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श्रीकृष्ण स्तोत्र धर्मकृत्
श्रीकृष्णस्तोत्रं
ब्रह्मवैवर्तपुराणे धर्मकृतम् - नैमिषारण्य में आये हुए सौतिजी शौनक जी को ब्रह्म
वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड अध्याय-३ में श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ की कथा
सुनाते हैं कि – श्रीकृष्ण के अंगों से भगवान नारायण, भगवान शिव और ब्रह्मा जी प्रकट
हुए। सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के
वक्षःस्थल से कोई एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके मुख पर मन्द
मुस्कान की छटा छा रही थी। उसकी अंगकान्ति श्वेत वर्ण की थी और उसने अपने मस्तक पर
जटा धारण कर रखी थी। वह सबका साक्षी, सर्वज्ञ तथा सबके समस्त
कर्मों का द्रष्टा था। उसका सर्वत्र समभाव था। उसके हृदय में सबके प्रति दया भरी
थी। वह हिंसा और क्रोध से सर्वथा अछूता था। उसे धर्म का ज्ञान था। वह धर्म स्वरूप,
धर्मिष्ठ तथा धर्म प्रदान करने वाला था। वही धर्मात्माओं में ‘धर्म’ नाम से विख्यात है। परमात्मा श्रीकृष्ण की कला
से उसका प्रादुर्भाव हुआ है, श्रीकृष्ण के सामने खड़े हुए उस
पुरुष ने पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर प्रणाम किया और सम्पूर्ण कामनाओं के दाता
उन सर्वेश्वर परमात्मा का स्तवन आरम्भ किया।
श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे धर्मकृतम्
श्रीधर्म उवाच ।। ।।
कृष्णं विष्णुं वासुदेवं
परमात्मानमीश्वरम् ।।
गोविन्दं परमानन्दमेकमक्षरमच्युतम्
।। ४५ ।।
गोपेश्वरं च गोपीशं गोपं गोरक्षकं
विभुम् ।।
गवामीशं च गोष्ठस्थं
गोवत्सपुच्छधारिणम् ।।४६।।
गोगोपगोपीमध्यस्थं प्रधानं
पुरुषोत्तमम् ।
वन्देऽनवद्धमनघं श्यामं शान्तं
मनोहरम् ॥ ४७।।
धर्म बोले –
जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, इसलिये ‘कृष्ण’ कहलाते हैं,
सर्वव्यापी होने के कारण जिनकी ‘विष्णु’
संज्ञा है, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम
‘वासुदेव’ है, जो
‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’
हैं, ‘गोविन्द’, ‘परमानन्द’,
‘एक’, ‘अक्षर’, ‘अच्युत’,
‘गोपेश्वर’, ‘गोपीश्वर’, ‘गोप’, ‘गोरक्षक’, ‘विभु’,
‘गौओं के स्वामी’, ‘गोष्ठ निवासी’, ‘गोवत्स-पुच्छधारी’, ‘गोपों और गोपियों के मध्य
विराजमान’, ‘प्रधान’, ‘पुरुषोत्तम’,
‘नवघनश्याम’, ‘रासवास’, और
‘मनोहर’, आदि नाम धारण करते हैं,
उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
इत्युच्चार्य्य
समुत्तिष्ठन्रत्नसिंहासने वरे ।।
ब्रह्मविष्णुमहेशांस्तान्सम्भाष्य स
उवास ह।।४८।।
ऐसा कहकर धर्म उठकर खड़े हुए। फिर
वे भगवान की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु और
महादेव जी के साथ वार्तालाप करके उस श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे।
चतुर्विशतिनामानि
धर्मवक्त्रोद्गतानि च।।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय स सुखी सर्वतो
जयी ।।४९।।
जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर धर्म के
मुख से निकले हुए इन चौबीस नामों का पाठ करता है, वह सर्वथा सुखी और सर्वत्र विजयी होता है।
मृत्युकाले हरेर्नाम तस्य साध्यं
लभेद् धुवम् ।।
स यात्यन्ते हरेः स्थानं हरिदास्यं
भवेद्ध्रुवम् ।।1.3.५०।।
मृत्यु के समय उसके मुख से निश्चय
ही हरि नाम का उच्चारण होता है। अतः वह अन्त में श्रीहरि के परम धाम में जाता है
तथा उसे श्रीहरि की अविचल दास्य-भक्ति प्राप्त होती है।
नित्यं धर्मस्तं घटते नाधर्मे
तद्रतिर्भवेत् ।।
चतुर्वर्ग फलं तस्य शश्वत्करगतं
भवेत्।।५१।।
उसके द्वारा सदा धर्मविषयक ही
चेष्टा होती है। अधर्म में उसका मन कभी नहीं लगता। धर्म,
अर्थ, काम और मोक्षरूपी फल सदा के लिये उसके
हाथ में आ जाता है।
तं दृष्ट्वा सर्वपापानि पलायन्ते
भयेन च।।
भयानि चैव दुःखानि
वैनतेयमिवोरगाः।।५२।।
उसे देखते ही सारे पाप,
सम्पूर्ण भय तथा समस्त दुःख उसी तरह भय से भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ पर दृष्टि पड़ते ही सर्प पलायन कर जाते हैं।
इति ब्रह्मवैवर्त्ते धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।
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