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- धन्वन्तरि अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
- धन्वन्तरि
- धन्वन्तरि स्तोत्रम्
- अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम्
- मूर्तिस्तोत्र एवं द्वादशाक्षर स्तोत्र
- लक्ष्मी स्तोत्र
- लक्ष्मी कवच
- शिवस्तवराज स्तोत्र
- संसार पावन कवच
- श्रीकृष्ण स्तोत्र दुर्गा कृतम्
- श्रीकृष्णस्तोत्रम् सरस्वतीकृतं
- श्रीकृष्ण स्तोत्र धर्मकृत्
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- श्रीकृष्णस्तोत्रम् ब्रह्मकृत
- श्रीकृष्णस्तोत्र शम्भुकृत
- नारायणकृत श्रीकृष्णस्तोत्रम्
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- मारुति स्तोत्र
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- विष्णुकृत देवी स्तोत्र
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम्
इस अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम् के
पाठ करने से सभी प्रकार के रोग व बाधा दूर होता है, अल्पमृत्यु नहीं होता है तथा स्त्री
के गर्भ में पल रहे शिशु की रक्षा होती है ।
वैदिक काल में जो महत्व और स्थान
अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी
के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला,
क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने
वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक
का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और
नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है
-
सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र
विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य
शंकरोस्योपशिष्यक:।।
धन्वन्तरि स्तोत्रम्
नमो नमो विश्वविभावनाय
नमो नमो लोकसुखप्रदाय ।
नमो नमो विश्वसृजेश्वराय
नमो नमो नमो मुक्तिवरप्रदाय ॥ १॥
नमो नमस्तेऽखिललोकपाय
नमो नमस्तेऽखिलकामदाय ।
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
नमो नमस्तेऽखिलरक्षकाय ॥ २॥
नमो नमस्ते सकलार्त्रिहर्त्रे
नमो नमस्ते विरुजः प्रकर्त्रे ।
नमो नमस्तेऽखिलविश्वधर्त्रे
नमो नमस्तेऽखिललोकभर्त्रे ॥ ३॥
सृष्टं देव चराचरं जगदिदं
ब्रह्मस्वरूपेण ते
सर्वं तत्परिपाल्यते जगदिदं
विष्णुस्वरूपेण ते ।
विश्वं संह्रियते तदेव निखिलं
रुद्रस्वरूपेण ते
संसिच्यामृतशीकरैर्हर महारिष्टं चिरं जीवय
॥ ४॥
यो धन्वन्तरिसंज्ञया निगदितः
क्षीराब्धितो निःसृतो
हस्ताभ्यां जनजीवनाय कलशं पीयूषपूर्णं
दधत् ।
आयुर्वेदमरीरचज्जनरुजां नाशाय स
त्वं मुदा
संसिच्यामृतशीकरैर्हर महारिष्टं चिरं जीवय
॥ ५॥
स्त्रीरूपं वरभूषणाम्बरधरं
त्रैलोक्यसंमोहनं
कृत्वा पाययति स्म यः
सुरगणान्पीयूषमत्युत्तमम् ।
चक्रे दैत्यगणान् सुधाविरहितान्
संमोह्य स त्वं मुदा
संसिच्यामृतशीकरैर्हर महारिष्टं चिरं जीवय
॥ ६॥
चाक्षुषोदधिसम्प्लाव भूवेदप झषाकृते
।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ ७॥
पृष्ठमन्दरनिर्घूर्णनिद्राक्ष
कमठाकृते ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ ८॥
धरोद्धार हिरण्याक्षघात क्रोडाकृते
प्रभो ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ ९॥
भक्तत्रासविनाशात्तचण्डत्व नृहरे
विभो ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ १०॥
याञ्चाच्छलबलित्रासमुक्तनिर्जर वामन
।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ ११ ॥
क्षत्रियारण्यसञ्छेदकुठारकररैणुक ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ १२॥
रक्षोराजप्रतापाब्धिशोषणाशुग राघव ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ १३॥
भूभरासुरसन्दोहकालाग्ने रुक्मिणीपते
।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ १४॥
वेदमार्गरतानर्हविभ्रान्त्यै
बुद्धरूपधृक् ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ १५॥
कलिवर्णाश्रमास्पष्टधर्मर्द्द्यै
कल्किरूपभाक् ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय
॥ १६॥
असाध्याः कष्टसाध्या ये महारोगा
भयङ्कराः ।
छिन्धि तानाशु चक्रेण चिरं जीवय
जीवय ॥ १७ ॥
अल्पमृत्युं चापमृत्युं
महोत्पातानुपद्रवान् ।
भिन्धि भिन्धि गदाघातैः चिरं जीवय
जीवय ॥ १८ ॥
अहं न जाने किमपि त्वदन्यत्
समाश्रये नाथ पदाम्बुजं ते ।
कुरुष्व तद्यन्मनसीप्सितं ते
सुकर्मणा केन समक्षमीयाम् ॥ १९ ॥
त्वमेव तातो जननी त्वमेव
त्वमेव नाथश्च त्वमेव बन्धुः ।
विद्याहिनागारकुलं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ २०॥
न मेऽपराधं प्रविलोकय प्रभोऽ-
पराधसिन्धोश्च दयानिधिस्त्वम् ।
तातेन दुष्टोऽपि सुतः सुरक्ष्यते
दयालुता तेऽवतु सर्वदाऽस्मान् ॥ २१॥
अहह विस्मर नाथ न मां सदा
करुणया निजया परिपूरितः ।
भुवि भवान् यदि मे न हि रक्षकः
कथमहो मम जीवनमत्र वै ॥ २२॥
दह दह कृपया त्वं व्याधिजालं विशालं
हर हर करवालं चाल्पमृत्योः करालम् ।
निजजनपरिपालं त्वां भजे भावयालं
कुरु कुरु बहुकालं जीवितं मे सदाऽलम् ॥
२३॥
क्लीं श्रीं क्लीं श्रीं नमो भगवते
जनार्दनाय सकलदुरितानि नाशय नाशय ।
क्ष्रौं आरोग्यं कुरु कुरु । ह्रीं
दीर्घमायुर्देहि स्वाहा ॥ २४॥
अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम् फलश्रुतिः
अस्य धारणतो जापादल्पमृत्युः
प्रशाम्यति ।
गर्भरक्षाकरं स्त्रीणां बालानां
जीवनं परम् ॥ २५॥
सर्वे रोगाः प्रशाम्यन्ति सर्वा
बाधा प्रशाम्यति ।
कुदृष्टिजं भयं नश्येत् तथा
प्रेतादिजं भयम् ॥ २६॥
॥ इति सुदर्शनसंहितोक्तं अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरि स्तोत्रम् ॥
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