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सप्तश्लोकी गीता
श्रीमद्भगवद्गीता को ब्रह्म विद्या कहा गया है जो ज्ञान पूर्वकाल में उपनिषदों में वर्णित था वही ज्ञान गीता में अर्जुन को दिया गया है। पाठकों के लाभार्थ यहाँ सप्तश्लोकी गीता भावार्थ सहित दिया जा रहा है।
सप्त श्लोकी गीता
Sapta shloki geeta
सप्तश्लोकी गीता
सप्त श्लोकी गीता
सप्तश्लोकीगीता
ओमित्येकाक्षरं
ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति
त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥१॥
'ओम्'
इस एक अक्षररूप ब्रह्म के नाम का उच्चारण करता हुआ और
ओङ्कार के अर्थस्वरूप मुझको स्मरण करता हुआ, जो मनुष्य शरीर को छोड़ता (मरता) है,
वह परम गति को प्राप्त हो जाता है॥१॥
स्थाने
हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि
भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥२॥
हे हृषीकेश !
आपके गुणों के कीर्तन से जो जगत् प्रसन्न और प्रेमान्वित हो रहा है,
यह उचित ही है, ये राक्षसलोग भयभीत होकर सब दिशाओं में भाग रहे हैं और सब
सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं यह भी युक्त ही है॥२॥
सर्वतःपाणिपादं
तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके
सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ ३ ॥
'वह'
सब ओर रहनेवाले हाथों और चरणों से युक्त है तथा सब ओर
रहनेवाले आँखों, सिरों और मुखों से युक्त है एवं सब ओर व्यापकरूप से रहनेवाली श्रवणेन्द्रियों
से भी युक्त है और समस्त जगत्को व्याप्त कर स्थित है॥३॥
कविं
पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं
तमसः परस्तात् ॥४॥
जो सर्वज्ञ है
और सबसे प्राचीन, जगत्का शासन करनेवाला सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है,
सबका धाता (सब प्राणियों को कर्मानुसार पृथक्-पृथक् फल
देनेवाला) है, जिसके रूप का चिन्तन अशक्य है, जो सूर्य के समान प्रकाशमय वर्णवाला है और जो अज्ञान से
अतीत है,
उसको जो स्मरण करता है [वह उस परमपुरुष को प्राप्त होता है]
॥४॥
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं
प्राहरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य
पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥५॥
जिसका ऊर्ध्व
(ब्रह्म* (*काल
से भी सूक्ष्म, जगत्का कारण नित्य और महान् होने से ब्रह्म को ही ऊर्ध्व कहा गया है।) ) ही
मूल है और नीचे शाखाएँ (अहङ्कार* (* महत् अहङ्कार, तन्मात्रा आदि इसके शाखा के समान नीचे होने से शाखा है।)
तन्मात्रा आदि रूपवाली) हैं, ऐसे इस संसाररूप अश्वस्थवृक्ष को अव्यय* (* संसारवृक्ष
अनादिकाल से चला आता है इससे अव्यय है।) (अविनाशी) कहते हैं,
ऋक्, यजु और सामवेद जिसके पत्र* (* वेदों से इस वृक्ष की रक्षा है अतः इन (वेदों) को
पत्ररूप से कहा गया।) हैं; जो संसार-वृक्ष को इस रूप से जानता है,
वह वेदों के अर्थो का जाननेवाला है ॥ ५॥
सर्वस्य चाहं
हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च
सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥६॥
मैं सम्पूर्ण
प्राणियों का आत्मा होकर उनके हृदयों में प्रविष्ट हूँ,
उनके स्मृति, ज्ञान और इन दोनों का लोप भी मुझसे ही हुआ करते हैं,
सम्पूर्ण वेदों से मैं ही जाननेयोग्य हूँ और वेदान्त का
कर्ता तथा वेदार्थ को जाननेवाला भी मैं ही हूँ॥६॥
मन्मना भव
मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि
युक्त्वैवमात्मानंमत्परायणः ॥७॥
तू मेरे में
ही मन लगानेवाला, मेरा ही भक्त, मेरी ही पूजा करनेवाला हो और मुझको ही नमस्कार कर । इस
प्रकार चित्त को मुझमें युक्त कर मत्परायण हुआ मुझे ही प्राप्त करेगा ॥७॥
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सप्तश्लोकी गीता सम्पूर्णा ।
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