यम गीता

यम गीता

एक यमगीता अग्निमहापुराण के अन्तर्गत भी प्राप्त होती है। यह गीता यमराज द्वारा नचिकेता के प्रति कही गयी है। इस गीता की केन्द्रीय विषयवस्तु योगदर्शन है। इसके प्रारम्भ में प्राचीन काल के विभिन्न मनीषियों यथा- पंचशिख, जनक, जैगीषव्य, देवल आदि के मतानुसार मनुष्य के परमकल्याण के साधन बताये गये हैं, जिनके द्वारा आत्मचिन्तन तथा अनासक्त भाव से शास्त्रोक्त कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। इसके बाद इसमें योगमार्ग का वर्णन है; विशेषकर यम- नियम द्वारा मन का निग्रह करते हुए समाधि-अवस्था प्राप्त करने का उपाय बताया गया है। जिससे जीव ब्रह्मभाव में स्थित हो जाता है, यह सारगर्भित एवं तात्त्विक यमगीता यहाँ  सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-

श्रीअग्निपुराण अध्याय ३८२ यमगीता

यम गीता

Yam gita

श्रीअग्निपुराण अध्याय ३८२ यमगीता

अग्निपुराणान्तर्गता यम गीता

यमगीता

यमगीता - २

॥ अथ प्रारभ्यते अग्निपुराणान्तर्गता यमगीता ॥

अग्निरुवाच

यमगीतां प्रवक्ष्यामि उक्ता या नाचिकेतसे ।

पठतां शृण्वतां भुक्त्यै मुक्त्यै मोक्षार्थिनां सताम् ॥ १ ॥

अग्निदेव कहते हैं - ब्रह्मन् ! अब मैं यमगीता का वर्णन करूँगा, जो यमराज के द्वारा नचिकेता के प्रति कही गयी थी। यह पढ़ने और सुननेवालों को भोग प्रदान करती है तथा मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले सत्पुरुषों को मोक्ष देनेवाली है ॥ १ ॥

यम उवाच

आसनं शयनं यानपरिधानगृहादिकम् ।

वाञ्छत्यहो ऽतिमोहेन सुस्थिरं स्वयमस्थिरः ॥ २ ॥

यमराज ने कहा - अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अत्यन्त मोह के कारण स्वयं अस्थिरचित्त होकर आसन, शय्या, वाहन, परिधान (पहनने के वस्त्र आदि) तथा गृह आदि भोगों को सुस्थिर मानकर प्राप्त करना चाहता है ॥ २ ॥

भोगेषु शक्ति: सततं तथैवात्मावलोकनम् ।

श्रेयः परं मनुष्याणां कपिलोद्गीतमेव हि ॥ ३ ॥

कपिलजी ने कहा है-'भोगों में आसक्ति का अभाव तथा सदा ही आत्मतत्त्व का चिन्तन - यह मनुष्यों के परमकल्याण का उपाय है' ॥ ३ ॥

सर्वत्र समदर्शित्वं निर्ममत्वमसङ्गता ।

श्रेयः परं मनुष्याणां गीतं पञ्चशिखेन हि ॥४॥

'सर्वत्र समतापूर्ण दृष्टि तथा ममता और आसक्ति का न होना- यह मनुष्यों के परमकल्याण का साधन है' - यह आचार्य पंचशिख का उद्गार है ॥ ४ ॥

आगर्भजन्मबाल्यादिवयोऽवस्थादिवेदनम् ।

श्रेयः परं मनुष्याणां गङ्गाविष्णुप्रगीतकम् ॥ ५ ॥

'गर्भ से लेकर जन्म और बाल्य आदि वय तथा अवस्थाओं के स्वरूप को ठीक-ठीक समझना ही मनुष्यों के परमकल्याण का हेतु है'- यह गंगा – विष्णु का गान है ॥ ५ ॥

आध्यात्मिकादिदुः खानामाद्यन्तादिप्रतिक्रिया ।

श्रेयः परं मनुष्याणां जनकोद्गीतमेव च ॥ ६ ॥

'आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःख आदि- अन्तवाले हैं अर्थात् ये उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, अतः इन्हें क्षणिक समझकर धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये, विचलित नहीं होना चाहिये - इस प्रकार उन दुःखों का प्रतिकार ही मनुष्यों के लिये परमकल्याण का साधन है'- यह महाराज जनक का मत है ॥ ६ ॥

अभिन्नयोर्भेदकरः प्रत्ययो यः परात्मनः ।

तच्छान्तिपरमं श्रेयो ब्रह्मोद्गीतमुदाहृतम्॥ ७॥

'जीवात्मा और परमात्मा वस्तुतः अभिन्न (एक) हैं, इनमें जो भेद की प्रतीति होती है, उसका निवारण करना ही परमकल्याण का हेतु है' - यह ब्रह्माजी का सिद्धान्त है ॥ ७ ॥

कर्तव्यमिति यत्कर्म ऋग्यजुःसामसंज्ञितम् ।

कुरुते श्रेयसे सङ्गान् जैगीषव्येण गीयते ॥ ८ ॥

जैगीषव्य का कहना है कि 'ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में प्रतिपादित जो कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य समझकर अनासक्तभाव से करना श्रेय का साधन है' ॥ ८ ॥

हानि: सर्वविधित्सानामात्मनःसुखहैतुकी ।

श्रेयः परं मनुष्याणां देवलोद्गीतमीरितम् ॥ ९ ॥

'सब प्रकार की विधित्सा (कर्मारम्भ की आकांक्षा) - का परित्याग आत्मा के सुख का साधन है, यही मनुष्यों के लिये परम श्रेय है'- यह देवल का मत बताया गया है ॥ ९ ॥

कामत्यागात्तु विज्ञानं सुखं ब्रह्म परं पदम् ।

कामिनां न हि विज्ञानं सनकोद्गीतमेव तत् ॥ १० ॥

'कामनाओं के त्याग से विज्ञान, सुख, ब्रह्म एवं परमपद की प्राप्ति होती है। कामना रखनेवालों को ज्ञान नहीं होता' - यह सनकादिकों का सिद्धान्त है ॥ १० ॥

प्रवृत्तञ्च निवृत्तञ्च कार्यं कर्मपरोऽब्रवीत् ।

श्रेयसां श्रेय एतद्धि नैष्कर्म्यं ब्रह्म तद्धरिः ॥ ११ ॥

दूसरे लोग कहते हैं कि प्रवृत्ति और निवृत्ति - दोनों प्रकार के कर्म करने चाहिये। परंतु वास्तव में नैष्कर्म्य ही ब्रह्म है, वही भगवान् विष्णु का स्वरूप है- यही श्रेय का भी श्रेय है ॥ ११ ॥

पुमांश्चाधिगतज्ञानो भेदं नाप्नोति सत्तमः ।

ब्रह्मणा विष्णुसंज्ञेन परमेणाव्ययेन च ॥ १२ ॥

जिस पुरुष को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वह सन्तों में श्रेष्ठ है, वह अविनाशी परब्रह्म विष्णु से कभी भेदको नहीं प्राप्त होता ॥ १२ ॥

ज्ञानं विज्ञान मास्तिक्यं सौभाग्यं रूपमुत्तमम् ।

तपसा लभ्यते सर्वं मनसा यद्यदिच्छति ॥ १३॥

ज्ञान, विज्ञान, आस्तिकता, सौभाग्य तथा उत्तम रूप तपस्या से उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य अपने मन से जो-जो वस्तु पाना चाहता है, वह सब तपस्या से प्राप्त हो जाती है ॥ १३ ॥

नास्ति विष्णुसमं ध्येयं तपो नानशनात्परं ।

नास्त्यारोग्यसमं धन्यं नास्ति गङ्गासमा सरित् ॥ १४ ॥

विष्णु के समान कोई ध्येय नहीं है, निराहार रहने से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, आरोग्य के समान कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं है और गंगाजी के तुल्य दूसरी कोई नदी नहीं है ॥ १४ ॥

न सोऽस्ति बान्धवः कश्चिद्विष्णुं मुक्त्वा जगद्गुरुम् ।

अधश्चोर्ध्वं हरिश्चाग्रे देहेन्द्रियमनोमुखे ॥ १५ ॥

जगद्गुरु भगवान् विष्णु को छोड़कर दूसरा कोई बान्धव नहीं है। नीचे-ऊपर, आगे, देह, इन्द्रिय, मन तथा मुख – सब में और सर्वत्र भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं ॥ १५ ॥

इत्येवं संस्मरन् प्राणान् यस्त्यजेत्स हरिर्भवेत् ।

यत्तद् ब्रह्म यतः सर्वं यत्सर्वं तस्य संस्थितम् ॥ १६ ॥

अग्राह्यकमनिर्देश्यं सुप्रतिष्ठञ्च यत्परम् ।

परापरस्वरूपेण विष्णुः सर्वहृदि स्थितः ॥ १७ ॥

यज्ञेशं यज्ञपुरुषं केचिदिच्छन्ति तत्परम् ।

केचिद्विष्णुं हरं केचित् केचिद् ब्रह्माणमीश्वरम् ॥ १८ ॥

इन्द्रादिनामभिः केचित् सूर्यं सोमञ्च कालकम् ।

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं जगद्विष्णुं वदन्ति च ॥ १९ ॥

इस प्रकार भगवान्‌ का चिन्तन करते हुए जो प्राणों का परित्याग करता है, वह साक्षात् श्रीहरि के स्वरूप में मिल जाता है। वह जो सर्वत्र व्यापक ब्रह्म है, जिससे सबकी उत्पत्ति हुई है, जो सर्वस्वरूप है तथा यह सब कुछ जिसका संस्थान (आकारविशेष) है, जो इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, जिसका किसी नाम आदि के द्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता, जो सुप्रतिष्ठित एवं सबसे परे है, उस परापर ब्रह्म के रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही सबके हृदय में विराजमान हैं। वे यज्ञ के स्वामी तथा यज्ञस्वरूप हैं; उन्हें कोई तो परब्रह्मरूप से प्राप्त करना चाहते हैं, कोई विष्णुरूप से, कोई शिवरूप से, कोई ब्रह्मा और ईश्वररूप से, कोई इन्द्रादि नामों से तथा कोई सूर्य, चन्द्रमा और कालरूप से उन्हें पाना चाहते हैं। ब्रह्मा से लेकर कीटतक सारे जगत्को विष्णु का ही स्वरूप कहते हैं।१६-१९॥

स विष्णुः परमं ब्रह्म यतो नावर्तते पुनः ।

सुवर्णादिमहादानपुण्यतीर्थावगाहनैः ॥ २० ॥

ध्यानैर्व्रतैः पूजया च धर्मश्रुत्या तदाप्नुयात् ।

वे भगवान् विष्णु परब्रह्म परमात्मा हैं, जिनके पास पहुँच जानेपर  (जिन्हें जान लेने या पा लेने पर) फिर वहाँ से इस संसारमें नहीं लौटना पड़ता। सुवर्ण दान आदि बड़े-बड़े दान तथा पुण्य तीर्थों में स्नान करने से, ध्यान लगाने से, व्रत करने से, पूजा से और धर्म की बातें सुनने ( एवं उनका पालन करने) से उनकी प्राप्ति होती है ॥ २०अ ॥

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ॥ २१॥

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांश्चेषु गोचरान् ॥ २२ ॥

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।

आत्मा को 'रथी' समझो और शरीर को 'रथ' । बुद्धि को 'सारथि ' जानो और मन को 'लगाम' । विवेकी पुरुष इन्द्रियों को 'घोड़े' कहते हैं और विषयों को उनके 'मार्ग' तथा शरीर, इन्द्रिय और मनसहित आत्मा को 'भोक्ता' कहते हैं ।२१–२२अ॥

यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा ॥ २३ ॥

न सत्पदमवाप्नोति संसारञ्चाधिगच्छति ।

यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा ॥ २४ ॥

स तत्पदमवाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ।

जो बुद्धिरूप सारथि अविवेकी होता है, जो अपने मनरूपी लगाम को कसकर नहीं रखता, वह उत्तमपद परमात्मा को नहीं प्राप्त होता, संसाररूपी गर्त में गिरता है। परंतु जो विवेकी होता है और मन को काबू में रखता है, वह उस परमपद को प्राप्त होता है, जिससे वह फिर जन्म नहीं लेता । २३-२४अ ॥

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः ॥ २५ ॥

सोऽध्वानं परमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ।

जो मनुष्य विवेकयुक्त बुद्धिरूप सारथि से सम्पन्न और मनरूपी लगाम को काबू में रखनेवाला होता है, वही संसाररूपी मार्ग को पार करता है, जहाँ विष्णु का परमपद है॥ २५अ ॥

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ॥ २६ ॥

मनसस्तु परा बुद्धिः बुद्धेरात्मा महान् परः ।

महतःपरमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः ।। २७ ।।

पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ।

इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय पर हैं, विषयों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे महान् आत्मा (महत्तत्त्व) है, महत्तत्त्व से परे अव्यक्त (मूलप्रकृति) है और अव्यक्त से परे पुरुष (परमात्मा) है। पुरुष से परे कुछ भी नहीं है, वही सीमा है, वही परमगति है ॥ २६-२७अ ॥

एषु सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते ॥ २८ ॥

दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ।

यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञः तद्यच्छेज्ज्ञानमात्मनि ॥ २९ ॥

ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेच्छान्त आत्मनि ।

सम्पूर्ण भूतों में छिपा हुआ यह आत्मा प्रकाश में नहीं आता । सूक्ष्मदर्शी पुरुष अपनी तीव्र एवं सूक्ष्म बुद्धि से ही उसे देख पाते हैं। विद्वान् पुरुष वाणी को मन में और मन को विज्ञानमयी बुद्धि में लीन करे । इसी प्रकार बुद्धि को महत्तत्त्व में और महत्तत्त्व को शान्त आत्मा में लीन करे ।। २८-२९१/२ ॥

ज्ञात्वा ब्रह्मात्मनोर्योगं यमाद्यैर्ब्रह्म सद्भवेत् ॥ ३० ॥

अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रही ।

यमाश्च नियमाः पञ्च शौचं सन्तोषसत्तपः ॥ ३१ ॥

स्वाध्यायेश्वरपूजा च आसनं पद्मकादिकम् ।

प्राणायामो वायुजयः प्रत्याहारः स्वनिग्रहः ॥ ३२ ॥

यम-नियमादि साधनों से ब्रह्म और आत्मा की एकता को जानकर मनुष्य सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( संग्रह न करना) - ये पाँच 'यम' कहलाते हैं। 'नियम' भी पाँच ही हैं- शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), सन्तोष, उत्तम तप, स्वाध्याय और ईश्वरपूजा। 'आसन' बैठने की प्रक्रिया का नाम है, उसके' पद्मासन' आदि कई भेद हैं। प्राणवायु को जीतना 'प्राणायाम ' है । इन्द्रियों का निग्रह 'प्रत्याहार' कहलाता है ॥ ३०-३२ ॥

शुभे ह्येकत्र विषये चेतसो यत् प्रधारणम् ।

निश्चलत्वात्तु धीमद्भिर्धारणा द्विज कथ्यते ॥ ३३ ॥

पौनःपुन्येन तत्रैव विषयेष्वेव धारणा ।

ध्यानं स्मृतं समाधिस्तु अहं ब्रह्मात्मसंस्थितिः ॥ ३४ ॥

ब्रह्मन् ! एक शुभ विषय में जो चित्त को स्थिरतापूर्वक स्थापित करना होता है, उसे बुद्धिमान् पुरुष 'धारणा' कहते हैं। एक ही विषय में बारम्बार धारणा करने का नाम 'ध्यान' है। 'मैं ब्रह्म हूँ' - इस प्रकार के अनुभव में स्थिति होने को 'समाधि' कहते हैं । ३३-३४ ॥

घटध्वंसाद्यथाकाशमभिन्नं नभसा भवेत् ।

मुक्तो जीवो ब्रह्मणैवं सब्रह्म ब्रह्म वै भवेत् ॥ ३५ ॥

आत्मानं मन्यते ब्रह्म जीवो ज्ञानेन नान्यथा ।

जीवो ह्यज्ञानतत्कार्यमुक्तः स्यादजरामरः ॥ ३६ ॥

जैसे घड़ा फूट जाने पर घटाकाश महाकाश से अभिन्न (एक) हो जाता है, उसी प्रकार मुक्त जीव ब्रह्म के साथ एकीभाव को प्राप्त होता है वह सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है। ज्ञान से ही जीव अपने को ब्रह्म मानता है, अन्यथा नहीं अज्ञान और उसके कार्यों से मुक्त होने पर जीव अजर-अमर हो जाता है ।। ३५-३६ ॥

अग्निरुवाच

वसिष्ठ यमगीतोक्ता पठतां भुक्तिमुक्तिदा ।

आत्यन्तिको लय: प्रोक्तो वेदान्तब्रह्ममयः ॥ ३७ ॥

अग्निदेव कहते हैंवसिष्ठ ! यह मैंने यमगीता बतलायी है । इसे पढ़नेवालों को यह भोग और मोक्ष प्रदान करती है। वेदान्त के अनुसार सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि का होना 'आत्यन्तिक लय' कहलाता है ॥ ३७ ॥

॥ इति श्री अग्निमहापुराणे यमगीता सम्पूर्णा ॥

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