हारीतगीता
प्राचीन काल में
हारीतमुनि ने मुमुक्षु पुरुष के प्रधान कर्तव्यों से सम्बद्ध जो उपदेश दिये थे, उन्हीं का परिचय शरशय्या पर लेटे पितामह
भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को दिया गया था। यह वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व में
प्राप्त है, इसी को 'हारीतगीता'
कहते हैं। इस लघुकाय गीता में मुख्यतः संन्यासी के आचरण एवं
कर्तव्यों का वर्णन है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल, सुबोध तथा
सारगर्भित है । संन्यासियों के लिये प्रकाशस्तम्भ सदृश यह गीता यहाँ सानुवाद
प्रस्तुत की जा रही है-
हारीतगीता
Harit geeta
हारीत गीता
महाभारते शान्तिपर्वान्तर्गता
अध्यायः २६९ हारीतगीता
हारीतगीता
युधिष्ठिर
उवाच
किं शीलः किं
समाचारः किं विद्यः किं परायनः ।
प्राप्नोति
ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ १॥
युधिष्ठिर ने
पूछा- पितामह! प्रकृति से परे जो परब्रह्म का अविनाशी परमधाम है, उसे कैसे स्वभाव, किस
तरह के आचरण, कैसी विद्या और किन कर्मों में तत्पर रहनेवाला
पुरुष प्राप्त कर सकता है ? ॥ १ ॥
भीष्म उवाच
मोक्षधर्मेषु निरतो
लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ।
प्राप्नोति परमं
स्थानं यत् परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ २ ॥
भीष्मजी ने
कहा- राजन्! जो पुरुष मोक्षधर्मों में तत्पर, मिताहारी और जितेन्द्रिय होता है, वह उस
प्रकृति से परे परब्रह्म परमात्मा का जो अविनाशी परमधाम है, उसे
प्राप्त कर लेता है ॥ २ ॥
(अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम् ।
हारीतेन पुरा गीतं
तं निबोध युधिष्ठिर । )
युधिष्ठिर !
पूर्वकाल में हारीतमुनि ने जो ज्ञान का उपदेश किया है, इस विषय में विज्ञ पुरुष उसी प्राचीन
इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो।
स्वगृहादभिनिस्सृत्य
लाभेलाभे समो मुनिः ।
समुपोढेषु कामेषु
निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥ ३ ॥
मुमुक्षु
पुरुष को चाहिये कि लाभ और हानि में समान भाव रखकर मुनिवृत्ति से रहे और भोगों के
उपस्थित होने पर भी उनकी आकांक्षा से रहित हो अपने घर से निकलकर संन्यास ग्रहण कर
ले ॥ ३ ॥
न चक्षुषा न
मनसा न वाचा दूषयेदपि ।
न प्रत्यक्षं
परोक्षं वा दूषणं व्याहरेत् क्वचित् ॥ ४ ॥
न नेत्र से, न मन से और न वाणी से ही वह दूसरे के दोष
देखे, सोचे या कहे। किसी के सामने या परोक्ष में पराये दोष की
चर्चा कहीं न करे ॥ ४ ॥
न हिंस्यात्सर्वभूतानि
मैत्रायण गतश्चरेत् ।
नेदं
जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केन चित् ॥ ५॥
समस्त
प्राणियों में से किसी की भी हिंसा न करे – किसी को भी पीड़ा न दे। सबके प्रति मित्रभाव
रखकर विचरता रहे। इस नश्वर जीवन को लेकर किसी के साथ शत्रुता न करे ॥ ५ ॥
अतिवादांस्तितिक्षेत
नाभिमन्येत कञ्चन ।
क्रोध्यमानः
प्रियं ब्रूयादाकुष्टः कुशलं वदेत् ॥ ६ ॥
यदि कोई अपने
प्रति अमर्यादित बात कहे - निन्दा या कटुवचन सुनाये तो उसके उन वचनों को चुपचाप सह
ले। किसी के प्रति अहंकार या घमंड न प्रकट करे। कोई क्रोध करे तो भी उससे प्रिय
वचन ही बोले। यदि कोई गाली दे तो भी उसके प्रति हितकर वचन ही मुँह से निकाले ॥ ६ ॥
प्रदक्षिणं च
सव्यं च ग्राममध्ये च नाचरेत् ।
भैक्षचर्यामनापन्नो
न गच्छेत् पूर्वकेतितः ॥ ७ ॥
गाँव या
जनसमुदाय में दायें-बायें न करे-किसी का पक्ष-विपक्ष न करे तथा भिक्षावृत्ति को
छोड़कर किसी के यहाँ पहले से निमन्त्रित होकर भोजन के लिये न जाय ॥ ७ ॥
अविकीर्णः
सुगुप्तश्च न वाचा ह्यप्रियं वदेत् ।
मृदुः स्यादप्रतिक्रूरो
विस्रब्धः स्यादरोषणः ॥ ८॥
कोई अपने ऊपर
धूल या कीचड़ फेंके तो मुमुक्षु पुरुष उससे आत्मरक्षामात्र करे। बदले में स्वयं भी
वैसा ही न करे और न मुँह से कोई अप्रिय वचन ही निकाले। सर्वदा मृदुता का बर्ताव
करे। किसी के प्रति कठोरता न करे। निश्चिन्त रहे और बहुत बढ़-बढ़कर बातें न बनाये
॥ ८ ॥
विधूमे
न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने ।
अतीते
पात्रसञ्चारे भिक्षां लिप्सेत वै मुनिः ॥ ९॥
जब रसोईघर से
धूआँ निकलना बन्द हो जाय, अनाज-मसाला कूटने के लिये उठाया हुआ मूसल अलग रख दिया जाय, चूल्हे की आग ठंडी पड़ जाय, घर के लोग भोजन कर चुके
हों और बर्तनों का संचार-रसोई परोसी हुई थाली का इधर-उधर ले जाया जाना बन्द हो जाय, उस समय संन्यासी मुनि को भिक्षा प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये ॥ ९
॥
प्राणयात्रिकमात्रः
स्यान्मात्राला भेष्वनादूतः ।
अलाभे न
विहन्येत लाभश्चैनं न हर्षयेत् ॥ १० ॥
उसे केवल अपनी
प्राणयात्रा के निर्वाहमात्र का यत्न करना चाहिये । भर पेट भोजन मिल जाय, इसकी इच्छा नहीं रखनी चाहिये । यदि भिक्षा
न मिले तो उससे मन में पीड़ा का अनुभव न करे और मिल जाय तो उसके कारण वह हर्षित न
हो ॥ १० ॥
लाभं साधारणं
नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः ।
अभिपूजित लाभं
हि जुगुप्सेतैव तादृशः ॥ ११॥
साधारण
(लौकिक) लाभ की इच्छा न करे। जहाँ विशेष आदर एवं पूजा होती हो, वहाँ भोजन न करे। मुमुक्षु पुरुष को
आदर-सत्कार लाभ की तो निन्दा करनी चाहिये ॥ ११ ॥
न चान्नदोषान्
निन्देत न गुणानभिपूजयेत् ।
शय्यासने विविक्ते
च नित्यमेवाभिपूजयेत् ॥ १२ ॥
भिक्षा में
मिले हुए अन्न के दोष बताकर उनकी निन्दा न करे और न उसके गुण बताकर उन गुणों की
प्रशंसा ही करे। सोने और बैठने के लिये सदा एकान्त का ही आदर करे ॥ १२ ॥
शून्यागारं
वृक्षमूलमरण्यमथवा गुहाम् ।
अज्ञातचर्यां गत्वान्यां
ततोऽन्यत्रैव संविशेत् ॥ १३ ॥
सूने घर, वृक्ष की जड़, जंगल
अथवा पर्वत की गुफा में अथवा अन्य किसी गुप्त स्थान में अज्ञातभाव से रहकर
आत्मचिन्तन में ही लगा रहे ॥ १३ ॥
अनुरोधविरोधाभ्यां
समः स्यादचलो ध्रुवः ।
सुकृतं दुष्कृतं
चोभे नानुरुध्येत कर्मणा ॥ १४ ॥
लोगों के
अनुरोध या विरोध करने पर भी सदा समभाव से रहे, निश्चल एवं स्थिरचित्त हो जाय तथा अपने कर्मों द्वारा पुण्य
एवं पाप का अनुसरण न करे ॥ १४ ॥
नित्यतृप्तः
सुसन्तुष्टः प्रसन्नवदनेन्द्रियः ।
विभीर्जप्यपरो
मौनी वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ १५ ॥
सर्वदा तृप्त
और सन्तुष्ट रहे । मुख और इन्द्रियों को प्रसन्न रखे। भय को पास न आने दे। प्रणव
आदि का जप करता रहे तथा वैराग्य का आश्रय ले मौन रहे ॥ १५ ॥
अभ्यस्तं
भौतिकं पश्यन् भूतानामागतीं गतिम् ।
निस्पृहः
समदर्शी च पक्वापक्वेन वर्तयन् ।
आत्मना यः
प्रशान्तात्मा लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ॥ १६॥
भौतिक देह, इन्द्रिय आदि सभी वस्तुएँ नष्ट होनेवाली
हैं और प्राणियों के आवागमन - जन्म और मरण बारम्बार होते रहते हैं। यह सब देख और
सोचकर जो सर्वत्र निःस्पृह तथा समदर्शी हो गया है, पके (रोटी,
भात आदि) और कच्चे ( फल, मूल आदि) से जीवन-
निर्वाह करता है, आत्मलाभ के लिये जो शान्तचित्त हो गया है
तथा जो मिताहारी और जितेन्द्रिय है, वही वास्तव में संन्यासी
कहलाने योग्य है ॥ १६ ॥
वाचो वेगं
मनसः क्रोधवेगं
हिंसावेगमुदरोपस्थवेगम्
।
एतान् वेगान् विषहेद्
वै तपस्वी
निन्दा चास्य
हृदयं नोपहन्यात् ॥ १७ ॥
संन्यासी
तपस्वी होकर वाणी, मन, क्रोध, हिंसा, उदर और उपस्थ - इनके वेगों को सहता हुआ इन्हें वश में रखे। दूसरों द्वारा
की हुई निन्दा उसके हृदय में कोई विकार न उत्पन्न करे ॥ १७ ॥
मध्यस्थ एव
तिष्ठेत प्रशंसा निन्दयोः समः ।
एतत्पवित्रं
परमं परिव्राजक आश्रमे ॥ १८॥
प्रशंसा और
निन्दा – दोनों में समान भाव रखकर उदासीन ही रहना चाहिये। संन्यासाश्रम में इस
प्रकार का आचरण परम पवित्र माना गया है ॥ १८ ॥
महात्मा
सर्वतो दान्तः सर्वत्रैवानपाश्रितः ।
अपूर्वचारकः
सौम्यो अनिकेतः समाहितः ॥ १९ ॥
संन्यासी को
महामनस्वी, सब प्रकार
से जितेन्द्रिय, सब ओर से असंग, सौम्य,
मठ और कुटिया से रहित तथा एकाग्रचित्त होना चाहिये । उसे अपने पूर्व
आश्रम के परिचित स्थानों में नहीं विचरना चाहिये ॥ १९ ॥
वानप्रस्थगृहस्थाभ्यां
न संसृज्येत कर्हिचित् ।
अज्ञातलिप्स
लिप्सेत न चैनं हर्ष आविशेत् ॥ २० ॥
वानप्रस्थों
और गृहस्थों के साथ उसे कभी संसर्ग नहीं रखना चाहिये। अपनी रुचि प्रकट किये बिना
ही जो वस्तु प्राप्त हो जाय, उसी को लेने की इच्छा रखनी चाहिये तथा अभीष्ट वस्तु के मिलने पर उसके मन में
हर्ष का आवेश नहीं होना चाहिये ॥ २० ॥
विजानतां
मोक्ष एष श्रमः स्यादविजानताम् ।
मोक्षयानमिदं
कृत्स्नं विदुषां हारितोऽब्रवीत् ॥ २१॥
यह
संन्यासाश्रम ज्ञानियों के लिये तो मोक्षरूप है, परंतु अज्ञानियों के लिये श्रमरूप ही है। हारीतमुनि ने
विद्वानों के लिये इस सम्पूर्ण धर्म को मोक्ष का विमान बताया है ॥ २१ ॥
अभयं
सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यः प्रव्रजेद् गृहात् ।
लोकास्तेजोमयास्तस्य
तथानन्त्याय कल्पते ॥ २२ ॥
जो पुरुष सबको
अभय-दान देकर घर से निकल जाता है, उसे तेजोमय लोकों की प्राप्ति होती है तथा वह अनन्त परमात्मपद को प्राप्त
करने में समर्थ होता है ॥ २२ ॥
॥ इति
श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि हारीतगीता सम्पूर्णा ॥
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