रघुवंशम् प्रथम सर्ग Raghuvansham pratham sarg

रघुवंशम् प्रथम सर्ग Raghuvansham pratham sarg

रघुवंशम् महाकवि कालिदास जी की रचना है। इस महाकाव्य में कालिदासजी ने भगवान श्री रामजी के वंश के राजाओं का वर्णन किया है। इसमें कुल १९ उन्नीस सर्ग में रघुवंश के ३७ राजाओं के विषय में लिखा गया है। रघुवंशम् प्रथम सर्ग Raghuvansham pratham sarga में महाराज दिलीप के बारे में लिखा गया है। यहाँ श्लोक भावार्थ सहित तथा नीचे संक्षिप्त कथासार भी दिया जा रहा है ।

रघुवंशम् प्रथम सर्ग Raghuvansham pratham sarg

रघुवंशम् प्रथम सर्ग Raghuvansham pratham sarga                                        

रघुवंशमहाकाव्यम् प्रथम: सर्ग:        

रघुवंशं सर्ग १ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् पहला सर्ग      

रघुवंश

॥ रघुवंशं सर्ग १ कालिदासकृतम् ॥

अथ रघुवंशम् प्रथम सर्ग श्लोक भावार्थ सहित Raghuvansham pratham sarga 

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ १॥

शब्द और अर्थ के समान नित्य मिले हुए, संसार के माता-पिता, उमा और महेश्वर को मैं (कालिदास) शब्द और अर्थ का भलीमाँति से ज्ञान होने के लिये नमस्कार करता हूँ॥१॥

क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः ।

तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ २॥

कहाँ सूर्य से उत्पन्न हुआ वंश ( रघुकुल) और कहाँ थोड़े विषयों का ग्रहण करनेवाली मेरी बुद्धि, अतः उसके वर्णन करने में मैं अज्ञान से पनसुहिया डोंगी द्वारा दुस्तर सागर पार करने की इच्छा करनेवाले की भांति हूँ ॥२॥

मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् ।

प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः ॥ ३॥

कवियों के यश पाने की इच्छा करनेवाला, मन्दबुद्धि मैं उसी प्रकार हास्यास्पद होऊँगा जैसे कि लम्बे पुरुष के हाथ लगने योग्य फल की ओर लोभ से ऊपर हाथ किया हुआ बौना पुरुष होता है ॥ ३ ॥

अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वसूरिभिः ।

मणौ वज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः ॥ ४॥

अथवा पहले के कवियों ( वाल्मीकि आदि) के द्वारा वर्णन किये हुए रामायण प्रबन्धात्मक द्वार वाले सूर्यवंश में, मणि वेधनेवाले सूचीविशेष से वेध किये हुये मणि में सूत्र की भाँति मेरी गति है॥४॥

सोऽहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम् ।

आसमुद्रक्षितीशानामानाकरथवर्त्मनाम् ॥ ५॥

वह 'मन्दबुद्धि' मैं 'कालिदास' जन्म से निषेकादि संस्कारों से शुद्ध, फल की सिद्धि पर्यन्त कर्म को करने वाले, समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासन करने वाले, स्वर्ग तक रथ के मार्ग वाले रघु के वंश को कहता हूँ'[यह आगे के तीन श्लोकों में भी लगाना चाहिये। कुलक होने से यहाँ से पाँचवें श्लोक से इस अर्थ का आक्षेप किया जाता है ]॥५॥

यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामार्चितार्थिनाम् ।

यथापराधदण्डानां यथाकालप्रबोधिनाम् ॥ ६॥

विधिपूर्वक अग्नि में आहुति देनेवाले, इच्छानुसार याचकों का सम्मान करनेवाले, अपराध के अनुसार दण्ड देनेवाले, उचित समय पर सावधान रहने वाले ॥ ६ ॥

त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् ।

यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥ ७॥

सत्पात्र को दान देने के लिए धन इकट्ठा करने वाले, यश के हेतु विजय चाहने वाले, सन्तानार्थ विवाह करने वाले॥ ७ ॥

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ।

वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ ८॥

बालकपन में ही समस्त विद्याओं को अभ्यस्त कर लेने वाले, युवावस्था में भोग की अभिलाषा रखने वाले, बुढ़ापे में मुनियों की तरह जीविका रखने वाले, अन्त में (शरीर त्याग करने के समय) योग (चित्तवृत्ति के निरोध ) से शरीर त्याग करने वाले ॥ ८॥

रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवाग्विभवोऽपि सन् ।

तद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः ॥ ९॥

 (ऐसे ) रघुवंशियों के वंश को, मैं वाणी का वैभव थोड़ा होते हुये भी कान में सुनाई पड़े हुये, उन्हीं के गुणों के द्वारा बिना विचार किये ही वर्णन करने के लिये, प्रेरणा किया हुआ कह रहा हूँ॥९॥

तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः ।

हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा ॥१०॥

भले और बुरे के विचार करने वाले पण्डित लोग उसे सुनने के लिये योग्य हैं, क्योंकि सुवर्ण की शुद्धता और श्यामता अग्नि ही में देखी जाती है ॥ १०॥

वैवस्वतो मनुर्नाम माननीयो मनीषिणाम् ।

आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव ॥ ११॥

पण्डितों में पूज्य, वेदों में प्रणव (ओमकार ) के समान राजाओं में प्रथम वैवस्वत' नाम से प्रसिद्ध मनु हुये ॥११॥

तदन्वये शुद्धिमति प्रसूतः शुद्धिमत्तरः ।

दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव ॥१२॥

उन 'वैवस्वत मनु के पवित्र वंश में, अतिपवित्र, राजाओं में चन्द्र ( श्रेष्ठ ) 'दिलीप' नाम से प्रसिद्ध, क्षीरसमुद्र में चन्द्रमा के समान उत्पन्न हुये ॥ १२ ॥

व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः ।

आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रितः ॥१३॥

चौड़ी छाती वाले, बैल के कन्धे के समान कन्धे वाले, साल सरीखे ऊंचे, लम्बी भुजा वाले, अपने काम के करने में समर्थ देह को धारण किये हुये, जैसे क्षत्रियों का धर्म पराक्रम हो, उसके समान दिलीप हुये ॥ १३ ॥

सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोऽभिभाविना ।

स्थितः सर्वोन्नतेनोर्वीं क्रान्त्वा मेरुरिवात्मना ॥१४॥

सबसे अधिक बलवान् ( मेरुपक्ष में सबसे अधिक स्थिर), सभी लोगों के तेज को अपने प्रभाव से (मेरुपक्ष में कान्ति से) नीचा दिखाने वाले, सबसे अधिक ऊॅचे शरीर से मेरु पर्वत के समान पृथ्वी को दबा कर बैठे हुए ॥

आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः ।

आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृशोदयः ॥१५॥

आकार के सदृश बुद्धिवाले, बुद्धि के सदृश शास्त्र का अभ्यास करने वाले, शास्त्र के अनुरूप कर्म प्रारम्भ करने वाले, प्रारम्भ किये हुये कर्म के अनुरूप फलसिद्धि प्राप्त करने वाले (दिलीप हुए)॥१५॥

भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम् ।

अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरत्नैरिवार्णवः ॥१६॥

'भयानक और मनोरम राजगुणों (तेज, प्रताप आदि और दया दाक्षिण्यादि ) के कारण आश्रितों को वह राजा दिलीप, जलजन्तु और रत्नों के कारण समुद्र के समान दूर रहने योग्य और सेवा करने योग्य हुये ॥ १६ ॥

रेखामात्रमपि क्षुण्णादा मनोर्वर्त्मनः परम् ।

न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः ॥१७॥

शिक्षक अथवा सारथि के सदृश उस राजा दिलीप के रथ के पहिये की भाति चलने वाली प्रजायें मनु के समय से बताये हुये (रथचक्रधारापक्ष में खुदे हुए) मार्ग से लकीर बाहर न गई॥१७॥

प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् ।

सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ॥१८॥

प्रजाओं के भलाई के लिये ही वह राजा दिलीप उन सबों (प्रजाओं) से कर लेता था, जैसे-कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है ।। १८ ॥

सेना परिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनम् ।

शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिर्मौर्वी धनुषि चातता ॥१९॥

उस राजा दिलीप की सेना तो छत्र-चामर के समान केवल शोभार्थ हुई। क्योंकि प्रयोजन सिद्ध दो से होते थे, एक तो शास्त्रों में पैनी बुद्धि से और दूसरे धनुष पर चढ़ी हुई प्रत्यंचा से ॥१९॥

तस्य संवृतमन्त्रस्य गूढाकारेङ्गितस्य च ।

फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव ॥२०॥

विचार को गुप्त रखने वाले तथा बाहर-भीतर के हर्षशोकादिसूचक चिन्हो को छिपाने वाले, उस राजा दिलीप के कार्य 'सामदामाद्युपाय' फलों से अनुमान किये जाते थे, जैसे कि पूर्वजन्म के संस्कार ॥२०॥

जुगोपात्मानमत्रस्तः भेजे धर्ममनातुरः ।

अगृध्नुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत् ॥२१॥

उस (राजा दिलीप ) ने बिना डरे हुये अपने शरीर की रक्षा की, बिना रोगी होते हुये धर्म का सेवन किया, बिना लोभी होते हुये धन का ग्रहण किया और बिना आसक्त होते हुये मुख का अनुभव किया ॥ २१॥

ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः ।

गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ॥२२॥

दूसरे के वृत्तान्त को जानते हुये भी उस विषय में चुप रहना, सामर्थ्य रहने पर भी अपकार सहन करना, दान करने पर भी अपनी बड़ाई न करना, इस प्रकार से उस राजा दिलीप के ज्ञानादि गुणविरुद्ध मौनादि गुणों के साथ रहने से सहोदर के समान हुये ॥२२॥

अनाकृष्टस्य विषयैर्विद्यानां पारदृश्वनः ।

तस्य धर्मरतेरासीद्वृद्धत्वं जरसा विना ॥२३॥

विषयादिकों से नहीं खींचे जाते हुये (विषयों के वश में न होते हुये), विधानों के पार देखनेवाले (अन्त करनेवाले) धर्म में रुचि रखनेवाले उस राजा दिलीप को वृद्धावस्था (आये ) बिना उक्त विशेषणों से वृद्धता प्रगट हुई ॥२३॥

प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि ।

स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ॥२४॥

नम्रता आदि की शिक्षा देने से, आपत्तियों से बचाने से और अन्नादिकों के द्वारा पोषण करने से, वे दिलीप ही प्रजाओं के पिता हुये और उन प्रजाओं के पिता तो केवल जन्म देने में ही कारण हुये ॥ २४ ॥

स्थित्यै दण्डयतो दण्ड्यान्परिणेतुः प्रसूतये ।

अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिणः ॥२५॥

'लोक मर्यादा की स्थिति के लिये अपराधियों को दण्ड देनेवाले, सन्तान के लिये विवाह करने वाले 'अतएव' बुद्धिमान् उस राजा दिलीप के अर्थ और काम भी धर्म ही हुये ॥२५॥

दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् ।

सम्पद्विनियमेनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम् ॥ २६॥

उस (राजा दिलीप) ने यश करने के लिये पृथ्वी को 'षष्ठांशरूप कर ग्रहण द्वारा दुहा और इन्द्र ने धान्य की वृद्धि करने के लिये स्वर्ग को वृष्टि द्वारा दुहा 'इस प्रकार से दोनों इन्द्र और दिलीप' परस्पर 'धन और वृष्टि रूप' अपनी २ सम्पत्ति के बदलने से दोनों ने 'स्वर्ग और मर्त्य' लोक की रक्षा की ।। २६ ।।

न किलानुनयुस्तस्य राजानो रक्षितुर्यशः ।

व्यावृत्ता यत्परस्वेभ्यः श्रुतौ तस्करता स्थिता ॥२७॥

अन्य राजा लोग 'भय से' रक्षा करने वाले उस राजा दिलीप के यश का अनुकरण नहीं कर सके, क्योंकि उसके राज्य में 'चोरी यह शब्द' अपने विषयभूत दूसरे के द्रव्य से पृथक होती हुई केवल श्रवणगोचर हुई अथवा चोरी अर्थवाचक चोरी शब्द के ही चुराने में प्रवृत्त हुई।॥ २७॥

द्वेष्योऽपि सम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम् ।

त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदङ्गुलीवोरगक्षता ॥२८॥

जिस प्रकार रोगी को कड़वी 'हितकर' औषधि भी प्यारी होती है, उसी प्रकार उस राजा दिलीप का द्वेष करने के योग्य बैरी' होता हुआ भी सज्जन प्यारा होता था और प्यारा होता हुआ भी दुर्जन सांप से काटी हुई अंगुली की भाँति छोड़ देने के योग्य होता था ॥ २८॥

तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना ।

तथा हि सर्वे तस्यासन्परार्थैकफला गुणाः ॥२९॥

ब्रह्मा जी ने उस राजा दिलीप को महाभूतों ( पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश) के कारण की सामग्री से बनाया था, निश्चय करके उस राजा दिलीप के समी'शौर्यादि' गुण 'पञ्च महाभूतों के रूपरसादि गुणों के तुल्य' पराये प्रयोजन वाले ही थे ॥ २९॥

स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् ।

अनन्यशासनामुर्वीं शशासैकपुरीमिव ॥३०॥

उस राजा दिलीप ने समुद्र का किनारा है कङ्कण के तरह चाहारदीवारी जिसकी और समुद्र है खान जिसकी, ऐसी अन्य किसी राजा से शासन नहीं की जाती हुई पृथ्वी को एक नगरी की भाति शासन किया ॥३०॥

तस्य दाक्षिण्यरूढेन नाम्ना मगधवंशजा ।

पत्नी सुदक्षिणेत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा ॥३१॥

उस राजा दिलीप की मगधवंश में उत्पन्न हुई दूसरे के मनोऽनुकूल चलने के कारण यज्ञ का पत्नी दक्षिणा के तरह सुदक्षिणा इस नाम से प्रसिद्ध पटरानी थी ॥ ३१ ॥

कलत्रवन्तमात्मानमवरोधे महत्यपि ।

तया मेने मनस्विन्या लक्ष्म्या च वसुधाधिपः ॥३२॥

उस राजा दिलीप का रनिवास बहुत बड़ा होने पर भी (बहुत सी रानियां होने पर भी) दृढचित्त सुदक्षिणा और लक्ष्मी से ही वह अपने की स्त्री वाला समझता था । ३२ ।।

तस्यामात्मानुरूपायामात्मजन्मसमुत्सुकः ।

विलम्बितफलैः कालं स निनाय मनोरथैः ॥ ३३॥

उस 'राजा दिलीप' ने अपने मन के अनुरूप उस 'सुदक्षिणा' में पुत्र के जन्म के 'विषय में उत्सुक होते हुये, विलम्ब है जिस के फल में ऐसे 'कब मेरा पुत्र होगा' इस आकांक्षा से समय बिताया ॥ ३३ ॥

सन्तानार्थाय विधये स्वभुजादवतारिता ।

तेन धूर्जगतो गुर्वी सचिवेषु निचिक्षिपे ॥३४॥

सन्तान प्राप्ति के लिये अनुष्ठान करने के निमित्त अपने बाहु से उतारे हुये जगत के बड़े भारी(प्रजापालनरूप कार्य) भार को मन्त्रियों के ऊपर रख दिया । ३४ ।।

अथाभ्यर्च विधातारं प्रयतौ पुत्रकामया ।

तौ दम्पती वसिष्ठस्य गुरोर्जग्मतुराश्रमम् ॥३५॥

मन्त्रियों के ऊपर राज्यभार सौंपने के अनन्तर पुत्र की कामना से पवित्र हो, वे दोनों स्त्री पुरुष सुदक्षिणा और दिलीप ब्रह्मा की पूजा कर गुरु वसिष्ठ के आश्रम को गये॥३५॥

स्निग्धगम्भीरनिर्घोषमेकं स्यन्दनमाश्रितौ ।

प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताविव ॥३६॥

मधुर और गाम्भीर शब्द करने वाले एक ही रथ पर वर्षाकाल के मेघ के ऊपर चढ़े हुये विजली और ऐरावत हाथी की भाति वे दोनों सुदक्षिणा और दिलीप चले ॥३६॥

मा भूदाश्रमपीडेति परिमेयपुरस्सरौ ।

अनुभावविशेषात्तु सेनापरिवृताविव ॥३७॥

गुरु वसिष्ठ के आश्रम को पीडा न हो, इस कारण से थोड़े 'इने गिने नौकरों (राजा के आगे २ चलने वालों) से युक्त होते हुये भी प्रभाव की अधिकता के कारण से सेना से घिरे हुये की भांति 'दिखलाई पड़ते हुये' वे दोनों सुदक्षिणा और दिलीप चले जाते थे।॥ ३७॥

सेव्यमानौ सुखस्पर्शैः शालनिर्यासगन्धिभिः ।

पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूतवनराजिभिः ॥३८॥

सुखकर स्पर्श वाली, शाल वृक्षों से निकले हुये, गन्ध से युक्त, पुष्पों के परागों को उड़ानेवाली, वायु का 'सुदक्षिणा और दिलीप' सेवन करते हुये जाने लगे ॥ ३८ ॥

मनोभिरामाः शृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखैः ।

षड्जसंवादिनीः केका द्विधा भिन्नाः शिखण्डिभिः ॥ ३९॥

रथ के चक्रप्रान्त के शब्द को सुन कर ऊपर मुख किये हुये मयूरों द्वारा दो प्रकार की हुई षडज स्वर का अनुसरण करने वाली तथा मन को प्रसन्न करने वाली वाणी को सुनते हुये वे दोनों चले ।। ३९ ॥

परस्पराक्षिसादृश्यमदूरोज्झितवर्त्मसु ।

मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दनाबद्धदृष्टिषु ॥ ४०॥

समीप में रथ के मार्ग को छोड़े हुये, रथ की ओर दृष्टि लगाये हुये, मृग के जोड़ों में परस्पर (एक दूसरों के) आंखों की समानता को देखते हुये (वे दोनों चले)॥ ४० ॥

श्रेणीबन्धाद्वितन्वद्भिरस्तम्भां तोरणस्रजम् ।

सारसैः कलनिर्ह्रादैः क्वचिदुन्नमिताननौ ॥४१॥

पंक्ति बांधने से (पंक्ति बांध कर चलने से) विना खम्भे के बन्दनवार (की तरह शोभा) को करते हुये, अस्पष्ट मधुर शब्द वाले सारस पक्षियों के कारण कभी कभी ऊपर की ओर मुख किये हुये (वे दोनों चले) ॥४१॥

पवनस्यानुकूलत्वात्प्रार्थनासिद्धिशंसिनः ।

रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालकवेष्टनौ ॥ ४२॥

मनोरथ की सिद्धि को सूचित करने वाली वायु की अनुकूलता ( सम्मुख दिशा के तरफ बहने) के कारण से, घोड़ों के खुरों से उठी हुई धूलि से "सुदक्षिणा" के धुंधुराले बाल और "दिलीप" के सिरपेंच नहीं छुए गये "ऐसे वे दोनों चले" ॥ ४२ ॥

सरसीष्वरविन्दानां वीचिविक्षोभशीतलम् ।

आमोदमुपजिघ्रन्तौ स्वनिःश्वासानुकारिणम् ॥४३॥

तालाबों में लहरों के झकोरों से शीतल, अतएव अपने निःश्वास "मुख की वायु" का नकल करने वाले, कमलों के मनोहर सुगन्ध को सुंघते हुये वे दोनों चले ॥ ४३॥

ग्रामेष्वात्मविसृष्टेषु यूपचिह्नेषु यज्वनाम् ।

अमोघाः प्रतिगृह्णन्तावर्घ्यानुपदमाशिषः ॥४४॥

स्वयं ''दान में" दिये हुये यश के स्तम्भों से चिंहित ग्रामों में विधिपूर्वक यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के अव्यर्थ "कभी निष्फल न जाने वाले" आशीर्वादों को अर्ध्य स्वीकार करने के अनन्तर ग्रहण करते हुए वे दोनों चले" ॥ ४४ ॥

हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।

नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥४५॥

गाय के ताजा दूध का मक्खन लेकर उपस्थित हुये घोष (अहिरों के ग्राम) में ( रहने वाले ) वृद्धों से जङ्गली रास्ते के वृक्षों के नामों को पूछते हुये "वे दोनों चले" ।। ४५॥

काप्यभिख्या तयोरासीद्व्रजतोः शुद्धवेषयोः ।

हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्राचन्द्रमसोरिव ॥४६॥

जाते हुये उज्ज्वल वेष वाले उन दोनों (सुदक्षिणा और दिलीप ) का तुषार से निर्मुक्त हुये चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा के समान योग होने पर अनिर्वचनीय शोभा हुई ॥ ४६ ॥

तत्तद्भूमिपतिः पत्न्यै दर्शयन्प्रियदर्शनः ।

अपि लङ्घितमध्वानं बुबुधे न बुधोपमः ॥४७॥

देखने में सुन्दर, "अतएव" चन्द्रपुत्र बुध के समान, राजा "दिलीप" अद्भुत वस्तुओं को रानी "सुदक्षिणा" को दिखलाते हुये, लांघे हुये ( पीछे छोड़े हुये ) मार्ग को भी न जान सके ॥ ४७ ॥

स दुष्प्रापयशाः प्रापदाश्रमं श्रान्तवाहनः ।

सायं संयमिनस्तस्य महर्षेर्महिषीसखः ॥४८॥

"दूसरों के" दुर्लभ यश वाले, थके हुये हैं वाहन जिसके, ऐसे पटरानी सुदक्षिणा के सहित वे राजा दिलीप, सायङ्काल के समय संयम रखने वाले उन पूर्वोक्त कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में पहुंचे ॥ ४८ ॥

वनान्तरादुपावृत्तैः समित्कुशफलाहरैः ।

पूर्यमाणमदृश्याग्निप्रत्युद्यात्यैस्तपस्विभिः ॥४९॥

दूसरे जङ्गल से लौटे हुये, समिधा, कुश, और फल के लाने वाले, दूसरों से नहीं दिखाई पड़ते हुये अग्नि के द्वारा अगुवानी किये गये तपस्वियों से भरे हुये "आश्रम में पहुंचे ॥४९॥

आकीर्णमृषिपत्नीनामुटजद्वाररोधिभिः ।

अपत्यैरिव नीवारभागधेयोचितैर्मृगैः ॥५०॥

तृणधान्य के भाग को पाने वाले, "तथा" पर्णशाला "कुटी" के द्वार को रोकने वाले, ऋषि पत्नियों के सन्तानों की तरह मृगों से भरे हुये, “आश्रम में पहुंचे" ।। ५०॥

सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् ।

विश्वासाय विहङ्गानामालवालाम्बुपायिनम् ॥५१॥

वृक्षों को क्यारियों का जल पीने का स्वभाव है जिनका, ऐसे पक्षियों के विश्वास के लिये (अर्थात्-कोई भय नहीं है ऐसा विश्वास दिलाने के लिये) मुनिकन्याओं के द्वारा सोचे जाने के उपरान्त तत्काल ही छोड़े गये हैं छोटे वृक्ष जिसमें "ऐसे आश्रम में पहुँचे" ॥५१॥

आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु निषादिभिः ।

मृगैर्वर्तितरोमन्थमुटजाङ्गनभूमिषु ॥५२॥

घाम के न रहने पर इकट्ठे किये गये हैं नीवार नामक धान्य जिसमें, ऐसी पर्णशाला के आंगन की भूमि में बैठने वाले, हरिण जहाँ पांगुर कर रहे हैं ऐसे आश्रम में पहुंचे ॥५२॥

अभ्युत्थिताग्निपिशुनैरतिथीनाश्रमोन्मुखान् ।

पुनानं पवनोद्धूतैर्धूमैराहुतिगन्धिभिः ॥५३॥

प्रज्वलित अग्नि को सूचित करने वाली "तथा" वायु से फैले हुये, आहुति के गन्ध से मिले हुये धूयें से आश्रम की ओर आने के लिये उन्मुख अतिथियों को पवित्र करने वाले "आश्रम में पहुंचे" ॥५३॥

अथ यन्तारमादिश्य धुर्यान्विश्रामयेति सः ।

तामवारोहयत्पत्नीं रथादवततार च ॥५४॥

उसके बाद वह राजा दिलीप" सारथि को "घोड़ों को विश्राम कराओ" यह आज्ञा देकर उस "अपनी" स्त्री "सुदक्षिणा" को रथ से उतारे और स्वयं भी उतरे ॥५४॥

तस्मै सभ्याः सभार्याय गोप्त्रे गुप्ततमेन्द्रियाः ।

अर्हणामर्हते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे ॥५५॥

सभ्य जितेन्द्रिय मुनियों ने, रानी के सहित, रक्षा करने वाले, नीतिशास्त्र रूपी नेत्र वाले "अत एव" पूज्य उन राजा दिलीप की पूजा की॥५५॥

विधेः सायन्तनस्यान्ते स ददर्श तपोनिधिम् ।

अन्वासितमरुन्धत्या स्वाहयेव हविर्भुजम् ॥५६॥

उस "राजा दिलीप" ने सायङ्कालीन अनुष्ठान के समाप्त होने पर अरुन्धती से सेवित तपोनिधि वशिष्ठ" को स्वाहा देवी से सेवित अग्नि की भांति देखा ॥ ५६ ॥

तयोर्जगृहतुः पादान्राजा राज्ञी च मागधी ।

तौ गुरुर्गुरुपत्नी च प्रीत्या प्रतिननन्दतुः ॥ ५७॥

मगध देश के राजा की लड़की रानी "सुदक्षिणा" और राजा "दिलीप" ने उन दोनों "अरुन्धती और वशिष्ठ" के चरणों को पकड़ा "प्रणाम किया" तथा गुरु "वशिष्ठ" और गुरुपत्नी "अरुन्धती" ने प्रेम से उन दोनों "सुदक्षिणा और दिलीप" को आशीर्वाद दिया।

तमातिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमम् ।

पप्रच्छ कुशलं राज्ये राज्याश्रममुनिं मुनिः ॥५८॥

मुनि वशिष्ठ" ने अतिथि सत्कार के द्वारा रथ के हिलने से उत्पन्न हुई, थकावट जिसकी दूर हो गयी है, ऐसे राज्यरूपी आश्रम के विषय में मुनि तुल्य उन राजा दिलीप" से राज्य "स्वामी-मन्त्री-नगर-देश-खजाना-दण्ड-मित्र-" विषयक कुशल पूछा ॥ ५॥

अथाथर्वनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरः ।

अर्थ्यामर्थपतिर्वाचमाददे वदतां वरः ॥५९॥

"गुरु वशिष्ठ के कुशल प्रश्न पूछ चुकने के बाद, वैरियों के नगरों को जीतने वाले, बोलने वालों में श्रेष्ठ, विभव के पति राजा दिलीप" ने, अथर्ववेद के खजाना "अथर्ववेद के विद्वान्" उन "वशिष्ठ ऋषि" के आगे प्रयोजन से युक्त बात छेड़ी ॥ ५९॥

उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वङ्गेषु यस्य मे ।

दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्ता त्वमापदाम् ॥६०॥                                           

"गुरो" मेरे राज्य के" सात अंगो "स्वामी, मन्त्री, मित्र, खजाना, (पुर) राष्ट्र,किला, सेना,” में कुशल क्यों न हो क्योंकि जिसके देवी, "अग्नि, बल, रोग, दुर्भिक्ष, मरण, इन पांच" और मानुषी "ठग, चोर, शत्रु, राजा का कृपापात्र, राजा का लोभ इन पांच" आपत्तियों के नाश करने वाले आप "स्वयं विद्यमान" हैं॥६०॥

तव मन्त्रकृतो मन्त्रैर्दूरात्प्रशमितारिभिः ।

प्रत्यादिश्यन्त इव मे दृष्टलक्ष्यभिदः शराः ॥६१॥

मन्त्र के प्रयोग करनेवाले आप के जो दूर ही से (परोक्ष ही में ) वैरियों के नाश करनेवाले मन्त्र हैं, वे प्रत्यक्ष ही में वेधने वाले मेरे बाणों को व्यर्थ से करते हैं ॥६१॥

हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु ।

वृष्टिर्भवति सस्यानामवग्रहविशोषिणाम् ॥ ६२॥

हे हवन करने वाले ! गुरो!" आपसे विधिपूर्वक अग्नि में दी हुई आहुति अकाल से सूखते हुये धानों "वृक्षादिकों के फलों" के सम्बन्ध में वृष्टिरूप होती है । ॥६२॥

पुरुषायुष्यजीविन्यो निरातङ्का निरीतयः ।

यन्मदीयाः प्रजास्तस्य हेतुस्त्वद्ब्रह्मवर्चसम् ॥६३॥

जो मेरी प्रजाये, पुरुष की आयु "सौ वर्ष" तक पीने वाली, निर्भय और ईति "अतिवर्षा, सूखा, चूहा, टीडो, सुआ, पक्षी" राजाओं की चढाई से बची हुई है" । सो इन सबों का कारण आपका ब्रह्मतेज "सदाचार वेद वेदाध्ययन से उत्पन्न पुण्य" ही है॥६३॥

त्वयैवं चिन्त्यमानस्य गुरुणा ब्रह्मयोनिना ।

सानुबन्धाः कथं न स्युः संपदो मे निरापदः ॥६४॥

"जब" ब्रह्मपुत्र आप "मेरे" गुरु है और "सर्वदा" उक्त प्रकार से "मेरे कल्याण की" चिन्ता किया करते हैं । तो फिर" आपत्ति से रहित मेरी सम्पत्ति निरन्तर" अविच्छिन्न "स्थिर" क्यों न रहे ।। ६४ ॥

किन्तु वध्वां तवैतस्यामदृष्टसदृशप्रजम् ।

न मामवति सद्वीपा रत्नसूरपि मेदिनी ॥६५॥

परन्तु आपकी इस शिष्य वधू में "अपने" सदृश सन्तान होती हुई न देखने वाले मुझको द्वीपों के सहित रत्नों को पैदा करने वाली पृथ्वी भी नहीं भाती ॥६५॥

नूनं मत्तः परं वंश्याः पिण्डविच्छेददर्शिनः ।

न प्रकामभुजः श्राद्धे स्वधासंग्रहतत्पराः ॥६६॥

मेरे बाद पिण्ड का लोप देखने वाले, स्वधा इकट्ठी करने में लगे हुये, मेरे पूर्वज भाव में इच्छापूर्वक भोजन करने के लिये निश्चय उत्साह नहीं कर रहे हैं ॥६६॥

मत्परं दुर्लभं मत्वा नूनमावर्जितं मया ।

पयः पूर्वैः स्वनिःश्वासैः कवोष्णमुपभुज्यते ॥६७॥

मेरे बाद "जल को" दुर्लभ समझ कर "इस समय मुझसे दिये जल को "मेरे" पूर्वज "पितृगण" अपने दुःखजन्य" निःश्वासों से थोड़ा गरम जैसे हो वैसे" पीते हैं। "ऐसा मैं" अनुमान करता हूं" ॥६७॥

सोऽहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलितः ।

प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोक इवाचलः ॥६८॥

यज्ञ करने के कारण से शुद्ध चित्तवाला तथा-पुत्रके न दिखाई पड़ेने (न होने ) से आँख मूंदे हुऐ अन्धा" जैसा मैं दिलीप" लोकालोक पर्वत की भांति प्रकाशवान् दीप्तिमान्" और अप्रकाशवान् मलिन" हो रहा हूं ॥६८॥

लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् ।

संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे ॥ ६९॥

तप और दान है कारण जिसका ऐसा जो पुण्य, वह परलोक में सुख देने वाला होता है। परन्तु पवित्र वंश मे उत्पन्न हुई सन्तति इस लोक और परलोक दोनों ही में सुख के लिये होती है ॥६९॥

तया हीनं विधातर्मां कथं पश्यन्न दूयसे ।

सिक्तं स्वयमिव स्नेहाद्वन्ध्यमाश्रमवृक्षकम् ॥७०॥

हे विधाता ! सन्तान से हीन मुझे स्नेह से स्वयं सींचे हुये फल से रहित आश्रम के छोटे वृक्ष की भांति देखते हुये किस कारण से आप दुःखी नहीं होते हो ॥ ७० ॥

असह्यपीडं भगवनृणमन्त्यमवेहि मे ।

अरुन्तुदमिवालानमनिर्वाणस्य दन्तिनः ॥७१॥

हे भगवन् ! मेरे अन्तिम "पैतृक" ऋण को बिना स्नान किये हुये हाथी के मर्म को दुःख देने वाले बांधने के खम्भे की तरह असह्य पीडा "पहुचाने" वाला "आप" समझे॥७१॥

तस्मान्मुच्ये यथा तात संविधातुं तथार्हसि ।

इक्ष्वाकूणां दुरापेऽर्थे त्वदधीना हि सिद्धयः ॥७२॥

हे तात ! उस पैतृक ऋण" से जिस प्रकार से मैं छुटकारा पाऊँ उस प्रकार से उसे" करने के लिये आप योग्य हो । क्योंकि इक्ष्वाकु कुल के राजाओं के कठिन कार्य के विषय में सिद्धियां आप के अधीन हैं ।। ७२ ॥

इति विज्ञापितो राज्ञा ध्यानस्तिमितलोचनः ।

क्षणमात्रमृषिस्तस्थौ सुप्तमीन इव ह्रदः ॥७३॥

इस प्रकार से राजा "दिलीप" से निवेदन किये गये वसिष्ठ" ऋषि ध्यान से दोनों आँखें मूंदे हुए क्षण मात्र, सोई मछलियां हैं जिसमें ऐसे अगाध जलाशय की भांति स्थिर रहे ॥ ७३ ॥

सोऽपश्यत्प्रणिधानेन सन्ततेः स्तम्भकारणम् ।

भावितात्मा भुवो भर्तुरथैनं प्रत्यबोधयत् ॥ ७४॥

चित्त की एकाग्रता द्वारा शुद्ध अन्तःकरण वाले उन "वसिष्ठ ऋषि" ने, पृथ्वी के पालन करने वाले राजा दिलीप" को सन्तति के प्रतिबन्ध न होने" के कारण को देखा, उसके बाद इन राजा दिलीप" को भी बतलाया ॥ ७४ ॥

पुरा शक्रमुपस्थाय तवोर्वीं प्रति यास्यतः ।

आसीत्कल्पतरुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि ॥७५॥

पहले "किसी समय में" इन्द्र का दरबार करके पृथ्वी की ओर लौटते हुए तुम्हारे मार्ग में कल्पवृक्ष की छाया का सेवन करती हुई कामधेनु थी।७५॥

धर्मलोपभयाद्राज्ञीमृतुस्नातामनुस्मरन् ।

प्रदक्षिणक्रियार्हायां तस्यां त्वं साधु नाचरः ॥७६॥

ऋतुकाल ( रजोदर्शन ) निमित्तक स्नान की हुई, इस रानी सुदक्षिणा को धर्म के लोप के भय से स्मरण करते हुये तुमने प्रदक्षिण क्रिया के योग्य उस कामधेनु के विषय में उचित प्रदक्षिणादि सत्कार" नहीं किया ।। ७६ ॥

अवजानासि मां यस्मादतस्ते नाभविष्यति ।

मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा ॥७७॥

तूने मेरा अनादर किया इस कारण से मेरी सन्तति की आराधना किये बिना तुझे सन्तान नही होगी ऐसा उस 'कामधेनु' ने तुम्हें शाप दिया ॥ ७७ ॥

स शापो न त्वया राजन्न च सारथिना श्रुतः ।

नदत्याकाशगङ्गायाः स्रोतस्युद्दामदिग्गजे ॥७८॥

हे राजन् ! उस शाप को तुमने और सारथि ने भी नहीं सुना। क्योंकि "स्नान करने के लिये आये हुये अतः एव" बन्धन से छूटे हुये ऐरावत आदि" दिग्गजों का आकाशगंगा (मन्दकिनी) के प्रवाह में अव्यक्त शब्द हो रहा था ॥

ईप्सितं तदवज्ञानाद्विद्धि सार्गलमात्मनः ।

प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ॥७९॥

उस कामधेनु का अनादर करने से अपने सन्तानरूप" मनोरथ को तुम रुका हुआ समझो । क्योंकि पूज्यों की पूजा का उल्लङ्घन करना कल्याण को रोकता है॥ ७९ ॥

हविषे दीर्घसत्रस्य सा चेदानीं प्रचेतसः ।

भुजङ्गपिहितद्वारं पातालमधितिष्ठति ॥८०॥

और वह कामधेनु इस समय बहुत समय में पूर्ण होने वाले यज्ञ के कर्ता वरुण के हवि दधि घृत आदि" के लिये सांपों से रुके हुए द्वार वाले पाताल लोक में रहती है ॥८०॥

सुतां तदीयां सुरभेः कृत्वा प्रतिनिधिं शुचिः ।

आराधय सपत्नीकः प्रीता कामदुघा हि सा ॥८१॥

उस कामधेनु की कन्या को उसी के "स्थान पर" प्रतिनिधि करके तुम शुद्ध मन होकर रानी के सहित उसकी सेवा करो, क्योंकि वह नन्दिनी" प्रसन्न होती हुई मनोरथ को पूरा करने वाली होती है ॥८१॥

इति वादिन एवास्य होतुराहुतिसाधनम् ।

अनिन्द्या नंदिनी नाम धेनुराववृते वनात् ॥८२॥

इस प्रकार से कहते हुए ही उन वशिष्ठ महर्षि की आहुति का साधन नन्दिनी" नाम से प्रसिद्ध "नई व्याई हुई" धेनु वन से लौटकर आई ॥८२॥

ललाटोदयमाभुग्नं पल्लवस्निग्धपाटला ।

बिभ्रती श्वेतरोमाङ्कं सन्ध्येव शशिनं नवम् ॥८३॥

पल्लव के तरह चिक्कण श्वेत युक्त लाल रङ्ग वाली, ललाट में उत्पन्न हुये, कुछ टेढ़े, सफेद रोयें रूपी चिन्ह को धारण करती हुई, अत एव द्वितीया के चन्द्रमा को धारण करती हुई सन्ध्या के समान, वह नन्दिनी (वन से लौट कर आई)॥८३॥

भुवं कोष्णेन कुण्डोध्नी मेध्येनावभृथादपि ।

प्रस्रवेणाभिवर्षन्ती वत्सालोकप्रवर्तिना ॥८४॥

कुछ गरम, यज्ञ के अन्त में इष्टिपूर्वक स्नानार्थ जल से भी पवित्र, बछडे के देखने से बहते हुये दूध के टपकने से पृथिवी को सींचती हुई, अत एव-बटुलोई को भांति मोट स्तनों वाली 'नन्दिनी वन से लौटी' ॥ ८४ ॥

रजःकणैः खुरोद्धूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात् ।

तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः ॥८५॥

खुरों से उठी हुई, अत एव समीप होने के कारण से शरीर को स्पर्श करती हुई, धूलि के कणों से राजा दिलीप की, ऋषियों से सेवित तीर्थ सम्बन्धी जल में स्नान करने से उत्पन्न शुद्धि को करती हुई नन्दिनी वन से लौटो ॥८५॥

तां पुण्यदर्शनां दृष्ट्वा निमित्तज्ञस्तपोनिधिः ।

याज्यमाशंसितावन्ध्यप्रार्थनं पुनरब्रवीत् ॥८६॥

शकुन शास्त्र के जानने वाले, तपोनिधि वशिष्ठजी" पवित्र (सुन्दर) दर्शनवाली, "उस नन्दिनी" को देखकर पुत्रप्राप्तिरूपमनोरथ के विषय में सफल है प्रार्थना जिसकी, ऐसे, यज्ञ कराने के योग्य (यजमान) राजा दिलीप" से फिर बोले ॥ ८६ ॥

अदूरवर्तिनीं सिद्धिं राजन् विगणयात्मनः ।

उपस्थितेयं कल्याणी नाम्नि कीर्तित एव यत् ॥८७॥

हे महाराज ! आप अपने पुत्रप्राप्ति रूप कार्य की सिद्धि को निकट आई हुई समझे। क्योंकि यह (सामने आती हुई) कल्याणमूर्ति नन्दिनी नाम लेते ही उपस्थित हुई ॥८७॥

वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन गाम् ।

विद्यामभ्यसनेनेव प्रसादयितुमर्हसि ॥ ८८॥

तुम वन में उत्पन्न हुये कन्दमूलादि खाकर निरन्तर इस गाय के पीछे २ चल कर के जैसे निरन्तर अभ्यास से विद्या प्रसन्न की जाती है। उसी तरह से इसे प्रसन्न करने लिये योग्य हो॥८८॥

प्रस्थितायां प्रतिष्ठेथाः स्थितायां स्थितिमाचरेः ।

निषण्णायां निषीदास्यां पीताम्भसि पिबेरपः ॥ ८९॥

हे राजन् ! इस (नन्दिनी) के चलने पर तुम (इसके पीछे २) चलो, ठहरने पर ठहरो, बैठने पर बैठो और पानी पीने पर पानी पीओ ॥ ८९॥

वधूर्भक्तिमती चैनामर्चितामा तपोवनात् ।

प्रयता प्रातरन्वेतु सायं प्रत्युद्व्रजेदपि ॥ ९०॥

वधू 'सुदक्षिणा' भक्ति 'श्रद्धा' से युक्त पवित्र मन होकर 'गन्धादिकों से' पूजित इस 'नन्दिनी' के पीछे २ प्रातःकाल तपोवन की सीमा तक 'वन में पहुँचाने के लिये' जाए और सांयकाल को भी 'तपोवन की सीमा पर जाकर इसका स्वागत करे॥९० ॥

इत्याप्रसादादस्यास्त्वं परिचर्यापरो भव ।

अविघ्नमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम् ॥९१॥

इस प्रकार जब तक यह नन्दिनी प्रसन्न न होये, तब तक तुम इसकी सेवा करने में तत्पर रहो, तुम्हारे विघ्नों का अभाव रहे (अर्थात तुम्हें विघ्नों का सामना न करना पड़े), पिता के समान तुम भी अच्छे पुत्रवालों में मुख्य हो (अर्थात तुम्हें अपने समान पुत्र प्राप्त हो)॥९१॥

तथेति प्रतिजग्राह प्रीतिमान्सपरिग्रहः ।

आदेशं देशकालज्ञः शिष्यः शासितुरानतः ॥ ९२॥

देश और काल को जाननेवाले अत एव प्रसन्न शिष्य राजा दिलीप ने पत्नी 'सुदक्षिणा' के सहित विनय से नम्र होते हुये' उपदेश करने वाले गुरु की आज्ञा को वैसा ही हो' यह कह कर स्वीकार किया ।। ९२ ॥

अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम् ।

सूनुः सूनृतवाक्स्रष्टुर्विससर्जोर्जितश्रियम् ॥९३॥

उसके (गुरु वशिष्ठ की आज्ञा ग्रहण करने के) बाद रात्रि के प्रथम प्रहर होने पर (प्रत्येक विषय के ) दोषों को जानने वाले (सर्वश) तथा सत्य और प्रियभाषी ब्रह्मा के (मानस ) पुत्र ( वशिष्ठ ऋषि) ने राजा दिलीप को सोने के लिये आज्ञा दी॥ ९३ ॥

सत्यामपि तपःसिद्धौ नियमापेक्षया मुनिः ।

कल्पवित्कल्पयामास वन्यामेवास्य संविधाम् ॥९४॥

व्रत के प्रयोग को जानने वाले मुनि वशिष्ठजी' ने तप की सिद्धि 'राजाओं के उपभोग योग्य सामग्री सम्पादन करने की सामर्थ्य' रहते हुये भी 'नन्दिनी की सेवारूप'व्रत का विचार कर इन 'राजा दिलीप' के लिये वन में उत्पन्न हुए 'वनवासियों के उपभोग करने के योग्य' सामग्री का प्रबन्ध किया ॥ ९४ ॥

निर्दिष्टां कुलपतिना स पर्णशाला

मध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयः ।

तच्छिष्याध्यननिवेदितावसानांसंविष्टः

कुशशयने निशां निनाय ॥ ९५॥

उन राजा दिलीप ने कुलपति 'दश सहस्र मुनियों को अन्नादि देकर वेद पढ़ाने वाले ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी' की बताई हुई पर्णकुटी(पत्तो से बनी हुई कुटी) में निवास कर 'वंश आदि से' शुद्ध धर्मपत्नी सुदक्षिणा के साथ कुशों से बनी हुई शय्या पर सोये हुये, वशिष्ठजी के विद्यार्थियों के वेदाध्ययन करने से ज्ञात हो गया है प्रातःकाल का होना जिनका ऐसी रात को बिताया ।। ९५॥

इति श्रीमत्कालिदासकृते रघुवंशे महाकाव्ये संजीविनीव्याख्यायां वसिष्ठाश्रमाभिगमनो नाम प्रथमः सर्गः।

रघुवंशम् प्रथम सर्ग Raghuvansham pratham sarga                                        

रघुवंशमहाकाव्यम् प्रथम: सर्ग:        

रघुवंशं सर्ग १ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् पहला सर्ग

रघुवंशम् प्रथम सर्ग संक्षिप्त कथासार Raghuvansham pratham sarg

तपोवन की यात्रा

रघुवंश के संस्थापक यशस्वी रघु के पिता महाराज दिलीप ने पृथ्वी के सबसे प्रथम सम्राट वैवस्वत मनु के उज्ज्वल वंश में जन्म लिया था । दिलीप बहुत बलवान और तेजस्वी राजा था, मानो साक्षात क्षात्र धर्म का अवतार हो । वह जैसा बलवान था, वैसा ही बुद्धिमान, विद्वान् और कर्मशील था । प्रजा उसे पिता के समान मानती थी । विरोधी और आततायी उसके दंड से डरते थे। समुद्र- रूपी खाई से घिरे हुए पृथ्वी- रूपी किले का वह इस सुगमता से शासन करता था, मानो एक नगरी का शासन कर रहा हो । जैसे यज्ञ की संगिनी दक्षिणा है, उसी प्रकार राजा दिलीप के साथ अटूट सम्बन्ध से बंधी हुई रानी सुदक्षिणा थी, जिसने मगधवंश में जन्म लिया था । राजा को अन्य सब सुख प्राप्त थे, केवल सन्तान का सुख नहीं था । सन्तान की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने का विचार करके राजा ने राज्य की देख-रेख का भार मन्त्रियों के कन्धों पर डाल दिया और महारानी को साथ ले गुरु वसिष्ठ के आश्रम की ओर प्रयाण किया । सुसज्जित रथ में बैठे हुए राजा और रानी ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे घने सावन के बादल में बिजली और बरसाती पवन शोभा पाते हैं । उनकी आश्रम-यात्रा बहुत ही मनोरंजक और मंगलसूचक रही । फूलों के पराग को चारों दिशाओं में बिखेरने वाला, साल के रस से सुगन्धित सुखकारी वायु उनकी सेवा कर रहा था । मोरों की षडज के सदृश स्वरवाली केकाएं उनके कानों को आनन्दित कर रही थीं और हरिणों के जोड़े रास्ते के समीप ही खड़े होकर उनकी ओर निहार रहे थे। उन हरिणों की आंखों में राजा और रानी एक - दूसरे की आंखों की छवि देखकर प्रसन्न हो रहे थे। मार्ग में अहीर- बस्तियों के जो मुखिया लोग, ताजे मक्खन की भेंट लेकर उपस्थित होते थे, उनसे वे दोनों जंगली वनस्पतियों के नाम पूछते थे। इस प्रकार मार्ग के सुन्दर दृश्य देखते हुए महारानी सुदक्षिणा और महाराज दिलीप दिन छिपने के समय महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में पहुंच गए। वसिष्ठ मुनि के आश्रम में उस समय सन्ध्याकाल की चहल -पहल थी । तपस्वी लोग समिधा, कुशा और फल इकट्ठे करके जंगल से लौट रहे थे; ऋषि पत्नियों द्वारा बिखेरे हुए अन्न से खिंची हुई मृगों की टोलियां कुटियों के दरवाजों पर इकट्ठी हो रही थीं, मुनि कन्याएं आश्रम - वृक्षों को सींचकर दूर हट गई थीं; ताकि पक्षी निर्भय होकर थामलों में से पानी पी सकें । होम से उठा हुआ धुआं बाहर से आनेवाले अतिथियों को पवित्र कर रहा था । आश्रम में पहुंचने पर राजा दिलीप ने सारथि को आज्ञा दी कि घोड़ों को आराम दो । वे स्वयं रथ से उतर गए और फिर रानी को उतार लिया । सभ्यता के नियमों से परिचित तपस्वी लोगों ने सपत्नीक राजा का यथोचित आदर - सत्कार किया । जब ऋषि वसिष्ठ सायंकाल के सन्ध्योपासना से निवृत्त हो गए, तब राजा और रानी उनकी सेवा में उपस्थित हुए। ऋषि के समीप उस समय उनकी पत्नी अरुन्धती विराजमान थी, मानो स्वाहा यज्ञ की अग्नि के समीप विराज रही हो । राजा और राजपत्नी ने ऋषियुगल के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया । ऋषियुगल ने उन्हें आशीर्वाद दिया । ऋषि को जब यह सन्तोष हो गया कि अतिथि - पूजा से राज-युगल की थकान उतर गई है, तब उन्होंने राज्य के कुशल-क्षेम के सम्बन्ध में प्रश्न किए। राजा ने उत्तर दिया - हे गुरो, आपके प्रसाद से राज्य में सब कुशल है। आपके मन्त्रबल ने मेरे तीरों को व्यर्थ- सा सिद्ध कर दिया है । आपके यज्ञों में, अग्निकुण्ड में डाला हुआ हवि मेघों से जल बनकर बरस जाता है, जिससे सदा सुभिक्ष बना रहता है । मेरी प्रजा सौ साल तक जीती है और निर्भय होकर रहती है । यह आपके ब्रह्मतेज का ही फल है । यह सब कुछ होते हुए भी, हे गुरुवर, रत्नों को पैदा करने वाली यह द्वीप - सहित भूमि मेरे मन को संतुष्ट नहीं कर सकती, क्योंकि आपकी इस बहू की गोद संतान- रूपी रत्न से शून्य है । भविष्य में कुल की लता को कटता देखकर मेरे पूर्वपुरुष अवश्य ही परम दु: खी होते होंगे, और मेरी अर्पित जलांजलि उनके मुख में जाने से पूर्व ही चिन्ता के निश्वासों से कुछ गर्म हो जाती होगी । जैसे स्नान रहित हाथी को चुभनेवाला खूटा कष्ट देता है, सन्तान न होने से पितृऋण का सन्ताप मुझे उसी प्रकार तपा रहा है । हे तात, जिस विधि से मैं पितृऋण से मुक्त हो सकू, वह कीजिए। इक्ष्वाकुवंश के लोग प्रत्येक कठिनाई की नदी को आपके विधान से ही पार करते रहे हैं । राजा के वचन सुन ऋषि क्षण- भर आंखें मूंदकर ध्यान में मग्न रहे, मानो किसी तालाब में सब मछलियां सो गई हों । ध्यानावस्था में ऋषि ने जो कुछ देखा, वह राजा को बतलाते हुए कहा : हे राजन् ! एक बार देवराज इन्द्र से मिलकर जब तुम स्वर्ग से पृथ्वी की ओर आ रहे थे, सुरभि गौ कल्पतरु की छाया में विश्राम कर रही थी । रानी ऋतुस्नाता है, इस विचार से तुम घर आने की जल्दी में थे, और पूजा के योग्य सुरभि की उपेक्षा करके चले आए। सुरभि ने इस तिरस्कार से रुष्ट होकर तुम्हें शाप दिया कि जब तक तुम मेरी सन्तान की आराधना न करोगे, तब तक तुम्हारे सन्तान न होगी । आकाशगंगा के ठाठे मारते हुए जल -प्रवाह में दिग्गज स्नान कर रहे थे, जिनके शोर के कारण सुरभि का शाप न तुमने सुना और न तुम्हारे सारथि ने । जो पूजा के योग्य हैं, उनका तिरस्कार करने से मनुष्य के सुखों का द्वार बन्द हो जाता है। तुम्हारी इच्छाओं के द्वार की सांकल बन्द होने का भी यही कारण हुआ। सुरभि आजकल प्राचेतस के यज्ञ के निमित्त पाताल में गई है । उसकी पुत्री हमारे इस आश्रम में विद्यमान है। तुम और तुम्हारी पत्नी उसे सेवा से सन्तुष्ट करो, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी । ऋषि के वाक्य अभी समाप्त भी न हुए थे कि वन से लौटती हुई नन्दिनी नाम की सुन्दर- स्वस्थ गौ सामने आ गई । नन्दिनी का रंग नई कोंपल के समान चिकना और लालिमा लिए हुए था । उसके माथे पर सफेद रोएं का टीका ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे सन्ध्याकाल के आकाश पर चन्द्रमा । बछड़े को देखकर स्वयं टपकनेवाले पावन दूध की धार से वह कुण्डोनी पृथ्वी को पवित्र कर रही थी । उसके खुरों से उठने वाले रज के रेणुओं से स्नान करके राजा ने मानो तीर्थस्नान कर लिया । ऋषि ने नन्दिनी के उस समय के दर्शन को मनोरथ-सिद्धि के लिए कल्याणकारी जानकर राजा से कहा : हे राजन्, नाम लेते ही यह कल्याणी सामने आ गई, इससे तुम अपना मनोरथ पूरा हुआ मानो । जैसे विद्या को अभ्यास से प्रसन्न किया जाता है, इसी प्रकार वनवासियों- सा रहन - सहन करके निरन्तर सेवा द्वारा नन्दिनी को प्रसन्न करो। इसके चलने पर चलो, ठहरने पर ठहरो, बैठने पर बैठो और जल पीने पर जल पीयो। बहू को भी चाहिए कि इसकी पूजा करे । वन जाने के समय कुछ कदम तक छोड़ने जाए और वापस आने पर कुछ कदम आगे बढ़कर स्वागत करे। जब तक यह प्रसन्न न हो तब तक हे राजन्, तुम इसकी सेवा करो । तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी और तुम्हारा कुल अविच्छिन्न रहेगा । राजा ने सिर झुकाकर गुरु के आदेश को स्वीकार किया । इस बातचीत में रात हो गई थी । मधुर सत्य बोलनेवाले उस ऋषि ने प्रजाओं के पालक दिलीप को सोने की आज्ञा देते हुए ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि राजा का रहन-सहन वनवासियों के सदृश हो जाए। राजा और रानी, कुलपति द्वारा बतलाए हुए झोंपड़े में कुशों की सेज पर रात- भर सोए । प्रात: काल होने पर आश्रम के छात्रों के वेदपाठ से उनकी नींद खुली ।

इति रघुवंशम् प्रथम सर्ग कालिदासकृतम् Raghuvansham pratham sarg समाप्त ॥

शेष जारी....पढे रघुवंशम् द्वितीय सर्ग                                      

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