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दुर्गा सप्तशती अध्याय 11
दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 में 55 श्लोक आते हैं। माँ दुर्गा की शक्तियों का और स्वरूपों का वर्णन किया गया है और सभी विपदाओं से रक्षा के लिए, देवी माँ से प्रार्थना की गई है। साथ ही साथ देवी माँ ने भविष्य में होने वाले कुछ अवतारों के बारें में भी बताया है। श्लोक 3-35 में भुवनेश्वरीकात्यायनी की स्तुति किया गया है।
दुर्गा सप्तशती अध्याय 11
shri durga saptashati eleventh chapter
श्रीदुर्गा सप्तशती एकादशोऽध्यायः
दुर्गा सप्तशती अध्याय 11
दुर्गा सप्तशती ग्यारहवाँ अध्याय अर्थ सहित
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
॥ एकादशोऽध्यायः॥
॥ध्यानम्॥
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां
नयनत्रययुक्ताम् ।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां
प्रभजे भुवनेशीम् ॥
मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता
हूँ । उनके श्रीअंगों की आभा प्रभात काल के सुर्य के समान है और मस्तक पर चन्द्रमा
का मुकुट है । वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रों से युक्त हैं । उनके मुख पर
मुस्कान की छटा छायी रहती है और हाथों में वरद, अंकुश,
पाश एवं अभय-मुद्रा शोभा पाते हैं ।
"ॐ" ऋषिरुवाच ॥१॥
देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम् ।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्
विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः॥२॥
ऋषि कहते हैं - देवी के द्वारा वहाँ
महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता अग्नि को आगे करके उन
कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे । उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने से उनके मुख
कमल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएँ भी जगमगा उठी थीं ॥१-२॥
भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिः
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वंक
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥३॥
देवता बोले- शरणागत की पीड़ा दूर
करने वाली देवि ! हम पर प्रसन्न होओ । सम्पूर्ण जगत् की माता ! प्रसन्न होओ ।
विश्वेश्वरि ! विश्व की रक्षा करो । देवि ! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो ॥
३॥
आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि ।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये ॥४॥
तुम इस जगत् का एकमात्र आधार हो ;
क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्हारी ही स्थिति है । देवि ! तुम्हारा पराक्रम
अलंघनीय है । तुम्हीं जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करती हो ॥४॥
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्ववस्य बीजं परमासि माया ।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि
मुक्तिहेतुः॥५॥
तुम अनन्त बल सम्पन्न वैष्णवी शक्ति
हो । इस विश्व की कारणभूता परा माया हो । देवि ! तुमने इस समस्त जगत् को मोहित कर
रखा है । तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हो ॥५॥
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु ।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा
परोक्तिः॥६॥
देवि ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे
ही भिन्न - भिन्न स्वरूप हैं । जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं ,
वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं । जगदम्ब ! एकमात्र तुमने ही इस
विश्व को व्याप्त कर रखा है । तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं परा वाणी हो ॥६॥
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्ति प्रदायिनी
।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु
परमोक्तयः॥७॥
जब तुम सर्वस्वरूपा देवी स्वर्ग तथा
मोक्ष प्रदान करनेवाली हो, तब इसी रूप में
तुम्हारी स्तुति हो गयी । तुम्हारी स्तुति के लिये इससे अच्छी उक्तियाँ और क्या हो
सकती हैं ? ॥७॥
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि
संस्थिते ।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥८॥
बुद्धि रूप से सब लोगों के हृदय में
विराजमान रहनेवाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली नारायणी देवि ! तुम्हें
नमस्कार है ॥८॥
कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि ।
विश्वषस्योपरतौ शक्ते नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥९॥
कला, काष्ठा आदि के रूप से क्रमश: परिणाम (अवस्था-परिवर्तन) - की ओर ले जाने
वाली तथा विश्व का उपसन्हार करने में समर्थ नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है ॥९॥
सर्वमङ्गलमंङ्गल्ये शिवे
सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१०॥
नारायणि ! तुम सब प्रकार का मंगल
प्रदान करनेवाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो । सब पुरुषार्थों को सिद्ध
करनेवाली,
शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो ।
तुम्हें नमस्कार है ॥१०॥
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते
सनातनि ।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु
ते ॥११॥
तुम सृष्टि,
पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी,
गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो । नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है
॥११॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१२॥
शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ीतों
की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सब की पीड़ा दूर करने वाली नारायणि देवि !
तुम्हें नमस्कार है ॥१२॥
हंसयुक्तविमानस्थे
ब्रह्माणीरूपधारिणि ।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१३॥
नारायणि ! तुम ब्रह्माणी का रूप
धारण करके हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती तथा कुशमिश्रित जल छिड़कती रहती हो ।
तुम्हें नमस्कार है ॥१३॥
त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि ।
माहेश्वचरीस्वरूपेण नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१४॥
माहेश्वरी रूप से त्रिशूल,
चन्द्रमा एवं सर्प को धारण करनेवाली तथा महान् वृषभ की पीठ पर बैठने
वाली नारायणि देवि ! तुम्हें नमस्कार है ॥१४॥
मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे ।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु
ते ॥१५॥
मोरों और मुर्गों से घिरी रहने वाली
तथा महाशक्ति धारण करने वाली कौमारी रूपधारिणी निष्पापे नारायणि ! तुम्हें नमस्कार
है ॥१५॥
शङ्खचक्रगदाशाङ्र्गगृहीतपरमायुधे ।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१६॥
शंख, चक्र, गदा और शार्ङ्ग्धनुष रूप उत्तम आयुधों को धारण
करनेवाली वैष्णवी शक्तिरूपा नारायणि! तुम प्रसन्न होओ। तुम्हें नमस्कार है ॥१६॥
गृहीतोग्रमहाचक्रे
दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे ।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु
ते ॥१७॥
हाथ में भयानक महाचक्र लिये और
दाढ़ों पर धरती को उठाये वाराही रूपधारिणी कल्याणमयी नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है
॥१७॥
नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान्
कृतोद्यमे ।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१८॥
भयंकर नृसिंहरूप से दैत्यों के वध
के लिये उद्योग करनेवाली तथा त्रिभुवन की रक्षा में संलग्न रहनेवाली नारायणि !
तुम्हें नमस्कार है ॥१८॥
किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले
।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥१९॥
मस्तक पर किरीट और हाथ में महावज्र
धारण करनेवाली , सहस्त्र नेत्रों के कारण
उद्दीप्त दिखायी देने वाली और वृत्रासुर के प्राणों का अपहरण करने वाली
इन्द्रशक्तिरूपा नारायणि देवि ! तुम्हें नमस्कार है ॥१९॥
शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले ।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु
ते ॥२०॥
शिवदूती रूप से दैत्यों की महती
सेना का संहार करनेवाली , भयंकर रूप धारण तथा
विकट गर्जना करनेवाली नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है ॥२०॥
दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे ।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥२१॥
दाढ़ों के कारण विकराल मुखवाली
मुण्डमाला से विभूषित मुण्डमर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है
॥२१॥
लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे
पुष्टिस्वधे ध्रुवे ।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥२२॥
लक्ष्मी,
लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा,
पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा,
महारात्रि तथा महा- अविद्यारूपा नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है ॥२२॥
मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि
तामसि ।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥२३॥
मेधा, सरस्वती, वरा (श्रेष्ठा), भूति
(ऐश्वर्यरूपा), बाभ्रवी (भूरे रंगकी अथवा पार्वती), तामसी (महाकाली), नियता (संयमपरायणा) तथा ईशा (सबकी
अधीश्वरी)– रूपिणी नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है ॥२३॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे
सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि
नमोऽस्तु ते ॥२४॥
सर्वस्वरूपा,
सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्य रूपा दुर्गे
देवि ! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है ॥२४॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्
।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि
नमोऽस्तु ते ॥२५॥
कात्यायनि ! यह तीन लोचनों से विभूषित
तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे । तुम्हें नमस्कार है
॥२५॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् ।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि
नमोऽस्तु ते ॥२६॥
भद्रकाली ! ज्वालाओं के कारण विकराल
प्रतीत होनेवाला , अत्यन्त भयंकर और
समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये । तुम्हें
नमस्कार है ॥२६॥
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य
या जगत् ।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः
सुतानिव ॥२७॥
देवि ! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण
जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है,
वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे,
जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मों से रक्षा करती है ॥२७॥
असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते
करोज्ज्वलः।
शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां
नता वयम् ॥२८॥
चण्डिके ! तुम्हारे हाथों में
सुशोभित खड्ग, जो असुरों के रक्त और चर्बी से
चर्चित है, हमारा मंगल करें । हम तुम्हें नमस्कार है ॥२८॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति
॥२९॥
देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सब
रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होनेपर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती
हो । जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं , उनपर
विपत्ति तो आती ही नहीं । तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले
हो जाते हैं ॥२९॥
एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या ॥३०॥
देवि ! अम्बिके !! तुमने अपने
स्वरूप को अनेक भागों में विभक्त करके नाना प्रकार के रूपों से जो इस समय इन
धर्मद्रोही महादैत्यों का संहार किया है, वह
सब दूसरी कौन कर सकती थी? ॥३०॥
विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या ।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् ॥३१॥
विद्याओं में,
ज्ञान को प्रकाशित करनेवाले शास्त्रों में तथा आदिवाक्यों (वेदों) -
में तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है? तथा तुमको छोड़कर
दूसरी कौन ऐसी शक्ति है, जो इस विश्व को अज्ञानमय घोर
अन्धकार से परिपूर्ण ममतारूपी गढ़े में निरन्तर भटका रही हो ॥३१॥
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ॥३२॥
जहाँ राक्षस,
जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरों की सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा
समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो ॥३२॥
विश्वे्श्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम् ।
विश्वे्शवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि
भक्तिनम्राः॥३३॥
विश्वेश्वरी ! तुम विश्व का पालन
करती हो । विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण
विश्व को धारण करती हो । तुम भगवान विश्वनाथ की भी वन्दनीया हो । जो लोग
भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण
विश्व को आश्रय देनेवाले होते हैं ॥३३॥
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च् महोपसर्गान् ॥३४॥
देवि ! प्रसन्न होओ । जैसे इस समय
असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है,
उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ । सम्पूर्ण जगत् का पाप
नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बड़े-बड़े
उपद्रवों को शीघ्र दूर कर दो ॥३४॥
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि
विश्वावर्तिहारिणि ।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा
भव ॥३५॥
विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवि
! हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हुए हैं, हमपर
प्रसन्न होओ । त्रिलोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरि ! सब लोगों को वरदान दो ॥३५॥
दुर्गासप्तशती अध्याय ११
देव्युवाच ॥३६॥
वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि
जगतामुपकारकम् ॥३७॥
देवी बोलीं- देवताओं ! मैं वर देने
को तैयार हूँ । तुम्हारे मन में जिसकी इच्छा हो , वह वर माँग लो । संसार के लिये उस उपकारक वर को मैं अवश्य दूँगी ॥३६-३७॥
देवा ऊचुः॥३८॥
सर्वाबाधाप्रशमनं
त्रैलोक्यस्याखिलेश्वंरि ।
एवमेव त्वया
कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥३९॥
देवता बोले - सर्वेश्वरि ! तुम इसी
प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो
॥३८-३९॥
देव्युवाच ॥४०॥
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते
अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो
निशुम्भश्चैावान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥
देवी बोलीं- देवताओं ! वैवस्वत
मन्वन्तर के अट्ठाईसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नामके दो अन्य महादैत्य उत्पन्न
होंगे ॥४०-४१॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि
विन्ध्याचलनिवासिनी ॥४२॥
तब मैं नन्दगोप के घरमें उनकी पत्नी
यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का
नाश करूँगी ॥४२॥
पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले ।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु
दानवान् ॥४३॥
फिर अत्यन्त भयंकर रूप से पृथ्वी पर
अवतार ले मैं वैप्रचित्त नामवले दानवों का वध करूँगी ॥४३॥
भक्षयन्त्याश्चा तानुग्रान्
वैप्रचित्तान्महासुरान् ।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति
दाडिमीकुसुमोपमाः॥४४॥
उन भयंकर महादैत्यों को भक्षण करते
समय मेरे दाँत अनार के फूल की भाँति लाल हो जायँगे ॥४४॥
ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके
च मानवाः।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं
रक्तदन्तिकाम् ॥४५॥
तब स्वर्ग में देवता और मर्त्यलोक
में मनुष्य सदा मेरी स्तुति करते हुए मुझे ‘रक्तदन्तिका’
कहेंगे ॥४५॥
भूयश्च्
शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि ।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ
सम्भविष्याम्ययोनिजा ॥४६॥
फिर जब पृथ्वी पर सौ वर्षों के लिये
वर्षा रूक जायेगी और पानी का अभाव हो जायेगा , उस
समय मुनियों के स्तवन करने पर मैं पृथ्वी पर अयोनिजारूप में प्रकट होऊँगी ॥४६॥
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि
यन्मुनीन् ।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति
मां ततः॥४७॥
और सौ नेत्रों से मुनियों को
देखूँगी । अत: मनुष्य ‘शताक्षी’ इस नाम से मेरा कीर्तन करेंगे ॥४७॥
ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः
प्राणधारकैः॥४८॥
देवताओं ! उस समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न
हुए शाकों द्वारा समस्त संसारका भरण-पोषण करूँगी । जब तक वर्षा नहीं होगी ,
तबतक वे शाक ही सबके प्राणों की रक्षा करेंगे ॥४८॥
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा
यास्याम्यहं भुवि ।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं
महासुरम् ॥४९॥
ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर ‘शाकम्भरी’ के नाम से मेरी ख्याति होगी । उसी अवतार
में मैं दुर्गम नामक महादैत्य का वध करूँगी ॥४९॥
दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम
भविष्यति ।
पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा
हिमाचले ॥५०॥
रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां
त्राणकारणात् ।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः॥५१॥
इससे मेरा नाम ‘दुर्गादेवी’ के रूप से प्रसिद्ध होगा । फिर मैं जब
भीमरूप धारण करके मुनियों की रक्षाके लिये हिमालय पर रहने वाले राक्षसों का भक्षण
करूँगी , उस समय सब मुनि भक्ति से नतमस्तक होकर मेरी स्तुति
करेंगे ॥५०- ५१॥
भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम
भविष्यति ।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां
करिष्यति ॥५२॥
तब मेरा नाम ‘भीमादेवी’ के रूप में विख्यात होगा । जब अरुण नामक
दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचायेगा ॥५२॥
तदाहं भ्रामरं रूपं
कृत्वाऽसंख्येयषट्पदम् ।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि
महासुरम् ॥५३॥
तब मैं तीनों लोकों का हित करने के
लिये छ: पैरोंवाले असंख्य भ्रमरों का रूप धारण करके उस महादैत्य का वध करूँगी ॥५३॥
भ्रामरीति च मां लोकास्तदा
स्तोष्यन्ति सर्वतः।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था
भविष्यति ॥५४॥
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्
॥ॐ॥५५॥
उस समय सब लोग ‘भ्रामरी’ के नाम से चारों ओर मेरी स्तुति करेंगे ।
इस प्रकार जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब
अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूँगी ॥५४- ५५॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके
मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्याः स्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
उवाच ४, अर्धश्लोकः १, श्लोकाः ५०, एवम् ५५, एवमादितः॥६३०॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें
सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमहात्म्यमें ‘देवीस्तुति’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥११॥
शेष जारी...............आगे पढ़े- श्रीदुर्गासप्तशती द्वादशोऽध्यायः
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