अजगरगीता

अजगरगीता

अजगरगीता में एक विरक्त अवधूत द्वारा राजा प्रह्लाद को दिये गये उपदेशों का वर्णन है। यह प्रकरण महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को दिये गये उपदेशों के मध्य आया है। यह गीता न केवल विरक्त संन्यासियों के लिये उपयोगी है, अपितु उन वृद्धजनों के लिये भी विशेष उपयोगी है, जो प्रायः अपने सभी पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण कर चुके हैं तथा शेष जीवन सुख- शान्ति बिताना चाहते हैं। सुविधाओं तथा अभावों में सम रहने की प्रेरणा देनेवाली यह गीता सानुवाद यहाँ प्रस्तुत की जा रही है- 

अजगरगीता

अजगर गीता

Ajagar geeta

अजगरगीता

महाभारते शान्तिपर्वान्तर्गता आजगरगीता

आजगर गीता

युधिष्ठिर उवाच ।

केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वीतशोकश्चरेन्महीम् ।

किञ्च कुर्वन्नरो लोके प्राप्नोति गतिमुत्तमाम् ॥ १॥

राजा युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! आप सदाचार के स्वरूप को जाननेवाले हैं। कृपया यह बताइये, किस तरह के आचार को अपनाकर मनुष्य शोकरहित हो इस पृथ्वी पर विचरण कर सकता है ? और इस जगत् में कौन-सा कर्म करके वह उत्तम गति पा सकता है ? ॥ १ ॥

भीष्म उवाच ।

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ २॥

भीष्मजी कहते हैं- राजन् ! इस विषय में भी प्रह्लाद तथा अजगरवृत्ति से रहनेवाले एक मुनि के संवादरूप प्राचीन इतिहास का दृष्टान्त दिया जाता है ॥ २ ॥

चरन्तं ब्राह्मणं कञ्चित्कल्यचित्तमनामयम् ।

पप्रच्छ राजा प्रह्लादो बुद्धिमान्प्राज्ञसत्तमः ॥ ३॥

एक सुदृढ़चित्त दुःखशोक से रहित तथा बुद्धिसम्मत ब्राह्मण को पृथ्वी पर विचरते देख बुद्धिमान् राजा प्रह्लाद ने उससे इस प्रकार पूछा ॥ ३ ॥

प्रह्लाद उवाच

स्वस्थः शक्तो मृदुर्दान्तो निर्विधित्सोऽनसूयकः ।

सुवाक् प्रगल्भो मेधावी प्राज्ञश्चरसि बालवत् ॥४॥

प्रह्लाद बोले- ब्रह्मन् ! आप स्वस्थ, शक्तिमान्, मृदु, जितेन्द्रिय, कर्मारम्भ से दूर रहनेवाले, दूसरों के दोषों पर दृष्टि न डालनेवाले, सुन्दर और मधुर वचन बोलनेवाले, निर्भीक, प्रतिभाशाली, मेधावी तथा तत्त्वज्ञ होकर भी बालकों के समान विचर रहे हैं ॥ ४ ॥

नैव प्रार्थयसे लाभं नालाभेष्वनुशोचसि ।

नित्यतृप्त इव ब्रह्मन्न किञ्चिदिव मन्यसे ॥ ५॥

न आप कोई लाभ चाहते हैं और न हानि होने पर उसके लिये ही शोक करते हैं। ब्रह्मन् ! आप नित्य तृप्त-से रहते हुए न किसी वस्तु को प्रिय मानते हैं और न अप्रिय ॥ ५ ॥

स्रोतसा ह्रियमाणासु प्रजासु विमना इव ।

धर्मकामार्थकार्येषु कूटस्थ इव लक्ष्यसे ॥ ६॥

सारी प्रजा काम-क्रोध आदि के प्रवाह में पड़कर बही जा रही है; परंतु आप उधर से उदासीन-जैसे जान पड़ते हैं तथा धर्म, अर्थ एवं काम-सम्बन्धी कार्यों के प्रति भी निश्चेष्ट से दिखायी देते हैं ॥ ६ ॥

नानुतिष्ठसि धर्मार्थी न कामे चापि वर्तसे ।

इन्द्रियार्थाननादृत्य मुक्तश्चरसि साक्षिवत् ॥ ७ ॥

धर्म और अर्थ सम्बन्धी कार्यों का आप अनुष्ठान नहीं करते हैं, काम में भी आपकी प्रवृत्ति नहीं है। आप इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषयों की उपेक्षा करके साक्षी के समान मुक्तरूप से विचरते हैं ॥ ७ ॥

का नु प्रज्ञा श्रुतं वा किं वृत्तिर्वा का नु ते मुने ।

क्षिप्रमाचक्ष्व मे ब्रह्मन् श्रेयो यदिह मन्यसे ॥ ८ ॥

मुने! आपके पास कौन-सी ऐसी बुद्धि, कैसा शास्त्रज्ञान अथवा कौन-सी वृत्ति है, जिससे आपका जीवन ऐसा बन गया है? ब्रह्मन् ! आपके मत से इस जगत् में मेरे लिये जो श्रेय का साधन हो, उसे शीघ्र बतायें ॥ ८ ॥

भीष्म उवाच ।

अनुयुक्तः स मेधावी लोकधर्मविधानवित् ।

उवाच श्लक्ष्णया वाचा प्रह्लादमनपार्थया ॥ ९॥

भीष्मजी कहते हैं - राजन् ! प्रह्लाद के इस प्रकार पूछने पर लोक-धर्म के विधान को जाननेवाले उन मेधावी मुनि ने उनसे मधुर एवं सार्थक वाणी में इस प्रकार कहा- ॥ ९ ॥

पश्य प्रह्लाद भूतानामुत्पत्तिमनिमित्ततः ।

ह्रासं वृद्धिं विनाशं च न प्रहृष्ये न च व्यथे ॥ १०॥

प्रह्लाद ! देखो, इस जगत् के प्राणियों की उत्पत्ति, वृद्धि, ह्रास और विनाश कारणरहित सत्स्वरूप परमात्मा से ही हुए हैं; इस कारण मैं उनके लिये न तो हर्ष प्रकट करता हूँ और न व्यथित ही होता हूँ ॥ १० ॥

स्वभावादेव संदृश्या वर्तमानाः प्रवृत्तयः ।

स्वभावनिरताः सर्वाः परितुष्येन्न केनचित् ॥ ११ ॥

ऐसा समझना चाहिये, पूर्वकृत कर्मानुसार बने हुए स्वभाव से ही प्राणियों की वर्तमान प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं; अतः समस्त प्रजा स्वभाव में ही तत्पर है, उनका दूसरा कोई आश्रय नहीं है। इस रहस्य को समझकर मनुष्य को किसी भी परिस्थिति में सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये ॥ ११ ॥

पश्य प्रह्लाद संयोगान् विप्रयोगपरायणान् ।

सञ्चयांश्च विनाशान्तान् न क्वचिद् विदधे मनः ॥ १२ ॥

प्रह्लाद ! देखो, जितने संयोग हैं, उनका पर्यवसान वियोग में ही होता है और जितने संचय हैं, उनकी समाप्ति विनाश में ही होती है। यह सब देखकर मैं कहीं भी अपने मन को नहीं लगाता हूँ ॥ १२ ॥

अन्तवन्ति च भूतानि गुणयुक्तानि पश्यतः ।

उत्पत्तिनिधनज्ञस्य किं कार्यमवशिष्यते ॥ १३॥

जो गुणयुक्त सम्पूर्ण भूतों को नाशवान् देखता है तथा उत्पत्ति और प्रलय के तत्त्व को जानता है, उसके लिये यहाँ कौन-सा कार्य अवशिष्ट रह जाता है ? ॥ १३ ॥

जलजानामपि ह्यन्तं पर्यायेणोपलक्षये ।

महतामपि कायानां सूक्ष्माणां च महोदधौ ॥ १४॥

महासागर के जल में पैदा होनेवाले विशाल शरीरवाले तिमि आदि मत्स्यों तथा छोटे-छोटे कीड़ों का भी मैं बारी-बारी से विनाश होता देखता हूँ ॥ १४ ॥

जङ्गमस्थावराणां च भूतानामसुराधिप ।

पार्थिवानामपि व्यक्तं मृत्युं पश्यामि सर्वशः ॥ १५ ॥

असुरराज ! पृथ्वी पर भी जितने स्थावर-जंगम प्राणी हैं, उन सबकी मृत्यु मुझे स्पष्ट दिखायी दे रही है ।। १५ ॥

अन्तरिक्षचराणां च दानवोत्तम पक्षिणाम् ।

उत्तिष्ठते यथाकालं मृत्युर्बलवतामपि ॥ १६॥

दानवश्रेष्ठ ! आकाश में विचरनेवाले बलवान् पक्षियों के समक्ष भी यथासमय मृत्यु आ पहुँचती है ॥ १६ ॥

दिवि सञ्चरमाणानि ह्रस्वानि च महान्ति च ।

ज्योतींष्यपि यथाकालं पतमानानि लक्षये ॥ १७॥

आकाश में जो छोटे-बड़े ज्योतिर्मय नक्षत्र विचर रहे हैं, उन्हें भी मैं यथासमय नीचे गिरते देखता हूँ ॥ १७ ॥

इति भूतानि सम्पश्यन्ननुषक्तानि मृत्युना ।

सर्वं सामान्यतो विद्वान्कृतकृत्यः सुखं स्वपे ॥ १८॥

इस प्रकार सारे प्राणियों को मैं मृत्यु के पाश में बद्ध देखता हूँ; इसलिये तत्त्व को जानकर कृतकृत्य हो सबके प्रति समान भाव रखता हुआ सुख से सोता हूँ ॥ १८ ॥

सुमहान्तमपि ग्रासं ग्रसे लब्धं यदृच्छया ।

शये पुनरभुञ्जानो दिवसानि बहून्यपि ॥ १९॥

यदि दैवेच्छा से अकस्मात् अधिक भोजन प्राप्त हो जाय तो मैं बहुत खा लेता हूँ, ग्रासमात्र मिले तो उसी में सन्तुष्ट रहता हूँ और न मिला तो बहुत दिनों तक बिना खाये पीये भी सो रहता हूँ ॥ १९ ॥

आशयन्त्यपि मामन्नं पुनर्बहुगुणं बहु ।

पुनरल्पं पुनः स्तोकं पुनर्नैवोपपद्यते ॥ २० ॥

फिर कितने ही लोग आकर मुझे अनेक गुणों से सम्पन्न बहुत- सा अन्न खिला देते हैं। पुनः कभी बहुत थोड़ा, कभी थोड़े से भी थोड़ा भोजन मिलता है और कभी वह भी नहीं मिलता ॥ २० ॥

कणं कदाचित् खादामि पिण्याकमपि च ग्रसे ।

भक्षये शालिमांसानि भक्षांश्चोच्चावचान् पुनः ॥ २१ ॥

कभी चावल की कनी खाता हूँ, कभी तिल की खली ही खाकर रह जाता हूँ और कभी अगहनी के चावल का भात भरपेट खाता हूँ । इस प्रकार मुझे बढ़िया - घटिया सभी तरह के भोजन बारम्बार प्राप्त होते रहते हैं ॥ २१ ॥

शये कदाचित् पर्यङ्के भूमावपि पुनः शये ।

प्रासादे चापि मे शय्या कदाचिदुपपद्यते ॥ २२ ॥

कभी पलंग पर सोता हूँ, कभी पृथ्वी पर ही पड़ा रहता हूँ और कभी-कभी मुझे महल के भीतर बिछी हुई बहुमूल्य शय्या भी उपलब्ध हो जाती है ॥ २२ ॥

धारयामि च चीराणि शाणक्षौमाजिनानि च ।

महार्हाणि च वासांसि धारयाम्यहमेकदा ॥ २३ ॥

मैं कभी तो चिथड़े अथवा वल्कल पहनकर रहता हूँ, कभी सन के, कभी रेशम के और कभी मृगचर्म के वस्त्र धारण करता हूँ तथा किसी एक काल में बहुत-से बहुमूल्य वस्त्रों को भी पहन लेता हूँ ॥ २३ ॥

न संनिपतितं धर्म्यमुपभोगं यदृच्छया ।

प्रत्याचक्षे न चाप्येनमनुरुध्ये सुदुर्लभम् ॥ २४ ॥

यदि दैववश मुझे कोई धर्मानुकूल भोग्य पदार्थ प्राप्त हो जाय तो मैं उससे द्वेष नहीं करता हूँ और प्राप्त न होने पर किसी दुर्लभ भोग की भी कभी इच्छा नहीं करता ॥ २४ ॥

अचलमनिधनं शिवं विशोकं

शुचिमतुलं विदुषां मते प्रविष्टम् ।

अनभिमतमसेवितं विमूढै-

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २५ ॥

मैं सदा पवित्र भाव से रहकर इस अजगरवृत्ति का अनुसरण करता हूँ। यह अत्यन्त सुदृढ़, मृत्यु से दूर रखनेवाली, कल्याणमय, शोकहीन, शुद्ध, अनुपम और विद्वानों के मत के अनुकूल है। मूर्ख मनुष्य न तो इसे मानते हैं और न इसका सेवन ही करते हैं ॥ २५ ॥

अचलितमतिरच्युतः स्वधर्मात्

परिमितसंसरणः परावरज्ञः ।

विगतभयकषायलोभमोहो

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २६ ॥

मेरी बुद्धि अविचल है, मैं अपने धर्म से च्युत नहीं हुआ हूँ, मेरा सांसारिक व्यवहार परिमित हो गया है, मुझे उत्तम और अधम का ज्ञान है, मेरे हृदय से भय, राग-द्वेष, लोभ और मोह दूर हो गये हैं तथा पवित्रभाव से रहकर इस अजगरोचित व्रत का आचरण करता हूँ ॥ २६ ॥

अनियतफलभक्ष्यभोज्यपेयं

विधिपरिणामविभक्तदेशकालम्

हृदयसुखमसेवितं कदर्यै-

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २७ ॥

यह अजगर-सम्बन्धी व्रत मेरे हृदय को सुख देनेवाला है। इसमें भक्ष्य, भोज्य, पेय और फल आदि के मिलने की कोई नियत व्यवस्था नहीं रहती अनियतरूप से जो कुछ मिल जाय, उसी से निर्वाह करना होता है। इस व्रत में प्रारब्ध के परिणाम के अनुसार देश और काल का विभाग नियत है। विषयलोलुप नीच पुरुष इसका सेवन नहीं करते, मैं पवित्रभाव से इसी व्रत का आचरण करता हूँ ॥ २७ ॥

इदमिदमिति तृष्णयाभिभूतं

जनमनवाप्तधनं विषीदमानम् ।

निपुणमनुनिशम्य तत्त्वबुद्धया

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २८ ॥

जो यह मिले, वह मिले - इस प्रकार तृष्णा से दबे रहते हैं और धन न मिलने के कारण निरन्तर विषाद करते हैं; ऐसे लोगों की दशा अच्छी तरह देखकर तात्त्विक बुद्धि से सम्पन्न हुआ मैं पवित्र भाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ २८ ॥

बहुविधमनुदृश्य चार्थहेतोः

कृपणमिहार्यमनार्यमाश्रयन्तम् ।

उपशमरुचिरात्मवान् प्रशान्तो

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २९ ॥

मैं बारम्बार देखता हूँ कि श्रेष्ठ मनुष्य भी धन के लिये दीनभाव से नीच पुरुष का आश्रय लेते हैं। यह देखकर मेरी रुचि प्रशान्त हो गयी हैं। अतः मैं अपने स्वरूप को प्राप्त और सर्वथा शान्त हो गया हूँ और पवित्रभाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ २९ ॥

सुखमसुखमलाभमर्थलाभं

रतिमरतिं मरणं च जीवितं च ।

विधिनियतमवेक्ष्य तत्त्वतोऽहं

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३० ॥

सुख-दुःख, लाभ-हानि, अनुकूल और प्रतिकूल तथा जीवन और मरण ये सब दैव के अधीन हैं। इस प्रकार यथार्थरूप से जानकर मैं शुद्धभाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ ३० ॥

अपगतभयरागमोहदर्पो

धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः ।

उपगतफलभोगिनो निशम्य

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३१॥

मेरे भय, राग, मोह और अभिमान नष्ट हो गये हैं। मैं धृति, मति और बुद्धि से सम्पन्न एवं पूर्णतया शान्त हूँ और प्रारब्धवश स्वतः अपने समीप आयी हुई वस्तु का ही उपभोग करनेवालों को देखकर मैं पवित्रभाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ ३१ ॥

अनियतशयनासनः प्रकृत्या

दमनियमव्रतसत्यशौचयुक्तः ।

अपगतफलसञ्चयः प्रहृष्टो

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३२॥

मेरे सोने-बैठने का कोई नियत स्थान नहीं है। मैं स्वभावतः दम, नियम, व्रत, सत्य और शौचाचार से सम्पन्न हूँ। मेरे कर्मफल – संचय का नाश हो चुका है। मैं प्रसन्नतापूर्वक पवित्र भाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ ३२ ॥

अपगतमसुखार्थमीहनार्थे-

रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम् ।

तृषितमनियतं मनो नियन्तुं

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३३ ॥

जिनका परिणाम दुःख है, उन इच्छा के विषयभूत समस्त पदार्थों से जो विरक्त हो चुका है, ऐसे आत्मनिष्ठ महापुरुष को देखकर मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। अतः मैं तृष्णा से व्याकुल असंयत मन को वश में करने के लिये पवित्रभाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ ३३ ॥

न हृदयमनुरुध्य वाङ्मनो वा

प्रियसुखदुर्लभतामनित्यतां च ।

तदुभयमुपलक्षयन्निवाहं

व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३४ ॥

मन, वाणी और बुद्धि की उपेक्षा करके इनको प्रिय लगनेवाले विषय – सुखों की दुर्लभता तथा अनित्यता- इन दोनों को देखनेवाले की भाँति मैं पवित्रभाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूँ ॥ ३४ ॥

बहु कथितमिदं हि बुद्धिमद्भिः

कविभिरपि प्रथयद्भिरात्मकीर्तिम् ।

इदमिदमिति तत्र तत्र हन्त

स्वपरमतैर्गहनं प्रतर्कयद्भिः ॥ ३५॥

अपनी कीर्ति का विस्तार करनेवाले विद्वानों और बुद्धिमानों ने अपने और दूसरों के मत से गहन तर्क और वितर्क करके 'ऐसे करना चाहिये' 'ऐसे करना चाहिये' इत्यादि कहकर इस व्रत की अनेक प्रकार से व्याख्या की है ॥३५॥

तदिदमनुनिशम्य विप्रपातं

पृथगभिपन्नमिहाबुधैर्मनुष्यैः ।

अनवसितमनन्तदोषपारं

नृषु विहरामि विनीतदोषतृष्णः ॥ ३६ ॥

मूर्खलोग इस आजगरवृत्ति को सुनकर इसे पहाड़ की चोटी से गिरने की भाँति भयंकर समझते हैं। परंतु उनकी वह मान्यता भिन्न है। मैं इस अजगरवृत्ति को अज्ञान का नाशक और समस्त दोषों से रहित मानता हूँ। अतः दोष और तृष्णा का त्याग करके मनुष्यों में विचरता हूँ ॥ ३६ ॥

भीष्म उवाच ।

अजगरचरितं व्रतं महात्मा

य इह नरोऽनुचरेद्विनीतरागः ।

अपगतभयलोभमोहमन्युः

स खलु सुखी विचरेदिमं विहारम् ॥ ३७॥

भीष्मजी कहते हैं- राजन्! जो महापुरुष राग, भय, लोभ, मोह और क्रोध को त्यागकर इस आजगरव्रत का पालन करता है, वह इस लोक में सानन्द विचरण करता है ॥ ३७ ॥

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि आजगरगीता सम्पूर्णा ॥

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