मङ्किगीता

मङ्किगीता

मङ्किगीता महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत भीष्म- युधिष्ठिर संवाद के क्रम में प्राप्त होती है। इसमें मङ्कि नामक एक प्राचीन मुनि का रोचक एवं शिक्षाप्रद आख्यान वर्णित है, जिसके माध्यम से कामना, विशेषकर धन की तृष्णा को ही सभी दुःखों का मूल तथा कामना के त्याग को ही सुख का हेतु बताया गया है। विषय के प्रतिपादन में दृष्टान्त के अतिरिक्त बहुत-से सबल तर्क भी उपस्थित किये गये हैं। यह गीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-

मङ्किगीता

मङ्कि गीता

Manki geeta

मङ्किगीता

महाभारत शान्तिपर्व अध्यायः १७७ मङ्किगीता

मंकि गीता

युधिष्ठिर उवाच

ईहमान: समारम्भान् यदि नासादयेद् धनम् ।

धनतृष्णाभिभूतश्च किं कुर्वन् सुखमाप्नुयात् ॥ १ ॥

युधिष्ठिर ने पूछा- [ दादाजी!] यदि कोई मनुष्य धन की तृष्णा से ग्रस्त होकर तरह- तरह के उद्योग करने पर भी धन न पा सके तो वह क्या करे, जिससे उसे सुख की प्राप्ति हो सके ? ॥ १ ॥

भीष्म उवाच

सर्वसाम्यमनायासं सत्यवाक्यं च भारत ।

निर्वेदश्चाविधित्सा च यस्य स्यात् स सुखी नरः ॥ २ ॥

भीष्मजी ने कहा- भारत ! सब में समता का भाव, व्यर्थ परिश्रम का अभाव, सत्यभाषण, संसार से वैराग्य और कर्मासक्ति का अभाव- ये पाँचों जिस मनुष्य में होते हैं, वह सुखी होता है ॥ २ ॥

एतान्येव पदान्याहुः पञ्च वृद्धाः प्रशान्तये ।

एष स्वर्गश्च धर्मश्च सुखं चानुत्तमं मतम् ॥ ३ ॥

ज्ञानवृद्ध पुरुष इन्हीं पाँच वस्तुओं को शान्ति का कारण बताते हैं। यही स्वर्ग है, यही धर्म है और यही परम उत्तम सुख माना गया है ॥ ३ ॥

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

निर्वेदान्मङ्किना गीतं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

युधिष्ठिर ! इस विषय में जानकार पुरुष एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। मङ्कि नामक मुनि ने भोगों से विरक्त होकर जो उद्गार प्रकट किया था, वही इस इतिहास में वर्णित है। उसे बताता हूँ, सुनो ॥ ४ ॥

ईहमानो धनं मङ्किर्भग्नेहश्च पुनः पुनः ।

केन चिद्धनशेषेण क्रीतवान्दम्य गोयुगम् ॥ ५॥

मङ्कि धन के लिये अनेक प्रकार की चेष्टाएँ करते थे; परंतु हर बार उनका प्रयत्न व्यर्थ हो जाता था । अन्त में जब बहुत थोड़ा धन शेष रह गया तो उसे देकर उन्होंने दो नये बछड़े खरीदे ॥ ५ ॥

सुसम्बद्धौ तु तौ दम्यौ दमनायाभिनिःसृतौ ।

आसीनमुष्ट्रं मध्येन सहसैवाभ्यधावताम् ॥ ६॥

एक दिन उन दोनों बछड़ों को परस्पर जोड़कर वे हल चलाने की शिक्षा देने के लिये ले जा रहे थे। जब वे दोनों बछड़े गाँव से बाहर निकले तो बैठे हुए एक ऊँट को बीच में करके सहसा दौड़ पड़े ॥ ६ ॥

तयोः सम्प्राप्तयोरुष्ट्रः स्कन्धदेशममर्षणः ।

उत्थायोत्क्षिप्य तौ दम्यौ प्रससार महाजवः ॥ ७॥

जब वे उसकी गर्दन के पास पहुँचे तो ऊँट के लिये यह असह्य हो उठा। वह रोष में भरकर खड़ा हो गया और उन दोनों बछड़ों को ऊपर लटकाये बड़े जोर से भागने लगा ॥ ७ ॥

ह्रियमाणौ तु तौ दम्यौ तेनोष्ट्रेण प्रमाथिना ।

म्रियमाणौ च सम्प्रेक्ष्य मङ्किस्तत्राब्रवीदिदम् ॥ ८॥

बलपूर्वक अपहरण करनेवाले उस ऊँट के द्वारा उन दोनों बछड़ों को अपहृत होते और मरते देख मङ्कि ने इस प्रकार कहा- ॥ ८ ॥

न चैवाविहितं शक्यं दक्षेणापीहितुं धनम् ।

युक्तेन श्रद्धया सम्यगीहां समनुतिष्ठता ॥ ९॥

मनुष्य कैसा ही चतुर क्यों न हो, जो उसके भाग्य में नहीं है, उस धन को वह श्रद्धापूर्वक भलीभाँति प्रयत्न करके भी नहीं पा सकता ॥ ९ ॥

कृतस्य पूर्वं चानर्थैर्युक्तस्याप्यनुतिष्ठतः ।

इमं पश्यत सङ्गत्या मम दैवमुपप्लवम् ॥ १०॥

पहले मैंने जो प्रयत्न किया था, उसमें अनेक प्रकार के अनर्थ खड़े हो गये थे। उन अनर्थों से युक्त होने पर भी मैं धनोपार्जन की ही चेष्टा में लगा रहा; परंतु देखो, आज इन बछड़ों की संगति से मुझपर कैसा दैवी उपद्रव आ गया? ॥ १० ॥

उद्यम्योद्यम्य मे दम्यौ विषमेणैव गच्छतः ।

उत्क्षिप्य काकतालीयमुत्पथेनैव धावतः ॥ ११ ॥

मणी वोष्ट्रस्य लम्बेते प्रियौ वत्सतरौ मम ।

शुद्धं हि दैवमेवेदं हठेनैवास्ति पौरुषम् ॥ १२ ॥

यह ऊँट मेरे बछड़ों को उछाल-उछालकर विषम मार्ग से ही जा रहा है। काकतालीयन्याय से* (अर्थात् दैवसंयोग से ) इन्हें गर्दन पर उठाकर बुरे मार्ग से ही दौड़ रहा है। इस ऊँट के गले में मेरे दोनों प्यारे बछड़े दो मणियों के समान लटक रहे हैं। यह केवल दैव की ही लीला है । हठपूर्वक किये हुए पुरुषार्थ से क्या होता है ? ॥ ११-१२ ॥

* एक ताड़ के वृक्ष के नीचे एक बटोही बैठा था। उसी वृक्ष के ऊपर एक काक भी आ बैठा । काक के आते ही ताड़ का एक पका हुआ फल नीचे गिरा । यद्यपि फल पककर आप से आप ही गिरा था, पर पथिक दोनों बातों को साथ होते देख यही समझ गया कि कौवे के आने से ही ताड़ का फल गिरा है; अतः जहाँ संयोगवश अचानक कोई घटना घटित हो जाय, वहाँ उसे काकतालीयन्याय से घटित हुई बताया जाता है। यहाँ बछड़ों का आना और ऊँट का रास्ते में बैठे रहना-ये बातें संयोगवश हो गयी थीं।

यदि वाप्युपपद्येत पौरुषं नाम कर्हि चित् ।

अन्विष्यमाणं तदपि दैवमेवावतिष्ठते ॥ १३॥

यदि कभी कोई पुरुषार्थ सफल होता दिखायी देता है तो वहाँ भी खोज करने पर दैव का ही सहयोग सिद्ध होता है ॥ १३ ॥

तस्मान्निर्वेद एवेह गन्तव्यः सुखमीप्सता ।

सुखं स्वपिति निर्विण्णो निराशश्चार्थसाधने ॥ १४॥

अतः सुख की इच्छा रखनेवाले पुरुष को धन आदि की ओर से वैराग्य का ही आश्रय लेना चाहिये। धनोपार्जन की चेष्टा से निराश होकर जो विरक्त हो जाता है, वह सुख की नींद सोता है ॥ १४ ॥

अहो सम्यक्षुकेनोक्तं सर्वतः परिमुच्यता ।

प्रतिष्ठता महारण्यं जनकस्य निवेशनात् ॥ १५॥

अहो ! शुकदेव मुनि ने जनक के राजमहल से विशाल वन की ओर जाते समय सब ओर से बन्धनमुक्त हो क्या ही अच्छा कहा था ? ॥ १५ ॥

यः कामान्प्राप्नुयात्सर्वान्यश्चैनान्केवलांस्त्यजेत् ।

प्रापनात्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते ॥ १६॥

जो मनुष्य अपनी समस्त कामनाओं को पा लेता है तथा जो इन सबका केवल त्याग कर देता हैइन दोनों के कार्यों में समस्त कामनाओं को प्राप्त करने की अपेक्षा उनका त्याग ही श्रेष्ठ है ॥ १६ ॥

नान्तं सर्वविवित्सानां गतपूर्वोऽस्ति कश्चन ।

शरीरे जीविते चैव तृष्णा मन्दस्य वर्धते ॥ १७॥

कोई भी पहले कभी धन आदि के लिये होनेवाली सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का अन्त नहीं पा सका है। शरीर और जीवन के प्रति मूर्ख मनुष्य की ही तृष्णा बढ़ती है ॥ १७ ॥

निवर्तस्व विधित्साभ्यः शाम्य निर्विद्य कामुक ।

असकृच्चासि निकृतो न च निर्विद्यसे ततः ॥ १८ ॥

ओ कामनाओं के दास मन ! तू सब प्रकार की चेष्टाओं से निवृत्त हो जा और वैराग्यपूर्वक शान्ति धारण कर । तू धन की चेष्टा करके बारम्बार ठगा गया है तो भी उसकी ओर से वैराग्य नहीं होता है ॥ १८ ॥

यदि नाहं विनाश्यस्ते यद्येवं रमसे मया ।

मा मां योजय लोभेन वृथा त्वं वित्तकामुक ॥ १९॥

धन की कामनावाले मन ! यदि तुझे मेरा विनाश नहीं करना है। यदि तू इसी प्रकार मेरे साथ आनन्दपूर्वक रहना चाहता है तो मुझे व्यर्थ लोभ में न फँसा ॥ १९ ॥

सञ्चितं सञ्चितं द्रव्यं नष्टं तव पुनः पुनः ।

कदा विमोक्ष्यसे मूढ धनेहां धनकामुक ॥ २०॥

तूने बार-बार द्रव्य का संचय किया और वह बारम्बार नष्ट होता चला गया। धन की इच्छा रखनेवाले मूढ ! क्या कभी तू धन की इस तृष्णा और चेष्टा का त्याग भी करेगा ? ॥ २० ॥

अहो नु मम बालिश्यं योऽहं क्रीडनकस्तव ।

किं नैव जातु पुरुषः परेषां प्रेष्यतामियात् ॥ २१॥

अहो ! यह मेरी कैसी नादानी है ? जो मैं तेरे हाथ का खिलौना बना हुआ हूँ । यदि ऐसी बात न होती तो क्या कोई समझदार पुरुष कभी दूसरों की दासता स्वीकार कर सकता है ? ॥ २१ ॥

न पूर्वे नापरे जातु कामानामन्तमाप्नुवन् ।

त्यक्त्वा सर्वसमारम्भान्प्रतिबुद्धोऽस्मि जागृमि ॥ २२॥

पूर्वकाल तथा पीछे मनुष्य भी कभी कामनाओं का अन्त नहीं पा सके हैं, अतः मैं समस्त कर्मों का आयोजन त्यागकर सावधान हो गया हूँ और मैं पूर्णतः जग गया हूँ ॥ २२ ॥

नूनं ते हृदयं कामवज्र सारमयं दृढम् ।

यदनर्थशताविष्टं शतधा न विदीर्यते ॥ २३॥

काम! निश्चय ही तेरा हृदय फौलाद का बना हुआ है, अतएव अत्यन्त सुदृढ़ है। यही कारण है कि सैकड़ों अनर्थों से व्याप्त होने पर भी इसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते ॥ २३ ॥

त्यजामि कामत्वां चैव यच्च किं चित्प्रियं तव ।

तवाहं सुखमन्विच्छन्नात्मन्युपलभे सुखम् ॥ २४॥

काम! मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ और जो कुछ तुझे प्रिय लगता है, उससे भी परिचित हूँ । चिरकाल से तेरा प्रिय करने की चेष्टा करता चला आ रहा हूँ; परंतु कभी मेरे मन में सुख का अनुभव नहीं हुआ ॥ २४ ॥

कामजानामि ते मूलं सङ्कल्पात्किल जायसे ।

न त्वां सङ्कल्पयिष्यामि समूलो न भविष्यसि ॥ २५॥

काम! मैं तेरी जड़ को जानता हूँ। निश्चय ही तू संकल्प से उत्पन्न होता है। अब मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूँगा, जिससे तू समूल नष्ट हो जायगा ॥ २५ ॥

ईहा धनस्य न सुखा लब्ध्वा चिन्ता च भूयसी ।

लब्धानाशो यथा मृत्युर्लब्धं भवति वा न वा ॥ २६॥

धन की इच्छा अथवा चेष्टा सुखदायिनी नहीं है। यदि धन मिल भी जाय तो उसकी रक्षा आदि के लिये बड़ी भारी चिन्ता बढ़ जाती है और यदि एक बार मिलकर वह नष्ट जाय, तब तो मृत्यु के समान ही भयंकर कष्ट होता है और उद्योग करने पर भी धन मिलेगा या नहीं, यह निश्चय नहीं होता ॥ २६ ॥

परित्यागे न लभते ततो दुःखतरं नु किम् ।

न च तुष्यति लब्धेन भूय एव च मार्गति ॥ २७ ॥

शरीर को निछावर कर देने पर भी मनुष्य जब धन नहीं पाता है तो उसके लिये इससे बढ़कर महान् दुःख और क्या हो सकता है ? यदि धन की उपलब्धि हो भी जाय तो उतने से ही वह सन्तुष्ट नहीं होता है, अपितु अधिक धन की तलाश करने लग जाता है ॥ २७ ॥

अनुतर्षुल एवार्थः स्वादु गाङ्गमिवोदकम् ।

मद्विलापनमेतत्तु प्रतिबुद्धोऽस्मि सन्त्यज ॥ २८॥

काम ! स्वादिष्ट गंगाजल के समान यह धन तृष्णा की ही वृद्धि करनेवाला है, मैं अच्छी तरह जान गया हूँ कि यह तृष्णा की वृद्धि मेरे विनाश का कारण है; अतः तू मेरा पिण्ड छोड़ दे ॥ २८ ॥

य इमं मामकं देहं भूतग्रामः समाश्रितः ।

स यात्वितो यथाकामं वसतां वा यथासुखम् ॥ २९॥

मेरे इस शरीर का आश्रय लेकर जो पाँचों भूतों का समुदाय स्थित है, वह इसमें से अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक चला जाय या इसमें रहे, इसकी मुझे परवा नहीं है ॥ २९ ॥

न युष्मास्विह मे प्रीतिः कामलोभानुसारिषु ।

तस्मादुत्सृज्य सर्वान्वः सत्यमेवाश्रयाम्यहम् ॥ ३०॥

पंचभूतगण ! अहंकार आदि के साथ तुम सब लोग काम और लोभ के पीछे लगे रहनेवाले हो । अतः तुम पर यहाँ मेरा रत्तीभर भी स्नेह नहीं है। इसलिये मैं समस्त कामनाओं को छोड़कर केवल अब सत्त्वगुण का आश्रय ले रहा हूँ ॥ ३० ॥

सर्वभूतान्यहं देहे पश्यन्मनसि चात्मनः ।

योगे बुद्धिं श्रुते सत्त्वं मनो ब्रह्मणि धारयन् ॥ ३१॥

विहरिष्याम्यनासक्तः सुखी लोकान्निरामयः ।

यथा मा त्वं पुनर्नैवं दुःखेषु प्रनिधास्यसि ॥ ३२॥

मैं अपने शरीर में मन के अंदर सम्पूर्ण भूतों को देखता हुआ बुद्धि को योग में, एकाग्रचित्त को श्रवण-मनन आदि साधनों में और मन को परब्रह्म परमात्मा में लगाकर रोग-शोक से रहित एवं सुखी हो सम्पूर्ण लोकों में अनासक्त भाव से विचरूँगा, जिससे तू फिर मुझे इस प्रकार दु:खों में न डाल सकेगा ॥ ३१-३२ ॥

त्वया हि मे प्रनुन्नस्य गतिरन्या न विद्यते ।

तृष्णा शोकश्रमाणां हि त्वं कामप्रभवः सदा ॥ ३३॥

काम ! तृष्णा, शोक और परिश्रम - इनका उत्पत्ति स्थान सदा तू ही है। जबतक तू मुझे प्रेरित करके इधर-उधर भटकता रहेगा, तबतक मेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है ॥ ३३ ॥

धननाशेऽधिकं दुःखं मन्ये सर्वमहत्तरम् ।

ज्ञातयो ह्यवमन्यन्ते मित्राणि च धनाच्च्युतम् ॥ ३४॥

मैं तो समझता हूँ कि धन का नाश होने पर जो अत्यन्त दुःख होता है, वही सबसे बढ़कर है; क्योंकि जो धन से वंचित हो जाता है, उसे अपने भाई-बन्धु और मित्र भी अपमानित करने लगते हैं ॥ ३४ ॥

अवज्ञान सहस्रैस्तु दोषाः कष्टतराऽधने ।

धने सुखकला या च सापि दुःखैर्विधीयते ॥ ३५॥

दरिद्र को सहस्र - सहस्र तिरस्कार सहने पड़ते हैं; अतः निर्धन अवस्था में बहुत-से कष्टदायक दोष हैं; और धन में जो सुख का लेश प्रतीत होता है, वह भी दुःखों से ही सम्पादित होता है ॥ ३५ ॥

धनमस्येति पुरुषं पुरा निघ्नन्ति दस्यवः ।

क्लिश्यन्ति विविधैर्दन्दैर्नित्यमुद्वेजयन्ति च ॥ ३६॥

जिस पुरुष के पास धन होने का संदेह होता है, उसे उसका धन लूटने के लिये लुटेरे मार डालते हैं अथवा उसे तरह – तरह की पीड़ाएँ देकर सताते और सदा उद्वेग में डाले रहते हैं ॥ ३६ ॥

मन्दलोलुपता दुःखमिति बुद्धिं चिरान्मया ।

यद्यदालम्बसे कामतत्तदेवानुरुध्यसे ॥ ३७॥

धनलोलुपता दुःख का कारण है, यह बात बहुत देर के बाद मेरी समझ में आयी हैं। काम! तू जिस-जिस का आश्रय लेता है, उसी- उसी के पीछे पड़ जाता है ॥ ३७ ॥

अतत्त्वज्ञोऽसि बालश्च दुस्तोषोऽपूरणोऽनलः ।

नैव त्वं वेत्थ सुलभं नैव त्वं वेत्थ दुर्लभम् ॥ ३८॥

तू तत्त्वज्ञान से रहित और बालक के समान मूढ़ है, तुझे सन्तोष देना कठिन है। आग के समान तेरा पेट भरना असम्भव है। तू यह नहीं जानता कि कौन-सी वस्तु सुलभ है और कौन-सी दुर्लभ ॥ ३८ ॥

पातालमिव दुष्पूरो मां दुःखैर्योक्तुमिच्छसि ।

नाहमद्य समावेष्टुं शक्यः कामपुनस्त्वया ॥ ३९॥

काम ! पाताल के समान तुझे भरना कठिन है। तू मुझे दुःखों में फँसाना चाहता है; किंतु अब तू फिर मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता ॥ ३९ ॥

निर्वेदमहमासाद्य द्रव्यनाशाद्यदृच्छया ।

निर्वृतिं परमां प्राप्य नाद्य कामान्विचिन्तये ॥ ४०॥

अकस्मात् धन का नाश हो जाने से वैराग्य को प्राप्त होकर मुझे परम सुख मिल गया है। अब मैं भोगों का चिन्तन नहीं करूँगा ॥ ४० ॥

अतिक्लेशान्सहामीह नाहं बुध्याम्यबुद्धिमान् ।

निकृतो धननाशेन शये सर्वाङ्गविज्वरः ॥ ४१॥

पहले मैं बड़े-बड़े क्लेश सहता था, परंतु ऐसा बुद्धिहीन हो गया था कि 'धन की कामना में कष्ट है, इस बात को समझ ही नहीं पाता था। परंतु अब धन का नाश होने से उससे वंचित होकर मैं सम्पूर्ण अंगों में क्लेश और चिन्ताओं से मुक्त होकर सुख से सोता हूँ ॥ ४१ ॥

परित्यजामि कामत्वां हित्वा सर्वमनोगतीः ।

न त्वं मया पुनः कामनस्योतेनेव रंस्यसे ॥ ४२॥

काम! मैं अपनी सम्पूर्ण मनोवृत्तियों को दूर हटाकर तेरा परित्याग कर रहा हूँ । अब तू फिर मेरे साथ न तो रह सकेगा और न मौज ही कर सकेगा ॥ ४२ ॥

क्षमिष्ये क्षिपमाणानां न हिंसिष्ये विहिंसितः ।

द्वेष्ययुक्तः प्रियं वक्ष्याम्यनादृत्य तदप्रियम् ॥ ४३ ॥

अब जो लोग मुझ पर आक्षेप या मेरा तिरस्कार करेंगे, उनके उस बर्ताव को मैं चुपचाप सह लूँगा। जो लोग मुझे मारे-पीटेंगे या कष्ट देंगे, उनके साथ भी मैं बदले में वैसा बर्ताव नहीं करूँगा । द्वेष के योग्य पुरुष का भी यदि साथ हो जाय और वह मुझे अप्रिय वचन कहने लगे तो मैं उस पर ध्यान न देकर उससे अप्रिय वचन नहीं बोलूँगा ॥ ४३ ॥

तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं यथा लब्धेन वर्तयन् ।

न सकामं करिष्यामि त्वामहं शत्रुमात्मनः ॥ ४४॥

मैं सदा सन्तुष्ट एवं स्वस्थ इन्द्रियों से सम्पन्न रहकर भाग्यवश जो कुछ मिल जाय, उसी से जीवन निर्वाह करता रहूँगा; परंतु तुझे कभी सफल न होने दूंगा; क्योंकि तू मेरा शत्रु है ॥ ४४ ॥

निर्वेदं निर्वृतिं तृप्ति शान्तिं सत्यं दमं क्षमाम् ।

सर्वभूतदयां चैव विद्धि मां समुपागतम् ॥ ४५ ॥

तू यह अच्छी तरह समझ ले कि मुझे वैराग्य, सुख, तृप्ति, शान्ति, सत्य, दम, क्षमा और समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव - ये सभी सद्गुण प्राप्त हो गये हैं ॥ ४५ ॥

तस्मात्कामश्च लोभश्च तृष्णा कार्पण्यमेव च ।

त्यजन्तु मां प्रतिष्ठन्तं सत्त्वस्थो ह्यस्मि साम्प्रतम् ॥ ४६॥

अतः काम, लोभ, तृष्णा और कृपणता को चाहिये कि वे मोक्ष की ओर प्रस्थान करनेवाले मुझ साधक को छोड़कर चले जायें। अब मैं सत्त्वगुण में स्थित हो गया हूँ ॥ ४६ ॥

प्रहाय कामं लोभं च सुखं प्राप्तोऽस्मि साम्प्रतम् ।

नाद्य लोभवशं प्राप्तो दुःखं प्राप्स्याम्यनात्मवान् ॥ ४७ ॥

इस समय काम और लोभ का त्याग करके मैं प्रत्यक्ष ही सुखी हो गया हूँ; अतः अजितेन्द्रिय पुरुष की भाँति अब लोभ में फँसकर दुःख नहीं उठाऊँगा ॥ ४७ ॥

यद् यत् त्यजति कामानां तत् सुखस्याभिपूर्यते ।

कामस्य वशगो नित्यं दुःखमेव प्रपद्यते ॥ ४८ ॥

मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड़ देता है, उस-उस की ओर से सुखी हो जाता है। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दुःख ही पाता है ॥ ४८ ॥

कामानुबन्धं नुदते यत् किञ्चित् पुरुषो रजः ।

कामक्रोधोद्भवं दुःखमहीररतिरेव च ॥ ४९ ॥

मनुष्य काम से सम्बन्ध रखनेवाला जो कुछ भी रजोगुण हो, उसे दूर कर दे । दुःख, निर्लज्जता और असन्तोष- ये काम और क्रोध से ही उत्पन्न होनेवाले हैं ॥ ४९ ॥

एष ब्रह्मप्रतिष्ठोऽहं ग्रीष्मे शीतमिव ह्रदम् ।

शाम्यामि परिनिर्वामि सुखं मामेति केवलम् ॥ ५० ॥

जैसे ग्रीष्म ऋतु में लोग शीतल जल वाले सरोवर में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार अब मैं परब्रह्म में प्रतिष्ठित हो गया हूँ, अतः शान्त हूँ, सब ओर से निर्वाण को प्राप्त हो गया हूँ। अब मुझे केवल सुख-ही-सुख मिल रहा है ॥५०॥

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् ।

तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥५१॥

इस लोक में जो विषयों का सुख है तथा परलोक में जो दिव्य एवं महान् सुख है, ये दोनों प्रकार के सुख तृष्णा के क्षय से होनेवाले सुख की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं ॥ ५१ ॥

आत्मना सप्तमं कामं हत्वा शत्रुमिवोत्तमम् ।

प्राप्यावध्यं ब्रह्म पुरं राजेव स्यामहं सुखी ॥ ५२॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य और ममता-ये देहधारियों के सात शत्रु हैं। इनमें सातवाँ कामरूप शत्रु सबसे प्रबल है। उन सबके साथ इस महान् शत्रु काम का नाश करके मैं अविनाशी ब्रह्मपुर में स्थित हो राजा के समान सुखी होऊँगा ॥ ५२ ॥

एतां बुद्धिं समास्थाय मङ्किर्निर्वेदमागतः ।

सर्वान् कामान् परित्यज्य प्राप्य ब्रह्म महत्सुखम् ॥ ५३ ॥

[राजन्!] इसी बुद्धि का आश्रय लेकर मङ्कि धन और भोगों से विरक्त हो गये और समस्त कामनाओं का परित्याग करके उन्होंने परमानन्दस्वरूप परब्रह्म को प्राप्त कर लिया ॥ ५३ ॥

दम्यनाशकृते मङ्किरमृतत्वं किलागमत् ।

अच्छिनत् काममूलं स तेन प्राप महत्सुखम् ॥ ५४ ॥

बछड़ों के नाश को निमित्त बनाकर ही मङ्कि अमृतत्व को प्राप्त हो गये। उन्होंने काम की जड़ काट डाली; इसीलिये महान् सुख प्राप्त कर लिया ॥ ५४ ॥

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मङ्किगीता सम्पूर्णा ॥

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