Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2021
(800)
-
▼
October
(35)
- दीपलक्ष्मी स्तव
- धन्वन्तरि अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
- धन्वन्तरि
- धन्वन्तरि स्तोत्रम्
- अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम्
- मूर्तिस्तोत्र एवं द्वादशाक्षर स्तोत्र
- लक्ष्मी स्तोत्र
- लक्ष्मी कवच
- शिवस्तवराज स्तोत्र
- संसार पावन कवच
- श्रीकृष्ण स्तोत्र दुर्गा कृतम्
- श्रीकृष्णस्तोत्रम् सरस्वतीकृतं
- श्रीकृष्ण स्तोत्र धर्मकृत्
- महालक्ष्मी स्तोत्र
- श्रीकृष्णस्तोत्रम् ब्रह्मकृत
- श्रीकृष्णस्तोत्र शम्भुकृत
- नारायणकृत श्रीकृष्णस्तोत्रम्
- मारुति स्तोत्रम्
- मारुति स्तोत्र
- विश्वावसु गन्धर्वराज कवच स्तोत्र
- शूलिनी दुर्गा सुमुखीकरण स्तोत्र
- शूलिनी दुर्गा
- तन्त्रोक्त लक्ष्मी कवच
- लक्ष्मी कवच
- विष्णुकृत देवी स्तोत्र
- अपराजिता स्तोत्र
- भावनोपनिषत्
- दुर्गाभुवन वर्णन
- दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र
- ब्रह्माण्डमोहनाख्यं दुर्गाकवचम्
- ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्
- श्रीदुर्गामानस पूजा
- देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्
- वेदोक्त रात्रिसूक्तम्
- तन्त्रोक्त रात्रिसूक्तम्
-
▼
October
(35)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
विष्णुकृत देवी स्तोत्र
श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण के तृतीयस्कन्धान्तरगत
चतुर्थ अध्याय में वर्णित विष्णुकृत देवी स्तोत्र अथवा ज्ञान-दायिनी सिद्ध
देवी-स्तुति के पाठ से श्रीदेवी माँ संसार-समुद्र से रक्षा करती और सब दुःखों को
दूर कर देती है । संसार में जब रागात्मक वृत्ति बढ़ जाती है,
तो उससे विनाश के समय अन्त में माँ भुवनेश्वरी ही बचाती है । इस
दुःख की घड़ी में माँ भगवती रक्षा करती है । माँ आद्यशक्ति ही महा-विद्या, सर्वार्थ-दायिनि
और ज्ञान का प्रकाश देनेवाली है ।
देवीस्तोत्रं विष्णुनाकृतम्
श्रीभगवानुवाच
-
नमो
देव्यै प्रकृत्यै च विधात्र्यै सततं नमः ।
कल्याणै
कामदायै च वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ॥ १॥
सच्चिदानन्दरूपिण्यै
संसारारणये नमः ।
पञ्चकृत्यविधात्र्यै
ते भुवनेश्यै नमो नमः ॥ २॥
सर्वाधिष्टानरूपायै
कूटस्थायै नमो नमः ।
अर्धमात्रार्थभूतायै
हृल्लेखायै नमो नमः ॥ ३॥
ज्ञातं
मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं
त्वत्तोऽस्य सम्भवलयावपि मातरद्य ।
शक्तिश्च तेऽस्य करणे विततप्रभावा
ज्ञाताऽधुना सकललोकमयीति नूनम् ॥ ४॥
विस्तार्य सर्वमखिलं सदसद्विकारं
सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले ।
तत्त्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च
भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ॥ ५॥
न त्वामृते किमपि वस्तुगतं विभाति
व्याप्यैव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि ।
शक्तिं विना व्यवहृतो पुरुषोऽप्यशक्तो
वम्भण्यते जननि बुद्धिमता जनेन ॥ ६॥
प्रीणासि विश्वमखिलं सततं प्रभावैः
स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटीकरोषि ।
अत्स्येव देवि तरसा किल कल्पकाले
को वेद देवि चरितं तव वै भवस्य ॥ ७॥
त्राता वयं जननि ते मधुकैटभाभ्यां
लोकाश्च ते सुवितताः खलु दर्शिता वै ।
नीताः सुखस्य भवने परमां च कोटिं
यद्दर्शनं तव भवानि महाप्रभावम् ॥ ८॥
नाहं भवो न च विरिञ्चि विवेद मातः
कोऽन्यो हि वेत्ति चरितं तव दुर्विभाव्यम् ।
कानीह सन्ति भुवनानि महाप्रभावे
ह्यस्मिन्भवानि रचिते रचनाकलापे ॥ ९॥
अस्माभिरत्र भुवने हरिरन्य एव
दृष्टः शिवः कमलजः प्रथितप्रभावः ।
अन्येषु देवि भुवनेपु न सन्ति किं ते
किं विद्म देवि विततं तव सुप्रभावम् ॥ १०॥
याचेऽम्ब तेऽङ्घ्रिकमलं प्रणिपत्य कामं
चित्ते सदा वसतु रूपमिदं तवैतत् ।
नामापि वक्त्रकुहरे सततं तवैव
सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ॥ ११॥
भृत्योऽयमस्ति सततं मयि भावनीयं
त्वां स्वामिनीति मनसा ननु चिन्तयामि ।
एषाऽऽवयोरविरता किल देवि भूया-
द्व्याप्तिः सदैव जननी सुतयोरिवार्थे ॥ १२॥
त्वं वेत्सि सर्वमखिलं भुवनप्रपञ्चं
सर्वज्ञता परिसमाप्तिनितान्तभूमिः ।
किं पामरेण जगदम्ब निवेदनीयं
यद्युक्तमाचर भवानि तवेङ्गितं स्यात् ॥ १३॥
ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरुमापतिश्च
संहारकारक इयं तु जने प्रसिद्धिः ।
किं सत्यमेतदपि देवि तवेच्छया वै
कर्तुं क्षमा वयमजे तव शक्तियुक्ताः ॥ १४॥
धात्री धराधरसुते न जगद्बिभर्ति
आधारशक्तिरखिलं तव वै बिभर्ति ।
सूर्योऽपि भाति वरदे प्रभया युतस्ते
त्वं सर्वमेतदखिलं विरजा विभासि ॥ १५॥
ब्रह्माऽहमीश्वरवरः किल ते प्रभावा-
त्सर्वे वयं जनियुता न यदा तु नित्याः ।
केऽन्ये सुराः शतमखप्रमुखाश्च नित्या
नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा ॥ १६॥
त्वं चेद्भवानि दयसे पुरुषं पुराणं
जानेऽहमद्य तव संनिधिगः सदैव ।
नोचेदहं विभुरनादिरनीह ईशो
विश्वात्मधीरिति तमःप्रकृतिः सदैव ॥ १७॥
विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां
शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव ।
त्वं कीर्तिकान्तिकमलामलतुष्टिरूपा
मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके ॥ १८॥
गायत्र्यसि प्रथमवेदकला त्वमेव
स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धमात्रा ।
आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्यै
सञ्जीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम् ॥ १९॥
मोक्षार्थमेव रचयस्यखिलं प्रपञ्चं
तेषां गताः खलु यतो ननु जीवभावम् ।
अंशा अनादिनिधनस्य किलानघस्य
पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरङ्गाः ॥ २०॥
जीवो यदा तु परिवेत्ति तवैव कृत्यं
त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् ।
नाट्यं नटेन रचितं वितथेऽन्तरङ्गे
कार्ये कृते विरमसे प्रथितप्रभावा ॥ २१॥
त्राता त्वमेव मम मोहमयाद्भवाब्धे-
स्त्वामम्बिके सततमेमि महार्तिदे च ।
रागादिभिर्विरचिते वितथे किलान्ते
मामेव पाहि बहुदुःखकरे च काले ॥ २२॥
नमो देवि महाविद्ये नमामि चरणौ तव ।
सदा ज्ञानप्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे ॥ २३॥
इति श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणे तृतीयस्कन्धान्तरगतम्
चतुर्थोऽध्याये विष्णुनाकृतं देवीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
विष्णुकृत देवी स्तोत्र भावार्थ सहित
श्रीभगवानुवाच
-
नमो
देव्यै प्रकृत्यै च विधात्र्यै सततं नमः ।
कल्याणै
कामदायै च वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ॥ १॥
प्रकृतिदेवी
को नमस्कार है। भगवती विधात्री को निरंतर नमस्कार है। जो कल्याणस्वरूपिणी है,
मनोरथ पूर्ण करनेवाली है तथा वृद्धि एवं सिद्धिस्वरूपा है, उन भगवती को बार-बार नमस्कार है।
सच्चिदानन्दरूपिण्यै
संसारारणये नमः ।
पञ्चकृत्यविधात्र्यै
ते भुवनेश्यै नमो नमः ॥ २॥
जिनका
सचिदानन्दमय विग्रह है, जो संसार की उत्पत्ति
स्थान है तथा जो सृष्टि, स्थिति, संहार,
अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पाँच कृत्यों का विधान करती है, उन भगवती भुवनेश्वरी को प्रणाम है।
सर्वाधिष्टानरूपायै
कूटस्थायै नमो नमः ।
अर्धमात्रार्थभूतायै
हृल्लेखायै नमो नमः ॥ ३॥
सर्वाधिष्ठानमयी
भगवती अर्थात् अखिल-विश्व के स्थावर और जंगम पदार्थों की निवास-स्वरुपा और परिपूर्णा
देवी को नमस्कार है। अर्ध-मात्रा वाले अक्षरों के अर्थ को धारण करने वाली और हृदय-देश
में लेखन-शक्ति के रुप में निवास करने वाली देवी को नमस्कार है।
ज्ञातं
मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं त्वत्तोऽस्य सम्भवलयावपि मातरद्य ।
शक्तिश्च
तेऽस्य करणे विततप्रभावा ज्ञाताऽधुना सकललोकमयीति नूनम् ॥ ४॥
माता!
मैं जान गया, यह सम्पूर्ण संसार तुम्हारे भीतर
विराजमान है। इस जगत की सष्टि और संहार तुम्ही से होते हैं। तुम्हारी ही व्यापक माया
इस संसार को सजाती है। अब मैंने तुम्हारा पूर्ण परिचय प्राप्त कर लिया कि तुम अखिलजगन्मयी
हो-इसमें कोई संदेह नहीं।
विस्तार्य
सर्वमखिलं सदसद्विकारं सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले ।
तत्त्वैश्च
षोडशभिरेव च सप्तभिश्च भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ॥ ५॥
सारा
विश्व सत् और असत्मय विकारस्वरूप है। तुम समय-समय पर चेतन पुरुष को इसका विस्तार दिखाया
करती हो। सोलह एवं सात तत्त्वों से तुम्हारा विग्रह सम्पन्न है। हमें इन्द्रजाल की
भाँति तुम्हारा साक्षात्कार होता है। यह निश्चय है कि तुम मनोरञ्जन के लिये लीला कर
रही हो।
न
त्वामृते किमपि वस्तुगतं विभाति व्याप्यैव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि ।
शक्तिं
विना व्यवहृतो पुरुषोऽप्यशक्तो वम्भण्यते जननि बुद्धिमता जनेन ॥ ६॥
तुम्हारी
शक्ति से वंचित होने पर कोई भी वस्तु अपने रूप में प्रतीत नहीं होती। तुम्हीं अखिल
विश्व में व्याप्त होकर विराजमान हो। माता ! बुद्धिमान पुरुष कहते हैं कि यदि तुम्हारी
शक्ति अलग हो जाय तो जगत की व्यवस्था करने में पुरुष को सफलता मिलनी असम्भव है।
प्रीणासि
विश्वमखिलं सततं प्रभावैः स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटीकरोषि ।
अत्स्येव
देवि तरसा किल कल्पकाले को वेद देवि चरितं तव वै भवस्य ॥ ७॥
तुम
अपने प्रभाव से सम्पूर्ण संसार को संतुष्ट करने में सदा संलग्न रहती हो । तुम्हारे
तेज से सारा जगत् उत्पन्न हुआ है। देवी! प्रलयकाल के समय तम संसार को भक्षण कर लेती
हो । भगवती! तम्हारे वैभव के चरित्र को कौन जान सकता है।
त्राता
वयं जननि ते मधुकैटभाभ्यां लोकाश्च ते सुवितताः खलु दर्शिता वै ।
नीताः
सुखस्य भवने परमां च कोटिं यद्दर्शनं तव भवानि महाप्रभावम् ॥ ८॥
माता!
तुमने मधु-कैटभ के चंगुल से हमारी रक्षा की। मणिद्वीप आदि विस्तृत लोक दिखलाये। उन
द्वीपों के आनन्द-भवन में हमें पहुँचाया और हम करोड़ों उत्तम दृश्य देखने में सफल हुए।
भवानी ! यह सब तुम्हारी ही महान् कृपा है।
नाहं
भवो न च विरिञ्चि विवेद मातः कोऽन्यो हि वेत्ति चरितं तव दुर्विभाव्यम् ।
कानीह
सन्ति भुवनानि महाप्रभावे ह्यस्मिन्भवानि रचिते रचनाकलापे ॥ ९॥
माता
! जब मैं,
शंकर और ब्रह्मा भी तुम्हारे अचिन्त्य प्रभाव से अपरिचित हैं,
तब दूसरा कौन है, जो उसे जान सके। तुम्हारे बनाये
हुए जितने भुवन हैं, तुम्हारे इस शक्तिसम्पन्न नख-दर्पण में हमें
उनकी झाँकी मिली है।
अस्माभिरत्र
भुवने हरिरन्य एव दृष्टः शिवः कमलजः प्रथितप्रभावः ।
अन्येषु
देवि भुवनेपु न सन्ति किं ते किं विद्म देवि विततं तव सुप्रभावम् ॥ १०॥
देवी
! हमने इस लोक में दूसरे ही ब्रह्मा, विष्णु
और शंकर देखे हैं। सब में वैसी ही असीम शक्ति थी। क्या अन्य लोकों में ये नहीं हैं
? देवी ! तुम्हारे इस फैले हुए अचिन्त्य ऐश्वर्य को हम कैसे जानें
?
याचेऽम्ब
तेऽङ्घ्रिकमलं प्रणिपत्य कामं चित्ते सदा वसतु रूपमिदं तवैतत् ।
नामापि
वक्त्रकुहरे सततं तवैव सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ॥ ११॥
माता
! चरण-कमलों में मस्तक झुकाकर मैं तुमसे यही माँगता हूँ कि तुम्हारा यह रूप निरन्तर
मेरे हृदय में बसा रहे, मेरे मुँह से तुम्हारा
नाम-कीर्तन होता रहे तथा नेत्र तुम्हारे चरणकमलों की झाँकी से कभी वञ्चित न हों।
भृत्योऽयमस्ति
सततं मयि भावनीयं त्वां स्वामिनीति मनसा ननु चिन्तयामि ।
एषाऽऽवयोरविरता
किल देवि भूया-द्व्याप्तिः सदैव जननी सुतयोरिवार्थे ॥ १२॥
आर्ये
! मेरे प्रति तुम्हारा यह भाव बना रहे कि यह मेरा सेवक है और मैं मन में सदा तुम्हें
अपनी स्वामिनी माना करूँ। माता-पुत्र की अपने भाँति यह अव्यभिचारिणी धारणा हम दोनों
के हृदय में सदा विद्यमान रहे।
त्वं
वेत्सि सर्वमखिलं भुवनप्रपञ्चं सर्वज्ञता परिसमाप्तिनितान्तभूमिः ।
किं
पामरेण जगदम्ब निवेदनीयं यद्युक्तमाचर भवानि तवेङ्गितं स्यात् ॥ १३॥
जगदम्बा
! तुम जगत के सम्पूर्ण प्रपञ्च को जानती हो; क्योंकि
सारे ज्ञान की अन्तिम सीमा तुम्हीं में समाप्त हो गयी है। मैं तुमसे क्या निवेदन करूँ
? भवानी ! जो उचित हो, वही करो। तुम्हारी इच्छा
के अनुकूल ही कार्य होना चाहिये।
ब्रह्मा
सृजत्यवति विष्णुरुमापतिश्च संहारकारक इयं तु जने प्रसिद्धिः ।
किं
सत्यमेतदपि देवि तवेच्छया वै कर्तुं क्षमा वयमजे तव शक्तियुक्ताः ॥ १४॥
ब्रह्मा
सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं
और रुद्र संहार तुम करते हैं; पर जब तुम्हारी इच्छा से हममें
शक्ति उत्पन्न होती है, तभी हम इस कार्य के सम्पादन के अधिकारी
होते हैं।
धात्री
धराधरसुते न जगद्बिभर्ति आधारशक्तिरखिलं तव वै बिभर्ति ।
सूर्योऽपि
भाति वरदे प्रभया युतस्ते त्वं सर्वमेतदखिलं विरजा विभासि ॥ १५॥
गिरिराजनन्दिनी!
तुम । सबकी माता हो। जगत का पालन करना और उसे टिकाये रखना तुम्हारा स्वाभाविक कार्य
है। वरदायिनी भगवती ! तुम्हारी शक्ति से सम्पन्न होने पर ही सूर्य जगत्को प्रकाशित
करता है। तुम शुद्धस्वरूपा हो, यह सारा संसार
तुम्हीं से उद्भासित हो रहा है ।
ब्रह्माऽहमीश्वरवरः
किल ते प्रभावा-त्सर्वे वयं जनियुता न यदा तु नित्याः ।
केऽन्ये
सुराः शतमखप्रमुखाश्च नित्या नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा ॥ १६॥
मैं,
ब्रह्मा और शंकर-हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं। हमारा आविर्भाव
और तिरोभाव हुआ करता है। केवल तुम्हीं नित्य हो, जगज्जननी हो,
प्रकृति और सनातनी देवी हो।
त्वं
चेद्भवानि दयसे पुरुषं पुराणं जानेऽहमद्य तव संनिधिगः सदैव ।
नोचेदहं
विभुरनादिरनीह ईशो विश्वात्मधीरिति तमःप्रकृतिः सदैव ॥ १७॥
विद्या
त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव ।
त्वं
कीर्तिकान्तिकमलामलतुष्टिरूपा मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके ॥ १८॥
यह
निश्चय है कि बुद्धिमान् मनष्यों की बुद्धि और शक्तिशाली जनों की शक्ति तुम्हीं हो।
कीर्ति,
कान्ति और कमला तुम्हारे नाम हैं। तुम शुद्धस्वरूपा हो । कभी तुम्हारा
मुख मलिन नहीं होता। मुक्ति देना तुम्हारा स्वभाव ही है। मर्त्यलोक में पधारने पर भी
तुम सदा विरक्त रहती हो ।
गायत्र्यसि
प्रथमवेदकला त्वमेव स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धमात्रा ।
आम्नाय
एव विहितो निगमो भवत्यै सञ्जीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम् ॥ १९॥
वेदों
का मुख्य विषय गायत्री तुम्ही हो। स्वाहा, स्वधा,
भगवती और ॐ-ये तुम्हारे रूप है। तुम्ही ने देवताओं की रक्षा के लिये
में वेदशास्त्रों का निर्माण किया है।
मोक्षार्थमेव
रचयस्यखिलं प्रपञ्चं तेषां गताः खलु यतो ननु जीवभावम् ।
अंशा
अनादिनिधनस्य किलानघस्य पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरङ्गाः ॥ २०॥
परिपूर्ण
समुद्र की तरंग के समान सम्पूर्ण प्राणी अनित्य हैं। ये सभी अजन्मा ब्रह्माजी के अंश
हैं। अपना स्वयं कोई स्वार्थ न रहनेपर भी उन जीवों का उद्धार करने के लिए ही तुम इस
अखिल जगत्की रचना करती हो।
जीवो
यदा तु परिवेत्ति तवैव कृत्यं त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् ।
नाट्यं
नटेन रचितं वितथेऽन्तरङ्गे कार्ये कृते विरमसे प्रथितप्रभावा ॥ २१॥
नाट्य
दिखलानेवाले नट की भाँति तुम्हीं संसार की सृष्टि और संहार किया करती हो। तुम्हारा
यह प्रभाव सर्वसाधारण को विदित है।
त्राता
त्वमेव मम मोहमयाद्भवाब्धे-स्त्वामम्बिके सततमेमि महार्तिदे च ।
रागादिभिर्विरचिते
वितथे किलान्ते मामेव पाहि बहुदुःखकरे च काले ॥ २२॥
हे
मां ! मोह से परिपूर्ण इस संसार-समुद्र में मेरी रक्षा करनेवाली तू ही है । तू ही सब
दुःखों को दूर करनेवाली है । संसार में जब रागात्मक वृत्ति बढ़ जाती है,
तो उससे विनाश के समय अन्त में तू ही बचाती है । इस दुःख की घड़ी में
मेरी रक्षा करो ।
नमो
देवि महाविद्ये नमामि चरणौ तव ।
सदा
ज्ञानप्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे ॥ २३॥
देवी
! तुम महाविद्यास्वरूपिणी हो, तुम्हारा विग्रह
कल्याणमय है, तुम सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देती हो। मैं बार-बार
तुम्हारे चरणों में मस्तक झुकाता हूँ।
इति श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणे तृतीयस्कन्धान्तरगतम्
चतुर्थोऽध्याये विष्णुनाकृतं देवीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: