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कर्मकाण्ड

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यमगीता

यमगीता

'यमगीता' नाम से पुराण- वाङ्मय में कई गीताएँ मिलती हैं। श्रीविष्णुपुराण के अन्तर्गत समाहित यमगीता उन्हीं में से एक है। यम के दूत किन मनुष्यों से सदैव दूर ही रहते हैं- यही इस लघु कलेवरवाली गीता में स्वयं यमराज द्वारा अपने दूतों को बताया गया है। सच्चे भक्तों के लक्षण बताने के उपक्रम में जो सदाचार- विषयक चर्चा इसमें की गयी हैं, वह अत्यन्त प्रभावी होने के साथ भगवान्‌ के किसी भी स्वरूप के उपासक के लिये सहज ग्राह्य हो सकती है। वस्तुतः एक सनातन ब्रह्म ही विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त है। अतएव विष्णुभक्त पद से भक्तमात्र का तात्पर्य लेना चाहिये। सरल-सुबोध, परंतु मार्मिक भाषा-शैली में निबद्ध कल्याणकारी इस यमगीता को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-

विष्णुपुराणान्तर्गत यमगीता

यमगीता

Yam Geeta

श्रीविष्णुपुराण तृतीय अंश अध्याय ७ यमगीता

विष्णुपुराणान्तर्गता यम गीता

यम गीता

यमगीता १

॥ अथ प्रारभ्यते विष्णुपुराणान्तर्गता यमगीता ॥

श्रीमैत्रेय उवाच

यथावत्कथितं सर्वं यत्पृष्टोऽसि मया गुरो ।

श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वेकं तद्भवान्प्रब्रवीतु मे ॥ १ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले- हे गुरो ! मैंने जो कुछ पूछा था, वह सब आपने यथावत् वर्णन किया। अब मैं एक बात और सुनना चाहता वह आप मुझसे कहिये ॥ १ ॥

सप्त द्वीपानि पातालविधयश्च महामुने ।

सप्तलोकाश्च येऽन्तःस्था ब्रह्माण्डस्यास्य सर्वतः ॥ २ ॥

स्थूलैः सूक्ष्मैस्तथा सूक्ष्मसूक्ष्मात्सूक्ष्मतरैस्तथा ।

स्थूलात्स्थूलतरैश्चैव सर्वप्राणिभिरावृतम् ॥ ३ ॥

हे महामुने ! सातों द्वीप, सातों पाताल और सातों लोक- ये सभी स्थान जो इस ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत हैं; स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा स्थूल और स्थूलतर जीवों से भरे हुए हैं ॥ २-३ ॥

अङ्गुलस्याष्टभागोऽपि न सोऽस्ति मुनिसत्तम ।

न सन्ति प्राणिनो यत्र कर्मबन्धनिबन्धनाः ॥ ४ ॥

हे मुनिसत्तम! एक अंगुल का आठवाँ भाग भी कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ कर्म-बन्धन से बँधे हुए जीव न रहते हों ॥ ४ ॥

सर्वे चैते वशं यान्ति यमस्य भगवन् किल ।

आयुषोऽन्ते तथा यान्ति यातनास्तत्प्रचोदिताः ॥ ५ ॥

किंतु हे भगवन्! आयु के समाप्त होनेपर ये सभी यमराज के वशीभूत हो जाते हैं और उन्हीं के आदेशानुसार नरक आदि नाना प्रकार की यातनाएँ भोगते हैं ॥ ५ ॥

यातनाभ्यः परिभ्रष्टा देवाद्यास्वथ योनिषु ।

जन्तवः परिवर्तन्ते शास्त्राणामेष निर्णयः ॥ ६ ॥

तदनन्तर पाप-भोग के समाप्त होने पर वे देवादि योनियों में घूमते रहते हैं-सकल शास्त्रों का ऐसा ही मत है ॥६॥

सोऽहमिच्छामि तच्छ्रोतुं यमस्य वशवर्तिनः ।

न भवन्ति नरा येन तत्कर्म कथयस्व मे ॥ ७ ॥

अतः आप मुझे वह कर्म बताइये, जिसे करने से मनुष्य यमराज के वशीभूत नहीं होता; मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥ ७ ॥

श्री पराशर उवाच

अयमेव मुने प्रश्नो नकुलेन महात्मना ।

पृष्टः पितामहः प्राह भीष्मो यत्तच्छृणुष्व मे ॥ ८ ॥

श्रीपराशरजी बोले- हे मुने ! यही प्रश्न महात्मा नकुल ने पितामह भीष्म से पूछा था। उसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ कहा था, वह सुनो ॥ ८ ॥

भीष्म उवाच

पुरा ममागतो वत्स सखा कालिङ्गको द्विजः ।

स मामुवाच पृष्टो वै मया जातिस्मरो मुनिः ॥ ९ ॥

तेनाख्यातमिदं सर्वमित्थं चैतद्भविष्यति ।

तथा च तदभूद्वत्स यथोक्तं तेन धीमता ॥ १० ॥

भीष्मजी ने कहा- हे वत्स ! पूर्वकाल में मेरे पास एक कलिंग- देशीय ब्राह्मण - मित्र आया और मुझसे बोला- 'मेरे पूछने पर एक जातिस्मर मुनि ने बतलाया था कि ये सब बातें अमुक-अमुक प्रकार ही होंगी।' हे वत्स ! उस बुद्धिमान् ने जो-जो बातें जिस-जिस प्रकार होने को कही थीं, वे सब ज्यों-की-त्यों हुईं ॥ ९-१० ॥

स पृष्टश्च मया भूयः श्रद्दधानेन वै द्विजः ।

यद्यदाह न तद्दृष्टमन्यथा हि मया क्वचित् ॥ ११ ॥

इस प्रकार उसमें श्रद्धा हो जाने से मैंने उससे फिर कुछ और भी प्रश्न किये और उनके उत्तर में उस द्विजश्रेष्ठ ने जो-जो बातें बतलायीं, उनके विपरीत मैंने कभी कुछ नहीं देखा ॥ ११ ॥

एकदा तु मया पृष्टमेतद्यद्भवतोदितम् ।

प्राह कालिङ्गको विप्रस्स्मृत्वा तस्य मुनेर्वचः ॥ १२ ॥

जातिस्मरेण कथितो रहस्य: परमो मम ।

यमकिङ्करयोर्योऽभूत्संवादस्तं ब्रवीमि ते ॥ १३ ॥

एक दिन, जो बात तुम मुझसे पूछते हो, वही मैंने उस कालिंग ब्राह्मण से पूछी। उस समय उसने उस मुनि के वचनों को याद करके कहा कि उस जातिस्मर ब्राह्मण ने यम और उनके दूतों के बीच में जो संवाद हुआ था, वह अति गूढ़ रहस्य मुझे सुनाया था। वही मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १२-१३ ॥

कालिङ्ग उवाच

स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं

     वदति यमः किल तस्य कर्णमूले ।

परिहर मधुसूदनं प्रपन्नान्

     प्रभुरहमन्यनृणामवैष्णवानाम् ॥ १४ ॥

कालिंग बोला- अपने अनुचर को हाथ में पाश लिये देखकर यमराज ने उसके कान में कहा - भगवान् मधुसूदन के शरणागत व्यक्तियों को छोड़ देना; क्योंकि मैं, जो विष्णुभक्त नहीं हैं - ऐसे अन्य पुरुषों का ही स्वामी हूँ ॥ १४ ॥

अहममरवरार्चितेन धात्रा

    यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः ।

हरिगुरुवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः

     प्रभवति संयमने ममापि विष्णुः ॥ १५ ॥

देव - पूज्य विधाता ने मुझे 'यम' नाम से लोकों के पाप-पुण्य का विचार करने के लिये नियुक्त किया है। मैं अपने गुरु श्रीहरि के वशीभूत हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ । भगवान् विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करने में समर्थ हैं ॥ १५ ॥

कटकमुकुटकर्णिकादिभेदैः

    कनकमभेदमपीष्यते यथैकम् ।

सुरपशुमनुजादिकल्पनाभि-

      हरिरखिलाभिरुदीर्यते तथैकः ॥ १६ ॥

जिस प्रकार सुवर्ण भेदरहित और एक होकर भी कटक, मुकुट तथा कर्णिका आदि के भेद से नानारूप प्रतीत होता है, उसी प्रकार एक ही हरि का देवता, मनुष्य और पशु आदि नानाविध कल्पनाओं से निर्देश किया जाता है ॥ १६ ॥

क्षितितलपरमाणवोऽनिलान्ते

      पुनरुपयान्ति यथैकतां धरित्र्याः ।

सुरपशुमनुजादयस्तथान्ते

   गुणकलुषेण सनातनेन तेन ॥ १७ ॥

जिस प्रकार वायु के शान्त होने पर उसमें उड़ते हुए परमाणु पृथिवी से मिलकर एक हो जाते हैं, उसी प्रकार गुण-क्षोभ से उत्पन्न हुए समस्त देवता, मनुष्य और पशु आदि [ उसका अन्त हो जानेपर ] उस सनातन परमात्मा में लीन हो जाते हैं ॥ १७ ॥

हरिममरवरार्चिताङ्घ्रिपद्मं

      प्रणमति यः परमार्थतो हि मर्त्यः ।

तमपगतसमस्तपापबन्धं

  व्रज परिहृत्य यथाग्निमाज्यसिक्तम् ॥ १८ ॥

जो भगवान्के सुरवरवन्दित चरणकमलों की परमार्थबुद्धि से वन्दना करता है, घृताहुति से प्रज्वलित अग्नि के समान समस्त पाप-बन्धन से मुक्त हुए उस पुरुष को तुम दूर ही से छोड़कर निकल जाना ॥ १८ ॥

इति यमवचनं निशम्य पाशी

       यमपुरुषस्तमुवाच धर्मराजम् ।

कथय मम विभो समस्तधातु-

   र्भवति हरेः खलु यादृशोऽस्य भक्तः ॥ १९ ॥

यमराज के ऐसे वचन सुनकर पाशहस्त यमदूत ने उनसे पूछा- 'प्रभो! सबके विधाता भगवान् हरि का भक्त कैसा होता है, यह आप मुझसे कहिये' ॥ १९ ॥

यम उवाच

न चलति निजवर्णधर्मतो

     यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे ।

न हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः

   सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥ २०॥

यमराज बोले- जो पुरुष अपने वर्ण-धर्म से विचलित नहीं होता, अपने सुहृद् और विपक्षियों के प्रति समान भाव रखता है, बलपूर्वक किसी का द्रव्य हरण नहीं करता, और न किसी जीव की हिंसा ही करता है, उस निर्मलचित्त व्यक्ति को भगवान् विष्णु का भक्त जानो ॥ २० ॥

कलिकलुषमलेन यस्य नात्मा

      विमलमतेर्मलिनीकृतस्तमेनम् ।

मनसि कृतजनार्दनं मनुष्यं

     सततमवेहि हरेरतीवभक्तम् ॥ २१ ॥

जिस निर्मलमति का चित्त कलि-कल्मषरूप मल से मलिन नहीं हुआ और जिसने अपने हृदय में सर्वदा श्रीजनार्दन को बसाया हुआ है, उस मनुष्य को भगवान्‌ का अतीव भक्त समझो ॥ २१ ॥

कनकमपि रहस्यवेक्ष्य बुद्धया

       तृणमिव यः समवैति वै परस्वम् ।

भवति च भगवत्यनन्यचेताः

       पुरुषवरं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ २२ ॥

जो एकान्त में पड़े हुए दूसरे के सोने को देखकर भी उसे अपनी बुद्धि द्वारा तृण के समान समझता है और निरन्तर भगवान्‌ का अनन्यभाव से चिन्तन करता है, उस नरश्रेष्ठ को विष्णु का भक्त जानो ॥ २२ ॥

स्फटिकगिरिशिलामलः क्व विष्णु-

         र्मनसि नृणां क्व च मत्सरादिदोषः ।

न हि तुहिनमयूखरश्मिपुञ्जे

        भवति हुताशनदीप्तिज: प्रतापः ॥ २३ ॥

कहाँ तो स्फटिकगिरि-शिला के समान अति निर्मल भगवान् विष्णु और कहाँ मनुष्यों के चित्त में रहनेवाले राग-द्वेषादि दोष ! [इन दोनों का संयोग किसी प्रकार नहीं हो सकता ] हिमकर ( चन्द्रमा) के किरणजाल में अग्नि-तेज की उष्णता कभी नहीं रह सकती है ॥ २३ ॥

विमलमतिरमत्सरः प्रशान्त-

       श्शुचिचरितोऽखिलसत्त्वमित्रभूतः ।

प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो

       वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः ॥ २४ ॥

जो व्यक्ति निर्मल-चित्त, मात्सर्यरहित, प्रशान्त, शुद्ध चरित्र, समस्त जीवों का सुहृद्, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान एवं माया से रहित होता है, उसके हृदय में भगवान् वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ २४ ॥

वसति हृदि सनातने च तस्मिन्

       भवति पुमाञ्जगतोऽस्य सौम्यरूपः ।

क्षितिरसमतिरम्यमात्मनोऽन्तः

       कथयति चारुतयैव शालपोतः ।। २५ ।।

उन सनातन भगवान्‌ के हृदय में विराजमान होने पर पुरुष इस जगत्के लिये शान्तस्वरूप हो जाता है, जिस प्रकार नवीन शालवृक्ष अपने सौन्दर्य से ही भीतर भरे हुए अति सुन्दर पार्थिव रस को बतला देता है ॥ २५ ॥

यमनियमविधूतकल्मषाणा-

         मनुदिनमच्युतसक्तमानसानाम् ।

अपगतमदमानमत्सराणां

        त्यज भट दूरतरेण मानवानाम् ॥ २६ ॥

हे दूत ! यम और नियम के द्वारा जिनकी पापराशि दूर हो गयी है, जिनका हृदय निरन्तर श्रीअच्युत में ही आसक्त रहता है तथा जिनमें गर्व, अभिमान और मात्सर्य का लेश भी नहीं रहा है, उन मनुष्यों को तुम दूर ही से त्याग देना ॥ २६ ॥

हृदि यदि भगवाननादिरास्ते

     हरिरसिशङ्खगदाधरोऽव्ययात्मा ।

तदघमघविघातकर्तृभिन्नम्

     भवति कथं सति चान्धकारमर्के ॥ २७ ॥

यदि खड्ग, शंख और गदाधारी अव्ययात्मा भगवान् हरि हृदय में विराजमान हैं तो उन पापनाशक भगवान्‌ के द्वारा उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। सूर्य के रहते हुए भला अन्धकार कैसे ठहर सकता है ? ॥ २७ ॥

हरति परधनं निहन्ति जन्तून्

        वदति तथाऽनृतनिष्ठुराणि यश्च ।

अशुभजनितदुर्मदस्य पुंसः

        कलुषमतेर्हदि तस्य नास्त्यनन्तः ॥ २८ ॥

जो पुरुष दूसरों का धन हरण करता है, जीवों की हिंसा करता है तथा मिथ्या और कटुभाषण करता है, उस अशुभ कर्मोन्मत्त दुष्टबुद्धि के हृदय में भगवान् अनन्त नहीं टिक सकते ॥ २८ ॥

न सहति परसम्पदं विनिन्दां

            कलुषमतिः कुरुते सतामसाधुः ।

न यजति न ददाति यश्च सन्तं

       मनसि न तस्य जनार्दनोऽधमस्य ॥ २९ ॥

जो कुमति दूसरों के वैभव को नहीं देख सकता, जो दूसरों की निन्दा करता है, साधुजनों का अपकार करता है तथा [ सम्पन्न होकर भी ] न तो श्रीविष्णु भगवान् की पूजा ही करता है और न [ उनके भक्तों को] दान ही देता है, उस अधम के हृदय में श्रीजनार्दन का निवास कभी नहीं हो सकता ॥ २९ ॥

परमसुहृदि बान्धवे कलत्रे

सुततनयापितृमातृभृत्यवर्गे ।

शठमतिरुपयाति योऽर्थतृष्णां

तमधमचेष्टमवेहि नास्य भक्तम् ॥ ३० ॥

जो दुष्ट बुद्धि अपने परम सुहृद्, बन्धु बान्धव, स्त्री, पुत्र, कन्या, माता, पिता तथा भृत्यवर्ग के प्रति अर्थतृष्णा प्रकट करता है, उस पापाचारी को भगवान का भक्त मत समझो ॥ ३० ॥

अशुभमतिरसत्प्रवृत्तिसक्त-

       स्सततमनार्यकुशीलसङ्गमत्तः ।

अनुदिनकृतपापबन्धयुक्तः

         पुरुषपशुर्न हि वासुदेवभक्तः ॥ ३१ ॥

जो दुर्बुद्धि पुरुष असत्कर्मों में लगा रहता है, नीच पुरुषों के आचार और उन्हीं के संग में उन्मत्त रहता है तथा नित्यप्रति पापमय कर्मबन्धन से ही बँधता जाता है, वह मनुष्यरूप पशु ही है; वह भगवान् वासुदेव का भक्त नहीं हो सकता ॥३१॥

सकलमिदमहं च वासुदेवः

        परमपुमान् परमेश्वरः स एकः ।

इति मतिरचला भवत्यनन्ते

        हृदयगते व्रज तान्विहाय दूरात् ॥ ३२ ॥

यह सकल प्रपंच और मैं एक परमपुरुष परमेश्वर वासुदेव ही हैं, हृदय में भगवान् अनन्त के स्थित होने से जिनकी ऐसी स्थिर बुद्धि हो गयी हो, उन्हें तुम दूर ही से छोड़कर चले जाना ॥ ३२ ॥

कमलनयन वासुदेव विष्णो

     धरणिधराच्युत शंखचक्रपाणे ।

भव शरणमितीरयन्ति ये वै

     त्यज भट दूरतरेण तानपापान् ॥ ३३ ॥

'हे कमलनयन ! हे वासुदेव ! हे विष्णो! हे धरणिधर! हे अच्युत ! हे शंख-चक्रपाणे! आप हमें शरण दीजिये - जो लोग इस प्रकार पुकारते हों, उन निष्पाप व्यक्तियों को तुम दूर से ही त्याग देना ॥ ३३ ॥

वसति मनसि यस्य सोऽव्ययात्मा

     पुरुषवरस्य न तस्य दृष्टिपाते ।

तव गतिरथवा ममास्ति चक्र-

     प्रतिहतवीर्यवलस्य सोऽन्यलोक्यः ॥ ३४ ॥

जिस पुरुष श्रेष्ठ के अन्तःकरण में वे अव्ययात्मा भगवान् विराजते हैं, उसका जहाँ तक दृष्टिपात होता है वहाँ तक भगवान्‌ के चक्र के प्रभाव से अपने बल-वीर्य नष्ट हो जाने के कारण तुम्हारी अथवा मेरी गति नहीं हो सकती। वह (महापुरुष) तो अन्य (वैकुण्ठादि) लोकों का पात्र है ॥ ३४ ॥

      कालिङ्ग उवाच

इति निजभटशासनाय देवो

         रवितनयस्स किलाह धर्मराजः ।

मम कथितमिदं च तेन तुभ्यं

        कुरुवर सम्यगिदं मयापि चोक्तम् ॥ ३५॥

कालिंग बोला- हे कुरुवर ! अपने दूत को शिक्षा देने के लिये सूर्यपुत्र धर्मराज ने उससे इस प्रकार कहा। मुझसे यह प्रसंग उस जातिस्मर मुनि ने कहा था और मैंने यह सम्पूर्ण कथा तुमको सुना दी है ॥ ३५ ॥

श्रीभीष्म उवाच

नकुलैतन्ममाख्यातं पूर्वं तेन द्विजन्मना ।

कलिङ्गदेशादभ्येत्य प्रीतेन सुमहात्मना ॥ ३६ ॥

श्री भीष्मजी बोले- हे नकुल ! पूर्वकाल में कलिंग देश से आये हुए उस महात्मा ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर मुझे यह सब विषय सुनाया था ॥ ३६ ॥

मयाप्येतद्यथान्यायं सम्यग्वत्स तवोदितम् ।

यथा विष्णुमृ नान्यत्त्राणं संसारसागरे ॥ ३७ ॥

हे वत्स! वही सम्पूर्ण वृत्तान्त, जिस प्रकार कि इस संसार सागर में एक विष्णु भगवान्‌ को छोड़कर जीव का और कोई भी रक्षक नहीं है, मैंने ज्यों-का-त्यों तुम्हें सुना दिया ॥ ३७ ॥

किङ्कराः पाशदण्डाश्च न यमो न च यातनाः ।

समर्थास्तस्य यस्यात्मा केशवालम्बनस्सदा ॥ ३८ ॥

जिसका हृदय निरन्तर भगवत्परायण रहता है उसका यम, यमदूत, यमपाश, यमदण्ड अथवा यम यातना कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ॥ ३८ ॥

श्री पराशर उवाच

एतन्मुने समाख्यातं गीतं वैवस्वतेन यत् ।

त्वत्प्रश्नानुगतं सम्यक्किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ३९ ॥

श्रीपराशरजी बोले- हे मुने! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार जो कुछ यम ने कहा था, वह सब मैंने तुम्हें भलीप्रकार सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३९ ॥

॥ इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे यमगीता सम्पूर्णा ॥

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