद्धिस्वरूप हैं। समस्त
सिद्धियाँ आपकी अंशस्वरूपा हैं। आप सिद्धि के बीज और परात्पर हैं। सिद्धि और
सिद्धगणों के अधीश्वर हैं तथा समस्त सिद्धों के गुरु हैं;
आपको नमस्कार है।
हे वेदबीज वेदज्ञ वेदिन्वेदविदां वर
।
वेदाज्ञाताद्यरूपेश वेदाज्ञेश
नमोऽस्तु ते ।।
वेदों के बीजस्वरूप परमात्मन! आप
वेदों के ज्ञाता, वेदवान और
वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। वेद भी आपको पूर्णतः नहीं जान सके हैं। रूपेश्वर! आप
वेदज्ञों के भी स्वामी हैं; आपको नमस्कार है।
ब्रह्मानन्तेश शेषेन्द्र
धर्मादीनामधीश्वर ।
सर्व सर्वेश शर्वेश बीजरूप नमोऽस्तु
ते ।।
आप ब्रह्मा,
अनन्त, शिव, शेष,
इन्द्र और धर्म आदि के अधिपति हैं। सर्वस्वरूप सर्वेश्वर! आप शर्व
(महादेव जी)– के भी स्वामी हैं; सबके
बीजरूप गोविन्द! आपको नमस्कार है।
प्रकृते प्राकृत प्रज्ञ प्रकृतीश
परात्पर ।
संसारवृक्ष तद्बीज फलरूप नमोऽस्तु
ते ।।
आप ही प्रकृति और प्राकृत पदार्थ
हैं। प्राज्ञ, प्रकृति के स्वामी तथा परात्पर
हैं। संसार-वृक्ष तथा उसके बीज और फलरूप हैं। आपको नमस्कार है।
सृष्टिस्थित्यन्तबीजेश सृष्टिस्थित्यन्तकारण
।
महाविराट्तरोर्बीज राधिकेश नमोऽस्तु
ते ।।
सृष्टि,
पालन और संहार के बीजस्वरूप ब्रह्मा आदि के भी ईश्वर! आप ही सृष्टि,
पालन और संहार के कारण हैं। महाविराट (नारायण)– रूपी वृक्ष के बीज राधावल्लभ! आपको नमस्कार है।
अहो यस्य त्रयः स्कन्धा
ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
शाखाप्रशाखा वेदाद्यास्तपांसि
कुसुमानि च ।।
अहो! आप जिसके बीज हैं,
उस महाविराट्रूपी वृक्ष के तीन स्कन्ध (तने) हैं– ब्रह्मा, विष्णु और शिव। वेदादि शास्त्र उसकी
शाखा-प्रशाखाएँ हैं और तपस्या पुष्प हैं।
संसारविफला एव प्रकृत्यंकुरमेव च ।
तदाधार निराधार सर्वाधार नमोऽस्तु
ते ।।
जिसका फल संसार है,
वह वृक्ष प्रकृति का कार्य है। आप ही उसके भी आधार हैं, पर आपका आधार कोई नहीं है। सर्वाधार! आपको नमस्कार है।
तेजोरूप निराकार प्रत्यक्षानूहमेव च
।
सर्वाकारातिप्रत्यक्ष स्वेच्छामय
नमोऽस्तु ते ।।
तेजःस्वरूप! निराकार! आप तक
प्रत्यक्ष प्रमाण की पहुँच नहीं है। सर्वरूप! प्रत्यक्ष के अविषय! स्वेच्छामय
परमेश्वर! आपको नमस्कार है।
इत्युक्त्वा स मुनिश्रेष्ठो निपत्य
चरणाम्बुजे ।
प्राणांस्तत्याज योगेन तयोः
प्रत्यक्ष एव च ।।
यों कहकर मुनिश्रेष्ठ अष्टावक्र
श्रीकृष्ण के चरणकमलों में पड़ गये और श्रीराधा तथा गोविन्द दोनों के सामने ही
उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।
पपात तत्र तद्देहः पादपद्मसमीपतः ।
तत्तेजश्च समुत्तस्थौ
ज्वलदग्निशिखोपमम् ।।
उनका शरीर भगवान के पाद-पद्मों के
समीप गिर पड़ा और उससे प्रज्वलित अग्नि-शिखा के समान उनका तेज ऊपर को उठा।
सप्ततालप्रमाणं तु चोत्थाय च पपात ह
।
भ्रामं भ्रामं च परितो लीनं
चाभूत्पदाम्बुजे ।।
वह सात ताड़ के बराबर ऊँचा उठकर
भगवान के चारों तरफ घूमकर पुनः उनके चरणों में गिरा और वहीं विलीन हो गया।
अष्टावक्रकृतं स्तोत्रं
प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
परं निर्वाण मोक्षं च समाप्नोति न
संशयः ।।
जो प्रातःकाल उठकर अष्टावक्र द्वारा
किये गये स्तोत्र का पाठ करता है, वह परम
निर्वाणरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं
है।
प्राणाधिको मुमुक्षूणां
स्तोत्रराजश्च नारद ।
हरिणाऽहो पुरा दत्तो वैकुण्ठे
शंकराय च ।।
नारद! यह स्तोत्रराज मुमुक्षुजनों
के लिये प्राणों से भी बढ़कर है। श्रीहरि ने पहले इसे वैकुण्ठधाम में भगवान शंकर
को दिया था।
इति श्रीब्रह्मववर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे श्रीकृष्ण स्तोत्र अष्टावक्रकृत ।। २९ ।।
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