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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
पुत्रगीता
महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर संवाद के अन्तर्गत पुत्रगीता के रूप में एक
प्राचीन आख्यान आता है, जिसमें सदा वेद-शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहनेवाले एक ब्राह्मण को
उनके मेधावी नामक तत्त्वदर्शी पुत्र द्वारा ही बहुत मार्मिक उपदेश दिये गये हैं।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है, मृत्यु कभी भी बिना
पूर्वसूचना के आ सकती है, अतः प्रत्येक अवस्था में संसार की
आसक्ति से बचकर धर्माचरण तथा सत्यव्रत का पालन करते रहना चाहिये, यही परमसाधन इस गीता में बताया गया है। अत्यन्त प्रभावी ढंग से चेतावनी
देनेवाली यह गीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-
पुत्रगीता
Putra geeta
पुत्र गीता
महाभारते शान्तिपर्वान्तर्गता
पुत्रगीता
पुत्रगीता
युधिष्ठिर
उवाच
अतिक्रामति कालेऽस्मिन्
सर्वभूतक्षया ।
किं श्रेयः
प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
राजा
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! समस्त भूतों का संहार करनेवाला यह काल बराबर बीता जा
रहा है, ऐसी अवस्था में मनुष्य क्या करने से कल्याण
का भागी हो सकता है ? यह मुझे बताइये ॥ १ ॥
भीष्म उवाच
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम् ।
पितुः पुत्रेण
संवादं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥
भीष्मजी ने
कहा - युधिष्ठिर ! इस विषय में ज्ञानी पुरुष पिता और पुत्र के संवादरूप इस प्राचीन
इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं । तुम उस संवाद को ध्यान देकर सुनो ॥ २ ॥
द्विजातेः
कस्यचित् पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै ।
बभूव पुत्रो
मेधावी मेधावी नाम नामतः ॥ ३ ॥
कुन्तीकुमार !
प्राचीन काल में एक ब्राह्मण थे, जो सदा वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर रहते थे। उनके एक पुत्र हुआ,
जो गुण से तो मेधावी था ही, नाम से भी मेधावी
था ॥ ३ ॥
सोऽब्रवीत्
पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम् ।
मोक्षधर्मार्थकुशलो
लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ४ ॥
वह मोक्ष, धर्म और अर्थ में कुशल तथा लोकतत्त्व का अच्छा
ज्ञाता था। एक दिन उस पुत्र ने अपने स्वाध्यायपरायण पिता से कहा- ॥ ४ ॥
पुत्र उवाच
धीरः
किंस्वित् तात कुर्यात् प्रजानन्
क्षिप्रं ह्यायुर्भ्रश्यते
मानवानाम् ।
पितस्तदाचक्ष्व
यथार्थयोगं
ममानुपूर्व्या
येन धर्मं चरेयम् ॥ ५ ॥
पुत्र बोला-
पिताजी ! मनुष्यों की आयु तीव्र गति से बीती जा रही है। यह जानते हुए धीर पुरुष को
क्या करना चाहिये ? तात ! आप मुझे उस यथार्थ उपाय का उपदेश कीजिये, जिसके
अनुसार मैं धर्म का आचरण कर सकूँ ॥ ५ ॥
पितोवाच
वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण
पुत्र
पुत्रानिच्छेत्
पावनार्थं पितॄणाम् ।
अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो
वनं
प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत् ॥ ६ ॥
पिता ने कहा-
बेटा! द्विज को चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य –व्रत का पालन करते हुए सम्पूर्ण
वेदों का अध्ययन करे; फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके पितरों की सद्गति के लिये पुत्र पैदा
करने की इच्छा करे। विधिपूर्वक त्रिविध अग्नियों की स्थापना करके यज्ञों का
अनुष्ठान करे। तत्पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करे। उसके बाद मौनभाव से
रहते हुए संन्यासी होने की इच्छा करे ॥ ६ ॥
पुत्र उवाच
एवमभ्याहते लोके
समन्तात् परिवारिते ।
अमोघासु
पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे ॥ ७ ॥
पुत्र ने कहा
- पिताजी ! यह लोक जब इस प्रकार से मृत्यु द्वारा मारा जा रहा है, जरा अवस्था द्वारा चारों ओर से घेर लिया
गया है, दिन और रात सफलतापूर्वक आयुक्षयरूप काम करके बीत रहे
हैं- ऐसी दशा में भी आप धीर की भाँति कैसी बात कर रहे हैं ? ॥
७ ॥
पितोवाच
कथमभ्याहतो
लोकः केन वा परिवारितः ।
अमोघाः काः
पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम् ॥ ८ ॥
पिता ने पूछा-
बेटा! तुम मुझे भयभीत-सा क्यों कर रहे हो ? बताओ तो सही, यह लोक किससे मारा जा रहा
है, किसने इसे घेर रखा है और यहाँ कौन से ऐसे व्यक्ति हैं,
जो सफलतापूर्वक अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं ? ॥ ८ ॥
पुत्र उवाच
मृत्युनाभ्याहतो
लोको जरया परिवारितः ।
अहोरात्राः पतन्त्येते
ननु कस्मान्न बुध्यसे ॥९॥
पुत्र ने कहा
- पिताजी ! देखिये, यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है। बुढ़ापे ने इसे चारों
ओर से घेर लिया है और ये दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं, जो
सफलतापूर्वक प्राणियों की आयु का अपहरणस्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं,
इस बात को आप समझते क्यों नहीं हैं ? ॥ ९ ॥
अमोघा
रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति च ।
यदाहमेतज्जानामि
न मृत्युस्तिष्ठतीति ह ।
सोऽहं कथं
प्रतीक्षिष्ये जालेनापिहितश्चरन् ॥ १० ॥
ये अमोघ
रात्रियाँ नित्य आती हैं और चली जाती हैं। जब मैं इस बात को जानता हूँ कि मृत्यु
क्षणभर के लिये भी रुक नहीं सकती और मैं उसके जाल में फँसकर ही विचर रहा हूँ, तब मैं थोड़ी देर भी प्रतीक्षा कैसे कर
सकता हूँ? ॥ १० ॥
रात्र्यां रात्र्यां
व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा ।
गाधोदके
मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा ॥ ११ ॥
जब एक-एक रात
बीतने के साथ ही आयु बहुत कम होती चली जा रही है, तब छिछले जल में रहनेवाली मछली के समान कौन सुख पा सकता है ?
॥ ११ ॥
(यस्यां
रात्र्यां व्यतीतायां न किञ्चिच्छुभमाचरेत् । )
तदैव वन्ध्यं
दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः ।
अनवाप्तेषु
कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् ॥ १२ ॥
जिस रात बीतने
पर मनुष्य कोई शुभ कर्म न करे, उस दिन को विद्वान् पुरुष 'व्यर्थ ही गया' समझे। मनुष्य की कामनाएँ पूरी भी नहीं होने पातीं कि मौत उसके पास आ
पहुँचती है ॥ १२ ॥
शष्पाणीव विचिन्वन्तमन्यत्रगतमानसम्
।
वृकीवोरणमासाद्य
मृत्युरादाय गच्छति ॥ १३ ॥
जैसे घास चरते
हुए भेंड़े के पास अचानक व्याघ्री पहुँच जाती है और उसे दबोचकर चल देती है, उसी प्रकार मनुष्य का मन जब दूसरी ओर लगा
होता है, उसी समय सहसा मृत्यु आ जाती है और उसे लेकर चल देती
है ॥ १३ ॥
अद्यैव कुरु
यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगादयम् ।
अकृतेष्वेव कार्येषु
मृत्युर्वै सम्प्रकर्षति ॥ १४ ॥
इसलिये जो
कल्याणकारी कार्य हो, उसे आज ही कर डालिये। आपका यह समय हाथ से निकल न जाय; क्योंकि सारे काम अधूरे ही पड़े रह जायँगे और मौत आपको खींच ले जायगी ॥ १४
॥
श्वः
कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्निकम् ।
न हि
प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम् ॥ १५ ॥
कल किया
जानेवाला काम आज ही पूरा कर लेना चाहिये । जिसे सायंकाल में करना है, उसे प्रातः काल में ही कर लेना चाहिये;
क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं ॥ १५ ॥
को हि जानाति
कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति ।
( न मृत्युरामन्त्रयते हर्तुकामो जगत्प्रभुः ।
अबुद्ध एवाक्रमते
मीनान् मीनग्रहो यथा ॥ )
कौन जानता है
कि किसका मृत्युकाल आज ही उपस्थित होगा ? सम्पूर्ण जगत्पर प्रभुत्व रखनेवाली मृत्यु जब किसी को हरकर ले
जाना चाहती है तो उसे पहले से निमन्त्रण नहीं भेजती है। जैसे मछेरे चुपके से आकर
मछलियों को पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार मृत्यु अज्ञात रहकर ही
आक्रमण करती है ॥
युवैव धर्मशीलः
स्यादनित्यं खलु जीवितम् ।
कृते धर्मे
भवेत् कीर्तिरिह प्रेत्य च वै सुखम् ॥ १६ ॥
मोहेन हि
समाविष्टः पुत्रदारार्थमुद्यतः ।
कृत्वा
कार्यमकार्यं वा पुष्टिमेषां प्रयच्छति ॥ १७ ॥
अतः युवावस्था
में ही सबको धर्म का आचरण करना चाहिये; क्योंकि जीवन निःसन्देह अनित्य है । धर्माचरण करने से इस लोक में
मनुष्य की कीर्ति का विस्तार होता है और परलोक में भी उसे सुख मिलता है। जो मनुष्य
मोह में डूबा हुआ है, वही पुत्र और स्त्री के लिये उद्योग
करने लगता है और करने तथा न करनेयोग्य काम करके इन सबका पालन-पोषण करता है ॥ १६-१७
॥
तं
पुत्रपशुसम्पन्नं व्यासक्तमनसं नरम् ।
सुप्तं
व्याघ्रो मृगमिव मृत्युरादाय गच्छति ॥ १८ ॥
जैसे सोये हुए
मृग को बाघ उठा ले जाता है, उसी प्रकार पुत्र और पशुओं से सम्पन्न एवं उन्हीं में मन को फँसाये
रखनेवाले मनुष्य को एक दिन मृत्यु आकर उठा ले जाती है ॥ १८ ॥
सञ्चिन्वानकमेवैनं
कामानामवितृप्तकम् ।
व्याघ्रः
पशुमिवादाय मृत्युरादाय गच्छति ॥ १९ ॥
जबतक मनुष्य
भोगों से तृप्त नहीं होता, संग्रह ही करता रहता है, तभीतक ही उसे मौत आकर ले
जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे व्याघ्र किसी पशु को ले जाता है
॥ १९ ॥
इदं कृतमिदं
कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम् ।
एवमीहासुखासक्तं
कृतान्तः कुरुते वशे ॥ २० ॥
मनुष्य सोचता
है कि यह काम पूरा हो गया, यह अभी करना है और यह अधूरा ही पड़ा है; इस प्रकार
चेष्टाजनित सुख में आसक्त हुए मानव को काल अपने वश में कर लेता है॥ २० ॥
कृतानां
फलमप्राप्तं कर्मणां कर्मसंज्ञितम् ।
क्षेत्रापणगृहासक्तं
मृत्युरादाय गच्छति ॥ २१ ॥
मनुष्य अपने
खेत, दूकान और घर में ही फँसा रहता है, उसके किये हुए उन कर्मों का फल मिलने भी नहीं पाता, उसके
पहले ही उस कर्मासक्त मनुष्य को मृत्यु उठा ले जाती है ॥ २१ ॥
दुर्बलं
बलवन्तं च शूरं भीरुं जडं कविम् ।
अप्राप्तं सर्वकामार्थान्
मृत्युरादाय गच्छति ॥ २२ ॥
कोई दुर्बल हो
या बलवान्, शूरवीर हो
या डरपोक तथा मूर्ख हो या विद्वान्, मृत्यु उसकी समस्त
कामनाओं के पूर्ण होने से पहले ही उसे उठा ले जाती है ॥ २२ ॥
मृत्युर्जरा च
व्याधिश्च दुःखं चानेककारणम् ।
अनुषक्तं यदा
देहे किं स्वस्थ इव तिष्ठसि ॥ २३ ॥
पिताजी! जब इस
शरीर में मृत्यु, जरा, व्याधि और अनेक कारणों से होनेवाले दुःखों का
आक्रमण होता ही रहता है, तब आप स्वस्थ-से होकर क्यों बैठे
हैं ? ॥ २३ ॥
जातमेवान्तकोऽन्ताय
जरा चान्वेति देहिनम् ।
अनुषक्ता द्वयेनैते
भावा: स्थावरजङ्गमाः ॥ २४ ॥
देहधारी जीव के
जन्म लेते ही अन्त करने के लिये मौत और बुढ़ापा उसके पीछे लग जाते हैं। ये समस्त
चराचर प्राणी इन दोनों से बँधे हुए हैं ॥ २४ ॥
मृत्योर्वा
मुखमेतद् वै या ग्रामे वसतो रतिः ।
देवानामेष वै
गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः ॥ २५ ॥
ग्राम या नगर में
रहकर जो स्त्री- पुत्र आदि में आसक्ति बढ़ायी जाती है, यह मृत्यु का मुख ही है और जो वन का आश्रय
लेता है, यह इन्द्रियरूपी गौओं को बाँधने के लिये गोशाला के
समान है, यह श्रुति का कथन है ॥ २५ ॥
निबन्धनी
रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः ।
छित्त्वैतां
सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः ॥ २६ ॥
ग्राम में
रहने पर वहाँ के स्त्री-पुत्र आदि विषयों में जो आसक्ति होती है, यह जीव को बाँधनेवाली रस्सी के समान है।
पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे नहीं काट पाते हैं ॥
२६ ॥
न हिंसयति यो
जन्तून् मनोवाक्कायहेतुभिः ।
जीवितार्थापनयनैः
प्राणिभिर्न स हिंस्यते ॥ २७ ॥
जो मनुष्य मन, वाणी और शरीररूपी साधनों द्वारा प्राणियों की
हिंसा नहीं करता, उसकी भी जीवन और अर्थ का नाश करनेवाले
हिंसक प्राणी हिंसा नहीं करते हैं ॥ २७ ॥
न
मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित् प्रबाधते ।
ऋते सत्यमसत्
त्याज्यं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम् ॥ २८ ॥
सत्य के बिना
कोई भी मनुष्य सामने आते हुए मृत्यु की सेना का कभी सामना नहीं कर सकता; इसलिये असत्य को त्याग देना चाहिये;
क्योंकि अमृतत्व सत्य में ही स्थित है ॥ २८ ॥
तस्मात् सत्यव्रताचारः
सत्ययोगपरायणः ।
सत्यागमः सदा
दान्तः सत्येनैवान्तकं जयेत् ॥ २९ ॥
अतः मनुष्य को
सत्यव्रत का आचरण करना चाहिये। सत्ययोग में तत्पर रहना और शास्त्र की बातों को
सत्य मानकर श्रद्धापूर्वक सदा मन और इन्द्रियों का संयम करना चाहिये। इस प्रकार
सत्य के द्वारा ही मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकता है ॥ २९ ॥
अमृतं चैव मृत्युश्च
द्वयं देहे प्रतिष्ठितम् ।
मृत्युमापपद्यते
मोहात् सत्येनापद्यतेऽमृतम् ॥ ३० ॥
अमृत और
मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को
प्राप्त होता है ॥ ३० ॥
सोऽहं
ह्यहिंस्त्रः सत्यार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः ।
समदुःखसुखः क्षेमी
मृत्युं हास्याम्यमर्त्यवत् ॥ ३१ ॥
अतः अब मैं
हिंसा से दूर रहकर सत्य की खोज करूँगा, काम और क्रोध को हृदय से निकालकर दुःख और सुख में समान भाव
रखूँगा तथा सबके लिये कल्याणकारी बनकर देवताओं के समान मृत्यु के भय से मुक्त हो
जाऊँगा ॥ ३१ ॥
शान्तियज्ञरतो
दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः ।
वाङ्मन: कर्मयज्ञश्च
भविष्याम्युदगायने ॥ ३२ ॥
मैं
निवृत्तिपरायण होकर शान्तिमय यज्ञ में तत्पर रहूँगा, मन और इन्द्रियों को वश में रखकर ब्रह्मयज्ञ ( वेद-शास्त्रों के
स्वाध्याय) में लग जाऊँगा और मुनिवृत्ति से रहूँगा । उत्तरायण के मार्ग से जाने के
लिये मैं जप और स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र एवं गुरुशुश्रूषादि रूप
कर्मयज्ञ का अनुष्ठान करूँगा॥३२॥
पशुयज्ञैः कथं
हिंस्त्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति ।
अन्तवद्भिरिव प्राज्ञः
क्षेत्रयज्ञैः पिशाचवत् ॥ ३३ ॥
मेरे जैसा
विद्वान् पुरुष नश्वर फल देनेवाले हिंसायुक्त पशुयज्ञ और पिशाचों के समान अपने
शरीर के ही रक्त-मांस द्वारा किये जानेवाले तामस यज्ञों का अनुष्ठान कैसे कर सकता
है ?
॥ ३३ ॥
यस्य वाङ्मनसी
स्यातां सम्यक् प्रणिहिते सदा ।
तपस्त्यागश्च
सत्यं च स वै सर्वमवाप्नुयात् ॥ ३४ ॥
जिसकी वाणी और
मन दोनों सदा भलीभाँति एकाग्र रहते हैं तथा जो त्याग,
तपस्या और सत्य से सम्पन्न होता है,
वह निश्चय ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है ॥ ३४ ॥
नास्ति
विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।
नास्ति रागसमं
दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ३५ ॥
संसार में
विद्या (ज्ञान) के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख
नहीं है ॥ ३५ ॥
आत्मन्येवात्मना
जात आत्मनिष्ठोऽप्रजोऽपि वा ।
आत्मन्येव
भविष्यामि न मां तारयति प्रजा ॥ ३६ ॥
मैं
सन्तानरहित होने पर भी परमात्मा में ही परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुआ हूँ,
परमात्मा में ही स्थित हूँ। आगे भी आत्मा में ही लीन होऊँगा
। सन्तान मुझे पार नहीं उतारेगी ॥ ३६ ॥
नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति
वित्तं
यथैकता समता सत्यता
च।
शीलं स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं
ततस्ततश्चोपरमः
क्रियाभ्यः ॥ ३७ ॥
परमात्मा के
साथ एकता तथा समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्ड का परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से उपरति - इनके समान
ब्राह्मण के लिये दूसरा कोई धन नहीं है ॥ ३७ ॥
किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि
किं ते
किं ते
दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यसि ।
आत्मानमन्विच्छ
गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते
क्व गताः पिता च ॥ ३८ ॥
ब्राह्मणदेव
पिताजी! जब आप एक दिन मर ही जायँगे तो आपको इस धन से क्या लेना है अथवा
भाई-बन्धुओं से आपका क्या काम है तथा स्त्री आदि से आपका कौन-सा प्रयोजन सिद्ध
होनेवाला है ? आप अपने हृदयरूपी गुफा में स्थित हुए परमात्मा को खोजिये । सोचिये तो सही,
आपके पिता और पितामह कहाँ चले गये ?
॥ ३८ ॥
भीष्म उवाच
पुत्रस्यैतद्
वचः श्रुत्वा यथाकार्षीत् पिता नृप ।
तथा त्वमपि
वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः ॥ ३९ ॥
भीष्मजी कहते
हैं—
नरेश्वर ! पुत्र का यह वचन सुनकर पिता ने जैसे सत्य – धर्म का
अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार तुम भी सत्य – धर्म में तत्पर रहकर यथायोग्य
बर्ताव करो ॥ ३९ ॥
॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पुत्रगीता सम्पूर्णा ॥
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