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श्रीकृष्णस्तोत्रम् सरस्वतीकृतं
श्रीकृष्णस्तोत्रं
ब्रह्मवैवर्तपुराणे सरस्वतीकृतम् - नैमिषारण्य में आये हुए सौतिजी शौनक जी को
ब्रह्म वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड अध्याय-३ में श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ की
कथा सुनाते हैं कि – श्रीकृष्ण के अंगों
से भगवान नारायण, भगवान शिव, ब्रह्माजी
और धर्म प्रकट हुए। सौति कहते हैं – तत्पश्चात् धर्म के
वामपार्श्व से एक रूपवती कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात दूसरी
लक्ष्मी के समान सुन्दरी थी। वह ‘मूर्ति’ नाम से विख्यात हुई। तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के मुख से एक शुक्ल वर्ण
वाली देवी प्रकट हुई, जो वीणा और पुस्तक धारण करने वाली थी।
वह करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न थी। उसके नेत्र शरत्काल के
प्रफुल्ल कमलों का सौन्दर्य धारण करते थे। उसने अग्नि में शुद्ध किये गये उज्ज्वल
वस्त्र धारण कर रखे थे और वह रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी। उसके मुख पर मन्द-मन्द
मुस्कराहट छा रही थी। दन्तपंक्ति बड़ी सुन्दर दिखायी देती थी। अवस्था सोलह वर्ष की
थी। वह सुन्दरियों में भी श्रेष्ठ सुन्दरी थी। श्रुतियों, शास्त्रों
और विद्वानों की परम जननी थी। वह वाणी की अधिष्ठात्री, कवियों
की इष्टदेवी, शुद्ध सत्त्वस्वरूपा और शान्तरूपिणी सरस्वती
थी। गोविन्द के सामने खड़ी होकर पहले तो उसने वीणा वादन के साथ उनके नाम और गुणों
का सुन्दर कीर्तन किया, फिर वह नृत्य करने लगी। श्रीहरि ने
प्रत्येक कल्प के युग-युग में जो-जो लीलाएँ की हैं, उन सबका
गान करते हुए सरस्वती ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।
श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे सरस्वतीकृतम्
सरस्वत्युवाच ।।
रासमण्डलमध्यस्थं
रासोल्लाससमुत्सुकम् ।।
रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम्
।। 1.3.६० ।।
सरस्वती बोलीं - ‘जो रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान हैं, रासोल्लास
के लिये सदा उत्सुक रहने वाले हैं, रत्नसिंहासन पर आसीन हैं,
रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं,
रासेश्वरं रासकरं वरं
रासेश्वरीश्वरम् ।।
रासाधिष्ठातृदैवं च वन्दे
रासविनोदिनम् ।।६१।।
रासेश्वर एवं श्रेष्ठ रासकर्ता हैं,
रासेश्वर राधा के प्राणवल्लभ हैं, रास के
अधिष्ठाता देवता हैं तथा रासलीला द्वारा मनोविनोद करने वाले हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करती हूँ।
रासायासपरिश्रान्तं रासरासविहारिणम्
।।
रासोत्सुकानां गोपीनां कान्तं
शान्तं मनोहरम्।।६२।।
जो रासलीला जनित श्रम से थक गये हैं,
प्रत्येक रास में विहार करने वाले हैं तथा रास के लिये उत्कण्ठित
हुई गोपियों के प्राणवल्लभ हैं, उन शान्त मनोहर श्रीकृष्ण को
मैं प्रणाम करती हूँ।’
प्रणम्य च तमित्युक्त्वा
प्रहृष्टवदना सती ।।
उवास सा सकामा च रत्नसिंहासने वरे
।। ६३ ।।
यों कहकर प्रसन्न मुखवाली सती
सरस्वती ने भगवान को प्रणाम किया और सफलमनोरथ हो उनकी आज्ञा से वे श्रेष्ठ रत्नमय
सिंहासन पर बैठीं।
इति वाणीकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय
यः पठेत ।।
बुद्धिमान्धनवान्सोऽपि
विद्यावान्पुत्रवान्सदा ।।६४।।
जो प्रातःकाल उठकर वाणी द्वारा किये
गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सदा
बुद्धिमान, धनवान, विद्वान और पुत्रवान
होता है।
इति ब्रह्मवैवर्ते सरस्वतीकृतं
श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।
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