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कर्मकाण्ड

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श्रीकृष्ण स्तोत्र

श्रीकृष्ण स्तोत्र

श्रीकृष्ण का यह अद्भुत स्तोत्र सुखद, मोक्षप्रद, सब साधनों का सारभूत तथा भवबन्धन को छुटकारा दिलाने वाला है।

जब इन्द्र का अभिमान दूर हो गया तब श्रीहरि को प्रणाम करके इन्द्र अपने गणों के साथ चले गये; तदनन्तर गुफा में छिपे हुए लोग वहाँ से निकलकर अपने घर को गये। उन सबने श्रीकृष्ण को परिपूर्णतम परमात्मा माना। व्रजवासियों को आगे करके श्रीकृष्ण अपने घर को गये। नन्द के सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया। उनके नेत्रों में भक्ति के आँसू भर आये और उन्होंने सनातन पूर्णब्रह्मस्वरूप अपने उस पुत्र का स्तवन किया।

श्रीकृष्ण स्तोत्रम्

श्रीकृष्ण स्तोत्रम्  

नन्द उवाच ।।

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोनमः ।।

नमो ब्रह्मण्यदेवाय ब्रह्मणे परमात्मने ।। १ ।।

नन्द बोलेजो ब्राह्मणों के हितकारी, गौओं तथा ब्राह्मणों के हितैषी तथा समस्त संसार का भला चाहने वाले हैं; उन सच्चिदानन्दमय गोविन्द देव को बारंबार नमस्कार है। प्रभो! आप ब्राह्मणों का प्रिय करने वाले देवता हैं; स्वयं ही ब्रह्म और परमात्मा हैं; आपको नमस्कार है।

अनन्तकोटिब्रह्माण्डधामधाम्ने नमोऽस्तु ते ।

नमो मत्स्यादिरूपाणां जीवरूपायसाक्षिणे ।।२ ।।

आप अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड धार्मों के भी धाम हैं; आपको सादर नमस्कार है। आप मत्स्य आदि रूपों के जीवन तथा साक्षी हैं।

निर्लिप्ताय निर्गुणाय निराकाराय ते नमः।

अतिसूक्ष्मस्वरूपाय स्थूलात्स्थूलतमाय च ।।३ ।।

आप निर्लिप्त, निर्गुण और निराकार परमात्मा को नमस्कार है। आपका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। आप स्थूल से भी अत्यन्त स्थूल हैं।

सर्वेश्वराय सर्वाय तेजोरूप नमोऽस्तु ते ।

अतिप्रत्यक्षरूपाय ध्यानासाध्याय योगिनाम् ।।४ ।।

सर्वेश्वर, सर्वरूप तथा तेजोमय हैं; आपको नमस्कार है। अत्यन्त सूक्ष्म-स्वरूपधारी होने के कारण आप योगियों के भी ध्यान में नहीं आते हैं।

ब्रह्मविष्णुमहेशानां वन्द्याय नित्यरूपिणे ।

धाम्ने चतुर्ण्णां वर्णानां युगेष्वेव चतुर्षु च ।।५ ।।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी आपकी वन्दना करते हैं; आप नित्य-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है। आप चार युगों में चार वर्णों का आश्रय लेते हैं।

शुक्लरक्तपीतश्यामाभिधानगुणशालिने ।

योगिने योगरूपाय गुरवे योगिनामपि ।।६ ।।

इसलिये युग-क्रम से शुक्ल, रक्त, पीत और श्याम नामक गुण से सुशोभित होते हैं; आपको नमस्कार है। आप योगी, योगरूप और योगियों के भी गुरु हैं।

सिद्धेश्वराय सिद्धाय सिद्धानां गुरवे नमः ।

यं स्तोतुमक्षमो ब्रह्मा विष्णुर्यं स्तोतुमक्षमः ।।७ ।।

यं स्तोतुमक्षमो रुद्रः शेषो यं स्तोतुमक्षमः ।

यं स्तोतुमक्षमो धर्मो यं स्तोतुमक्षमो रविः ।।८ ।।

यं स्तोतुमक्षमो लम्बोदरश्चापि षडाननः ।

यं स्तोतुमक्षमाः सर्वे मुनयः सनकादयः ।।९ ।।

कपिलो न क्षमः स्तोतुं सिद्धेन्द्राणां गुरोर्गुरुः।

न शक्तौ स्तवनं कर्तुं नरनारायणावृषी ।।१० ।।

सिद्धेश्वर, सिद्ध एवं सिद्धों के गुरु हैं; आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शेषनाग, धर्म, सूर्य, गणेश, षडानन, सनकादि समस्त मुनि, सिद्धेश्वरों के गुरु के भी गुरु कपिल तथा नर-नारायण ऋषि भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं।

अन्ये जडधियः के वा स्तोतुं शक्ताः परात्परम् ।

वेदा न शक्ता नो वाणी न च लक्ष्मीः सरस्वती ।।११ ।।

न राधा स्तवने शक्ता किं स्तुवन्ति विपश्चितः ।

क्षमस्व निखिलं ब्रह्मन्नपराधं क्षणेक्षणे ।। १२ ।।

उन परात्पर प्रभु का स्तवन दूसरे कौन-से जड़बुद्धि प्राणी कर सकते हैं? वेद, वाणी, लक्ष्मी, सरस्वती तथा राधा भी जिनकी स्तुति नहीं कर सकतीं; उन्हीं का स्तवन दूसरे विद्वान पुरुष क्या कर सकते हैं? ब्रह्मन! मुझसे क्षण-क्षण में जो अपराध बन रहा है, वह सब आप क्षमा करें।

रक्ष मां करुणा सिन्धो दीनबन्धो भवार्णवे ।

पुरा तीर्थे तपस्तप्त्वा पुत्रः प्राप्तः सनातनः ।। १३ ।।

करुणासिन्धो! दीनबन्धो! भवसागर में पड़े हुए मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये। प्रभो! पूर्वकाल में तीर्थस्थान में तपस्या करके मैंने आप सनातन पुरुष को पुत्ररूप में प्राप्त किया है।

स्वकीयचरणाम्भोजे भक्तिं दास्यं च देहि मे ।

ब्रह्मत्वममरत्वं वा सालोक्यादिकमेव वा ।।१४ ।।

त्वत्पदाम्भोजदास्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।

इन्द्रत्वं वा सुरत्वं वा संप्राप्तिं सिद्धिस्वर्गयोः ।।१५ ।।

राजत्वं चिरजीवित्वं सुधियो गणयन्ति किम् ।

एतद्यत्कथितं सर्वं ब्रह्मत्वादिकमीश्वर ।। १६ ।।

अब आप मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति और दास्य प्रदान कीजिये। ब्रह्मत्व, अमरत्व अथवा सालोक्य आदि चार प्रकार के मोक्ष आपके चरणकमलों की दास्य-भक्ति की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है: फिर इन्द्रपद, देवपद, सिद्धि-प्राप्ति, स्वर्गप्राप्ति, राजपद तथा चिरंजीवित्व को विद्वान पुरुष किस गिनती में रखते हैं? (क्या समझते हैं?) ईश्वर! यह सब जो पूर्वकथित ब्रह्मत्व आदि पद हैं।

भक्तसङ्गक्षणार्द्धस्य नोपमा ते किमर्हति ।

त्वद्भक्तो यस्त्वत्सदृशः कस्त्वां तर्कितुमीश्वरः ।।१७ ।।

वे आपके भक्त के आधे क्षण के लिये प्राप्त हुए संग की क्या समानता कर सकते हैं! कदापि नहीं। जो आपका भक्त है, वह भी आपके समान हो जाता है। फिर आपके महत्त्व का अनुमान कौन लगा सकता है?

क्षणार्द्धालापमात्रेण पारं कर्तुं स चेश्वरः ।

भक्तसङ्गाद्भवत्येव भक्तिं कर्तुमनेकधा ।। १८ ।।

आपका भक्त आधे क्षण के वार्तालाप मात्र से किसी को भी भवसागर से पार कर सकता है। आपके भक्तों के संग से भक्ति का विविध अंकुर अवश्य उत्पन्न होता है।

त्वद्भक्तजलदालापजलसेकेन वर्द्धते ।

अभक्तालापतापात्तु शुष्कतां याति तत्क्षणम् ।।१९ ।।

त्वद्गुणस्मृतिसेकाच्च वर्द्धते तत्क्षणे स्फुटम् ।

त्वद्भक्त्यङ्कुरमुद्भूतं स्फीतं मानसजं परम् ।। २० ।।

उन हरिभक्तरूप मेघों के द्वारा की गयी वार्तालापरूपी जल की वर्षा से सींचा जाकर भक्ति का वह अंकुर बढ़ता है। जो भगवान के भक्त नहीं हैं, उनके आलापरूपी ताप से वह अंकुर तत्काल सूख जाता है और भक्त एवं भगवान के गुणों की स्मृतिरूपी जल से सींचने पर वह उसी क्षण स्पष्ट रूप से बढ़ने लगता है। उनमें उत्पन्न आपकी भक्ति का अंकुर जब प्रकट होकर भलीभाँति बढ़ जाता है।

न नश्यं वर्द्धनीयं च नित्यंनित्यं क्षणेक्षणे ।

ततः संप्राप्य ब्रह्मत्वं भक्तस्य जीवनाय च ।। २१ ।।

ददात्येव फलं तस्मै हरिदास्यमनुत्तमम् ।

संप्राप्य दुर्लभं दास्यं यदि दासो बभूव ह ।। २२ ।।

सुनिश्चयेन तेनैव जितं सर्वं भयादिकम् ।

इत्येवमुक्त्वा भक्त्या च नन्दस्तस्थौ हरेः पुरः ।। २३ ।।

तब वह नष्ट नहीं होता। उसे प्रतिदिन और प्रतिक्षण बढ़ाते रहना चाहिये। तदनन्तर उस भक्त को ब्रह्मपद की प्राप्ति कराकर भी उसके जीवन के लिये भगवान उसे अवश्य ही परम उत्तम दास्यरूप फल प्रदान करते हैं। यदि कोई दुर्लभ दास्यभाव को पाकर भगवान का दास हो गया तो निश्चय ही उसी ने समस्त भय आदि को जीता है। यों कहकर नन्द श्रीहरि के सामने भक्तिभाव से खड़े हो गये।

श्रीकृष्ण स्तोत्रम्  फलश्रुति

प्रसन्नवदनः कृष्णो ददौ तस्मै तदीप्सितम् ।

एवं नन्दकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ।।२४ ।।

तब प्रसन्न हुए श्रीकृष्ण ने उन्हें मनोवांछित वर दिया। इस प्रकार नन्द द्वारा किये गये स्तोत्र का जो भक्तिभाव से प्रतिदिन पाठ करता है।

सुदृढां भक्तिमाप्नोति सद्यो दास्यं लभेद्धरेः ।

तपस्तप्त्वा यदा द्रोणस्तीर्थे च धरया सह ।।२५ ।।

वह शीघ्र ही श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और दास्यभाव प्राप्त कर लेता है। जब द्रोण नामक वसु ने अपनी पत्नी धरा के साथ तीर्थ में तपस्या की।

स्तोत्रं तस्मै पुरा दत्तं ब्रह्मणा तत्सुदुर्लभम् ।

हरेः षडक्षरो मन्त्रः कवचं सर्वरक्षणम् ।।२६ ।।

इह सौभरिणा दत्तं तस्मै तुष्टेन पुष्करे ।

तदेव कवचं स्तोत्रं स च मन्त्रः सुदुर्लभः।।२७ ।।

ब्रह्मणोंऽशेन मुनिना नन्दाय च तपस्यते ।

मन्त्रः स्तोत्रं च कवचमिष्टदेवो गुरुस्तथा ।। २८ ।।

या यस्य विद्या प्राचीना न तां त्यजति निश्चितम् ।।

तब ब्रह्माजी ने उन्हें यह परम दुर्लभ स्तोत्र प्रदान किया था। सौभरि मुनि ने पुष्कर में संतुष्ट होकर ब्रह्माजी को श्रीहरि का षडक्षर-मन्त्र तथा सर्वरक्षणकवच प्रदान किया था। वही कवच, वही स्तोत्र और वही परम दुर्लभ मन्त्र ब्रह्मा के अंशभूत गर्ग मुनि ने तपस्या में लगे हुए नन्द को दिया था। पूर्वकाल में जिसके लिये जो मन्त्र, स्तोत्र, कवच, इष्टदेव, गुरु और विद्या प्राप्त होती है, वह पुरुष उस मन्त्र आदि तथा विद्या को निश्चय ही नहीं छोड़ता है।  

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे श्रीकृष्ण स्तोत्रम्  सम्पूर्णं ।।२१।।

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